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उत्तराखंड के एक कलेक्टर जिनका काम ही उनकी पहचान है

हमारे सिस्टम में तीन पदों की बड़ी अहमियत है, पीएम, सीएम और डीएम. किसी भी जिले में डीएम यानी कलेक्टर जिसे जिलाधीश भी कहते हैं और जिलाधिकारी भी, कुछ राज्यों में इसे उपायुक्त भी कहा जाता है. कहते हैं कि कलेक्टर को असीमित अधिकार होते हैं. ब्रिटिश शासनकाल के साल 1772 में सृजित किया गया यह पद उस वक्त भले ही भू-राजस्व की वसूली के लिए किया गया हो, लेकिन आजादी के बाद से देश में इस पद के मायने बदल चुके हैं. (Dhiraaj Garbyal)

एक कलेक्टर अपने आप में ‘छोटी सरकार’ होता है. वह राजनेताओं और ठेकेदारों की कटपुतली न बने तो बहुत कुछ कर सकता है. ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम जनता की छोटी-छोटी उम्मीदों पर तो खरा उतर ही सकता है. हालांकि सिस्टम में कुछ दिक्कतें हैं, कलेक्टर का पद ‘पालिटिकल पोस्टिंग’ बन चुका है, मगर कोई भी सरकार कलेक्टर को जनता के हित में व्यवहारिक फैसले लेने और काम करने से नहीं रोकती. कलेक्टर की कुर्सी पर बैठे अफसर में दम है तो वह सरकार से भी ‘फैसले’ करा सकता है. उत्तराखंड का गढ़वाल यानी पौड़ी जिला इन दिनों इसकी मिसाल बना हुआ है. यहां कलेक्टर के पद पर तैनात धीराज गर्ब्याल ने साबित किया है कि सोच सकरात्मक हो और काम करने का जज्बा हो तो छोटी कोशिशों से ‘बड़ी’ उम्मीदों को भी पंख लगाए जा सकते हैं.

राज्य बनने के बाद से उपेक्षित पौड़ी जिले में बीते साल भर से खासी हलचल है. पौड़ी में विकास के नए मॉडल सामने आ रहें हैं तो पर्यटन, शिक्षा, बागवानी और पशुपालन में भी नए प्रयोग हो रहे हैं. मसलन, पौड़ी के स्कूलों में कक्षा एक से पांच तक गढ़वाली बोली पढ़ाई जा रही है, कुछ स्कूलों में प्रातःकालीन सरस्वती वंदना भी पारंपरिक लोक वाद्य यंत्रों की धुन पर लोकभाषा में शुरु करायी गयी है. पर्यटन में सामूहिक सहभागिता के आधार पर ‘होम स्टे’ का एक आर्थिक मॉडल तैयार किया गया है. ‘बासा’ के नाम से यह मॉडल खासा चर्चा में है. एक ओर ‘मानसून मैराथन’ जैसे आयोजनों से विरासत और एतिहासिक पृष्ठभूमि तलाशने की कोशिश की जाती है, वहीं दूसरी ओर लीक से हटकर युवाओं को एडवांस प्रशिक्षण के लिए प्रतिष्ठित संस्थान से रूबरू कराया जाता है.

कोरोना काल में जब बड़ी संख्या में प्रवासी अपने गांवों में लौट रहे हैं तो ऐसे में उन्हें मुख्यमंत्री की ओर से गांव में रहकर खेती किसानी को आबाद के लिए गढ़वाली में पत्र भेजा जाता है. दरअसल काम कुछ अलग नहीं हो रहा है, बस फर्क जज्बे और नजरिये का है. बात इतनी सी है कि एक कलेक्टर अपनी सर्विस और भूमिका के साथ ‘न्याय’ कर रहा है. एक लोक सेवक के तौर पर कलेक्टर की भूमिका होती है कि वह लोक के प्रति जिम्मेदार, संवेदनशील और जवाबदेह रहे. लोक को समझे, उसकी जरूरतों को महसूस करे और उसके बहेतर भविष्य के लिए निष्पक्ष निर्णय ले. पौड़ी में की एक कलेक्टर की छोटी कोशिशें कैसे बड़े मुकाम की ओेर उठते बड़े कदम बन रहे हैं, आइये जानते हैं.

शुरुआत स्कूलों में गढ़वाली पढाने के निर्णय से, इस निर्णय पर आम राय अलग- अलग हो सकती हैं लेकिन यह अभिनव प्रयोग कहीं न कहीं लोक भाषा के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में उठा बड़ा कदम है. विश्व संगठन यूनेस्को जब उत्तराखंड की लोकभाषाओं को खत्म होने वाली श्रेणी में रख चुका हो तो ऐसे में यह प्रयोग सिर्फ लोकभाषा के लिहाज से नहीं, राज्य की संस्कृति के संरक्षण के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है.

लीक से अलग हटकर इस तरह के निर्णय लिए जाने की आज वाकई आवश्यकता है. सिर्फ वही लोकसेवक इस तरह के निर्णय ले सकता और जो लोक और समाज के प्रति संवेदनशील हो. काम इतना आसान भी नहीं था, इसके लिए विमर्श भी हुआ होगा, कार्ययोजना बनी होगी. कुछ करने का जज्बा था तो सोच रंग लायी और गढ़वाली बोली में रंग बिरंगी पाठय पुस्तकें तैयार हुई. नौनिहालों को ‘क’ से ‘कबूतर’ के साथ ‘कखड़ि’ और ‘च’ से ‘चखुलि’ भी पढाया जा रहा है. (Dhiraaj Garbyal)

इन्ही पुस्तकों के जरिये बच्चे गौरा देवी, तीलू रौतेली, श्रीदेव सुमन, चंद्र सिंह गढ़वाली से रुबरु हो रहे हैं. धगुलि, हंसुलि, छुबकि, पैजबि और झुमकि शीर्षकों से तैयार किताबें इसका प्रमाण हैं. इन पुस्तकों का मकसद बच्चों को, जिस लोक व समाज में वे रह रहे हैं उसके ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति से रूबरू कराना है.

अब बासा को ही लें, पर्यटन के क्षेत्र में पौड़ी जिले में हुआ यह भी एक अभिनव प्रयोग है, जो इन दिनों खासा चर्चा में है. बासा एक गढवाली शब्द है जिसका अर्थ है रात्रि प्रवास. पौड़ी के प्रसिद्ध पर्यटक स्थल खिर्सू में यह एक मॉडल के तौर पर शुरू किया गया. कलेक्टर धीराज गर्ब्याल की पहल पर विशिष्ठ पर्वतीय शैली में तैयार किया गया यह होम स्टे बहुत की कम समय में तैयार होकर फिलवक्त आकर्षण का केंद्र बना हुआ है. इसकी खासियत यह है कि इसका मॉडल राज्य की मूल अवधारणा से मेल खाता है.

धीराज के मुताबिक बासा एक पर्यटन आधारित आर्थिकी का मॉडल है जिसमें सरकार सब्सिडी या ऋण देने के बजाय होम स्टे तैयार करके देती है. जिसका संचालन सामूहिक सहभागिता के आधार पर किया जा रहा है. बासा को पर्यटन की योजना के तहत तैयार कर स्थानीय महिलाओं के स्वंय सहायता समूह को सौंपा गया है. इसके लिए समूह को बकायदा होम स्टे के संचालन और स्थानीय व्यंजनों की कुकिंग का प्रशिक्षण भी दिलाया गया है. बासा में पर्यटकों को प्रमुखता से स्थानीय व्यंजन परोसे जाते हैं. वहां स्थानीय उत्पादों का बिक्री केंद्र भी खोला गया है.

इसके पीछे अवधारणा यह है कि होम स्टे की आर्थिकी गतिविधियों से किसी न किसी रूप में आसपास के क्षे़त्र भी जुड़ जाएं. जिलाधिकारी धीराज का कहना है कि यह पूरा एक डवलपमेंट मॉडल है, बासा जैसे होम स्टे मॉडल से जहां एक ओर पर्यटन की संभावनाएं बढ़ेंगी, वहीं खेती, बागवानी और पशुपालन को भी बढावा मिलेगा. स्थानीय उत्पादों की डिमांड बढ़ेगी, उन्हें बाजार मिलेगा तो उत्पादन भी बढ़ेगा और रोजगार भी मिलेगा.

बासा अपने शुरुआती चरण में सफल प्रोजेक्ट माना जा रहा है. यही कारण है कि खिर्सू में ही ‘बासा-2’ तैयार किया जा रहा है. दरअसल बासा की सफलता के पीछे कलेक्टर धीराज गर्ब्याल का अनुभव है. कुमाऊं मंडल विकास निगम में प्रबंध निदेशक रहते हुए उन्होंने अभिनव प्रयोग करते हुए व्यास और दार्मा वैली में इसी तर्ज पर होम स्टे तैयार कराये. (Dhiraaj Garbyal)

कैलाश यात्रा मार्ग में पड़ने वाले गांवों में तैयार कराये गए होम स्टे आज कामयाबी की कहानियां कह रहे हैं. नाबी में होम स्टे के पांच साल पूरे होने पर वर्ष 2021 में होम स्टे महोत्सव की तैयारियां की जा रही हैं. बहुत संभव है कि बासा जैसी सफल परियोजनाएं सिर्फ पौड़ी या सीमांत जिले पिथौरागढ के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित होकर रह जाएं, मगर इसमें कोई दो राय नहीं है कि बासा जैसी परियोजनाएं सीमांत क्षेत्रों की आर्थिकी के लिए संजीवनी हो सकती हैं. दरअसल किसी भी योजना, परियोजना को मूर्त रूप देने में किसी भी नौकरशाह की बड़ी भूमिका होती है, कोई भी योजना कामयाब हो सकती है यदि उसमें धीराज जैसा जज्बा हो.

धीराज के जज्बे का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि कोरोना लाकडाउन के दौरान डीएम के आवास में बासा-2 के लिए नक्काशी का काम करने बुलाए गए कारीगर डीएम आवास में ही अपने काम को अंजाम देने में जुटे हैं. सब कुछ ठीक रहा तो पौड़ी पर्यटन और बागवानी के क्षेत्र में अभिनव करने वाला जिला साबित होगा. पौड़ी के सतपुली में एक ‘एंग्लिंग कैंप’ तैयार हो रहा है, पर्यटन से जुड़ी यह परियोजना अपने अंतिम चरण में है. इस परियोजना में कैंपिंग, एंग्लिंग के साथ ही स्वीमिंग पूल और एयरोस्पोर्टस को भी शामिल किया गया है. दूसरी ओर पौड़ी को सेब उत्पादन का बड़ा केंद्र बनाने की तैयारी है .

नौकरशाहों की तो राज्य में भरमार है, मगर चुनिंदा नौकरशाह हैं जो धीराज गर्ब्याल जैसी लोकप्रियता हासिल करते हैं. कहते हैं, कि वो कलेक्टर ही क्या जो अपने जिले की नब्ज न पकड पाए. अब देखिये, बीते सालों में न जाने कितने कलेक्टर आए और गए मगर कंडोलिया की दुर्दशा किसी कलेक्टर को नजर नहीं आयी. धीराज ने न सिर्फ कंडोलिया के कायाकल्प की योजना तैयार की बल्कि उस पर अमल भी शुरू करा दिया. जो भी लोग पौड़ी से वाकिफ हैं वे जानते हैं कि कंडोलिया पार्क सालों से दुर्दशा का शिकार बना हुआ था.

कई कलेक्टर आए और गए लेकिन हर दिन वहां से गुजरने वाले कलेक्टरों ने इसकी सुध नहीं ली. अब एक ओर कंडोलिया को पर्यटक स्थल के रूप में पुनर्जीवित करने का काम युद्धस्तर पर चल रहा है तो दूसरी ओर कंडोलिया से लेकर सर्किट हाउस तक की सड़क को माल रोड के तौर पर विकसित किए जाने की योजना है. (Dhiraaj Garbyal)

किसी भी राज्य की तरक्की और सरकार की छवि बनाने में नौकरशाहों की भूमिका अहम होती है. सरकारें इसीलिए नौकरशाहों पर भरोसा भी करती हैं. धीराज वही अधिकारी हैं जिनकी पुस्तक ‘थ्रोन आफ द गॉड’ का विमोचन मुख्यमंत्री ने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों कराया. इस पुस्तक में उन्होंने नेपाल और तिब्बत सीमा से लगी खूबसूरत घाटियों का वर्णन करते हुए हिमालय के रहस्यमयी लोक से पर्दा उठाया है. प्रदेश में बहुत कम लोग होंगे जो ‘हनीफेल’ के बारे में जानते हों. पहली बार किसी कलेक्टर ने अपने जिले के युवाओं को आउटडोर लीडरशिप कोर्स चलाने के लिए इस संस्थान से रुबरु कराया. हनीफेल एक ऐसा संस्थान है जो आउटडोर पर्यटन और प्रकृति आधारित व्यवसाय के क्षेत्र में काम करने वालों को विश्व स्तरीय प्रशिक्षण प्रदान कराता है. धीराज ने अपने जिलों के प्रगतिशील युवाओं के लिए इस संस्थान से प्रशिक्षण दिलाया. यही नहीं, पांच साल से बंद पड़े राइफल क्लब को भी पुनर्जीवित किया.

आमतौर पर कलेक्टर आज सिर्फ एक पोस्टमास्टर की भूमिका में हैं. जनता की समस्या पर निर्णय लेने के बजाय उन्हें सरकार की ओर सरकाने का काम करते हैं और कुछ नया करने के लिए सरकार के आदेश और बजट का इंतजार करते हैं. पौड़ी जिले की बात इन दिनों अलग है. उदाहरण के तौर पर पौड़ी में सेब की उन्नत खेती के लिए योजना तैयार हुई. विभाग के पास न प्रशिक्षित हैं और न विशेषज्ञ, ऐसे में सरकार की ओर नहीं ताका गया. जिला प्लान से वित्तीय मदद लेकर किसानों के प्रशिक्षण के लिए हिमाचल की प्रतिष्ठित ‘काल्सन नर्सरी’ से अनुबंध किया गया. किसानों को उन्नत किस्म के सेब के पौधे सस्ते दामों में उपलब्ध हों इसके लिए मॉडल नर्सरी तैयार करने का काम शुरू कर दिया गया. नैनीडांडा ब्लाक में सालों से निष्क्रिय पड़े पटेलिया फार्म में एमएम सीरीज की दस हजार रुट स्टॉक क्षमता के सेब के पौधों की नर्सरी विकसित की जा रही है. दिलचस्प यह है कि मॉडल के तौर पर डीएम आवास में भी उन्होंने तकरीबन सौ पेड़ों का सेब का बगीचा तैयार कराया है. (Dhiraaj Garbyal)

सिलसिला यहीं नहीं थमता, पशुपालन से आजीविका बढ़ाने की दिशा में भी बड़ा काम हो रहा है. अक्सर पायलट प्रोजेक्ट सरकारी सिस्टम के नकारेपन की भेंट चढ़ जाते हैं, मगर पौड़ी में बद्री गायों में नस्ल सुधार प्रोजेक्ट से दुग्ध उत्पादन बढ़ने से पशुपालकों की आय बढी है.

अब थोड़ी बात प्रशासनिक संवेदनशीलता की. पौड़ी जिले के दूरस्थ गांव के जंगल में घास लेने गयी महिलाओं पर भालू का हमला होता है, सूचना डीएम तक पहुंचती है तो तत्काल सरकारी हेलीकाप्टर की व्यवस्था हो जाती है और घायल महिलाओं को एम्स ऋषिकेश पहुंचाया जाता है. खिर्सू में एक विदेशी पर्यटक के सड़क दुर्घटना में घायल होने की सूचना मिलती है तो प्रशासन एकदम हरकत में आ जाता है, घायल पर्यटक को तत्काल एयर लिप्ट करा दिया जाता है.

सच तो यह है कि इसी संवेदनशीलता की उम्मीद आम जनता सरकार से करती है. यही छोटी सी बात समझने में हमारे लोक सेवक अक्सर चूक कर जाते हैं. आमतौर पर कलेक्टर या तो किसी राजनेता या फिर किसी कार्पोरेट या माफिया के हाथों कटपुतली होते हैं, ऐसे कलक्टर न जनता के होते हैं और न सिस्टम के. वे वक्त के घोड़े पर सवार होकर आते हैं और अपना उल्लू सीधा कर निकल भी जाते हैं. जनता न उन्हें जानती है और न याद रखना चाहती है, मगर कुछ अफसर अपनी ‘छाप’ हमेशा के लिए छोड़ जाते हैं.

उत्तराखंड में हालांकि नौकरशाहों की छवि बहुत अच्छी नहीं है मगर धीराज नौकरशाही का वो चेहरा है जो इस राज्य की आत्मा के साथ जुड़ा है. धीराज ने साबित किया है कि कलेक्टर प्रगतिशील और सकरात्मक सोच के साथ संवेदनशील और ऊर्जावान हो तो निसंदेह अपनी भूमिका के साथ न्याय ही नहीं करता, बल्कि नयी ‘मिसाल’ भी पेश करता है, और लोकप्रियता भी हासिल करता है. (Dhiraaj Garbyal)

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देहरादून के रहने वाले योगेश भट्ट अनन्या मीडिया को-ऑपरेटिव के फाउन्डर हैं. लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े योगेश जनपक्षीय पत्रकारिता के लिये लोकप्रिय हैं.

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Kafal Tree

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  • Excellent report on Dheeraj Garbayal.Congrats Kafal Tree
    We should also cover many other person of Uttarakhand

  • वाह, असाधारण व्यक्तित्व एवं कार्यशैली। बहुत धन्यवाद सर् पौड़ी को निखारने के लिए एवं लेखक महोदय को बहुत धन्यवाद ।

  • केवल इस तरह की सकारात्मक सोच वाले अधिकारी ही देश को उन्नति के मार्ग पर अग्रसर कर सकते हैं। जिनकी देश में कमी है। "अति प्रशंसनीय" महोदय ' आप नित्य नये प्रयासों के साथ निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर रहेंगे यही हमारी कामना है।

  • Nice attempt Mr Dheeraj
    Aap Jaise mahanubhaon aur paragatisheel , karmath yodhao ki jarurat hai Uttarakhand ko.

  • Thanks to team 'Kafal Tree' for bringing such reports on our Uttarakhand and it's people.

    Namaste,
    Naresh Dhapola

  • आजकल के रूटीन नौकरशाहों से हटकर जनता के लिए काम करने वाले अधिकारी धीराज जी को सामने लाने के लिए काफल ट्री को साधुवाद । राजनीतिक दखलंदाजी ऐसे कई अफसरों को अपनी तरह निष्क्रिय कर देती है, ईश्वर ना करे धीराज जी के साथ ऐसा हो ।

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