लो चित्र शलभ सी पंख खोल, उड़ने को है कुसमित धाती.
यह है अल्मोड़े का बसंत, खिल उठी निखिल पर्वत घाटी.
ये पंक्तियाँ हिन्दी के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने शहर अल्मोड़ा के सौन्दर्य को लेकर लिखी थीं. तब अल्मोड़ा शायद ऐसा सुन्दर होता हो कि बसंत ऋतु में एक रंग बिरंगी तितली सा प्रतीत होता हो. अगर कविवर आज के अल्मोड़ा को देख लेते तो उनके अन्दर के सारे कुसुम खिलने से पहले ही मुरझा जाते. Article by Kunal Tewari
आह! क्या विकास हो रहा ठहरा अल्मोड़ा का कि विनाश भी अपने दाँतों तले उँगली दबा ले? एक झमाझम बढ़िया सी बारिश होने दो, फिर आप शहर की किसी सड़क या रास्ते पर बिना कोई घृणा भाव उत्पन्न हुए पैदल चल सकें तो आप अपना नाम खुद ही गिनीज बुक ऑफ़ वल्र्ड रिकार्ड में दर्ज हो चुका समझो. उस वक्त आप यह भी नहीं समझ पायेंगे कि आप रोड पर चल रहे हैं या नाली में. ‘आलम शहर’ अल्मोड़ा इसकी पूरी गारंटी लेता है.
शहर के रास्तों में बहता यह पंचतत्व – कच्यार, गटर का पानी, पॉलीथीन, गाय का गोबर और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से निकला अपशिष्ट, मिश्रित जल जीवन की निस्सारता ही नहीं समझाता बल्कि पैदल चलने वालों के पैरों और कपड़ों को अपने आगोश में ऐसे ले रहा होता है जैसे कोई बिछड़ा हुआ प्रेमी अपनी प्रेमिका का आलिंगन कर रहा हो. इसका परिणाम दो या तीन दिन पश्चात् ‘कद्या‘ जैसे किसी चर्म रोग के रूप में नजर आ सकता है.
तो क्या आपकी नजर में सारे झगड़े की जड़ यह पानी है? क्यों जी? कतई नहीं. पहले जैसा शहर होता तो यह पानी किसी खेत में रिस कर गायब हो जाता. अब खेत ही नहीं बचे, चारों ओर सीमेण्ट भूमि है. ये कहाँ रिसे बेचारा? इसके लिए भी जटिल प्रश्न है, सो बहते जाना इसकी नियति है और सहते जाना हमारी.
हो भी बड़ा गजब गया हो इन 10-20 सालों में, बाढ़ आ गई ठहरी मकानों की शहर में. आपको बमुश्किल ही खाली भूमि देखने को मिलेगी. जिसमें कंक्रीट का निर्माण नहीं हुआ हो. 2010 में अल्मोड़ा शहर में हुई भारी जनहानी के बावजूद भी खतरों के खिलाड़ी जहाँ-तहाँ निर्माण संबंधी नियमों को ताक पर रख के इमारत ठोके जा रहे हैं. गजब का सैन्स ऑफ ह्यूमर है हो इन लोगों का कि देखो अपने मकान के खुदान से निकली 2-4 गाड़ी मिट्टी अपने आगे की स्वस्थ डामरीकृत रोड के ऊपर बिछा देंगे और अपनी इस बहादुरी को इतराते हुए औरों को बताऐंगे कि देखा चार गाड़ी मिट्टी के ढुलान का पैसा हमने ऐसे बचाया. ये ही लोग मकान बनने के बाद नगर पालिका, पी. डब्यू. डी. डिपार्टमेंट को कोसते रहेंगे कि विभाग हमारे आगे की रोड सही नहीं कर रहा है.
अरे, क्या आप इनको गरीब, असमर्थ या अनपढ़ समझ रहे हो? तो आपके भोलेपन को खुदा बख्शे. अरे साहब, ये तो धनाढ्य बुद्धिजीवी हैं. इनमें अधिकतर डिग्री कॉलेज के पिरोफेसर (प्रोफेसर), प्राइमरी-इण्टर कॉलेजों के मास्साब, जूनियर इंजीनियर साहब, वकील साहब, ए क्लास कान्ट्रैक्टर साहब, बड़े बाबू और भी उच्च मध्यमवर्गीयों की कई प्रजातियों के लोग शामिल हैं, जो ‘आलम शहर’ अल्मोड़ा के विकास में अपना पूर्ण योगदान दे रहे हैं.
वैसे जो मकान आजकल बन रहे हैं, उनकी लागत कम से कम 30 से 40 लाख रुपये तो होती ही है. मकान में टाइल्स मार्बल, मॉड्यूलर किचन, पाखाने के लिए यूरोपियन सीट और भी सारी हाईटेक सुविधा लगाते है हमारे पाण्डे जी, तिवारी जी, जोशी जी, बिष्ट जी, चैहान जी आदि-आदि. पर लिन्टर का पानी नीचे नाली में लाने के लिए इनसे 300-400 रुपल्ली का एक डाउन पाईप नहीं लग पाता. इसके परिणामस्वरूप बरसात में लिन्टर से पानी की मोटी धार तड़तड़ाते हुए अपने सामने के रास्ते पर पड़ती है और रास्ते पर चलने वालों के तबला बजाती हुई उनकी छरड़ी कर डालती है. ये पानी की धारे रास्ते में भी बड़े-बड़े से गड्ढे का निर्माण करते हैं जो बाद में कच्यार से भर जाता है. पर दाज्यू लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता. है नहीं इनका सैन्स ऑफ ह्यूमर गजब का?
आपको आलम शहर अल्मोड़ा में नगर पालिका परिषद अल्मोड़ा की मेहरबानी से कूडे़दान कम और डम्पिंग जोन ज्यादा मिलेंगे. जो कूड़ेदान मिलेंगे भी उनके अन्दर कम, बाहर ज्यादा कूड़ा होगा. इसका श्रेय हम अल्मोड़ा के सम्भ्रान्त नागरिकों को जाता है.
अरे ये लो, कूडेदान के चक्कर में डम्पिंग जोन तो छूट ही गया. तो होता ऐसा है कि लगभग हर मुहल्ले में कुछ सरकारी या ऐसी जमीनें होती हैं जिसका ग्वाल गुसांई यहाँ शहर में न रहता हो तो उस जमीन में मुहल्ले के सम्भ्रान्त नागरिक अपनी गरिमा को बनाये रखते हुए रात के अंधेरे में या सुबह तड़के अपने घर से निकलकर मेरा कूड़ा तुझ को अर्पण जपते हुए उस भूमि को श्रद्धापूर्वक अर्पित कर आते हैं और इसप्रकार अपने शहर को गन्दगी से बजबजाने में अपना ऐतिहासिक योगदान देते हैं. Article by Kunal Tewari
अच्छा, आपने पौराणिक कथाओं में स्वर्ग से अप्सराओं द्वारा होने वाली पुष्पवर्षा के विषय में सुना ही होगा. अगर घोर कलि काल में आपको इस घटना को प्रत्यक्ष महसूस करना हो तो जाड़ों में रात के 8 बजे और गर्मियों में दस बजे के बाद किसी भी दिशा से अल्मोड़ा के पटाल बाजार में प्रवेश कर दूसरे सिरे तक टहल लीजिये. इस दौरान यदि बाजार की दोनों ओर खड़ी इमारतों की कतारों में से किसी की ऊपरी मंजिल की खिड़की से उसमें निवास करने वाली अप्सरा द्वारा स्नेहपूर्वक गिराया गया पुष्प गुच्छ आपके सिर पर न पड़े तो आपका चरम दुर्भाग्य !
आपको इस बात की जिज्ञासा भी अवश्य होगी कि वह पुष्प गुच्छ अन्ततः है कैसा. तो दाज्यू, उसके अंदर होगा घर का बचा बासी खाना, सब्जी के छिलके, घर की धूल, बच्चों के गू-मूत से सना डाइपर, नैपकिन और दारू का खाली पव्वा आदि-आदि. अब त्रेतायुग से कलियुग तक सुदीर्घ यात्रा के दौरान पुष्प गुच्छ के स्वरूप में इस तरह का परिवर्तन तो स्वाभाविक ही ठहरा. नहीं?
और दाज्यू अगर आप रात के बदले सुबह मुँह अँधेरे पर सैर पर बाजार से निकले तो आपका स्वागत कूड़े की गंगा की गंगा के रूप में होगा. यदि इस अनुभव को आप ज्यादा गहराई से महसूस कर अपना जीवन सफल करना चाहते हों तो सुबह की यह सैर उस वक्त करें, जब ‘आलम शहर’ अल्मोड़ा के सफाई कर्मचारी हड़ताल पर हों. आपको ताजिन्दगी याद करने के लिये एक अनुभव प्राप्त होगा. Article by Kunal Tewari
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अल्मोड़ा के रहने वाले कुणाल तेवाड़ी साहसिक खेलों से जुड़े हैं. पढ़ने लिखने और फोटोग्राफी का शौक रखने वाले कुणाल अक्सर लम्बी माउन्टेन साइकिलिंग करते हैं.
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3 Comments
चन्द्रशेखर
साहित्यिक भाषा में शहर ,
Girish
कभी कभी लगता है कि अल्मोड़ा शहर की सफाई ब्यवस्था कभी अल्मोड़ा पर अभिशाप बतौर न टूट पड़े। मकानों की ऐसी होड़ कि पूछो नहीं । एक समय था जब मकान से पहले मकान का सहन तैयार होता था उसमें ओखल कूटने, मडुवा सुखाने और आने जाने वालों के लिए बैठने एक कोने मैं जानवर बांधने की समुचित ब्यवस्था होती थी। अब आगन देखने को नही। भीड़े काट काट के 4-5 .मंजिला मकान बन गये पता नहीं किस किस का घर भरा और अब किसका गिरेगा गिरेगा तो।
रात्रि मैं या सुबह 3-4 बजे खीम सिंह मोहन सिंह जी की दुकान के सामने से बदबू के मारे निकलना दूभर होता था। यह बात 10-15साल पुरानी है अब क्या चार चांद लगे होगें नही मालूम।
Abha Pant
वाह कुणाल जी, हंसते हंसते कई बार पेट में मरोड़ पैदा कर गया यह लेख 🤣🤣। यह व्यंग्य लेख वाकई में बधाई का पात्र है। इसी प्रकार के अन्य लेखों की अपेक्षा करते हैं हम आपसे।
सफाई को लेकर हम लोगों में दृष्टिकोण के संकुचन की गहराई कितनी है, यह हमारे इसी संबोधन से स्पष्ट हो जाता है, कि जब कोई कूड़ा उठाने वाला हमारे घरों के बाहर आता है, तो सामान्तय: उसको संबोधित करने के लिए हम उसे, ‘कूड़े वाला’ कह कर संबोधित करते हैं, जबकि सफाई न रखने वाले, गंदगी, कूड़ा करने वाले तो हम हुए। वो आदमी तो कूड़ा उठा रहा है, सफाई कर रहा, तो हम उसे ‘कूड़ा वाला’ साबित कर दे रहे। जब तक हमारी सोच इतनी विकृत रहेगी, तब तक देश और दुनिया, गंदगी के बीच, और उसी में रहेगी।