विगत वर्ष प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनने के बाद जिस विभाग में सर्वाधिक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने का दावा सरकार ने किए थे. उसकी धार एक साल से कुछ अधिक वक्त में कुंद पड़ गयी है.
प्रदेश के अलग-अलह हिस्सों से अभिभावकों ने बाल अधिकार संरक्षण आयोग उत्तराखंड को इस साल 70 से अधिक निजी स्कूलों के खिलाफ कथित तौर पर शिक्षा के अधिकार (आरटीई) अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने की शिकायतें भेजी है.
गौरतलब है कि देश में 6 से 14 वर्ष के हर बच्चे को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षा आधिकार अधिनियम 2009 बनाया गया है. यह पूरे देश में अप्रैल 2010 से लागू किया गया है.
इस एक्ट के नियमों के मुताबिक़ बच्चे को स्कूल में दाखिला देते समय स्कूल या व्यक्ति किसी भी प्रकार का कोई अनुदान नहीं मांगेगा.जबकि बाल अधिकार संरक्षण आयोग को प्रदेश भर से अभिभावकों ने शिकायतें भेजी है.अभिभावकों का आरोप हैं कि आरटीई एक्ट में प्रवेश लेने के बावजूद फीस की मांग की जा रहीं है. स्कूल प्रशासन छात्र-छात्राओं को फ़ीस के लिए तंग करता है. राजधानी दून के एक ख्यातिप्रद स्कूल पर अभिभावकों ने शिकायत भेज आरोप लगाया कि पांच सौ से एक हज़ार रूपये तक फीस के नाम पर लिए गए, लेकिन फीस की रसीद देनें से इंकार कर दिया गया.
हैरानी तब होती है जब एक स्कूल ने टीसी जारी करने से इनकार कर दिया. जब तक की माता-पिता लंबित बकाया राशि को स्कूल प्रशासन को जमा नहीं कर देते. बच्चे को मई 2014 में कक्षा 1 में स्कूल में भर्ती कराया गया था. टीसी भी बाल अधिकार संरक्षण आयोग के दखल के बाद छात्र को मिल सकी है. अंदाजा लगाना आसान हैं कि इन बड़े-बड़े स्कूलों में गरीब बच्चों की क्या मनोदशा होती होगी. हर कदम पर स्कूल प्रशासन की शोषणकारी नीतियां लागू है.
हरिद्वार के एक स्कूल ने तो आरटीई अधिनियम के तहत प्रवेश देने से ही इंकार कर दिया है. एवं शिक्षकों या स्कूल अधिकारियों द्वारा बच्चों को छेड़छाड़ की खबरें भी मिली हैं. इन सब के बावजूद शासन,प्रशासन सब बेखबर बने हुए है. इस पूरे प्रकरण में अभिभावकों को भी भय है कि स्कूल प्रबंधन के खिलाफ किसी प्रकार की शिकायत करने पर उनके बच्चे को दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है. इस वजह से इस ‘लूट की छूट’ में अभिभावकों को बेहद सतर्कता बरतनी पड़ रही है.
अभिभावक व आयोग के सदस्यों को तब और हैरानी हुई जब देहरादून के एक प्रमुख निजी स्कूल ने आरटीई अधिनियम के तहत भर्ती छात्रों को विशेष पहचान पत्र दिए हैं. इस कार्ड पर ‘आरटीई छात्र’ लिखा गया है और बच्चे को हर समय इसे पहनना होता है. अभिभावकों को जब इस मसलें पर आयोग ने लिखित शिकायत करने को कहा तो इंकार कर दिया गया. उन्हें अपनें बच्चों के भविष्य पर स्कूल प्रबंधन की कारवाई का भी भय है.
मसला यहीं आकर नहीं रुकता नजर आ रहा है. इस मसलें पर दूसरा पक्ष भी सरकार को कठघरे में खड़ा करने की तैयारी कर चुका है. प्रोग्रेसिव स्कूल एसोसिएशन (पीएसए) ने भी अगले सप्ताह तक शिक्षा के अधिकार (आरटीई) अधिनियम के तहत बकाया राशि के भुगतान के खिलाफ उच्च न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक देने का एलान किया है.
इस साल 31 मार्च तक बकाया राशि को मंजूरी देने के उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद, सरकार ने अभी तक भुगतान नहीं किया है. एसोसिएशन छात्रों के विवरण और स्कूलों से बकाया बकाया राशि एकत्र कर रहा है.
एसोसिएशन के सदस्यों का तर्क है कि आरटीई के तहत राज्य में 4,000 से अधिक निजी स्कूलों को करीब 90 करोड़ रुपये का भुगतान करना है. सिर्फ देहरादून में जुलाई और अगस्त में कुछ रुपये वितरित किए गए थे जबकि लगभग 7 करोड़ रुपये अभी भी लंबित हैं.
हैरानी की बात यह है कि आरटीई अधिनियम के तहत, केंद्र मुफ्त प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने के उत्तर-पूर्वी राज्यों, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड के लिए, कुल खर्चे का 90% बजट देता है. उसके बाद भी छात्र-छात्राओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ जारी है.
प्रदेश के अधिकारियों का कहना है कि “केंद्र सरकार ने 2015-16 से पहले लंबित बकाया राशि का भुगतान नहीं किया है जो कि राज्य के राजकोष पर बोझ है” सरकार के लिए इस बजट की अतिरिक्त व्यवस्था करना आसान नहीं हो पा रहा है.
स्कूल शिक्षा विभाग के साथ उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, केंद्र सरकार ने शैक्षिक सत्र 2015-16 के लिए 49.55 करोड़ रुपये के कुल व्यय के मुकाबले 39.80 करोड़ रुपये का भुगतान किया.
सरकार का दावा है कि वंचित परिवारों के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने पर 81.8 9 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे. लेकिन केद्र से कोई मदद नहीं मिल सकी. गौरतलब हैं कि केंद्र व राज्य दोनों जगह बीजेपी की सरकार है उसके बाद भी शिक्षा जैसे अहम् मसलें पर कोई ठोस कार्य नहीं हो सका है.
- यह कानून हर बच्चे को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अवसर और अधिकार देता है, इसके मुख्य पहलू इस प्रकार है-
14 साल की उम्र के हरेक बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है. संविधान के 86वें संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को प्रभावी बनाया गया है. - सरकारी स्कूल सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करायेंगे और स्कूलों का प्रबंधन स्कूल प्रबंध समितियों (एसएमसी) द्वारा किया जायेगा.
- निजी स्कूल न्यूनतम 25 प्रतिशत बच्चों को बिना किसी शुल्क के नामांकित करेंगे. प्रत्येक बच्चे को उसके निवास क्षेत्र के एक किलोमीटर के भीतर प्राथमिक स्कूल और तीन किलोमीटर के अन्दर-अन्दर माध्यमिक स्कूल उपलब्ध होना चाहिए.
- निर्धारित दूरी पर स्कूल नहीं हो तो उसके स्कूल आने के लिए छात्रावास या वाहन की व्यवस्था की जानी चाहिए.
- बच्चे को स्कूल में दाखिला देते समय स्कूल या व्यक्ति किसी भी प्रकार का कोई अनुदान नहीं मांगेगा.
- विकलांग बच्चे भी मुख्यधारा की नियमित स्कूल से शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं.
- किसी भी बच्चे को आवश्यक कागजों की कमी के कारण स्कूल में दाखिला लेने से नहीं रोका जा सकता है, स्कूल में प्रवेश प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी किसी भी बच्चे को प्रवेश के लिए मना नहीं किया जाएगा.
- किसी भी बच्चे को मानसिक यातना या शारीरिक दंड नहीं दिया जाएगा.
- स्कूलों में लड़कियों और लड़कों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था की जाएगी.
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