कला साहित्य

आकाश कितना अनंत है

जो रिश्ता पिछली सर्दियों में तय हुआ, उसे तोड़ दिए जाने का निर्णय लिया जा चुका है. अब उसकी शादी दिल्ली-जैसे बड़े शहर में नौकरी करने वाले लड़के से होगी. जसवंती को ऐसा लग रहा है, सिर्फ इतना जान लेने भर से उसके लिए बहुत-कुछ बदला जा चुका है.

पहला रिश्ता काफी दूर गाँव में तय हुआ था. वह गाँव अपने चारों ओर के अत्यंत घने तथा आकर्षक जंगलों के लिए जाना जाता रहा है. इस गाँव से कई लड़कियाँ वहाँ ब्याही गई थीं. जब मायके आती हैं धन्य फलों से सदा-बहार रहने वाले उस गाँव के जंगलों में गाय बकरियाँ चराने के किस्से सुनाया करती हैं.

जसवंती ने वर्षों पहले वहाँ एक किस्सा और भी सुना था. तब नहीं जानती थी, मगर अब लगता है कि उस मनःस्थिति को उसने पहली-पहली बार तभी अनुभव किया था, जिसमें से पुरुष की कल्पना नदी के जल में खड़े होकर सूर्योदय देखने जैसी रहस्मयी लगती है.

जसवंती को लगता है, किशोरावस्था बीतते-बीतते अपने परिवार वालों के प्रति धुँधले-धुँधले अजनबीपन की अनुभूति होने लगती है. और जंगल, खेत तथा नदी की तरफ निकल जाना, अपने भविष्य की दिशा में निकल जाने-जैसे रोमांचक लगने लगता है.

कितनी विचित्र बात है कि सपने में बिल्कुल वही लड़का आया था, जिससे पिछले वर्ष रिश्ता तय हुआ था. वह तो उसके आ पहुँचने के अजनबीपन में ही डूबी रह गई थी और वह देर तक बातें और प्यार करने के बाद एकाएक चला गया था.

सपना टूट जाने पर भी वह काफी देर चिंतित और परेशान रही थी, कहीं किसी ने – खासतौर पर राधा भाभी ने – देख तो नहीं लिया होगा? होठों पर अभी भी नमी महसूस होने लगती है और पोंछ लेने पर देख लिए जाने का-सा भ्रम होने लगता है. सुबह धान के खेत निराने गई थी, तो लगातार वह सपना उसे याद आता रहा और कई बार उसे हँसी आ गई.

उस शरारती लड़के की एक-एक मुद्रा, एक-एक बात को याद करने की कोशिशें करते हुए महसूस होता रहा कि जिस रहस्मय सुख को वह अपने मन के एकांत में दोहराती है लगता है जरूर देख लिया गया है. खेतों और जंगल में घूमते हुए रोमांचकता घेरे रहती है. इस उम्र में प्रकृति कितनी मानवीय और आत्मीय लगती है. तबसे वही, या उससे मिलता-जुलता सपना न जाने कितनी बार वह देख चुकी है. हर बार उतना ही रोमांचक लगता है.

जसवंती को लगा, ऊपर खेत में काम करती माँ घर लौट आने के लिए पुकार रही है.

सँकरी घाटियों में बहने वाली इस छोटी-सी नदी की धारा का साँ-सी-साँ का धीमा-धीमा शोर कई बार गलतफहमी में डाल देता है. माँ पुकारती है, तब सुनाई नहीं देता है. माँ ने बुलाया नहीं होता है, तब लगता है, जैसे माँ आवाज दे रही है. उस जैसी वयःसंधि से गुजरती लड़कियों को माँ अक्सर अपनी सहेलियों जैसी लगने लगती है. अपनी कल्पनाओं और अपने रहस्यों को समान रूप से साझीदार.

परसों माँ बाल सँवारते समय एकाएक उदास हो गई थी.

माँ बोली थी – ‘जस्सा, जब बेटी ब्याहने के लायक हो जाती है; तो माँ को अपना कुँवारापन याद आने लगता है. तेरी उम्र में पुरुष की जो कल्पना होती है, यह सिर्फ जंगलों के अकेलेपन में बाँसुरी बजाने और मीठे-मीठे गीत गाने वाला होता है, हल, कुल्हाड़े, दाँते, रस्से और शहर बेचने को ले जाए जा रहे दूध के हंडे उसकी जिंदगी में दिखाई नहीं देते. …और जब एक दिन शहर से आधी रात को वापस लौटने वाला आदमी ठर्रे की बदबू उगलता हुआ, गंदी-गंदी गालियाँ बकता हुआ, उसके जिस्म को जानवरों की तरह झिंझोड़ता है, तो वह सिर्फ खसम लगता है, सिर्फ खसम – और सारे भरम टूट जाते हैं.’

जसवंती जानती है, इस गाँव में गरीबी है. मगर शहर के पास होने की स्थिति ने इसे आर्थिक गरीबी से ज्यादा मानसिक दरिद्रताओं से भर दिया है. खेतों का अन्न पूरा पड़ता नहीं है. लगभग सभी लोग सब्जियाँ और दूध शहर बेचने का रोजगार करते हैं. शहर में सिनेमा है, जुआ खेलने के अड्डे हैं और देशी शराब की दुकानें हैं. राधा भाभी कहती थी – रंडियाँ भी हैं!’

वेश्याओं के बारे में उसने राधा भाभी से जो कुछ जाना है, बहुत घिनौना लगता है उसे.

तीन साल पहले जो कुछ हुआ, उसे साथ लेकर कुल ग्यारह बच्चे माँ के हो चुके हैं. तीन रहे नहीं. पाँच बहिनें हैं, तीन भाई. शुरू में लगातार बेटियाँ ही हुईं. तीसरी जसवंती के बाद ही लड़का हुआ था, तो उसकी पीठ पर गुड़ की भेली तोड़ी गई थी कि भाग्यवान है. तीन महीने बाद वह लड़का रहा नहीं तो, अगले वर्ष फिर लड़की हुई. बड़ी दो बहिनें घर-गृहस्थी वाली हो चुकी हैं. जसवंती अब माँ के चेहरे को देखती है, कितना अनाकर्षक और कारुणिक-सा लगता है. शायद इसी महीने से उनतालीसवाँ लगा है, मगर आधे बाल सफेद हो गए हैं. और चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं. आजकल सर्दियाँ हैं. आँखें चूती हैं. बात की शिकायत हो गई है.

राधा भाभी की सास, सरसती ताई कहा करती है कि जब जसवंती की माँ इस गाँव में आई थी, तो खेतों और नदी के आस पास शिकार खेलने, मछली मारने के बहाने शहर के बहुत-से लोगों ने आना शुरू कर दिया था. ऐसा गोरा रंग, ऐसा भरा शरीर कि मक्खी के बैठने को जगह नहीं.

राधा भाभी अक्सर उस गाँव की चर्चा करती है, जहाँ जसवंती का रिश्ता पिछले वर्ष तय हुआ था. वहाँ इन शहरियों का जैसा भ्रष्टाचार और चमरपना नहीं है. गरीबी है, मगर रात-दिन के कलह नहीं हैं. नाते-रिश्तों में आब जिंदगी भर बनी रहती है.

राधा कहती है कि ‘मेरी बड़ी भौजी अब भी खेतों में या जंगल-घास-लकड़ी लाने अकेले दादा के साथ जाती है, तो घर लौटने पर हमसे आँखें नहीं मिला पाती है.’

अभी परसों की बात तो है. रात के सन्नाटे को चीरता हुआ-सा राधा का पति शहर से लौटा था, तो गंदी-गंदी गालियाँ बकता हुआ जोर-जोर से राधा को पुकार रहा था. राधा ने उस रात दरवाजा नहीं खोला, तो उलटियाँ करता-करता बाहर भैंसों के बीच ही सो गया था और मुँह-‍अँधेरे उठने पर, आँगन में उसने कुल्हाड़ी से दरवाजा तोड़ डाला था. लोग जाकर पकड़ नहीं लेते, तो राधा को वह शायद मार ही डालता.

जसवंती को याद है, अपने माथे पर से निकलता खून पोंछते हुए, राधा ने अत्यंत घृणापूर्वक थूका था – ‘सारे शहर का मैल बह कर एक इसी हरामी गाँव में आता है!’

फागुन लगने को होगा. गेहूँ के खेत घुटनों तक ऊँचे हो आए हैं. इन दिनों परती जमीन पर घास उगती नहीं. मटमैला सूखापन उस पर पसरा रहता है. ऐसे में खेतों पर की यह घुटनों-घुटनों तक गहरी हरियाली कितनी आकर्षक लगती है. आजकल इन खेतों के बीच की पगडंडी पर से नदी की ओर जाना और फिर कपड़े धो कर, सर्दियों की धूप से दराँती की धार की तरह चमकते ठंडे पानी में नहा कर वापस लौटना – और वक्त की इतनी निर्बंध प्रकृतिकला में अपने-आप को दोहराना, प्रतीक्षा करना. अपने अंदर के एकांत में पीपल के पत्तों पर के रेशों-जैसी रेखाएँ खींच कर, एक आकार गढ़ने की कोशिशें करना!

राधा भाभी अक्सर कहती है कि शहरों में हवा चुड़ैलों की तरह डोलती है और आदमी की सारी कोमलता चाट जाती है. फिर भी जसवंती को धूप में चमकती नदी, फागुन लगने तक गहरी हो जाने वाली घोर हरियाली और सर्दियों की दोपहर की ऊष्मा-जैसी कल्पनाशीलता के बीच दिल्ली शहर के बारे में सोचना बहुत अच्छा लगता है.

हालाँकि अभी परसों भी राधा भाभी अकेले में यह सुझा रही थी कि वह – यानी पिछले वर्ष जिससे रिश्ता तय हुआ था – बहुत शीलवान लड़का है. यहीं शहर में ग्यारहवी में पढ़ रहा है. छुट्टियों में घर जाता है, तो खूब परिश्रम भी करता है. गाता-नाचता भी है. हलका साँवला रंग है. रोंयें फूटने लगे हैं. कभी सीटियाँ बजाता हुआ खेतों में घूमता है, तो बंजारों-जैसा लगता है.

‘यह हमारा गाँव तो इस शहर से लगा हुआ है. यहाँ अच्छी चीज कोई पनपती नहीं है. शहर के इतने नजदीक के गाँव में अँगूठा छापों की औलादें भरी हुई हैं. हमारे मायके से शहर पहुँचने में दो दिन लगते हैं, मगर लड़के पीठ पर राशन लाद कर शहर पढ़ने आते हैं. मोहना है तो बहुत गरीब घर का, माँ है और दो बहनें हैं बस, मगर होनहार लड़का है और हयादार भी है’ कहते-कहते राधा भाभी को शायद फिर अपने पति की याद आ गई थी और उसके होंठ ऐंठने लगे थे – ‘बेहया खसम की औरत तो रहते राँड़ होती है.’

मगर जसवंती को फिर भी प्रतीक्षा अच्छी लगती है. बीड़ी, चरस और ठर्रे से स्याह और खुश्क चेहरे वाले पुरुषों को देखते रहने के बावजूद, सिर्फ पुरुष की कल्पना करना ही अच्छा लगता है. शायद, इस उम्र में यथार्थ की प्रतीति ही नहीं हो पाती है. अपना सोचना ही सबसे गहरा यथार्थ लगता है.

झाड़ियों पर फैला दिए गए कपड़ों को बटोरते हुए, जसवंती को अपने आप को ही समेटने की-सी अनुभूति हो रही है.

शायद, वे लोग आज शाम को आएँ. अभी इतना ही जाना है कि उसकी दिल्ली में खुद की टैक्सी है मकान है, जिसे शहर की भाषा में ‘फ्लैट’ कहते हैं. गाँव वाले भी यही कहते हैं कि दिल्ली शहर का टैक्सी ड्राइवर जिले के कलेक्टर से भी ज्यादा कमाता है. गाँव में तो यह भी हवा है कि डेढ़-दो हजार दे रहा है. जसवंती को इन सब बातों से क्या संबंध रखना है! जसवंती को तो सिर्फ इतना ही अनुभव होता है कि यह गाँव उससे छूट जाना है.

न चाहते हुए भी जाने क्यों बार-बार ऐसे दृश्य जसवंती की कल्पना में कौंधते चले जाते हैं, जिन्हें साफ-साफ देख लेने में शर्म के मारे वह असुविधाएँ अनुभव करती है.

झुककर, गठरी सिर पर उठाते हुए जसंवती को फिर राधा भाभी की याद आती है. बेहया बहुत है. इतनी कलह-भरी जिंदगी है, मगर इस बार अब पाँचवाँ होने वाला है. अधडधड़े पेट उसकी माँ के पास बैठी रहती है, तो जसवंती को शर्म लगने लगती है.

जसवंती को एकाएक लगा, माँ पुकार रही है. वह काफी तेज पाँव खेतों को पार करती चली गई. अपने घर के काफी समीप पहुँच चुकने पर, आँगन के किनारे के शहतूत, अखरोट और आलूबुखारे के पेड़ों पर से एकाएक पंख खड़खड़ाते उड़ जाने वाले पक्षियों के झुंडों को देखकर, जसवंती को लगा कि वह बहुत तेज चल रही है.

घर की छत पर से धुएँ की लकीरें-सी ऊपर उठ रही थीं. शायद, माँ रसोई घर में होगी. कपड़ों की गठरी थोड़ी-सी पीछे हटाकर, मुँह पर बिखर आए बालों को एक ओर हटाते हुए, अनायास ही जसवंती ने आकाश की ओर देखा, दिन कितना बीत गया है.

घाटी में बहती इस सँकरी नदी के चारों ओर से धरती ऊँची होती चली गई है. इतनी ऊँची पहाड़ियों पर टिका हुआ आकाश कितना संक्षिप्त-सा लगता है. नितांत परिचित और आत्मीय. अपने गाँव, परिवार और अपनी कल्पनाओं का साझीदार.

कूचा चमेलियान के इन दरबानुमा मकानों के अहातों में सबुह-सुबह पत्थर के कोयलों की ‍अँगीठियाँ इतनी सुलगती हैं कि इनसे उठते धुएँ की धुंध में नीम अँधेरा सा महसूस होने लगता है. बिल्कुल सामने की बस्ती चमरियान से सुअरों के बेपनाह झुंड अपने-आप को ही रौंदते हुए-से, बेसुरे सुर में किंकियाते हुए बड़े तालाब की तरफ दौड़ते जाते हैं और तीन सलाखों वाली खिड़की से बाहर झाँकती हुई जसवंती का मन घिना उठता है. मुँह-अँधेरे ही जाने पर भी लगभग चौथाई मुहल्ला तालाब के इर्द-गिर्द ढोर पर झुके हुए गिद्धों की तरह पसरा हुआ मिलता है.

गाँव छूटे हुए अब आठवाँ महीना लग गया है – एक-एक दिन को जसवंती माँ को लगने वाले दिनों की तरह गिनती है और उसकी आँखें नम हो आती हैं. उसे दहशत की हद तक आक्रांत कर देने वाले बड़े शहर की इस गंदी बस्ती में हर वक्त दम घोट धुँध-सी फैली रहती है. अब जसवंती को न अपने बाहर कुछ सूझता है, न अंदर. अपने आस-पास के वातावरण और मौसम में सिर्फ मनहूसियत-सी महसूस होती है. इस मुहल्ले के बच्चे, जवान और बूढ़े, सबके चेहरों पर कितना अजनबीपन पुता रहता है.

उस रात, बिल्कुल बगल के मकान में, फूलों वाली पंजाबिन का घरवाला चल बसा था और शमशेर सिंह अपने साथ आए हुए तीन गुंडों के साथ ठर्रे के गिलास और गोश्त की प्लेटों से सुअर का जैसा थूथना डुबोते हुए कह रहा था – ‘इस ससुरे को भी आज ही गारत होना था.

उसके साथ जो तीन आदमी आए हुए थे, ट्रकों के ड्राइवर थे. उनमें से एक तो चुप्पा-सीधा, कम बोलता था, मगर बाकी के दोनों इतनी गंदी भाषा बोलते और इतने वहशी ढंग के डकारें ले रहे थे कि जसवंती के लिए कोठरी में रह पाना कठिन हो रहा था. उनके रवैए से लग रहा था, ये लोग यही औंधे हो जाएँगे और रात-भर न जाने क्या-क्या कमीनगी उगलते रहेंगे.

जसवंती अब इस समय भी ठीक से नहीं बतला सकती कि उसने वैसा जानबूझ कर किया था, या अपने आप हो गया. कमर में छोटी-सी दराँती अब भी खोंसे रहती है. रात सिरहाने रख लेती है. उसको जाने क्यों ऐसा लगा था, शमशेर सिंह इन्हें अच्छे इरादे से साथ नहीं लाया है. हो सकता है, रात में ये लोग यहीं रहें. और बस, इसके आगे की दहशत में ही जाने कब उसने दराँती निकाली थी और जाने कितने भयानक स्वर में चीखना शुरू कर दिया था कि फूलों वाली पंजाबिन का छाती पीटना भी उसकी चीखों में डूब गया.

‘कभी-कभी इस पर गाँव की देवी आ जाती है, और ससुरी यों ही चीखने लगती है.’ कहते हुए, सफाई देता हुआ-सा, शमशेर सिंह उन लोगों को बाहर गली में निकाल ले गया था और बहुत देर बाद लौटा था.

हो सकता है, ऐसा इसलिए भी हो कि दिन बढ़ते जा रहे हैं, मगर यह सच है कि जसवंती को उसका साथ अब जानवरों का-सा साथ लगता है और होंठो पर से ठर्रे की घिनौनी बदबू को पोंछते हुए जसवंती को लगने लगा है, धीरे-धीरे उसने अपने औरत होने को ही पोंछना शुरू कर दिया है.

अब भी राधा भाभी के साथ वार्तालाप के क्षण याद आते हैं; खेत और नदी के एकांत में बिताए हुए दिन याद आते हैं. तब सिर्फ कल्पनाएँ करने से ही देह में कितना रोमांच हो आता था? अपने अस्तित्व के आर-पार तक कितनी रहस्यमयता सुबह के कुहासे की तरह फैली होने की अनुभूति होती थी! अब पति नाम का यह नितांत भावनाशून्य व्यक्ति दबोचे रहता है और सिर्फ वितृष्णा अनुभव होती है. न जाने जसवंती को ऐसा क्यों लगने लगा है कि ढोरभक्षी गिद्ध के पंखों और चोंच से भी ऐसी ही बदबू फूटती होगी. भावनाशून्यता की बदबू!

शमशेर सिंह अभी उठा नहीं है. पड़ोस में फूलों वाली पंजाबिन के घर का मातम बार-बार दमघोटू धुएँ की तरह इस तरफ फैलता चला आता है. पति से घृणा करने की आत्मग्लानि में डूबी हुई जसवंती को वह धुँधली-सी शाम याद आती है, जब बढ़िया सूट और टाई पहने, चुरट पीता हुआ यह शमशेर सिंह उनके आँगन की दीवार पर बैठा हुआ था और इसे देख लेने मात्र से जसवंती को कलंकित हो चुकने की-सी अनुभूति हुई थी. जैसे पुरुष की कल्पना उसने की थी, उसके ठीक विपरीत एक शातिर और पुख्ता आदमी. शमशेर सिंह की पहली झलक में उसे एक स्तब्धता-सी अनुभव हुई थी.

जसवंती को अब फिर याद आ रहा है कि इससे पहले वह यह कल्पना करते हुए कितनी बार शर्म में डूब चुकी थी कि हो सकता है, वह टैक्सी में ही छेड़ना शुरू कर दे? राधा भाभी भी कहती थी, शहरिए बड़े बेसब्रे होते हैं. मगर उसे तो शमशेर सिंह के साथ दिल्ली तक के सफर में लगातार सिर्फ एक ही अनुभूति हुई थी, भावना-शून्यता की! उसे लगा था ऐसे व्यक्ति के सामने लज्जा या कोमलता की मुद्रा बनाना सिर्फ अपने-आपको छलने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा.

अब जो सामने है, इस वास्तविकता की तो उसने स्वप्न में भी कोई झलक देखी नहीं थी. इतना भुगत लेने पर जसवंती कह सकती है कि तब शायद वह साफ ना कर देती और पिता के लाख कहने पर भी घर का आँगन पार नहीं करती. अब तो अंधे कुएँ के अंदर का रहना है.

बिस्तर पर पलटते हुए शमशेर सिंह ने डकार भरी, तो जसवंती के हाथ से मुट्ठियों में भींचे हुए सींकचे फिसल गए.

शमशेर सिंह ने उठते हुए जोर से उबासियाँ लीं और अत्यंत बुझी हुई-सी आवाज में बोला – ‘चाय नहीं बनी?’

जसवंती ‍अँगीठी की तरफ बढ़ी और चाय की छोटी-सी केतली तथा काँच का गिलास लिए, उसके पास आई.

जसवंती को कभी-कभी उस पर दया भी आती है. सुबह जब भी वह उठता है, उसकी आँखों में एक अजीब-सा पीलापन भरा रहता है. एक खुश्क पीलापन! लगता है, इस व्यक्ति की आँखों और इसके चेहरे पर की सारी कोमलता कोई चाट चुका है.

रात के वहशीपने की जगह उसके चेहरे पर एक गहरी खिन्नता और आत्महीनता तैर रही थी. चाय सुड़कते हुए, उसकी झुर्रियाँ ऐसे खिंच रही थीं, जैसे किसी मुर्दे में हरकत हो रही हो. अपनी सारी वितृष्णाओं और यातनाओं के बावजूद, इसकी मृत्यु की कल्पना करना जसवंती को अत्यंत दुखद लगता है.

‘तुम इसी तरह ठर्रा पीते रहोगे, तो तुम्हें तपेदिक हो जाएगी.’

उसने चाय का गिलास इतनी जोर से जमीन पर रखा कि वह तड़क गया. एक अत्यंत क्रूर किस्म की हँसी, तड़के हुए गिलास में से रिसती चाय की तरह, उसके समूचे चेहरे पर फैल गई – ‘तपेदिक तो मुझे हो चुकी है. अब तो सिर्फ मरने का इंतजार बाकी है!’

इस व्यक्ति की आवाज रोज सुबह कितनी कारुणिक हो जाती है? इसके भावनाशून्य चेहरे और आँखों पर से यह खिन्नता में सनी हुई आवाज गँदले पानी की तरह चूती है. रात को यह पंजाबी टप्पे या फिल्मी गाने उगलता हुआ आता है. बेहयाई इसके रोम-रोम में ऐसे टपकती है, जैसे इसके अलावा सारा दिल्ली शहर मर चुका हो. सुबह यह एक मुर्दे की तरह बिस्तर से उठता है और इसकी तमाम बातों से सिर्फ हताशा टपकती रहती है.

कुछ ही महीनों के बाद जसवंती माँ बन जाएगी और यह सोच-सोच कर उसे कितना डर लगता है कि पिता हो जाने की भावना से विहीन इस व्यक्ति के साथ रहना आखिर कब तक संभव हो पाएगा?

‘आज मैं गाड़ी पर नहीं जाऊँगा. मेरा शरीर टूट रहा है. खाना बना लेगी तो मुझे जगा लेना.’ कहते हुए शमशेर सिंह दुबारा बिस्तर पर लेटने ही लगा था कि जसवंती बोल उठी – ‘राशन नहीं है.’

इस छोटे से वाक्य को सुनते ही उसने जिस तरह जसवंती को घूरा, वह सहम उठी. उसे लगा, अब यह फिर गालियों की बौछार करता उठेगा और दो-चार लात जमाने के बाद घर से निकल जाएगा. ऐसा कई बार कर चुका है और फिर दूसरे-तीसरे वापस लौटता है. एकाध हफ्ते के लिए राशन, सुअर का गोश्त, ठर्रे की बोतल के साथ!

‘मुझको मेरे मायके क्यों नहीं वापस पहुँचा देते हो?’

वह अप्रत्याशित रूप से, चुपचाप जसवंती को घूरता रहा. फिर एक साँस में कहता गया – ‘हाँ-हाँ, अब तू चली जा. तू अब चली ही जा -‘ और फिर उसका गला रुँधता गया.

उसे फफक-फफक कर रोते देखकर, जसवंती को और ज्यादा दहशत हो गई. वह भी रोने लगी. जसवंती को रोते देखकर वह एकाएक चुप हो गया. कुछ देर चुपचाप जसवंती को रोते हुए देखता रहा, फिर एकाएक बोला – ‘तू मुझसे नफरत करती है?’

जसवंती और ज्यादा जोर से रोने लगी तो वह तनकर खड़ा हो गया और अपने-आपको उत्तर देता हुआ सा बोला – ‘तू मुझसे नफरत करती है?’

जसवंती चुप ही रही. उसे लगा, उसके रोने पर किसी ने एकाएक राख बिखेर दी है.

वह जैसे अपने-आपको ही सुनाता रहा – ‘जब से तुझसे शादी की है, तबसे मुझे लगातार यही लग रहा है – मैं बहुत गिरा हुआ आदमी हूँ और मुझसे सिर्फ नफरत की जा सकती है. तू कभी भी किसी ऐसे आदमी की तकलीफ को नहीं समझ सकेगी, जिसके दिमाग में यह हादसा भर चुका हो कि उसे सिर्फ नफरत के अलावा और कोई चीज हासिल हो नहीं सकती. तेरे अगर बच्चा पैदा होगा, तो वह भी तेरी ही तरह मुझे घूरेगा. तेरी ही तरह बिसूरेगा. वह सब कुछ सिर्फ तेरी तरह करेगा. तुझ-जैसी चुपचाप नफरत करने वाली औरत से तो मैं रंडियों के यहाँ सुखी था.’

आखिरी वाक्य कहते-कहते वह फिर सख्त हो चुका था.

जसवंती बोली – ‘अब कुछ नहीं हो सकता. न तुम बदलोगे. न मैं अपने को उस हद तक गिरा सकती हूँ, जहाँ से तुमको सुखी बनाया जा सके. तुम सिर्फ इतना करो, निभा सकते हो तो रूखे-सूखे और फटे-पुराने में दिन काट लूँगी. नहीं निभा सकते हो, तो मायके पहुँचा दो. मगर मैं हाथ जोड़ती हूँ, मुझे कीचड़ में मत घसीटो. अपने संगी-साथी बदमाशों को यहाँ मत लाया करो. नहीं तो कभी मैं या तो हँसिए से अपना गला रेत लूँगी या एक-दो कत्ल कर डालूँगी.’

जसवंती आवेश में आ गई और रोते हुए कहती गई – ‘कितना बड़ा धोखा किया तुमने मेरे साथ. दिल्ली शहर की कैसी-कैसी गप्पें हाँकी तुमने! साहबों के जैसे सूट-बूट पहनकर, चुरुट पीते हुए तुम्हारे ठाठ देखकर कौन सोच सकता था कि तुम ठेले साफ करने वाले क्लीनर हो और शादी के बाद साझे की बीवी बनाने के लिए दो-दो बदमाशों से रकम ऐंठ चुके हो. मेरे लिए क्या रह गया है? तुमको कोसती भी नहीं हूँ, तो यही सोचकर कि इस कोसने से मेरा दुख टलने वाला नहीं है. जो भोग चुकी हूँ, जो भोग रही हूँ, इससे बड़ा त्रास तो मुझे अपने आने वाले दिनों का है… अब इस बोझ को लेकर कहाँ डूब सकूँगी मैं?’

अपने पेट तक हाथ ले जाते-ले जाते, उसकी अँगुलियाँ काँपने लगीं.

वह एकाएक आगे बढ़ा और जसवंती के पाँवों पर हाथ रखते हुए बोला – ‘मुझे और मत दाग. मुझे माफ कर दे.’

जसवंती जब तक उसके हाथ हटाए उससे कुछ कहे, वह तेजी से उठकर बाहर निकल गया. जसवंती उसके पीछे-पीछे किवाड़ों तक चली आई. किवाड़ के पल्ले पर उसने अपनी हथेलियाँ टिकाईं तो उसे लगा, जैसे उनमें से किसी ने कीलें जड़ दी हैं.

अपनी अत्यंत सीमित आमदनी में ढेर सारी बुरी लतों का आदी हो चुका यह आदमी आखिर अब कब लौटेगा? और कैसी मनःस्थिति में?

अपने भविष्य की कल्पना करने की जगह जसवंती को सिर्फ रोना ही सूझा और अंदर लौटकर, बिस्तर पर औंधी गिर गई.

रोते-रोते कब नींद आ गई, जसवंती को होश नहीं. बगल की कोठरी से पतंग वालों की बहू आकर जगा गई कि छत पर तेरे लत्ते भीग रहे हैं.

जसवंती अनमनेपन से उठी. सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँची, तो धीमे-धीमे गिरती बूँदों से उसे आकाश के रोते हुए होने की-सी अनुभूति हुई. नितांत इच्छाविहीन हो चुकने की-सी जड़ता में वह कुछ देर खड़ी ही रह गई.

अपनी यंत्रवत् आँखें चारों ओर घुमाते हुए उसने जैसे सारे शहर को देखने की निरर्थक कोशिश की. न जाने क्यों, उसे ऐसा लगा, आज सारा शहर फूलों वाली पंजाबिन के मातम और उसके अंदर के अवसाद में डूबा हुआ है.

काफी भीग चुकने पर उसने तार पर फैली धोती समेटनी शुरू की ही थी कि फड़फड़ाने की आवाज क्रमशः तेज होती हुई बिल्कुल उसके पास आकर थम गई. एक कबूतर उसके सामने गिर गया.

जसवंती समझ गई, घायल कबूतर है. शायद किसी बाज के झपट्टे से छूट गया होगा. हो सकता है, किसी शरारती लड़के ने गुलेल मार दी हो या किसी बिल्ली ने पंजा मार दिया हो.

जसवंती ने आकाश की ओर देख. बरसते पानी में कही कोई पक्षी नहीं दिखा, सिर्फ बादलों-भरा आकाश दिखता रहा.

जसवंती चाहती थी, उस कबूतर को हाथ में उठा ले. उसके घायल और भीगे पंखों को प्यार और दया से सहलाए. अगर जसवंती के हाथों में आकर, कबूतर पूरी शक्ति से आकाश की ओर उड़ जाय तो उसे कितना अच्छा लगेगा!

जसवंती को खिन्नता दबोचती रही कि वह कबूतर के बारे में सिर्फ सोच नहीं है और उसकी थकी हुई आँखें कबूतर को छत पर रेंगते देख रही है.

छत पर काफी दूर तक रेंगने, अपने भीगे हुए बोझिल पंख को घसीटते चलने के बाद अंततः वह कबूतर थककर पसर गया.

जसवंती तेजी से आगे बढ़ी. कबूतर के पंख पसरे हुए थे और काँप रहे थे. हाँफते हुए कबूतर ने अपनी चोंच को उठाकर, खोला. लगा, अपनी संपूर्ण शक्ति से उड़ जाने की चेष्टा कर रहा है, मगर जसवंती को महसूस हुआ इसमें अब सिर्फ उड़ पाने की इच्छा और तृष्णा ही शेष रह गई है, उड़ सकने की शक्ति नहीं.

उसकी आँखों में अनायास आँसू भरते चले गए. वह धोती को आधी ही समेटे हुए छत पर ही खड़ी रह गई. तभी एक बार फिर उसे फड़फड़ाहट सुनाई दी. कबूतर को उड़ने की कोशिश में सिर्फ उछलते और फिर लुढ़क पड़ते देख कर, वह अत्यंत गहरे अवसाद में डूब गई.

इस ऊँची छत पर से, इस विशाल शहर का तना हुआ आकाश कितना अनंत दिखाई देता है? और इस अनंत आकाश की तुलना में कबूतर की उड़ सकने की शक्ति कितनी तुच्छ और निरुपाय!

जसवंती ने उड़ने की-सी मुद्रा में अपने हाथों को आकाश की ओर उठाए हुए अनुभव किया कि कबूतर मर चुका है. और वह घुटनों के बल बैठकर, मुँह छिपाए रोती चली गई.

एक शब्दहीन नदी: हंसा और शंकर के बहाने न जाने कितने पहाड़ियों का सच कहती शैलेश मटियानी की कहानी

शैलेश मटियानी

हिन्दी के मूर्धन्य कथाकार-उपन्यासकार शैलेश मटियानी (Shailesh Matiyani) अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना में 14 अक्टूबर 1931 को जन्मे थे. सतत संघर्ष से भरा उनका प्रेरक जीवन भैंसियाछाना, अल्मोड़ा, इलाहाबाद और बंबई जैसे पड़ावों से गुजरता हुआ अंततः हल्द्वानी में थमा जहाँ 24 अप्रैल 2001 को उनका देहांत हुआ. शैलेश मटियानी का रचनाकर्म बहुत बड़ा है. उन्होंने तीस से अधिक उपन्यास लिखे और लगभग दो दर्ज़न कहानी संग्रह प्रकशित किये. आंचलिक रंगों में पगी विषयवस्तु की विविधता उनकी रचनाओं में अटी पड़ी है. वे सही मायनों में पहाड़ के प्रतिनिधि रचनाकार हैं.

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Sudhir Kumar

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