ऐड़ाद्यो के मंदिर (Airadyo Temple Uttarakhand) पहुँचने के लिए अल्मोड़ा से दो अलग-अलग रास्ते हैं.
पहले रास्ते के लिए अल्मोड़ा से रानीखेत के समीप मजखाली होते हुए कोरेछीना पहुँचते हैं. कोरेछीना से तीन रास्ते फटते है – बाएँ बग्वालीपोखर होते हुए द्वाराहाट दूनागिरी, दाएं दूसरा गोविंदपुर होते हुए कोसी और तीसरा सीधा पैखाम. पैखाम से कच्ची सड़क का पांच-छः किलोमीटर चलने पर ऐड़ाद्यो पहुंचा जा सकता है. ऐड़ाद्यो में पहाड़ियों के बीचोबीच विन्ध्येश्वरी माता का मंदिर है. इसी कच्ची सड़क पर आगे चलते जाएं तो कौसानी जाने वाली मुख्य सड़क पर लोद नामक स्थान पर पहुंचा जा सकता है.
लोद के गोपाल सिंह रमोला और उनके भट के डुबके
दूसरा रास्ता अल्मोड़ा से पहले कोसी और वहां से ग्वालाकोट जाकर पथरिया मनान पहुँचते हैं. पथरिया मनान से बाएं जाने पर हम पैखाम पहुँच जाते हैं. पैखाम से ऐड़ाद्यो जाने का रास्ता ऊपर बताया जा चुका है.
पैखाम के बाद का रास्ता बांज और बुरांश के सघन जंगलों से अटा हुआ है और उसकी प्राकृतिक छटा अनिर्वचनीय है.
फिलहाल इस अत्यंत सुन्दर और महत्वपूर्ण स्थल के बारे में पर्याप्त पर्यटन-सम्बंधित जानकारी प्राप्त करना बहुत मुश्किल है.
मंदिर के लम्बे समय तक पुजारी रहे श्री रमेश कांडपाल जी बताते हैं कि प्रसिद्ध महाराज बालकृष्ण यति के मन में कल्पना आई की अठ्ठारह भुजाओं वाली देवी का कोई मंदिर आसपास कहीं नहीं है. उनका मानना था कि अठारह का हमारी परम्परा में बड़ा महत्त्व है जैसे कि गीता में अठारह अध्याय हैं, अठारह ही तरह के प्राण बताये गए हैं और वैश्य लोगों के अठारह गोत्र होते हैं. अठारह के अंकों को जोड़ने से (1+8) नौ की संख्या मिलती है जिसे पूर्ण संख्या माना गया है. वे महान संत थे और उन्होंने लोगों के सहयोग से इस मंदिर का निर्माण करना शुरू किया. मंदिर की नींव बीस अप्रैल 2003 को रखी गयी थी. चार साल बाद यानी 2007 में यह बनकर पूरा हुआ.
पहले कम लोग आते थे पर अब अनेक गाँवों के लोग यहाँ आते हैं.
हर मंगल और शनिवार को यहाँ सुन्दरकाण्ड का पाठ होता है. मंदिर समिति साल में एक या दो बार स्वास्थ्य शिविर भी लगाती है.
ऐड़ाद्यो पहले से ही बहुत विख्यात स्थान रहा है. ऐड़ाद्यो के जंगल में ही ऐड़ी भगवान का बड़ा मंदिर है जिसकी बहुत लम्बे समय से बड़ी मान्यता है.
अल्मोड़ा जिले के एक बड़े कारोबारी श्री गुसाईं सिंह भंडारी के आग्रह पर 1938 में महंत महादेव गिरि जी महाराज को ऐड़ाद्यो आने का अनुरोध किया. वहां पहले से ही नागा बाबा रहा करते थे. उन्होंने इस वनप्रांतर में तपस्यारत रहते हुए किसी तरह जीवन चलाया. श्री गुसाईं सिंह भंडारी ने कालान्तर में गृहत्याग कर दिया और वे आजीवन वहीं रहे. उन्हीं के प्रयासों से वहां एक विद्यालय खोला गया. हल्द्वानी के विख्यात संस्कृत विद्यालय की नींव इसी विद्यालय में मानी जानी चाहिए.
कांडपाल जी आगे बताते हैं कि महाराज ने पचास साल पहले कह दिया था कि एक समय ऐसा आएगा जब कैलाश-मानसरोवर जा सकना दुर्लभ हो जाएगा. इसलिए उन्होंने इसे दक्षिणी कैलाश आश्रम का नाम दिया.
ऐड़ाद्यो के सभी ताज़ा फोटोग्राफ जयमित्र सिंह बिष्ट के खींचे हुए हैं.
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