सलीम अनारकली की प्रेमकथा फंतासी शैली में हिंदी ही नहीं, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम में भी फिल्मांकित की गई. मूक युग में भी आर. एस. चौधरी ने ‘अनारकली’ चारू राय तथा प्रफुल्ल रॉय ने ‘ द लब्ज आफ ए मुग़ल प्रिंस’ का सृजन किया था. इसकी पराकाष्ठा ‘मुगल-ए-आजम’ में के. आसिफ के सृजन द्वारा हुई. मुगल-ए-आजम’ का निर्माण दस-बारह साल चला. कई बार कलाकार बदले गये. इसी बीच 1953 में फिल्मस्तान के एस. मुखर्जी ने मौके का फायदा उठाते हुए आनन-फानन में नंदलाल जसवंतलाल के निर्देशन में बीनाराय और प्रदीप कुमार के साथ अनारकली बना डाली. इसकी लागत मुगल-ए-आजम’ की अधिकतम दस प्रतिशत ही आई होगी. पर इसने टिकिट खिड़की पर धूम मचा दी.
मुगल-ए-आजम और अनारकली का मामला भी शोले और जय संतोषी माँ की तरह ही है. इसने मुगल-ए-आजम से कम व्यवसाय नहीं किया. मजा ये भी कि जब 1960 में मुगल-ए-आजम रिलीज हुई, तब ‘अनारकली’ को दोबारा रिलीज किया गया और तब भी इसने अच्छा व्यवसाय किया. हालांकि गुणवत्ता में यह मुगल-ए-आजम’ के सामने कहीं भी नहीं टिकती, पर इसके मधुर संगीत और बीनाराय की शोख अदाओं की गहरी रूमानियत ने बाज़ार लूट लिया. राजेन्द्र कृष्ण, हसरत जयपुरी, अली सरदार जाफरी और शैलेन्द्र के गीतों को सी. रामचन्द्र ने ऐसी जादुई धुनों में पिरोया कि आज तक ‘अनारकली’ के बारह के बारह गीत अपनी मिसाल आप हैं.
‘ये जिंदगी उसी की है जो किसी का हो गया’ तो अंतर्मन की अनुगूंज की तरह है. ‘जमाना से समझा कि हम पी के आए’, ‘जाग दर्दे इश्क जाग’, जिंदगी प्यार की दो-चार घड़ी होती है’. मुझसे पूछ मेरे इश्क में क्या रखा है’, ‘आजा, अब तो आजा मेरी किस्मत के खरीदार’ हर गीत लाजवाब था.
सी. रामचन्द्र ने शताधिक फिल्मों को संगीतबद्ध किया है और उनके सैकड़ों गीतों ने धूम मचाई है लेकिन ‘अनारकली’ में निस्संदेह उनका सर्वश्रेष्ठ सामने आया. पच्चीस साल बाद जब एन.टी. रामाराव ने ‘अकबर सलीम अनारकली’ तेलुगु में बनाई तो उसके लिए भी उन्होंने संगीतकार के रूप में सी. रामचन्द्र को ही चुना. इसके गीत भी बहुत लोगप्रिय हुए और उन पर ‘अनारकली’ के संगीत की स्पष्टता छाया दिखाई दी, सी. रामचन्द्र संगीतकार के साथ गायक भी थे और अभिनेता भी थे.
बीनाराय उस अभूतपूर्व सफलता का दूसरा कारण थी. उनके व्यक्तित्व में जो सख्त-मुलामियता है उसका चरमोत्कर्ष ‘अनारकली’ में प्रत्यक्ष हुआ है. खासतौर से ‘ज़माना ये समझा कि हम पी के आए’ में जो हिचकी लेने की अदा है, सिर्फ उसके लिए देखने वालों ने इसे बारहा देखा था. ‘अनारकली’ और सलीम के अतिरिक्त अकबर की भूमिका में मुबारक, राजा मानसिंह- एस. एल पुरी, बहार- कुलदीप कौर और जोधा बाई की भूमिका में सुलोचना ( रूबी मायर्स ) थीं. सुलोचना ने राय की मूक फिल्म में अनारकली की भूमिका की थी.
एस. मुकर्जी को फार्मूला सिनेमा का आदिगुरू माना जाता है. उनके शिष्य नासिर हुसैन और रमेश सहगल, जो आगे चलकर खुद बड़े फिल्मकार बने, उन्होंने कथा और पटकथा लिखी थी. नासिर के बारे में एक लतीफा है – एक पत्रकार ने उनसे कहा कि आप हर बार एक ही कहानी पर फिल्म क्यों बनाते हैं. नई कहानी क्यों नहीं लेते. हुसैन साहब बोले – जब एक ही कहानी हर बार सुपरहिट होती है तो मैं नई कहानी लेकर खतरा उठाने की बेवकूफी क्यों करूँ?
वसुधा के हिन्दी सिनेमा बीसवीं से इक्कसवीं सदी के आधार पर.
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