उन दिनों यह अफवाह जोरों पर रहती थी कि, इंटर साइंस कर लो, तो घर पर ही बुलावा आ जाता है. एक दिन भी बेरोजगार नहीं रहने देते. पकड़-पकड़कर नौकरी देते हैं. अगर कहीं छुप भी जाओ, तो वहीं पहुँच जाते हैं. पीछा नहीं छोड़ते. खोज-खोजकर नौकरी देते हैं. जब तक नौकरी न दे दें, तब तक चैन से नहीं जीने देते. संक्षेप में, काबिलियत की बहुत पूछ है. साइंस का बोलबाला है. साइंस वालों का तो अकाल सा पड़ा हुआ है. उप्परसैरी (ओवरसियरी) तब ठाठ की नौकरी मानी जाती थी।) साइंस का क्लास था. मास्टरजी गति के नियम पढ़ा रहे थे. तीनों नियम बड़े-बड़े हर्फों में बोर्ड पर लिखे हुए थे. उन्होंने पूरी ताकत के साथ कक्षा को डिटेल में समझाया. अंत में वे ‘एक्सीलेरेशन’ और ‘ग्रेविटी’ का अंतर समझाने की चेष्टा करने लगे. अकस्मात् वे परीक्षण के मोड में आ गए. जिसके लिए उन्होंने एक पारंपरिक सा नुस्खा आजमाया- ‘फाइनल वेलोसिटी’ और ‘इनिशियल वैलोसिटी’ के सिंबल बोर्ड पर लिखे अर्थात् पहली लाइन में लिखा– ‘स्मॉल व्ही’ और दूसरी में ‘स्मॉल यू’, फिर क्लास से पूछा- “ये क्या है?” “कोई बताएगा?” सवाल ‘है कोई माई का लाल’ वाले स्टाइल में पूछा गया था. शायद आगे की दो-तीन लाइनों से दो-तीन लड़कों ने हाथ उठाए. अंतिम कतार में भी एक हाथ खड़ा था. वह हाथ भाई राजे सिंह का था. वैसे तो कई मामलों में अक्सर उनका हाथ बताया जाता था, लेकिन वो बातें बाद में. क्लास के बाकी लड़के संकोच के मारे चुप बैठे रहे. लड़कों में मास्टर जी का भय व्याप्त रहता था. उनका घंटा शुरू होते ही शरीर में विद्युत् धारा दौड़ जाती. चंट से चंट लड़कों को सांप सूँघ जाता. लड़के घड़ी-घड़ी की खैर मनाते. चूँकि वे सीधे चमड़ी उधेड़ते थे. बच्चों को तो अक्सर पीटते ही रहते थे, गाहे-बगाहे प्रिंसिपल साब पर भी हाथ आजमा लेते. तो उनकी क्लास में लड़कों की जिम्मेदारी पढ़ने-लिखने के बजाय स्वयं को सकुशल बचाने तक सीमित होकर रह जाती थी.
राजेसिंह सदा ‘लास्ट रो’ में विराजते थे- हृष्ट-पुष्ट काया के अलावा, यह उनकी निजी पसंद का मामला भी बनता था. बहरहाल, राजे सिंह का उल्लास चरम पर था. कक्षा में उनका हाथ सबसे ऊँचा दिखाई पड़ा. वे उचक-उचककर मास्टर जी का ध्यान आकर्षित कर रहे थे. राजेभाई थोड़ा बेचैन से दिखे और उनकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी. शायद जवाब देकर अपने मन को हल्का कर लेना चाहते थे. फिर वे उछल-उछलकर गुरु जी को लुभाने की चेष्टा करने लगे. जिस तरह से ‘उत्साही बाराती’ हाथ नचा-नचाकर ‘बैंडमास्टर’ को लुभाते हैं. यूँ समझ लो कि, राजेभाई के हाथों की उंगलियों में बस नोटों की कमी रह गई थी. सहसा गुरु जी का ध्यान ‘बैक बेंचर्स’ की ओर गया- मात्र एक हाथ. वह भी राजे सिंह का. राजेभाई के बारे में यह बात मशहूर थी कि, वे ज़ेहनी बातों में लगभग निःशस्त्र ही रहते हैं. वे बिल्कुल स्वतंत्र विचार रखते थे. ऐसे विचार, जो अक्सर न तो किसी सिद्धांत से मेल खाते थे, ना ही किसी किताब से. तो गुरुजी के चेहरे पर उत्साह और उल्लास एक साथ दिखाई पड़ा. चलो कुछ न सही, आखिर राजे सिंह की हीनग्रंथि तो दूर हुई. बैक बेंचर, वो भी राजे सिंह. उन्होंने अग्रिम पंक्ति के पढ़ाकू लड़कों को हाथ नीचे करने का आदेश दिया और मुलायमियत के साथ पीछे की पंक्ति की ओर देखा. उन्होंने बड़ी उम्मीद से पूछा, “बताओ भई, बताओ. शाब्बाश, वी माने?” जवाब आया, “हम.” “और यू माने ?” “तुम!” ऐसे नायाब जवाब सुनकर मास्टर जी को गहरा धक्का लगा. उनके माथे की सलवटें उभरने लगी. अगले चरण में उनकी त्योरियाँ, मत्थे से जा लगीं. लड़कों को समझते देर न लगी कि, अब वे हत्थे से उखड़ चुके. अचानक उनका रक्तचाप उफान भरने लगा. कहने की बात नहीं है कि, उनका उसे कंटाप लगाने का बहुत मन हुआ, जो ब्लैकबोर्ड के पास रहते संभव नहीं था. अतः रिकॉर्ड समय अर्थात् माइक्रो सेकंड्स में वे उसकी सीट तक जा पहुँचे. पहुँचने की बात थी भी. कहाँ तो वे उससे ‘विज्ञान’ के सवाल पूछ रहे थे और कहाँ वह ‘भाषा-विज्ञान’ के जवाब दे रहा था. अनूठी ‘सर्वनाम-शैली’ में जवाब सुनकर मास्टरजी उसका ‘सर्वनाश’ करने पर उतारू हो गए. क्लास में न्यूटन का तीसरा नियम बिलकुल ही फेल हो गया. ‘क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया’ कई-कई गुना ज्यादा हुई. ‘गति’ का जवाब देने के चक्कर में राजेसिंह अपनी ‘दुर्गति’ करवा बैठे.
दरअसल राजे भाई हल्केपन के मूड में नहीं थे. न ही वे मखौल उड़ाने की कोशिश कर रहे थे. उनका मूल स्वभाव, था ही ऐसा. इससे काफी साल पहले भी वे ऐसा कारनामा कर चुके थे. तब वे मिडिल क्लास में पढ़ते थे. उसी साल पहाड़ से ताजा-ताजा उतरे थे. परीक्षा में विज्ञान के परचे में पूछा गया था- ‘गति’ किसे कहते हैं.’ राजेभाई ने बड़ा ही मार्मिक किंतु रोचक जवाब लिखा- ‘जब कोई बुढ़िया मरती है, तो उसे घाट पर ले जाते हैं. चिता लगाकर फूँक-फाँक देते हैं. इस घटना को ‘गति’ कहते हैं. ‘राजेभाई अपने हिसाब से एकदम दुरुस्त थे. बस चूक यहाँ रह गई कि वे साईंस के परचे में धर्मशास्त्र का दशगात्र-विधान लिख आए. एक किस्म से बात कुछ ज्यादा ही ऊँची लिख आए थे. गढ़वाली बोली में अंतिम संस्कार को ‘गति’ कहा जाता है.गहरे अर्थों में देखा जाए तो स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर का बाहर निकलना ही वास्तविक गति है. इहलोक से परलोक की यात्रा सम्यक् गति है, तो प्राणी का इस संसार से मुक्त होना, सद्गति.मास्टर जी, इस बात को जानते थे, लेकिन चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे. वे कर्तव्य-बोध से बँधे थे- ‘डेफिनेशन इज डेफिनेशन.’ फलस्वरूप राजेभाई को ‘डबल अण्डा’ मिला. कोई पाश्चात्य प्रोफेसर होता तो शायद इस जवाब के पीछे का दर्शन देखता. जानने की कोशिश करता. वह उसकी भावना को समझता. शायद भौतिकता से परे जाकर, लिखे गए जवाब की नैसर्गिक महत्ता को बूझता….बहरहाल मास्टर जी को तो तथ्य का सत्यापन मात्र करना था. गणित की कक्षा में भी उन्होंने कुछ डिफरेंट सा किया. ‘डायनामिक्स’ में मास्टर जी गति के नियमों के एप्लीकेशन पर सवाल लगा रहे थे. वायुमंडल से गिरता हुआ पिंड, धरती पर टकराने वाला था. उसी का ‘आवेग’ निकालना था. गुरु जी ने गौर से, जोर देकर समझाया कि, इसमें ‘इनिशियल वेलोसिटी’- ‘जीरो’ होगी और ऐसी स्थिति में ‘एक्सीलेरेशन’ के बजाय ‘ग्रेविटी’ काम करेगी. भाई राजेसिंह को इस बात पर सख्त ऐतराज हुआ. वे कोई और फार्मूला सुझाने लगे-शायद ‘फोर्थ डाइमेंशन’ जैसा कुछ बोल रहे थे. यह सुनकर गुरुजी का दिमाग चकरा गया. वे जानते थे कि, राजे के पास पास ज्ञान तो अथाह है, किंतु सब का सब निरर्थक.अतः गुरुजी ने उसे समझाते हुए कहा, “भई राजे! बहुत हो गया. अब बैठ भी जाओ. “राजे भाई उत्तेजित होकर खड़े रहे, “नहीं गुरु जी, मेरा जवाब सौ टका सही है.” “यह फॉर्मूला, आखिर तुमने देखा कहाँ से ?” गुणीजन अपना बखान अपने मुँह से कहाँ करते हैं. तो काफी देर तक राजेभाई चुप्पी साधे रहे. मास्टर जी के कोंचने पर बोले, “जी, मेरी किताब में तो ऐसा ही लिखा है.” “दिखाओ तो जरा अपनी किताब.” “किताब तो मेरी, घर पेई रह गई.” “हाँ भाई! बहुत संभव है कि, तुम्हारी किताब में ऐसा हो. आखिर वो तुम्हारी किताब है. किताब है कि, ठठ्ठा. हम कहाँ मना कर रहे हैं. तुम कहते हो तो जरूर ऐसा ही होगा. यह भी संभव है कि, तुम्हारी किताब का इकलौता एडिशन छपा हो. “गुरु जी ने आखिर इस अंतहीन वार्ता-संघर्ष को विराम दिया. वे उसकी ‘प्रतिभा’ के हददर्जे के कायल थे. जो मास्टर उन्हें समझते, उन्हें समझाने के ज्यादा फेर में नहीं पड़ते थे. वे भली-भाँति जानते थे कि, उनकी कोशिश असफल कोशिश कहाएगी और अंत में उन्हें मुँह की खानी पड़ेगी.
छमाही इम्तिहान में राजे भाई ‘क्लियर पास’ हो गए. गुरुजनों की आशा के विपरीत वे पास थे. इस तथ्य पर पहले तो सबको गहरा आश्चर्य हुआ. फिर कइयों को गहरा सदमा लगा .चूँकि गुरुजन उनकी ‘विलक्षण प्रतिभा’ के बारे में राई- रत्ती तक जानते थे.उन्हें सहज ही यह विश्वास हो चला कि राजे ने जरूर कोई विवादास्पद या कुछ हद तक किसी किस्म का कोई गैरकानूनी कदम उठाया है. अन्यथा उनकी नजर में ऐसा नतीजा आना असंभव था. अपुष्ट सूत्रों के हवाले से खबर यह थी कि राजे भाई को आखिर पास तो होना ही था. पढ़ाई- लिखाई में उनकी एक तरह की अक्षमता थी, जिसकी भरपाई उन्होंने दूसरी तरह की क्षमता से पूरी कर डाली. चूँकि वे ‘ओरिजिनल थिंकिंग’ धारण करते थे. अतः उन्होंने जरूरत के मुताबिक पास होने का कोई धमाकेदार रास्ता खोज निकाला. बकौल उनके जिगरी दोस्त, ‘सॉलिड तोड़’ निकाला. राजे भाई ने ठोस तरह का एक क्रिएटिव- क्रिटिकल और कालजयी किस्म का काम किया, जिसे दशकों बाद सिनेमा में ‘थ्री इडियट्स’ नामक चलचित्र के माध्यम से दोहराया गया. सिनेमाई नायक ने तो अपने दोस्त के लिए आने वाले पर्चे को, बारिश भरी रात में आउट किया था. जिसमें वे रंगे हाथ भी पकड़े गए, जबकि राजे भाई ने यह कारनामा खुद के लिए किया था, वो भी अकेले. किसी को उसमें भागीदार या साझेदार नहीं बनाया और न ही इस वारदात में कभी पकड़े गए. इतना भारी जोखिम लेकर भी वे मात्र तैतीस नंबर ला सके. उनके प्रशंसकों का कहना था कि राजेभाई ‘नीडी’ हैं, ‘ग्रीडी’ नहीं. उन्होंने खजाना हाथ में होते हुए भी काम भर की ही चोरी की. वे चाहते तो पूरे-के-पूरे नंबर ला सकते थे, जबकि ‘बैरी-दल’ की मान्यता कुछ भिन्न थी. उनका कहना था कि वह सौ नंबर के सवाल जानते हुए भी, उसमें से केवल तैतीस नंबर के ही जवाब खोज पाया. इसके बाद कहने को क्या शेष बचता है, जिससे बखूबी साबित होता है कि उसका ‘ऊपरी माला’ एकदम खाली है. बहरहाल, मामले का जब तक पता चला, तब तक तो मामला ‘टाइम-बार’ हो चुका था. हालांकि, वे लंबे समय तक छुप-छुपकर, मास्टर जी के सपनों में आते रहे. इस घटना के बाद मास्टर जी चौकन्ने होकर सोने लगे. ‘जरा आँख मूँदी नहीं कि, काम कर जाएगा’ का डर उन पर हरसमय तारी रहने लगा. इस तरह से उन्होंने लड़कों के बीच जगह ही नहीं बनाई वरन् वे एक तरह से उनके रहनुमा भी बन चुके थे.
बोर्ड-परीक्षा से ऐन पहले कुछ दिनों की छूट मिलती थी. विशेष तैयारी के लिए, पढ़ने के लिए. बस एक-दो दिन फाइनल प्रैक्टिकल के लिए जाना होता था. हफ्ता-दस दिन घर पर रहो, घोटकर पढ़ो. इसके पीछे स्कूल आने-जाने में जाया हो रहे समय को बचाने की भावना काम करती थी. यह सहूलियत, मात्र बोर्ड परीक्षार्थियों तक सीमित रहती थी.होम एग्जाम वाले नियमित रूप से स्कूल जाते थे. शनिवार का दिन था. अंतिम वादन.घंटा बजते ही लड़के मैदान में आकर बिखर गए. फिजिकल टीचर ने मोर्चा सँभाला.सबको लाइन अप करना उनके लिए बायें हाथ का खेल था. यह ‘ऐक्स्ट्रा करिकुलर ऐक्टिविटीज’ कहलाती थी, जिसमें अक्सर कागजी फूल से गुलदस्ते बनाकर दिखाने वाले आते थे. ज्यादा हुआ तो नट-बाजीगर और मलखंभ. कभी-कभार टोपी से कबूतर निकालने वाले भी आ जाते थे. उस दिन कुछ अलग सी बात थी.जूडो-कराटे का कोई विशेष दल आया हुआ था. बगुले जैसी झक सफेद पोशाक पहने हुए. दल के सभी सदस्य बाहरी थे, सिवाय राजेसिंह के. तो दल ने पहले कुछ द्वंद्व दिखाये. फिर, व्यक्तिगत प्रदर्शन. इस दल में राजेसिंह का होना महज इत्तेफाक नहीं था. बोर्ड-स्टूडेंट होने के नाते जाहिर सी बात थी कि, वह सीधे निशाने पर आ गया. प्रिंसिपल साहब की निगाहें फिसलकर उसी पर जा टिकी. दर्शकों ने देखा कि, उनकी आँखें आकार में क्रमशः बड़ी होती जा रही थीं. वे उसे एकटक देखते जा रहे थे, निर्निमेष.
अगला दृश्य क्या होगा, किसी को भी पता नहीं था. सहसा अगले अंक में राजेसिंह का प्रवेश हुआ. उसने जापानी अदा में दर्शकों (गुरुजनों एवम् विद्यार्थियों) का अभिवादन किया. प्रिंसिपल साब का, अलग से किया, एकदम कलात्मक ढ़ंग से. रंगमंच सजा हुआ था, जिसमें लपलपाती आग में एक के ऊपर एक करके दो ईंटें रख दी गईं. बड़ा दिलकश नजारा था. यह उसके लिए सीधी-सीधी चुनौती थी. उसने एक नजर दीर्घा पर डाली और मंथर गति से आगे बढ़ा. सधे हाथ से एक ही वार में उसने दो ईंटों के चार टुकड़े कर डाले. गुरुजन हैरान थे. उनकी आँखें आश्चर्य से फैली की फैली रह गई. प्रिंसिपल साहब पहले से ही असहज लग रहे थे. अब तो एकदम से तिलमिलाकर रह गए. उन्होंने उसे तिरस्कार- भाव से देखा और ‘हुँह्’ किया, जो इस बात का पुख्ता प्रमाण था कि, उसका ‘करतब’ उनके गले नहीं उतरा. वे मन ही मन बोले, ‘न शर्म न हया. बेशर्म कहीं का.’ उसने हुनर दिखाया भी तो बिलकुल ‘ऐसी की तैसी’ वाले अंदाज में. परीक्षा सर पर थी. कहाँ तो गुरुजनों को आशा थी कि वह जी-तोड़ मेहनत कर रहा होगा. इधर उसकी मुस्तैदी का आलम था कि, वह ईंटा तोड़ने में जीजान से जुटा हुआ था. तमाशा पूरा हो गया. दर्शक प्रसन्न थे, लेकिन यह प्रसन्नता क्षणिक साबित हुई. प्रिंसिपल साहब ने माइक को लगभग छीनते हुए संभाला. ‘वोट ऑफ थैंक्स’ की रस्म अभी बाकी थी. इस कड़ी में सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि, “खेलकूद अच्छी बात है. लेकिन उससे ज्यादा अहम है, पढ़ाई-लिखाई. खेलकूद से पेट नहीं भरता. नहीं मानते तो पछताओगे.” इतना कहकर शायद उन्हें ऐसा लगा कि उनके वक्तव्य से वो बात पैदा नहीं हुई है, जिससे उन्हें तसल्ली मिलती अथवा उनके कलेजे को ठंडक पहुँचती. वे झट से सीधे कालिदास पर कूद गए. कालिदास ने राजा दिलीप के लिए जो भावनाएँ व्यक्त की थीं- ‘आकार सदृश प्रज्ञः’ वही भावनाएँ उन्होंने भाई राजे के लिए दोहराईं. कालिदास ने तो ठेठ संस्कृत में कही थी, इधर प्रिंसिपल साहब खटाक से देशज में उतर आए.चीखकर बोले, ” जैसा शरीर, वैसी अकल.” इतना ही नहीं, उन्होंने श्रोताओं से ऐसे मूर्खों की सोहबत से बचकर रहने को कहा. अंत में उन्हें तड़पकर ऐलान करना पड़ा, “अगर ये पास हो गया, तो मैं इसकी टाँगों के नीचे से निकल जाऊँगा.” यह प्रतिज्ञा सुनकर सभा में सन्नाटा छा गया. सभी सकते में थे. हालांकि उस दौर में यह ‘दृष्टि-संकुचन’, गुरुजनों से लेकर गार्जियन्स तक, सबमें पाया जाता था. कुछ दिनों तक यह भीष्म-प्रतिज्ञा, चर्चा का विषय होकर, छोकरों की जुबान पर चढ़ी रही.
बोर्ड-परीक्षाएं शुरू हो चुकी थी. राजेभाई देहात से अपनी साइकिल पर सवार होकर परीक्षा-केंद्र की ओर रवाना हुए. संगी-साथी भी साथ थे. उन दिनों सड़क को घेरकर, दो-दो के जोड़े में साइकिल चलाने का रिवाज था. यूँ ही कट जाएगा सफर, साथ-साथ चलने से. राजे भाई साइकिल तेज चलाते थे. वे झोंकमझोंक पैडल भाँजते हुए दोस्तों से सौ-दो सौ मीटर आगे निकल आए. आगे पगडंडी पर एक कुत्ता था, जो बैठा या अधलेटा सा था. तभी जम्हाई लेते हुए कुत्ते से उनकी आँखें चार हुई.स्पष्ट शब्दों में कहें तो उनके पास आते ही, कुत्ते ने शायद उत्साहवर्धन के लिए उनके साथ-साथ दौड़ना शुरू कर दिया. लक्ष्य थी- उनकी पिंडली. जो कुत्ते को प्रत्यक्ष दिखाई ही नहीं पड़ रही थी वरन् ललचा भी रही थी. तीन सौ साठ डिग्री तक घूमते हुए पैडल को उसने ‘एक्यूरेसी’ के साथ लक्षित किया हुआ था. ‘स्ट्रीट डॉग्स’ में खासतौर पर यह प्रवृत्ति देखने को मिलती है कि, वे अभ्यासवश सवार के पीछे-पीछे भागते हैं और भागते-भागते जोर-जोर से भौंकना शुरू कर देते हैं. चुप रहकर भी बेचारे करें तो क्या करें- खाली बैठने से बेगार भली. उत्तेजित होकर भौंकने से शायद उनकी श्वान- प्रवृत्ति तृप्त होती चली जाती है. इस कार्य-व्यापार में खास बात यह रहती है कि, वे बस चिड़िया की आँख भर देखते हैं. उन्होंने मन ही मन सोचा, ‘ईंटा होता तो एक ही वार में इसे तोड़ डालता.’ फिर झट से ‘कौन कुकुर के मुँह लगे’ का विचार, उनके दिमाग पर छाने लगा. तो राजे भाई ने और कोई उपाय न देख, हड़बड़ी में साइकिल की गति बढ़ा दी. इस कारोबार में जैसे ही उनके दाहिने पैर की गति गड़बड़ाई, राजेभाई डगमगा कर रह गए. हालांकि कुकुर को लक्ष्यच्युत करना उनका उद्देश्य नहीं था, लेकिन हड़बड़ी में अथवा अनजाने में, वे ऐसा कर बैठे. इस पर कुकुर ने उन्हें प्रशंसा भरी नजरों से देखा और फौरन त्रुटि-सुधार की गुंजाइश तलाशी. संक्षेप में, वह उनकी पिंडली से सीधा संपर्क जोड़ना चाहता था. शायद उस पर अपना वर्चस्व भी स्थापित करना चाहता था. इस कार्रवाई पर राजे भाई को आपत्ति थी. उन्होंने संभावनाओं और आशंकाओं के नए द्वार खोलते हुए, यकायक साइकिल की स्पीड बढ़ा ली. ऐसी दशा में ऐसा ही करना लाजमी था. उनके साथी पीछे छूटते चले गए. राजे भाई और कुकुर साथियों की नजरों से क्रमशः ओझल होते चले गए. शास्त्रों में यूँ ही नहीं कहा गया है कि समय बदलते देर नहीं लगती. अकस्मात् परिदृश्य बदला हुआ था. एकदम ‘रिवर्स सीन’.कुत्ता विपरीत दिशा में पैं-पैं करता हुआ, तीर की गति से भगा चला आ रहा था. अप्रत्याशित दृश्य देखकर सभी भौचक्के से रह गए, संगी-साथी भी और कुत्ता भी. थोड़ी देर बाद साइकिल-सवार राजेभाई क्षितिज पर प्रकट हुए. वे धुआंधार गति से कुत्ते का पीछा कर रहे थे. अब जाकर लड़कों को समझ में आया कि, ‘कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर’ मुहावरे का असली मतलब क्या होता है. राजेसिंह उसे दाहिने पैर से लतियाते जा रहे थे.बमचक हाहाकार मचाये हुए थे. साथ ही ‘जैसे को तैसा, जैसे को तैसा’ का जयघोष लगाते जा रहे थे. कुत्ता भौचक्का होकर बगटुट भागा चला जा रहा था.जैसे ही पीछा करते सवार ने रफ्तार बढ़ाई, उसने रफ्तार पकड़ने में देरी नहीं की.
नतीजे निकल गए. बड़ा उलटफेर वाला रिजल्ट था. पिछले साल की तरह, था तो चौदह ही परसेंट, लेकिन राजे पास थे. राजेभाई का रिजल्ट देखकर गुरुजन किंचित् अचंभे में थे. बात अचंभे की ही थी. राजे ने सबको धता जो बता दिया था.इसलिए यह नतीजा किसी के लिए भी किसी चमत्कार से कम नहीं था.हालांकि वो पास जैसे- तैसे करके ही हुआ था. बस यूँ समझ लो कि, जितने नंबरों की दरकार रह गई थी, उतने का ‘ग्रेस’ मिल गया. राजेभाई ठहरे संतोषी आदमी. जीवन के उत्तरार्द्ध में चल रहे लीजेंड्स वाले अंदाज में बोले, “जितना सोचा था, उससे ज्यादा हासिल कर लिया.” अगले दिन राजेभाई स्कूल गए. मार्कशीट हाथ में लेकर, वे प्रिंसिपल-कक्ष के आसपास मंडराते रहे. शायद इस उम्मीद के साथ कि गुर्जी अपना किया हुआ ‘वायदा’ निभाएंगे. प्रिंसिपल साहब स्कूल से नदारद थे. मौके की नजाकत के हिसाब से नदारद रहना, उनके लिए मुफीद पड़ता था. गहन विचार करके देखें तो उनके जितने भी तर्क थे, राजे ने एक ही वार में काटकर धर दिए. बकौल मुन्ना क्लर्क “इस नतीजे से सबसे ज्यादा स्तब्ध यदि कोई था, तो वो थे प्रिंसिपल साब.” उनका ‘पुराना कौल’ याद दिलाने पर क्लर्क नें उसके कान के पास मुँह ले जाकर फुसफुस वाले अंदाज में कुछ कहा.तत्पश्चात् राजेभाई को यकीन हो गया कि, उस ‘उम्मीद’ को मूर्त रूप देना इतना आसान नहीं था. मुन्ना क्लर्क ने बिन पूछे कैरियर संबंधी परामर्श देते हुए, उससे प्रकट में कहा, “अब तुम यहाँ के चक्कर काटना बंद करो और ठाठ से ओवरसियरी का कोर्स कर लो.”
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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