(कल महाराष्ट्र पुलिस की छ्पामार कार्रवाई की ज़द में आये लोगों में एक सुधा भारद्वाज भी हैं. पेशे से वकील सुधा भारद्वाज पर लिखी गयी महेंद्र दुबे यह फेसबुक पोस्ट वायरल होती जा रही है.)
कोंकणी ब्राह्मण परिवार की एकलौती संतान – सुधा भारद्वाज – यूनियनिस्ट, एक्टिविस्ट और वकील. इन सब पुछल्ले नामों की बजाय आप इन्हें सिर्फ इंसान ही कह दें तो यकीन करिये आप इंसानियत शब्द को उसके मयार तक पहुँचा देंगे.
मैं 2005 से सुधा को जानता हूँ मगर अत्यंत साधारण लिबास में माथे पर एक बिंदी लगाये मजदूर, किसान और कमजोर वर्ग के लोगों के लिये छत्तीसगढ़ के शहर और गाँव की दौड़ लगाती इस महिला के भीतर की असाधारण प्रतिभा, बेहतरीन एकेडेमिक योग्यता और अकूत ज्ञान से मेरा परिचय इनके साथ लगभग तीन साल तक काम करने के बाद भी न हो सका था. वजह ये कि इनको खुद के विषय में बताना और अपने काम का प्रचार करना कभी पसन्द ही नहीं था.
2008 में मैं कुछ काम से दिल्ली गया हुआ था उसी दौरान मेरे एक दोस्त को सुधा के विषय में एक अंग्रेजी दैनिक में वेस्ट बंगाल के पूर्व वित्तमंत्री का लिखा लेख पढ़ने को मिला. लेख पढ़ने के बाद उसने फोन करके मुझे सुधा की पिछली जिंदगी के बारे में बताया तो मैं सुधा की अत्यंत साधारण और सादगी भरी जिंदगी से उनके इतिहास की तुलना करके दंग रह गया.
मैं ये जान के हैरान रह गया कि मजदूर बस्ती में रहने वाली सुधा 1978 की आईआईटी कानपुर की टॉपर है. जन्म से अमेरिकन सिटीजन थी. और इंगलैंड में उनकी प्राइमरी एजुकेशन हुई है. आप सोच भी नहीं सकते है इस बैक ग्राउंड का कोई शख्स मजदूरों के साथ उनकी बस्ती में रहते हुए बिना दूध की चाय और भात सब्जी पर गुजारा कर रहा है.
सुधा की माँ कृष्णा भारद्वाज जेएनयू में इकोनामिक्स डिपार्टमेंट की डीन हुआ करती थी, बेहतरीन क्लासिकल सिंगर थी और अमर्त्य सेन के समकालीन भी थी. आज भी सुधा की माँ की याद में हर साल जेएनयू में कृष्णा मेमोरियल लेक्चर होता है जिसमे देश के नामचीन स्कालर शरीक होते है. आईआईटी से टॉपर हो कर निकलने के बाद भी सुधा को कैरियर खींच न सका और अपने वामपंथी रुझान के कारण वो 80 के दशक में छत्तीसगढ़ के करिश्माई यूनियन लीडर शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आयी और फिर उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना कार्य क्षेत्र ही बना लिया.
पिछले 35 साल से अधिक समय से छत्तीसगढ़ में मजदूर, किसान और गरीबों की लड़ाई सड़क और कोर्ट में लड़ते लड़ते इन्होंने अपनी माँ के पीएफ का पैसा तक उड़ा दिया. उनकी माँ ने दिल्ली में एक मकान खरीद रखा था जो आजकल उनके नाम पर है मगर बस नाम पर ही है. मकान किराए पर चढ़ाया हुआ है जिसका किराया मजदूर यूनियन के खाते में जमा करने का फरमान उन्होंने किरायेदार को दिया हुआ है.
जिस अमेरिकन सिटीजनशीप को पाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार रहते है बाई बर्थ हासिल उस अमेरिकन सिटीजनशीप को वो बहुत पहले अमेरिकन एम्बेसी में फेंक कर आ चुकी है.
हिंदुस्तान में सामाजिक आंदोलन और सामाजिक न्याय के बड़े से बड़े नाम सुविधा सम्पन्न है और अपने काम से ज्यादा अपनी पहुँच और अपने विस्तार के लिए जाने जाते है मगर जिनके लिए वो काम कर रहे होते है उनकी हालत में सुधार की कीमत पर अपनी लक्जरी छोड़ने को कभी तैयार नहीं दिखते है. इधर सुधा है जो अमेरिकन सिटीजनशीप और आईआईटियन टॉपर होने के गुमान को त्याग कर गुमनामी में गुमनामों की लड़ाई लड़ते अपना जीवन होम कर चुकी है.
बिना फ़ीस की जनवादी वकालत करने वाली और हाई कोर्ट जज बनाये जाने का ऑफर तक विनम्रतापूर्वक ठुकरा चुकी सुधा का शरीर जवाब देना चाहता है. 35-40 साल से दौड़ते उनके घुटने घिस चुके है. उनके मित्र डॉक्टर उन्हें बेड में बाँध देना चाहते है. मगर गरीब, किसान और मजदुर की एक हलकी सी चीख सुनते ही उनके पैरों में चक्के लग जाते है और फिर वो अपने शरीर की सुनती कहाँ हैं?
उनके घोर वामपंथी होने की वजह से उनसे मेरे वैचारिक मतभेद रहते है मगर उनके काम के प्रति समर्पण और जज्बे के आगे मै हमेशा नतमस्तक रहां हूँ. मैं दावे के साथ कहता हूँ कि अगर उन्होंने अपने काम का 10 प्रतिशत भी प्रचार किया होता तो दुनिया का कोई ऐसा पुरुस्कार न होगा जो उन्हें पाकर खुद को सम्मानित महसूस न कर रहा होता. सुधा होना मेरे आपके बस की बात नहीं है.सुधा सिर्फ सुधा ही हो सकती थी और कोई नही.
(महेंद्र दुबे की फेसबुक पोस्ट के संपादित अंश)
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अद्भुत! शेयर किया जाना जरूरी है।
2019 की तैयारी भी तो करनी है। किसी.को तो सूली पे चढना होगा।
दिखाई दे रहा है बहुत साफ साफ हम कहाँ जा रहे हैं किधर की ओर बढ़ रहे हैं
मेरे आसपास मेरे साथ एक नहीं कई गधे मेरे जैसे सीमेंट के मैदान चर रहे हैं।
बस यूँ ही निकल पड़ा ये सब ।