हिंदी सिनेमा में ‘अछूत कन्या’ का ऐतिहासिक महत्त्व है. छुआछूत के विरोध में बनी यह पहली फिल्म थी. बाम्बे टॉकीज’ निर्मित और फ्रैंज ऑस्टन द्वारा निर्देशित इस फिल्म में देविका रानी को सौन्दर्य के एक प्रतिमान के रूप में स्थापित कर दिया था. यद्यपि देविका रानी बाम्बे टॉकीज की फ्रैंज ऑस्टन द्वारा निर्देशित ‘जीवन नैया’ में भी अशोक कुमार के साथ नायिका की भूमिका अभिनीत कर चुकीं थी. पर अछूत कन्या ने ही उन्हें स्टारपेअर बनाया. जिन्हें कंगन, बंधन आदि फिल्मों में बांबे टॉकीज ने अत्यंत सफलतापूर्वक भुनाया.
एक रेलवे क्रासिंग के गार्ड की लड़की, जो अछूत भी है, उसका प्रेम एक उच्चवर्गीय ब्राह्मण के बेटे से उस ज़माने में जिस उद्दाम प्रगल्भता के साथ चित्रित किया गया था, उसकी प्रतिध्वनि आज भी शेष है. देवदास के सहगल के बाद अछूत कन्या के अशोक कुमार हिंदी सिनेमा के दूसरे सितारे बने.
‘अछूत कन्या’ में छुआछूत के अमानवीय कृत्य को बड़ी तीव्रता से उकेर कर उसकी भर्त्सना की गई थी. उस समय यह आसान बात नहीं थी. यह बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध था और राष्ट्र इस समस्या से गहाराई तक ग्रस्त था. अपने समय के सुधारवादी स्वरूप में गढ़ी इस कथा को सरस्वती देवी के मधुर संगीत से संजोया गया था.
सरस्वती देवी का वास्तविक नाम खुर्शीद मिनोचर होमजी था. 1935 में जवानी की हवा में संगीत निर्देशन का काम करने पर पारसी समाज में उनकी भर्त्सना हुई थी, पर इस फिल्म में संगीत के बाद उन्हें संगीतकार के रूप में बड़ी सफलता मिली.
‘अछूत कन्या’ फिल्म को महात्मा गांधी ने भी खुले दिल से सराहा गया था. इस फिल्म की मुख्य अभिनेत्री देविका रानी को पहला दादासाहब फाल्के पुरुस्कार दिया गया था. दादासाहब फाल्के फिल्म क्षेत्र में भारत में दिया जाने वाला सर्वश्रेष्ठ पुरूस्कार है जो कि वर्ष 1970 में शुरू किया गया था.
देविका रानी को एक फल व्यापारी के बेटे यूसुफ खां को दिलीप कुमार बनाने का श्रेय भी जाता है. यूसुफ़ एक फिल्म की शूटिंग देखने बांम्बे टॉकीज आये थे. जहाँ उनकी एक हल्की-फुल्की बात-चित यूसुफ़ से हुई. बात-चीत के दौरान देविका रानी ने यूसुफ से पूछा कि क्या वे उर्दू जानते हैं? हाँ में जवाब सुनते ही उन्होंने यूसुफ़ को एक्टर बनने की सलाह दे दी और शुरू हो गया यूसुफ़ से दिलीप कुमार बनने का सफ़र.
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