भागीरथी के पार साँझ की रोशनी में बियाबान जंगलों का शोर अब खामोशी से रात की देहरी पर दस्तक देता जा रहा था. राक्षस ने अपने गिलास में भरकर शराब को एक ही घूँट में खाली कर दिया. डील-डौल और कद्दावर जिस्म के इस शख्स को हम राक्षस से यों ही नहीं बुलाते थे. उसकी आवाज का भारीपन और उसके स्वभाव का स्वार्थीपन उसके इस नामकरण को सार्थक सिद्ध करते थे. उसकी बेलौस-बेढब हँसी और असमय मजाक करने का ढंग ही निराला था. नशे की झौंक में वह कितनी भी पी सकता था. उसके बाद अपने भरभराये कंठ से दो-चार सुरीले गीतों की भद्द पिटाने के बाद ज्यादा मस्ती छाने पर अपने हाथ पैरों को उठाकर नाचने लगता. उस समय वह साक्षात भस्मासुर भी अधिक प्रतीत होता था. मगर आज यह भस्मासुर कुछ अधिक चिंतनशील मुद्रा में था. बातों-बातों में उसका अतीतानुराग उमड़ आया.
(Aanchhari Story Indresh Purohit)
शाम हुई वर्षा से मौसम अत्यधिक ठंडा हो गया था मगर उसके पहले चली हवा ने कुछ पेड़ उखाड़ डाले थे, जिसके चलते बिजली गुल हो गई थी. और अब उसके लौट आने की गुंजाइश, सुबह से पहले तक तो बिल्कुल भी न थी. यह सब यहाँ की ज़िंदगी का आम हिस्सा हुआ करता था, जो आज हमारे भी हिस्से आ गया था. इधर भीतर बंद कमरे में शराब के गिलासों में छनती मस्ती के सुर, बाहर से आती ठंडी हवा का साथ दे रही थी और हम लोग उसके किस्से-कहानियों के लोक पर धीरे से पैर धरते हुए उसके गाँव तक पहुँच गए थे. नदी का शोर हमारे कमरे से बहुत नीचे सुनाई दे रहा था क्योंकि यह ‘गेस्ट-हाउस’ नदी से बहुत अधिक ऊँचाई पर दूसरी ओर स्थित था.
मगर राक्षस को यह जगह और इसकी यह वीरानी बहुत रास आती थी. बिजली जाने के बाद से ही हमने एक मोमबत्ती का सहारा ले रखा था. मोमबत्ती भी उस दुर्गम स्थल पर जल्दबाज़ी में खरीदी गई थी और ज्यादा वक़्त साथ नहीं देने वाली थी, इसलिए मैं उसके पहले ही दूसरा इंतजाम कर लाया था. देख-रेख करने वाले नौकर से माँगकर थोड़ा सा किरासन तेल और एक छोटी काँच की शीशी के ढक्कन पर छेद कर चलताऊ किस्म की लालटेन बना ली थी, जैसी किसी युग में हमारे गाँव में आम हुआ करती थी. उसे देख राक्षस की बाँछें खिल गई थी. बिलकुल इसी रोमानी मौसम और ऐसे ही रोमानी संसाधनों ने उसे अपने बीते हुए दिनों की यादों में धकेल दिया था.
उस पार, इशारे से उसने भागीरथी के प्रवाह को दूर शून्य में इंगित किया, हमारे जंगल हुआ करते थे. मेरे पिताजी उस पूरे क्षेत्र के ठेकेदार थे. उसकी उंगली की दिशा में हमने देखा. भागीरथी एक किनारे से तीखा मोड़ बना रही थी. मोड़ के उस पार के जंगल इस समय एक अजब ही रहस्य-लोक का आवरण खींच रहे थे.
इधर हमारे नजदीक ही कहीं, बघेरे के डुकरने की आहट से माहौल में तनाव भरी उदासी तारी थी, जिसने माहौल की रोमानियत को कुछ अधिक ही बढ़ा दिया था. राक्षस की मुखमुद्रा में परिवर्तन था. वह कुछ गंभीर किस्म की बात हमें बताना चाह रहा था. शराब की गर्मी ने उसके भरे-पूरे चेहरे पर रंगत ला दी थी मगर उसकी आँखें जैसे किसी और ही दुनिया का नजारा कर रही थी.
भागीरथी के इन किनारों से उतरते चढ़ते मेरे पाँव कभी थकते ही न थे. बचपन में इन रास्तों पर पाटी झुलाते, स्कूल को जाता था. हमें सख्त ताकीद थी कि उस पार के जंगलों के रास्ते में न जाएं और अगर उन बीहड़ दुर्गम रास्तों पर कभी कोई सुंदर नार दिखे तो रुक जाओ या रास्ता बदल दो. कहते हैं, इन रास्तों पर कई बार आँछरियाँ (अप्सराएं या परियाँ) लोगों को इसी तरह मिल जाया करती थी. सुंदर-सुकुमार युवकों को देखकर वे उसे हर लेती थी. लोक कथाओं में भी ऐसे कई प्रसंग आते थे जब इन आँछरियों ने गाँव के किसी सुंदर, सजीले युवक को एकांत में पाकर हर लिया हो. हमें बचपन से ही ऐसे किस्से सुनने को मिलते थे. ऐसे में क्या मजाल जो कभी भागीरथी के उस पार अकेले कभी पाँव भी धरा हो !
(Aanchhari Story Indresh Purohit)
मेरे पिताजी उस जमाने में ठेकेदार हुआ करते थे, जब गाँव में सौ रुपए भी किसी के घर पर इकठ्ठा देखने को नहीं मिलते थे. (इस तरह की डींगें राक्षस का एक तरह से तकिया कलाम हुआ करती थी) मेरे पिता उस जमाने में भी हजारों की नकदी और संपत्ति के स्वामी थे. पूरे इलाके से वनों के कटान का ठेका अकेले वही उठाते थे. मगर मुझे तो पिता का वह रौबीला चेहरा ही अधिक याद है. रौबीला कद, रौबीला चेहरा, घनी मूँछें और श्याम वर्ण.अपनी औलाद के प्रति उनका प्रेम कभी देखा नहीं. उस समय की शायद रीत ही कुछ ऐसी थी कि पिता कभी अपने पुत्रों को भी गोद में नहीं लेते थे लाड़ जताना तो दूर की बात. पिता ने मुझे कभी गोद में उठाया हो, याद नहीं पड़ता लेकिन ध्यान बहुत रखते थे. कपड़े-लत्ते, सिलाई-टाँके, बटन-बूटे, सब दुरुस्त हों; तभी घर से बाहर निकलने देते. बिना माँ की इकलौती संतान होने के नाते शायद मुझपर यह करम अधिक था.
शेखी बघारी का वह दौर न था. अमीर-गरीब का फर्क आप उनके पहनावे, भोजन या घरों के जरिए नहीं कर सकते थे. भोजन तो सब का वही चना-चबैना, सत्तू-खाजा , दाणा-बुखाणा होता और खेलने के लिए वही दो-चार खेल – गिल्ली-डंडा, पकड़म-पकड़ाई और मुर्गा-झपट आदि. यही सब की साझी संपत्ति थी. स्कूल के लिए बस्ते में पाटी-बुल्ख्या , स्याही की दवात, होल्डर, पेन आदि बाँधकर दे दिया जाता. अमीर हो चाहे गरीब, सब के यही ढंग होते थे. लेकिन मेरे पिता अपने रौबीले कद-काठी पर नेहरू अचकन पहने, अलग ही ढंग के आदमी थे.
तब कपड़ा भी थान का आता था और राशन की दुकान पर ही मिला करता था. उसी से थोक के भाव नेकर, पेंट, कमीज और टोपियाँ सिल दी जाती थी. उसी को सारा साल चलाना होता था. कभी-कभी तो दो-तीन साल भी चलाना पड़ता था. जरूरतें कम थी. मगर पिताजी अपनी वस्त्र-सज्जा पर खासा ध्यान देते थे. उनकी वेशभूषा सबसे अलग और सबसे ज्यादा चर्चा पाती थी.
सवेरे जल्दी से उठ कर, मुंगेर पर सुबह-सुबह के गर्म पानी से नहा चुकने के बाद सिर पर खालिस सरसों का तेल चुपड़कर, सूरज उगने के पहले ही वे भागीरथी के पार अकेले निकल पड़ते थे. ऐसी हिम्मत और किसी में भी न थी. आदमी भी वह पूरे ढब के थे कोई भय नहीं, शिकन नहीं. जब तक गाँव के लोग जग पाते, आधा सफर पार कर, अपनी ठेकेदारी में पहुँच जाते. वहाँ मजदूरों के संग ही, सुबह की चाय पीकर, दोपहर के वक्त घर को वापस चल देते. ऐसे ही, शाम का एक पूरा चक्कर मारा करते. दिन में मीलों सफर कर लेते थे, और साथ में केवल एक लाठी.
मुझे स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद आगे की पढ़ाई के वास्ते टिहरी जाना था.मेरा बक्सा किताबों और घर के सामान से भरा पड़ा था. जिसमें शामिल था – रसोई के बर्तन और केरोसिन का एक चूल्हा. पूरा वजन लगभग साठ या सत्तर किलो रहा होगा. मगर पिताजी खुद ही मुझे छोड़ने भगीरथी के पार तक आए. वहाँ दोपहर के वक्त एकमात्र बस गुजरती थी. उसके इंतजार में सवेरे से सड़क पर बैठे-ही-बैठे हमने आधा दिन गुजार दिया. वहीं से मुझे वे अपने जंगल और ठेकेदारी के काम के बारे में बताते रहे. बस में बैठकर मानो कल्पनाओं को पर लग गए थे, हौसलों की उड़ान मिल गई थी. जल्दी पुरानी टिहरी के ढबो-बाजार मुझे अपनी जद में लेने लगे थे. नये यार-दोस्तों की बैल-बॉटम पेंट, और काले चश्मों का जादू, सर चढ़कर बोलने लगा था. सुबह से शाम का पता ही ना चलता. घंटों तक खेंट पर्वत को निहारा करता. सबसे अलग, सबसे भव्य. वह स्थान जहाँ आँछरियाँ रहती थी. पास की चोटियों में वही सबसे विचित्र थी. निरा ठूँठ.
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मगर मेरा यह सफर अधिक नहीं चला. घर से पिताजी का तार आया था. उन दिनों कुछ खास आपात-स्थितियों में ही तार भेजे जाते थे. दिल में अजब कशमकश हो गई.क्यों बुलाया होगा, पिताजी ने? क्या अनहोनी हुई होगी? आधे दिन में ही निकल पड़ा था. अगली शाम को पिताजी के पास पहुँचा. वे भले-चंगे दिख रहे थे. किसी ने भी कुछ नहीं बताया. एक अजब खामोशी घर पर छाई थी. जो कुछ मुझे पता लगा था, वह कुछ इस तरह था-
दो दिन पहले की बात थी. पिताजी बड़ी सवेरे अपनी लाठी हाथों में लेकर रोजमर्रा की भांति सैर को निकले थे – ठेकेदारी में पहुँचकर मजदूरों के साथ चाय पीने की खातिर. जिस रास्ते से वे रोज आते-जाते थे, उस रास्ते पर कुछ नया न था. मगर जैसे ही पहला घुमाव पार कर, नदी की सीध में आगे बढ़े होंगे कि आगे-आगे तीन सुंदर स्त्रियाँ, पूरा बनाव-शृंगार किए, लाल वस्त्रों में सजी-धजी, आपस में बातें करती जा रही थी. उनकी हँसी और खिलखिलाहट के स्वर यों तो मोड़ के पहले ही पिताजी ने सुन ली थी, पर जब तक वह पूरा माजरा समझते, देर हो चुकी थी. आपस में हास-परिहास करती उन स्त्रियों में से एक ने अचानक ही पिता की ओर इशारा कर पूछा, “और इस मनुष्य का क्या करें?”
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“चुन ले”. दूसरी ने इशारा किया. और तीसरी ने झट, दो कदम आगे बढ़ाते हुए, पिताजी के माथे पर तिलक कर दिया. वे तीनों हँसकर सामने भागीरथी की धारा में विलीन हो गई. पिताजी अवाक हो गए. काफी देर बाद प्रकृतिस्थ हो वे उल्टे पैर घर को लौटे. फौरन तार भेजने के लिए आदमी दौड़ा दिया. उन्हें कदाचित आभास हो गया था.
दंत कथाओं और लोक प्रचलित किंवदंतियों के हिसाब से उनके पास केवल तीन ही दिन का समय शेष था, क्योंकि आँछरियों ने उन्हें वर लिया था और तीन दिन बाद ही वे उन्हें हरने वाली थी.
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इस मोड़ पर राक्षस की आँखें डबडबा आईं. अपने स्वर्गीय पिता की स्मृतियों से वह भावुक हो उठा था. कहते-कहते राक्षस फट पड़ा और रोने लगा. पता नहीं वह शराब का सरूर था या उसकी सच्ची भावनाएं मगर जीवन में पहली बार राक्षस से हमदर्दी महसूस होने लगी थी.
फिर संयत होकर वह कहने लगा – पिताजी मुझे देखकर बहुत प्रसन्न हुए. रात भर मैं उनके सिरहाने बैठा रहा. रीति-नीति की कई बातें मुझे समझाने के बाद वे अपनी पारिवारिक विरासत, खेत, संपत्ति आदि के ब्यौरे बताने लगे. अगली सुबह मुझे साथ लेकर सारे खेत, घर और ठेकेदारी का मुआयना करवाया. जो दूर के खेत थे, उन्हें किसी ऊँची जगह से मुझे दिखलाकर, दोपहर तक हम घर आ गए. तब तलक भी उनकी तबीयत कहीं से भी खराब नहीं मालूम पड़ती है. बिस्तर पर लेट गए और मुझे सामने बैठाया. मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर कभी पुचकारते, कभी सीने से लगाते, और कभी आँसू बहाते तो कभी निःशब्द बस मुझे टेरते ही रहते. उनके अंतिम समय की वह तस्वीर आज तक मेरी आँखों में वैसी ही बसी है, जैसे अभी कल ही कि बात हो. मैंने उन्हें इस तरह पहले कभी नहीं देखा था, इतने करीब से भी पहली बार देखा था.
शाम होते-होते उनकी तबीयत बिगड़ने लगी, आँखें डूबने लगी, चेहरा एकदम से स्याह पड़ने लगा.मैंने उनकी आँखों के ढलते दियों की जगमगाहट को अपने आगे ही ढलक पड़ते देखा. बस, मैं ज़रा क्या ऊँघा था कि पलभर में लीला समाप्त हो गई. जैसे शाम का सूरज पहाड़ी पर डूब जाता है. रात होने के पहले ही आँछरियों ने पिता के प्राण हर लिए थे.
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इंद्रेश प्रसाद पुरोहित
गोचर महाविद्यालय, रामपुर मनिहारान, सहारनपुर के अंग्रेजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत इंद्रेश प्रसाद पुरोहित की यह कहानी हमें काफल ट्री की ईमेल आईडी पर प्राप्त हुई है. इंद्रेश प्रसाद पुरोहित से उनकी ईमेल आईडी [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.
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