एक मनोरंजक कल्पना कीजिए, अगर महात्मा गांधी अहिंसा और सत्याग्रह का प्रवचन करते हुए अपने भक्त लठैतों (तब भी ऐसे भक्तों की कमीं नहीं थी जिनका गांधी के विचार से कोई लेना देना नहीं था बल्कि वे धोती, गीता और लकुटी पर ही मुग्ध रहा करते थे) को भेजकर रात के अंधेरे में अंग्रेज अफसरों की टांगे तुड़वाते, कांग्रेस में अपने विरोधी गुट के नेताओं की बोलती बंद करा देते या आश्रम में रोज शाम को होने वाली प्रार्थना से अपनी कोठरी में लौटकर कस्तूरबा गांधी की मरम्मत करते तो क्या होता…अगर वे अपने इस दोमुंहे तरीके से अंग्रेजों को भगाने में कामयाब हो जाते तो भी एक बात निश्चित है कि आज दुनिया भर में उनकी मूर्तियां न लगी होतीं और उन्हें अन्याय के खिलाफ उत्पीड़ितों के प्रेरणास्रोत की तरह याद नहीं किया जाता. वह एक वक्ती, कुटिल कांग्रेसी के तौर पर कब के भुला दिए गए होते. उनकी इतनी प्रबल सर्वग्रासी अपील नहीं होती कि उनके विरोधियों को न चाहते हुए भी फोटो के आगे सिर नवाना पड़ता. गरज यह है कि एक वास्तविक नेता और अभिनेता दोनों बातें एक ही तरह की करते हैं लेकिन अंतर उनके संकल्प और नीयत में होता है जो परिणाम के रूप में जनता के सामने आता है.
दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिन तक आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जो उलटबांसियां कहीं उससे बहुत से पेशेवर बुद्धिजीवियों ने नतीजा निकाला है कि संघ उदार हो रहा है, भारतीय लोकतंत्र की सचाईयों की रोशनी में खुद को बदल रहा है. बुद्धिजीवियों की व्याख्याएं उनकी तात्कालिक जरूरतों के कारण पैदा होती हैं और तात्कालिकता में ही बिला जाती हैं. उनकी उपयोगिता, तात्कालिक उपभोग के लिए अखबार का एक पन्ना, चैनल का एक खाली स्लॉट भरने, मीडिया हाउस की व्यावसायिक नीति के हिसाब से एक फबती हुई टीप से ज्यादा नहीं होती वरना मुसलमानों के बिना कैसा हिंदुत्व! का थिएटरी डॉयलाग सुनकर दिखाई देना चाहिए था कि ‘वैसा ही’ कारपोरेट का चाकर, अपने कमजोर शिकार चुनकर हत्याएं करता हुआ वर्णाश्रमी हिंदुत्व जैसा इन दिनों देश पर छाया हुआ है. याद आना चाहिए था कि आरएसएस की ही प्रेरणा से पिछले आमचुनाव में भाजपा ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया था. साफ बता दिया था, तुम हमारे लिए अछूत हो और तुम्हारी जगह यहां नहीं कहीं और है. वह चुनाव संसद को मुसलमान मुक्त करने के लिए भी लड़ा गया था.
ध्यान जाना चाहिए था कि भागवत और अमित शाह एक सुर में कह रहे हैं, अयोध्या में मंदिर ही टूटा था और जैसे भी हो जल्दी मंदिर ही बनना चाहिए. पहले वे बाबरी मस्जिद को विवादित ढांचा कहने पर जोर देते थे अब मंदिर कहने लगे हैं. अगर कोई पूछ ले कि मंदिर ही था, रामलला विराजमान भी थे तो तोड़ा क्यों? तब वे हमने कहां तोड़ा के बाद, मामले के अदालत में विचाराधीन होने हवाले से आपको कानून की प्राथमिक शिक्षा देने से लेकर मंदिरों के स्थापत्य और पवित्रता के बारे में किसी पुराण का मत बताने तक कुछ भी कर सकते हैं. यह आरएसएस की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह झूठ-सच के फेर में न पड़कर किसी एक ही मसले पर परस्पर विरोधी बातें करता हुआ एक सुनिश्चित दिशा में आगे बढ़ता रहता है. यह वर्णाश्रम उन्मुख दिशा एतिहासिक तौर पर मुसलमानों, इसाईयों और कम्युनिस्टों से घृणा की पाई गई है. राम मंदिर मौके के हिसाब से कभी चुनावी मुद्दा होता है, कभी आस्था का मुद्दा होता है, कभी अदालत में विचाराधीन मुद्दा होता है, कभी मुद्दा होता ही नहीं. इन सबको देखता स्वयंसेवक उस बच्चे की तरह खिलखिलाता रहता है जिसके आगे सरसंघसंचालक थप्पड़ दिखाएं, भयंकर मुखमुद्राएं बनाएं, चीखें चिल्लाएं लेकिन उस पर असर नहीं पड़ता. वह प्रशिक्षण से जानता है कि इस नाटक के पीछे वास्तविक मंशा क्या है. हो सकता है इस बार नतीजा यह निकाला गया हो कि उन मुसलमानों के बिना हिंदुत्व अधूरा है जो आने वाले दिनों में मस्जिद को मंदिर कहने लगेंगे. कई मुंह और एक सिर की रणनीति से आरएसएस का जितना विस्तार हुआ वह उतना ही संदिग्ध भी होता गया जो हर संघी की अनकही पीड़ा है.
इस समय आरएसएस अपने इतिहास में सफलता के चरम बिंदु पर है. बीते चार सालों में सरकारी संरक्षण में ऐसी भीड़ बन चुकी है जो म्लेच्छों का संहार कर रही है और आत्मविश्वास की स्थिति यह है कि स्वाधीनता आंदोलन और संविधान के प्रति राष्ट्रविरोधी भूमिका होते हुए भी कांग्रेस व अन्य को देश की आजादी में योगदान के लिए बधाई दी जा सकती है, ऐसे में अचानक मधुर एवं चित्ताकर्षक जैजैवंती गाने का क्या अर्थ है. दिखाई दे रहा है कि घोटालों से घिरे मोदी का जादू उतार पर है और संघ, खर्च हो चुके बड़बोले अहंकारी मंत्रियों और सत्ता से मदांध हुए कल के महान अभिनेता के वचन और कर्म से दूरी बना रहा है ताकि अगले चुनाव के बाद नई परिस्थितियों में नए ढंग से चितपावन हिंदुत्व की परियोजना को आगे चलाया जा सके.
अनेक मीडिया संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर अपने काम का लोहा मनवा चुके वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव बीबीसी के ऑनलाइन हिन्दी संस्करण के लिए नियमित लिखते हैं. अनिल भारत में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले स्तंभकारों में से एक हैं. यात्रा से संबंधित अनिल की पुस्तक ‘वह भी कोई देश है महराज’ एक कल्ट यात्रा वृतांत हैं. अनिल की दो अन्य पुस्तकें भी प्रकाशित हैं.
(मीडियाविजिल से साभार)
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