“दुनिया की हर शहर की शाम को नोटिस किया जाना चाहिए”
ऊपर लिखे इन ग्यारह शब्दों में कोई फलसफा नहीं है,जो उसे खोजने की मगज़मारी की जाए,पर इतना जरूर है कि दिनभर की मगजमारी से तंग आदमजात को सुकून शाम को ही मिलता है.
दुनिया के एक शहर जिसे पूरी दुनिया अल्मोड़ा के नाम से जानी जाती है की शाम उसके दिन से एकदम अलहदा है. यानी दिन को देखते हुए शाम के टेक्सचर का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. कर्बला से कसार देवी तक के विस्तार में डूबे शहर में शाम ढलते ढलते जिंदगी की रफ्तार में ब्रेक लगना शुरू हो जाता है. एक ताजी ठंडी ठंडी हवा(जिसमें कभी-कभी बादलों के टुकड़े फँसकर,शहर का मुआयना करने में विवेकानंद कॉर्नर के पास के देवदार के दरख्तों में उलझ कर रह जाते हैं) चलने लगती है. खासतौर पर सर्दियों की शाम में पूरा कैंट,कर्बला, विवेकानंद कोर्नर और फिर उस पार कसार देवी,पपरशेली, शैल,गूंठ सब के सब अजनबी सी धुंध में अपने आप को लपेट कर मौन व्रत धारण कर लेते हैं.
कुमाऊनी का एक शब्द है “इकल्कट्ठू”. कई इकल्कट्ठू सड़क के किनारे विवेकानंद पर्वतीय संस्थान और अल्मोड़ा इंटर कॉलेज के बीच उगे देवदार सर्द कोहरे की शामों में खड़े हुए नजर आते हैं.
थोड़ा आगे बढ़ने पर अल्मोड़ा किताब घर के पास से निकलने पर उजाला मिलता है, क्योंकि किताब घर में हाई वोल्टेज के बल्ब जो लगे हैं, पर उससे ठीक पहले खजान चंद्र मेंशन से ओरिएंटल इंश्योरेंस वाली बिल्डिंग के मोड़ पर अंधेरा छाया रहता है, यहीं से एक खामोश रास्ता शिवाय होटल की तरफ कटकर कैंटोनमेंट में खो जाता है.
अल्मोड़ा किताब घर से थोड़ा आगे लच्छीराम थिएटर जिसे बाद में रीगल सिनेमा के नाम से जाना गया कि आगे घुप अंधेरा है,यह अंधेरा उस दौर का गवाह है जब बाजार मनोरंजन की शक्ल अख्तियार करके आहिस्ता-आहिस्ता, मनोरंजन के स्थापित साधनों को निकल गया और बच गए उसके अवशेष.
आगे बढ़े तो बाएं हाथ पर पव्वा टेंट हाउस के सामने खड़ी आलू चाट की ठेलियों पर कुछ लड़के-लड़कियां सपनों की, आकर्षण की, प्रगति की, उड़ान की मिली जुली तस्वीर जिसे आजकल “प्रेम” कहा जाता है को फ्रेम में लेने की कोशिश में हिंदुस्तानी बर्गर के अल्मुड़िया अनुवाद का स्वाद लेते मिल जाते हैं. दाहिनी तरफ को साइकिल की दुकानें है जो शाम ढलते ही बंद होने की तैयारी करती पाई जाती है.
थोड़ा चार कदम आगे बाएं हाथ पर सड़क के तल से नीचे स्थित अल्मोड़ा पोस्ट ऑफिस की सीढ़ियां, खतरनाक ढंग से नीचे को जा रही हैं, ऊपर सड़क पर इन्हीं उतरती सीढ़ियों के मुहाने पर मोतिहारी, सिवान से लेकर कभी-कभी लखीमपुर खीरी, शाहजहांपुर के मूंगफली बेचने वाले बैठे मिल जाते हैं. चूँकि शराब के साथ गरमागरम भुनी हुई मूंगफली का सेवन को शास्त्रोक्त तथा विधिसम्मत माने जाने के कारण कई शराबी (माफ करें) सांस्कृतिक बाध्यता के चलते मिल ही जाते हैं. कभी-कभी स्वाभाविक जूतम पैजार भी दिखाई देती है.
इस बिंदु से खड़े होकर सामने थोड़ा दाहिनी तरफ स्थित है कुदरत के प्रेम का अद्भुत नमूना. सदियों पुराने देवदार के पेड़ पर लिपटी हुई बोगनविलिया जो देवदार के साथ मिलकर उसी का हिस्सा हो गई है. यह कमाल का कॉन्बिनेशन है जो अल्मोड़ा में ही दिखता है. इतना मोटे तने वाला देवदार और उस पर उतनी ही मजबूती से लिपटा बोगनविलिया, काव्यात्मकता को नई उड़ान देते हैं. इनके होने के कई मायने हैं. यह प्रेम है, यह समर्पण है, यह प्रतिस्पर्धा भी हो सकती है, परंतु सबसे अलहदा यह देवदार का बोगनविलिया पर पड़ा शुद्ध अल्मुड़िया प्रभाव है जिसे बोगनविलिया ने भी पूर्ण शुद्धता और समर्पण के साथ ग्रहण किया. अब इनमें कौन देवदार है, कौन बोगनविलिया यह अलग-अलग करके देखना गुस्ताखी होगी.
शाम का रंग धीरे-धीरे गाढ़ा होने लगता है. शाम और रात के बीच की स्थिति. शाम की रियासत अभी उखड़ी नहीं है. रात की रियासत अभी बसी नहीं है. बीच की स्थिति. गलत ना होगा की सृजन और संहार के बीच की स्थिति. जहां से ना सृजन दिखाई देता है न संहार दिखता है, न समय दिखता है, काफी कुछ उन दोनों से ऊपर उठने का मोक्षदायी भाव जिसके नेपथ्य में शहर अल्मोड़ा है, उसके आस-पास के बसे गांव हैं, घरों में जलते चूल्हे के उठते धुएं में विलीन होती दिन भर की थकान है, ममत्व है, स्त्रीत्व है, चिंता है, भूख है, सब कुछ है पर वह खुद नहीं है जिसकी वजह से यह सब घटित हो रहा है.
पोस्ट ऑफिस के पास के रोमांटिक माहौल से थोड़ा आगे हल्के अंधेरे में सुलगते धुयें के पर चौघानपाटे में उजाला रहता है. दाहिने हाथ पर अंबेडकर तो बाएं हाथ पर गांधी एक दूसरे के सामने हैं. गांधी शांतिपूर्ण तरीके से बैठे हैं, एकदम शांत न कोई हलचल न कोई भाव, जैसे शाम के शांत रंग ने इन्हें पूरा का पूरा लपेट लिया हो. अल्मोड़ा में गांधी का बैठना अक्सर चर्चा का विषय बन जाता है. यह अल्मोड़ा के महात्म्य को प्रकट करने का भी माध्यम बनता नजर आता है. पर कुछ भी हो मूर्तिकार ने कभी शायद ही सोचा होगा कि मूर्ति के खड़े होने या बैठने की भी व्याख्या हो सकती है या यह भी विमर्श का विषय हो सकता है.
अंबेडकर अपने पुराने पोज मे हैं, संविधान की पुस्तक सीने से लगाए. रास्ता दिखाते डॉ अंबेडकर. मूर्ति का डील-डौल मजबूत है. अंबेडकर कमजोर नहीं है, उन्हें कमजोर मानना या सोचना कमजोरी का प्रतीक होगा.
अल्मोड़ा की शाम के इस मोड़ पर डॉक्टर अंबेडकर के बगल में लगी घंटा घड़ी जो समय बताती है और बताती है अपने संस्थापक डॉक्टर बोसी सेन के बारे में. घड़ी पर घड़ी का सन लिखा है तथा बोसी सेन के बारे में संक्षिप्त सी सूचनाएं हैं, जिनको सामने से गुजरने वाली भीड़ में शायद ही कोई पड़ता हो.
ठीक सामने बड़ी पुरानी सी पहाड़ी स्ट्रक्चर की एक बिल्डिंग है जिसमें लकड़ी का प्रयोग देखने लायक है इसमें दांत बनाने का एक अस्पताल भी है.
आगे अन्नपूर्णा होटल, केमू स्टेशन, रोडवेज, संग्रहालय, पेट्रोल पंप, शराब की दुकान, शिखर होटल की तरफ जाने वाला रास्ता है इसके बारे में तफ्सील से लिखना, कहना, पढ़ना सब शाम के रंग को बिना मतलब के खर्च करने वाला होगा.
शिखर चौराहे की शाम या उससे ऊपर एलआर शाह रोड पर स्थित मिलन तिराहे की शाम का जिक्र किए बिना अल्मोड़ा की शाम की चर्चा अधूरी रहेगी. शिखर होटल अल्मोड़ा की सबसे बड़े होटलों में से एक है, सही मायनों में यह होटल है. पूर्ण रूप से होटल. अल्मोड़ा के पर्यटन व स्थानीय व्यापार संबंधी जरूरतों को पूरा करता यह होटल अल्मोड़ा के बुद्धिजीवियों के मिलने का एक बड़ा लैंड मार्क है.
वैसे तो पूरा अल्मोड़ा ही लैंडमार्क है यहां की हर चीज लैंडमार्क है. कुछ तो इतने बड़े लैंडमार्क कि उनके पास तशरीफ़ रखने के लिए न तो लैंड है न मार्क. कुल मिलाकर एक महीन महीने स्थिति, इतनी की पूरा अल्मोड़ा सुई के छेद में से निकाल दें. आगे मिलन चौक की स्थिति यहां से थोड़ा भिन्न है, अगर पत्रकारिता की भाषा में कहें तो शिखर वाइट, रोल, न्यूज़ रूम वाररूम, डिबेट, बुलेटिन सबका मिला-जुला रूप है. वही मिलन तिराहा संपादक के कमरे के गंभीर माहौल में पत्रकारों संपादक के बीच खबर के पैसे को लेकर चलने वाली शांत, गंभीर और ठंडी लड़ाई का प्रतीक है. सांस्कृतिक रूप में इस तिराहे की गणना एक प्रतीक के रूप में की जाती है.
अब शाम लगभग समाप्त हो चुकी है. रात हो चुकी है. बाजार धीरे-धीरे अपने आप को अपनी भाषा के मुताबिक बढ़ा रहा है, बाजार अपने आप को बंद नहीं करता बढ़ाता है.
हमारी दिनभर की काम करने वाली हर जगह दफ्तर, स्कूल, अस्पताल यहां तक की सड़कें, मुहल्ले सब बंद हो जाते हैं पर बाजार बंद नहीं होता.
यह अपने आप को बढ़ाता है. बढ़ाते-बढ़ाते यह इतना बढ़ गया कि यह जरूरत, सपने, भाव, कुभाव, अभाव संगीत, कला, साहित्य, शौक, नफरत प्रेम, सब को खा गया. इसे जो मिला उसको खा गया. यह शहर, गांव, मोहल्ले, कस्बे, कबीले, जंगल, तोता-मैना, बटेर सब खा गया. यह हर शहर की शाम को खा गया. वह शाम जिसे दुनिया के हर शहर में होना चाहिए और जिसे नोटिस भी किया जाना चाहिए.
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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1 Comments
कै.चं.जैन
विवेक भाई घंटाघर के आसपास पी.डब्ल्यू .डी.के आफिस से साक्षात्कार करवाना भूल गये शायद.