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3 Comments

  1. चन्द्रशेखर

    साहित्यिक भाषा में शहर ,

  2. Girish

    कभी कभी लगता है कि अल्मोड़ा शहर की सफाई ब्यवस्था कभी अल्मोड़ा पर अभिशाप बतौर न टूट पड़े। मकानों की ऐसी होड़ कि पूछो नहीं । एक समय था जब मकान से पहले मकान का सहन तैयार होता था उसमें ओखल कूटने, मडुवा सुखाने और आने जाने वालों के लिए बैठने एक कोने मैं जानवर बांधने की समुचित ब्यवस्था होती थी। अब आगन देखने को नही। भीड़े काट काट के 4-5 .मंजिला मकान बन गये पता नहीं किस किस का घर भरा और अब किसका गिरेगा गिरेगा तो।
    रात्रि मैं या सुबह 3-4 बजे खीम सिंह मोहन सिंह जी की दुकान के सामने से बदबू के मारे निकलना दूभर होता था। यह बात 10-15साल पुरानी है अब क्या चार चांद लगे होगें नही मालूम।

  3. Abha Pant

    वाह कुणाल जी, हंसते हंसते कई बार पेट में मरोड़ पैदा कर गया यह लेख 🤣🤣। यह व्यंग्य लेख वाकई में बधाई का पात्र है। इसी प्रकार के अन्य लेखों की अपेक्षा करते हैं हम आपसे।
    सफाई को लेकर हम लोगों में दृष्टिकोण के संकुचन की गहराई कितनी है, यह हमारे इसी संबोधन से स्पष्ट हो जाता है, कि जब कोई कूड़ा उठाने वाला हमारे घरों के बाहर आता है, तो सामान्तय: उसको संबोधित करने के लिए हम उसे, ‘कूड़े वाला’ कह कर संबोधित करते हैं, जबकि सफाई न रखने वाले, गंदगी, कूड़ा करने वाले तो हम हुए। वो आदमी तो कूड़ा उठा रहा है, सफाई कर रहा, तो हम उसे ‘कूड़ा वाला’ साबित कर दे रहे। जब तक हमारी सोच इतनी विकृत रहेगी, तब तक देश और दुनिया, गंदगी के बीच, और उसी में रहेगी।

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