शिक्षा एक समाज की नींव होती है, जो कि एक मजबूत तथा समृद्ध देश का गठन करती है. परन्तु भारतीय शिक्षा व्यवस्था वास्तव में शिक्षा का परिहास है, इसमें बिना बदलाव के हम एक स्वस्थ, मानसिक तथा शारीरिक तौर पर स्थिर समाज की कल्पना नहीं कर सकते. हमारी वर्तमान शिक्षा नीति, एक नैतिक तथा प्रतिभावान चरित्र के युवा पैदा करने में असफल है. इसका एक प्रमुख कारण देश में शिक्षकों की भारी कमी भी हैं.
“भारतीय शिक्षा प्रणाली बुरी नहीं है, बल्कि समस्या योग्य शिक्षकों की कमी है शिक्षण के जुनून या वित्तीय कारणों के बिना अच्छे शिक्षक शिक्षण के क्षेत्र में नहीं आते हैं” यह कहना है ऑर्ट ऑफ लिविंग के एक वरिष्ठ संकाय सदस्य खुर्शीद बाटलीवाला का.
देश में प्राइमरी स्कूलों में तकरीबन 9 लाख से ज्यादा शिक्षकों की कमी है. उत्तरप्रदेश के प्रायमरी स्कूल शिक्षकों की कमी का शिकार हैं. जिस राज्य को बौद्धिकता विरासत में मिलने का दावा किया जाता रहा हो, उस बिहार का नंबर उत्तरप्रदेश के बाद ठीक दूसरे नंबर पर आता है. वामपंथियों का गढ़ पश्चिम बंगाल अपने प्रायमरी स्कूलों में 87 हजार शिक्षकों की कमी के साथ तीसरे स्थान पर है.इसके बाद झारंखड 78 हजार शिक्षकों की कमी और मध्यप्रदेश 66 हजार शिक्षकों की कमी हैं.
उत्तराखंड में भी 8 हज़ार पदों पर शिक्षकों की कमी हैं. सरकारी आंकड़ा है कि अकेले मध्यप्रदेश राज्य में तकरीबन चार हजार स्कूल शिक्षक विहीन हैं. मप्र में कक्षा पांच के 69 फीसदी छात्र ऐसे है, जिन्हें जोड़-घटाना तक नहीं आता है. स्थिति यह है कि देश के करीब 65 लाख ऐसे स्कूल है, जहां एक शिक्षक के भरोसे स्कूल चल रहे है.
आईआईटी जैसे शीर्ष इंजीनियरिंग संस्थान भी टीचरों की कमी से बुरी तरह जूझ रहे हैं. देश की 23 आईआईटी में शिक्षकों के औसतन लगभग 35 प्रतिशत स्वीकृत पद खाली पड़े हैं. 23 आईआईटी में कुल 82,603 विद्यार्थी पढ़ रहे हैं और इनमें काम कर रहे शिक्षकों की संख्या 5,072 है, जबकि इन संस्थानों में अध्यापकों के कुल 7,744 पद स्वीकृत हैं यानी 2,672 पद खाली रहने के कारण इनमें 35 प्रतिशत शिक्षकों की कमी है.
संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमरीका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है. भारत में उच्च शिक्षा हासिल करने वाले दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है. अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी है.
भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमज़ोर है. विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है. विश्वविद्यालय के स्तर पर शिक्षकों की कमी पूरी करने के लिए संविदा या तदर्थ आधार पर शिक्षक नियुक्त अवश्य किए जा रहे है, लेकिन उन्हें बहुत कम वेतन दिया जा रहा है. क्या ऐसे गुरु देश को विश्व गुरु बना सकते हैं ?
शिक्षा के नाम पर होने वाले विमर्श के तहत आए दिन लंबी-चौड़ी बातें होती रहती हैं. लेकिन शिक्षकों की कमी और उनकी भर्ती प्रक्रिया को लेकर मुश्किल से ही कोई बहस होती है. शिक्षा का प्रश्न इतना महत्वपूर्ण है कि सरकार कोई भी आए, देश और समाज के हित में उससे बच नहीं सकती.
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