उत्तराखंड का बहुजन समाज मुख्यतः कृषक और पशुपालक रहा है. इनके लिए जमीन और पशुधन सबसे ज्यादा प्रिय और कीमती है. इसीलिए उत्तराखंड के पर्वतीय समाज में एक दिन पशुओं के उत्सव का भी तय किया गया है.
यह दिन है हरिबोधिनी एकादशी (कार्तिक शुक्ल) का. कुमाऊँ के कई इलाकों में इसे बल्दिया एकाश (हल जोतने वालों की एकादशी) भी कहा जाता है.
बल्दिया एकादशी के दिन बैलों को हल जोतने से मुक्ति मिलती है. बैलों को बढ़िया भोजन करवाया जाता है. उनके लिए विशेष तौर पर उड़द की खिचड़ी बनायी जाती है. बोलों के सींगों पर तेल की मालिश की जाती है और उन्हें फूलों की माला पहनायी जाती है.
गढ़वाल में इसे एगाश कह जाता है. इस दिन बैलों को पिसे हुए जौ के पड़े खिलाये जाते हैं. गढ़वाल के जौनपुर इलाके में इन्हें दही-चावल खिलाए जाते हैं और इनकी पूजा भी की जाती है.
इस त्यौहार के अलाव अभी उत्तराखण्ड के किसान समाज में बैलों की छुट्टी के लिए अन्य दिन भी तय किये जाते हैं. इन दिनों को ‘अजोत,’ ‘हल न जोतने के दिन’ कहा जाता है. जैसे— चैत्रशुदी पूर्णिमा, वैशाख शुक्ल तृतीया, श्रावण कृष्ण एकादशी, कार्तिक शिक्ल प्रतिपदा. काली कुमाऊं में मार्गशीर्ष 11 गते को कृषकीय उपकरणों— हल, जुआ, पाटा आदि को ऐपण दिए जाते हैं और उन्हें पूजा जाता है.
(उत्तराखंड ज्ञानकोष, प्रो. डी. डी. शर्मा के आधार पर)
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