उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय विशेषताएं इसे पारम्परिक व आधुनिक दोनों प्रकार की सेवाओं के लिए अत्यंत संभावनाशील राज्य बनाती हैं. यहां धार्मिक, आध्यात्मिक, प्राकृतिक व रोमांचकारी पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं. चारधाम, फूलों की घाटी, कॉर्बेट व ब्रिटिश काल से विकसित पर्यटन स्थल इसके मुख्य ब्रांड हैं. वेलनेस, योग, आयुर्वेद व स्पा एवम आतिथ्य सेवाओं के साथ अब मास टूरिज्म से आगे इको-पर्यटन, समुदाय आधारित पर्यटन व ग्रामीण पर्यटन की नवीन श्रृंखलाओं के अवसर खुल रहे हैं. कॉर्पोरेट क्षेत्र माइस टूरिज्म अर्थात मीटिंग, इंसेंटिव, कांफ्रेंस व एगजिबिशन के लिए यहां के शांत प्राकृतिक स्थलों में रूचि ले रहा है. ऋषिकेश व हरिद्वार विश्व की वेलनेस कैपिटल बनने की क्षमता रखती हैं. आयुष, प्राकृतिक चिकित्सा, योग थेरेपी व हर्बल आधारित सेवाओं की अन्तर्राष्ट्रीय मांग है.
सेवाएं अब राज्य में उत्पादन से निकली कुल आय का बड़ा हिस्सा बन रही हैं जिसे “जीएसवीए” द्वारा सूचित किया जाता है. यह किसी राज्य की अर्थ व्यवस्था में सभी उत्पादन क्षेत्रों द्वारा अर्जित वास्तविक आर्थिक मूल्य को प्रदर्शित करता है. इससे पता चलता है कि किसी राज्य में कुल वस्तुओं और सेवाओं का कितना वास्तविक उत्पादन मूल्य हुआ. जहाँ सकल राज्य घरेलू उत्पाद “जीएसडीपी” कहलाता है वहां “जीएसवीए” उत्पादन से जुड़ा वास्तविक मूल्य वर्धन है. नीति व विश्लेषण में इसका उपयोग राज्य की आर्थिक वृद्धि की दर मापने के लिए किया जाता है. इसकी सहायता से यह पता चलता है कि राज्य में कृषि-उद्योग व सेवा आदि क्षेत्रों का योगदान क्या है. इससे यह भी समझ में आता है कि राज्य आर्थिकी के किस क्षेत्र में विनियोग या सुधार की जरुरत है.
उत्तराखंड जैसे भौगोलिक और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील राज्य में सेवा क्षेत्र के विकास की अपार सम्भावनाएं हैं. हिमालय-विशेष पर्यटन में धार्मिक के साथ प्राकृतिक व वेलनेस का संयोग इसे देश का सबसे महत्वपूर्ण पहचान देता है. इको-फ्रेंडली सेवाओं की वैश्विक मांग बढ़ती जा रही है. ग्रीन एंटरप्रेन्योरशिप, डिजिटल वर्क, आध्यात्मिक व लोक संस्कृति पर आधारित गतिविधियां आकर्षण का केंद्र है. मेट्रो शहरों के प्रदूषण से शांत स्थलों की ओर जाने की प्रवृति खास कर युवा वर्ग में उपज रही है तो इससे रिमोट वर्क बढ़ रहा है.
अभी उत्तराखंड की सेवा हिस्सेदारी देश के अन्य सेवा प्रदाता राज्यों से कम है.सेवाओं की गुणवत्ता, विविधता, स्थिरता व उच्च मूल्य सेवाएं जैसे आईटी, प्रोफेशनल, वेलनेस, माइस, शिक्षा, चिकित्सा का स्तर दुर्बल बना हुआ है. अभी देश के कुल सेवा-उत्पादन का लगभग 40% केवल चार राज्यों कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु व तेलंगाना से आता है. जिन राज्यों व केंद्र शाषित प्रदेशों में सेवा क्षेत्र की साझेदारी उच्च है जैसे कि दिल्ली व चंडीगढ़ वहाँ आम तौर पर रियल स्टेट, वित्तीय पेशेवर सेवाएं, ट्रेड-रिटेल, लॉजिस्टिक्स की श्रृंखलाएं अर्थात उच्च मूल्य वाली शिक्षित व कुशल मार्केट सर्विसेज मजबूत हैं.हालांकि कम मूल्य, असंगठित या अनौपचारिक सेवा क्षेत्र से भी सेवाओं की हिस्सेदारी बढ़ती है.
जीएसवीए में उसका हिस्सा रहता है पर अपनी अस्थिर प्रकृति के कारण आय व विकास की गुणवत्ता सबल नहीं हो पाती. मात्र सेवाओं का अंश अधिक होना ही प्रति व्यक्ति आय या विकास गुणवत्ता का संकेतक नहीं है. सेवाओं का बड़ा हिस्सा असंगठित व कम उत्पादक सेवाओं में हो सकता है. इसी कारण पर्यटन निर्भर या ग्रामीण व पहाड़ी राज्यों की तुलना में शहरी व वाणिज्यिक गतिविधियों वाले राज्यों में सेवा क्षेत्र अग्रणी होता है. फिर भौगोलिक, प्राकृतिक या सामाजिक संरचनाओं व स्तरीकरण के कारण सेवा मॉडल हर राज्य में समान रूप से लागू नहीं हो सकते. इसलिए सेवा आधारित अर्थ व्यवस्था में रोजगार की गुणवत्ता, स्थिरता, स्थानीय सामुदायिक लाभ व संसाधन प्रबंध की दशाओं को ध्यान में रखना जरुरी हो जाता है.
उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में अपनी भौगोलिक दशा के अनुरूप उच्च मूल्य प्रदाता आधुनिक व स्थानीय रूप से उपयुक्त सेवाओं का संवर्धन विकास की प्राथमिकता में रहना महत्वपूर्ण है. मात्र सेवा क्षेत्र का अंश बढ़ाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि सेवा की गुणवत्ता, स्थिरता, स्थानीय जन से भागीदारी व पर्यावरण-संवेदनशीलता पर ध्यान दिया जाना विकास के विस्तार प्रभावों के उपजने के लिए जरुरी है. इसे विकास नीतियों का असमंजस ही कहें कि यह पक्ष अधिकांश दशाओं में उपेक्षित ही रहे हैं. चालू कर दी गई कई बड़ी परियोजनाओं के पारिस्थितिकी पर पड़ रहे विनाशकारी प्रभावों व इनके विरोध में जन समूह की आवाज भी अब तक किये भारी पूंजीगत विनियोग के डूब जाने के तर्क से मौन कर दी गई हैं. इसलिए अब सेवा आधारित अर्थ व्यवस्था में रोजगार की गुणवत्ता, स्थायित्व, स्थानीय सामुदायिक लाभ व संसाधन प्रबंध जैसे पक्ष कौशल विकास के रूप में उभर रहे हैं.
सेवा क्षेत्र के अधीन उत्तराखंड में पर्यटन के विकास को इसके उच्च आय वाली अर्थव्यवस्था के रूप में संवर्धन के रूप व आकार से संबंधित किया जाना सम्भव है क्योंकि इसकी क्रियाओं व गतिविधियों में हजारों नए कौशल आधारित रोजगार-योग, आयुष, वेलनेस, खाद्य प्रसंस्करण के साथ इको-गाइड जैसे अन्य पेशे भी जुड़ते हैं. इनके साथ ही यह इलाके की विविधता व उपलब्ध परिवेश रोमांचक पर्यटन व फ्लोरा-फोना के अनगिनत आयाम भी प्रदान करता है. जैव विविधता से ऑफ सीजन टूरिज्म का आकर्षण अलग बढ़ता है.
पर्यावरण व संस्कृति के स्वरूप को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड की वैश्विक छवि “आध्यात्मिक पूंजी की देवभूमि संकल्पना” को विस्तृत आयाम देने में समर्थ भी है. यहां व्यापार, होटल/रेस्टोरेंट, ट्रांसपोर्ट लॉजिस्टिक्स और अन्य सेवाएं उपलब्ध हैं जो मुख्य योगदान कर्ता हैं.देहरादून, ऋषिकेश, हल्द्वानी, काशीपुर में शहरीकरण तेजी से बढ़ा है. पेशेवर प्रॉपर्टी मैनेजमेंट, होमस्टे, टूर गाइड, सफाई सेवाएं, खाद्य सेवाओं का विस्तार हो रहा है. अब सेवा क्षेत्र में खासकर उच्च मूल्य सेवाओं में स्वायत्त व प्रेरित विनियोग बढ़ा कर सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ाने के आवश्यक न्यूनतम प्रयास प्राथमिकता से और अधिक पुष्ट व सबल किये जाने जरुरी हैं. यह प्रक्रिया नियंत्रित हो,बड़े धक्के का रूप न ले क्योंकि इस सेवा विस्तार में स्थानीय पर्यावरण, संसाधन क्षमता, पहाड़ की चुनौतियों व सामाजिक सांस्कृतिक आयामों पर विशेष ध्यान रखना प्राथमिक शर्त है.
नीति आयोग ने “मेक्रो एंड फिसकल लैंडस्केप ऑफ़ द स्टेट ऑफ़ उत्तराखंड (2021-22) में जीएसवीए का 40.8 % सेवा क्षेत्र से प्राप्त होना बताया है. अन्य सेवाओं, लोक प्रशासन,बैंक व बीमा तथा व्यापार, होटल व रेस्टोरेंट जैसे उप क्षेत्रों में 2012-13 से 2021-22 तक सबसे अधिक वृद्धि देखी भी गयी है.
उत्तराखंड में सेवा क्षेत्र का जीएसवीए में हिस्सा जहाँ 40 -41% रहा है वहां कर्नाटक में यह 62. 3%, केरल में 61.5%, तेलंगाना में 60.3%, महाराष्ट्र में ~59.0% व दिल्ली में 84.1% है जिसका कारण इन राज्यों में शहरीकरण, आईटीईएस, वित्त सेवाएं, रियल स्टेट, बड़े व्यापार हब हैं जिनकी सेवाएं अधिक मूल्य वर्धन करतीं हैं.
उत्तराखंड बजट के अनुसार वित्त वर्ष 2024-25 में जीएसवीए का अनुमान प्राथमिक क्षेत्र में ~9.34%, द्वितीयक क्षेत्र से ~44.65% व तृतीयक या सेवा क्षेत्र से 46.01% रहा. नीति आयोग की रपट के अनुसार 2021-22 में पर्यटन के उप क्षेत्रों की प्रवृतियाँ राज्य के जीएसवीए में व्यापार, होटल व रेस्टोरेंट का प्रतिशत ~13.7 रहा तो यातायात, स्टोरेज व संवादवहन में यह ~6.8% रहा. अन्य सेवाएं जिसमें सार्वजनिक प्रशासन, व अन्य व्यावसायिक सेवाएं शामिल रहीं वह ~7.5% थीं. इसी समय हिमाचल प्रदेश में सेवा क्षेत्र का हिस्सा 43.5% रहा तो जम्मू कश्मीर में ~58.3% रहा.
हिमालयी राज्यों में सेवा क्षेत्र का हिस्सा अभी भी राष्ट्रीय औसत से कम है अर्थात सेवा उद्योग, आधुनिक सेवाएं, वित्त/आईटी व प्रोफेशनल सेवाएं कम हैं तो अंतरसंरचना पर किया विनियोग महंगा है जो दीर्घ समय अवधि अंतराल में प्रतिफल देने योग्य बन पाता है. पर्यटन पर अधिक निर्भरता बनी रहती है जिसकी प्रकृति मौसमी है. साल के कुछ महीने ही संपर्क मार्ग खुले रहते हैं. वर्षा काल के साथ ही नये निर्माण कार्य में पर्यावरण मानकों के खुले आम उल्लंघन से सड़कें अवरुद्ध रहती हैं. बादल फटने की घटनाएं बढ़ी हैं तो तबाही भी भयावह है. सड़क व परिवहन की भौगोलिक कठिनाइयाँ हैं. सभी जगह कनेक्टिविटी सीमित है.
हिमाचल व जम्मू कश्मीर जैसे पहाड़ी राज्यों में विविध क्षेत्रों की स्थिति से स्पष्ट होता है कि सेवा क्षेत्र में धारणीय विकास की पर्याप्त संभावना है जबकि विविधीकरण के साथ संतुलन व सतत विकास की प्रक्रिया चलाई जाए. इसे अंतरसंरचना सुधार, कनेक्टिविटी, डिजिटल नेटवर्क, सार्वजनिक सेवाओं व पर्यावरण सेवाओं का मजबूत आधार चाहिए. यह समझ लेना जरुरी है कि सेवा क्षेत्र को सिर्फ पर्यटन व होटल तक सीमित न रखा जाए बल्कि नवप्रवर्तन, हरित व वेलनेस उद्यम, कृषि- बागवानी-भेषज आधारित सेवाएं, सामुदायिक आधारित पर्यटन, माइस-कॉर्पोरेट-वैलनेस कॉन्फ्रेंस आदि के संयोग से गुणवत्ता उन्मुख विकास की अवधारणा पर चला जाए.
उत्तराखंड को अपनी नैसर्गिक विशेषताओं यथा पर्यावरण, फ्लोरा -फोना, पर्यटन, वेलनेस, आयुर्वेद/हर्बल, व लोकथात के संयोग से ऐसा सेवा आधारित प्रारूप विकसित करना है जो हिमालय की परिसीमाओं एवम पर्यावरण की संवेदन शीलता को ध्यान में रखे. यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता, जैव विविधता और पर्यटन पारिस्थितिकी महत्त्व की दशाओं को देखते हुए सेवा-आधारित पर्यटन, वेलनेस, रोमांच, इको-पर्यटन आदि के विस्तार की प्रबल संभावना हैं. कृषि व पहाड़ी खेती-व्यवसाय के परंपरागत आधार हैं तो हस्तशिल्प व लोकसंस्कृति के पक्ष इसे सेवा एवम उत्पादन मिश्रित अर्थव्यवस्था का संबल देते हैं.
कृषि आधारित सेवाएं, होम स्टे, गाइडिंग व लोक कला के परंपरागत स्वरूप से रोजगार के अवसरों को विस्तार मिलता है. जल-जंगल, शुद्ध हवा और उल्लास भरी लोक संस्कृति ऐसी परिसंपत्ति हैं जिनसे स्वास्थ्य पर्यटन, वेलनेस रिट्रीट, हर्बल व आयुर्वेद आधारित व्यवसाय गति प्राप्त करते हैं. हिमालयी राज्य होने के कारण जल संसाधन प्रबंध, जलवायु अनुकूलन, आपदा प्रबंध सेवाएं अनिवार्य व सम्भावनाशील दोनों हैं. इसके लिए प्रशिक्षित पेशेवरों, केंद्रों और कंसल्टेंसी सेवाओं की मांग निरन्तर रहेगी ही. पहाड़ में रिमोट वर्क कल्चर बढ़ाने की अपार संभावना है. इसके लिए आई टी पार्क, बीपीओ/केपीओ, डिजिटल सर्विस सेंटर खोल पहाड़ी क्षेत्रों में युवाओं के लिए रोजगार का नया स्त्रोत खुलता है. पर्वतीय अध्ययन, जल प्रबंधन, आपदासेवा के प्रबंधन, परिवेश विज्ञान व पर्यावरण पर्यटन के अवसर मौजूद हैं जिसके लिए एड टेक, ऑनलाइन शिक्षा व स्किल हब राज्य को ज्ञान-सेवा केंद्र बनाने की व्यापक संभावना रखते हैं.
उत्तराखंड का परंपरागत क्षेत्र जैविकीय खेती की गुणवत्ता से कृषि पर्यटन एवम ग्रामीण सेवाएं देने में सक्षम है. हर्बल, आर्गेनिक, फ्लोरीकल्चर, होर्टिकल्चर आधारित कृषि सेवाएं उपलब्ध हैं जिन्हें ग्रामीण होमस्टे, फार्म टूरिज्म व लोक कला केंद्रों से संयोजित कर बेहतर व कारगर बनाया जा सकता है. होटल-रेस्टोरेंट /ट्रेड व ट्रांसपोर्ट लॉजिस्टिक्स सेवा क्षेत्र के बड़े स्तम्भ हैं. ऑल वैदर रोड, चारधाम कनेक्टिविटी,रेलवे सेवा में तीव्र गति व लम्बी दूरी के स्टेशन जुड़ना व पहाड़ी स्थानों में छोटे विमान व हेली सेवा का शामिल किया जाना सुधार के बेहतर कदम हैं.
नीतिगत दृष्टि से इन उप क्षेत्रों पर ध्यान देने से आवास व खान-पान की गुणवत्ता में सुधार व सुगम ट्रांसपोर्ट लॉजिस्टिक्स की दशा में सुधार आता है . पूर्ववत से चली कुछ समस्याएं तो बनी ही हैं जिसमें होटल और रेस्टोरेंट से जुड़ी सेवाओं का स्तरीय न होना, अवसंरचना के दबाव, भीड़-भाड़ और कई इलाकों में संसाधनों की सीमाएं मुख्यतः पेय जल तक की कमी मुख्य है. साथ ही ट्रांसपोर्ट व लॉजिस्टिक्स को सड़कों की दुरूहता, भंगुर क्षेत्रों में बार-बार बोल्डर व मलवा आने व मौसमी कारणों से व्यवधान झेलना पड़ता है. साथ ही अन्य सेवाओं में कौशल व प्रशिक्षण की कमी के साथ स्थानीय स्तर पर नये अवसरों का विदोहन कर पाने की प्रवृति का अनुपस्थित रहना है. ऐसे में होटल /व्यापार उप क्षेत्र को उच्च गुणवत्ता वाला व अनुभव सिद्ध अवलोकन प्रारूप में बदलने के लिए सुस्पष्ट नीतियों की आवश्यता है.
पर्यटन (आध्यात्मिक+एडवेंचर+वैलनेस+मेडिकल) आई टी स्टार्ट अप, माइस और हॉस्पिटेलिटी में विगत वर्षों में नवीन नीतियाँ बनी हैं जिससे विनियोग भी प्रोत्साहित हुआ. राज्य ने स्टार्ट अप और सेवा केंद्रित नीतियाँ लागू कीं.इनमें माइस उल्लेखनीय बन रहीं हैं जिसमें कॉर्पोरेट, शैक्षणिक या सरकारी संस्थाओं की छोटी-बड़ी बैठक, इंसेंटिव की तरह कर्मचारियों/डीलरों को प्रोत्साहन देने के लिए आयोजित यात्राओं का आयोजन, संगोष्ठियां व तकनीकी सम्मेलन से है. एग्जिबिशन व इवेंट्स जैसे व्यावसायिक मेले, उत्पाद प्रदर्शिनी, सांस्कृतिक कार्यक्रम सेवा प्रदाताओं के गुणात्मक कौशल में अभिवृद्धि करते हैं.
माइस व्यवसायिक या संस्थागत पर्यटन की श्रेणी में शामिल है. उत्तराखंड में माइस के मुख्य केंद्र नैनीताल , ऋषिकेश, देहरादून व मसूरी के साथ जिम कॉर्बेट माने जाते रहे हैं जहाँ पर्यटक ऑफ सीजन में भी आते हैं. आम पर्यटक की तुलना में माइस पर्यटक की क्रय शक्ति क्षमता कहीं अधिक होती है. ऐसे स्थलों में होटल, ट्रांसपोर्ट, इवेंट मैनेजमेंट व अन्य लॉजिस्टिक्स की सुविधाएं भी अधिक होती हैं.
उत्तराखंड में सेवा क्षेत्र का विस्तार ऐसी गतिविधियों से सम्बंधित रहा जिससे पर्यटन में विविधीकरणसम्भव हुआ है. इसमें धार्मिक यात्राओं के साथ वैलनेस, मेडिकल -टूरिज्म, एडवेंचर, हर्टी टूरिज्म और इको टूरिज्म मुख्य है. नये मास्टर-प्लान में रोपवे, योग/वैलनेस रिट्रीट और माइस पर विशेष जोर दिया गया है जो उत्तराखंड पर्यटन की पहल है. दूसरा, स्वास्थ्य और मेडिकल पर्यटन पर पर्यटन मंत्रालय ने जोर दिया है. शहरों में क्लिनिक / वैलनेस सेंटर, आयुर्वेद / आयुष / योग-क्लस्टर इत्यादि का विकास व संवर्धन इनमें शामिल है.
तीसरा, आईटी व स्टार्टअप इकोसिस्टम पर राज्य की स्टार्टअप नीति ने जोर दिया है. इसमें छोटे बड़े आईटी पार्क, सीमांत व हाई-ब्रिड-वर्क हब और स्टार्टअप-इनक्यूबेटर / कुशलता केंद्र इत्यादि शामिल किये गए हैं. फिर एमएसएमई समर्थित सेवाएं जिनमें लॉजिस्टिक्स, एफएम सीजी सपोर्ट सर्विस, ई-कॉम, होम स्टे और अनुभव आधारित सेवाऐं शामिल रहती हैं.
अंततः कृषि-मूल्य श्रृंखला से जुड़ी सेवाएं जिनमें बागवानी पर्यटन, एफपीओ सपोर्ट सेवा, ब्रांडिंग व ई-मार्केटिंग, प्रोसेसिंग और कोल्ड चेन सेवाएं मुख्य हैं. सेवा क्षेत्र की रणनीति संतुलित विकास की ओर अग्रसर रहे जिसके निष्पादन की जिम्मेदारी संस्थागत नीति स्तर पर की जाती है. नीतियों का निर्दिष्टीकरण व प्रतिपादन राज्य सरकार द्वारा किया जाना है. ध्यान रहे कि
1. ऐसी फोकस क्लस्टर पालिसी बने जिसके केंद्र में पर्यटन का ऐसा ढांचा हो जिसमें योग / वैलनेस, एडवेंचर, तीर्थ के साथ आई टी -हब क्लस्टर, मेडिकल-हब मुख्यत: शामिल रहें. क्लस्टर आधारित इन्सेंटिव का प्रारूप तय करना और एक लोकल वेंडर पोर्टल बनाना सेवा सेक्टर नीति के लिए जरुरी है. इन्वेस्ट उत्तराखंड के प्रारूप में यह नीति वर्णित है.
2. अंतरसंरचना का प्रसार जिसमें सड़कों के साथ हेली /रोपवे /इको हब बने. हर विकासखंड में ब्रॉड बैंड व लघु पैमाने पर चिकित्सा व खान पान की सुविधा, पेय जल की सुविधा रहे. उत्तराखंड पर्यटन इस दिशा में किये जा रहे प्रयासों को बढ़ाए.
3. पर्यटन क्षेत्र में किये जा रहे विनियोग के नियम सरल व स्पष्ट हों तथा आवंटित धनराशि का फास्टैट्रैक क्लियरेंस हो.
4. पर्यटन व सब्सिडी का रुटमैप जिसमें स्टार्टअप के लिए लक्षित अनुदान, लोन गारटी व ब्याज सब्सिडी स्पष्ट रूप से वर्णित हो. विशेषत: पर्वतीय स्थलों के लिए ‘कैपक्स’ सब्सिडी जिसे पर्यटन की ‘माइ-स्कीम’ में उद्यम प्रोत्साहन प्रारूप दिया गया है. इसे और अधिक व्यावहारिक बनाया जाय.
दूसरा मुख्य पक्ष मानव पूंजी और कुशलता के गुणात्मक पक्ष से जुड़ा है. होटल/हॉस्पिटलिटी, गाइडिंग, योग व वेलनेस थेरेपी केंद्र, हेल्थ केयर केंद्र हेतु कुशल व प्रशिक्षित मानव शक्ति की जरुरत पड़ती है जो इन क्षेत्रों में गुणवत्ता को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं. निजी सरकारी साझेदारी में प्रशिक्षण के बेहतर इंतजाम किये जाएं.
तीसरी क्रिया मार्केटिंग, ब्रांडिंग व उत्पाद विकास से संबंधित है जो ब्रांड पोजीशनिंग पर सतत रूप से क्रियाशील रहे. उत्तराखंड वैलनेस व रिस्पांसिबल एडवेंचर हब का स्पष्ट ब्रांड व अन्तर्राष्ट्रीय मानकों पर आधारित पैकेज होना जरुरी है राज्य स्तर पर ऐसे डिजिटल प्लेटफॉर्म विकसित होने चाहिए जहां छोटे ऑपरेटर, होम स्टे व टूर पैकेज की व्यवस्था संभालें.
चौथा पक्ष उन चिंताओं और तनाव से संबंधित है जिसका मुख्य कारण जारी नीतियों को लागू करने की ढील के साथ जोखिम प्रबंधन के उपायों में लापरवाही रही है. जरुरी हो जाता है कि सबसे पहले तो होटल /रिट्रीट व रोपवे की परियोजनाओं में इनके आरम्भ के साथ सेवा प्रदान करने के क्रम में पर्यावरण के तय मानकों का अनुपालन कठोरता से लागू किया जाय. पहाड़ में हिमनदों तक पर्यटकों द्वारा फैंकी अवशिष्ट सामग्री, होटल व रिसोर्ट के कचरे के ढेर यह जताते हैं कि इको -स्टैण्डर्ड्स अभी भी हाशिये पर हैं.
हिमालय के इलाके में अवसरचना हेतु जल और भू सुरक्षा मानकों की अनदेखी उत्तराखंड में घटित भारी भूस्खलनों व नदियों के समीप बसे ग्रामों में मची तबाही के रूप में सामने आईं हैं. उच्च स्थलों की जल विद्युत परियोजनाओं पर भी बादल फटने जैसी घटनाओं का प्रभाव पड़ा है. इसलिए ‘डिजास्टर -रेजिलिएँट डिज़ाइन’ के आधार पर ही कड़े मानकों के अधीन निर्माण कार्य हो. कोताही तो इस स्तर पर है कि डायनामाइट से पहाड़ उड़ा उसका मलवा नीचे ढलान की ओर लुढ़कता रहता है चाहे वहाँ वन हों, खेती की जमीन हो, गाड़ गधेरे हों जिनकी परवाह नहीं की जाती. यह जरुरी है कि पर्यटन मार्ग, गाइडिंग, स्थानीय उत्पाद के लाभ सीधे स्थानीय समुदाय को पहुंचे. इसके लिए हर इलाके का समुदाय आधारित प्रारूप बने.
उत्तराखंड स्टार्ट-अप नीति 2023 में अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के लिए नवप्रवर्तन व उपक्रम पर आधारित नीतियों को निर्दिष्ट किया गया है जिसके आधार पर विकास की परियोजनाओं को गति दी जानी निर्दिष्ट की गयी. इसे विभिन्न समय अवधियों के अधीन लागू कर क्रमिक रूप से अधिक सेवाओं का सृजन किया जाना संभव है. उत्तराखंड में ब्रिटिश काल से विकसित हिल स्टेशन और धार्मिक यात्राओं के परिपथ अब भारी भीड़, काबू से बाहर हो रहे ट्रैफिक से ग्रस्त हैं जिनसे गंभीर समस्यायें उभर रही हैं.
सेवा क्षेत्र के विस्तार की एक महत्वपूर्ण योजना “स्पिरिचुअल इकोनॉमिक जोन” के रूप में विस्तार पा सकती है जिससे यहां की धार्मिक, सांस्कृतिक व प्राकृतिक धरोहर का संरक्षण किया जाना भी संभव है. उत्तराखंड स्थापना दिवस पर प्रधान मंत्री इसे विकास के लिए उच्च प्रतिमान पर रख गए. तदन्तर मुख्यमंत्री ने योग, ध्यान, आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, स्थानीय हस्त शिल्प, पर्वतीय उत्पाद व सांस्कृतिक आयोजनों को प्रोत्साहन देते हुए वैश्विक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और पर्यटन केंद्र के रूप में आध्यात्मिक आर्थिक जोन स्थापित करने से सेवा क्षेत्र के परिदृश्य को विस्तृत व गुणवत्ता पूर्ण होने पर बल दिया. अब समेकित विकास की दशा प्राप्त करने के लिए ऐसी कार्य नीति अपेक्षित है जिसके लक्ष्य स्पष्ट हों और समयबद्ध रूप से उसके प्रत्येक चरण की मॉनिटरिंग सुनिश्चित की जाए.
आध्यात्मिक सेवाओं की प्रकृति पर्यटन की वस्तु व मदों से भिन्न है जिसमें प्रामाणिक संस्थाओं एवम इनके चयन व स्वरूप की पारदर्शी प्रक्रिया को समझना जरुरी है. योग, आयुर्वेद व ध्यान केंद्रों के लिए विश्वसनीय संस्थाओं का चयन एवम इनकी विशिष्टता की परख करते रहना सबसे महत्वपूर्ण है जिससे इस क्षेत्र में अति वाणिज्यीकरण से बचा जा सके. वस्तुत: “स्पिरिचुअल इकोनॉमिक जोन” ऐसा क्षेत्र है जहाँ आध्यात्म, योग, आयुर्वेद व ध्यान की पद्धतियाँ हैं जो प्रकृति-आधारित हीलिंग व माइंडफुलनेस के साथ भारतीय संस्कृति की जीवन शैली के समावेश की संकल्पना पर आधारित हैं. उत्तराखंड “देवभूमि” कही गयी तो इन सबको आधार बना कर एक क्लस्टर आधारित आर्थिक विकास मॉडल की पूरी संभावना बनती है जिसमें विशिष्ट सेवाओं की बड़ी भूमिका है. इन क्रियाओं व गतिविधियों के संचालन के लिए आश्रित रणनीति में सबसे महत्वपूर्ण विविध क्रियाओं के संचालन के लिए समुचित ‘क्षेत्र चयन’ है. ऋषिकेश व हरिद्वार योग और आध्यात्मिक केंद्र के रूप में विकसित होने के साथ अब अपनी धारक क्षमता से अधीन भीड़ भाड़ वहन नहीं कर सकते. जरुरी है कि अब तुलनात्मक रूप से ऐसे कई अल्प ज्ञात स्थलों को विकसित किया जाए जहां ट्रैफिक, भीड़ व प्रदूषण का दबाव कम हो और भावी अंतरसंरचना को बढ़ाने के लिए निर्माण कार्य पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल व संवेदनशील बने रहें.पर्यावरण वहन क्षमता को आरंभिक चरण से सबसे महत्वपूर्ण माना जाए.
आध्यात्मिक-आर्थिक जोन की आधारभूत अंतरसंरचना के अधीन योग व ध्यान केंद्र, वेलनेस रिसोर्ट, नेचर हीलिंग केंद्र,डिजिटल हेल्थ, ऑनलाइन योग, आध्यात्मिक प्रशिक्षण स्टूडियो, मैडिटेशन ट्रेल्स, साइलेंट जोन, शोर व प्रदूषण मुक्त आवागमन व परिवहन सुविधाएं विकसित करनी जरुरी हैं जिसके साथ पारम्परिक भोजन व जड़ी बूटी पर आधारित क्योर थेरेपी के केंद्रों को स्थापित व संवर्धित किया जाना मुख्य होगा जिसके संचालन हेतु योग प्रशिक्षक, आयुर्वेदिक प्रेक्टिशनर, वैलनेस काउंसलर, आध्यात्मिक गाइड के साथ ही आवास, भोजन, जलपान, व अन्य सेवाओं की आपूर्ति के लिए स्थानीय महिलाओं/युवाओं के लिए स्किल सेंटर भी खोले जाएँ.
आध्यात्मिक-आर्थिक गलियारे का चिंतन समावेशी विकास की ऐसी बुनियाद पर होना चाहिये जिसमें क्षेत्रीय व स्थानीय रोजगार को प्राथमिकता दी जाए. आंचलिक उत्पादों के उत्पादन के प्रसार-प्रचार के लिए महिलाओं के लिए उद्यमिता शिविर व कार्यक्रम समय समय पर लगाए जाएं. स्थानीय संस्कृति-कथा, कीर्तन, संगीत जैसे लोकथात के विविधता पूर्ण पक्षोँ को संरक्षित रखते हुए इनका प्रस्तुतीकरण हो.
धार्मिक व आध्यात्मिक गतिविधियों में पहाड़ में निवास करने वाले हर वर्ग व समुदाय की विशिष्ट भागीदारी रहती है जिसे बनाये -बचाए रखने का यत्न किया जाए.सीमित और नियंत्रित जोन में ही वेलनेस गतिविधियां संपन्न हों. बड़े आयोजनों को सीमित संख्या में ही अनुमति दी जाए. लोक पर्व व मेलों उत्सवों हेतु पर्यटक के लिए डिजिटल पास आधारित नियंत्रण हो. पार्किंग व आवागमन के लिए चक्राकार रूट बनाने पर जोर दिया जाए. व्यस्त पर्यटन स्थलों में पर्यटकों के अति प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए सैटेलाइट टाउन विकसित करने की पहल हो. साथ ही भीड़-वाहन व ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण व साइलेंट जोन का अनुपालन जरुरी है. स्थल विशेष के जल स्त्रोतों यथा नौले, धारे, गाड़,धारा व छोटी बड़ी नदियों पर शून्य दूषणनीति लागू हो.
आध्यात्मिक स्थल फोटो टूरिज्म या पार्टी संस्कृति के केंद्र न बन पाएं इसके लिए जन जागरूकता जरुरी है. स्थानीय विश्वास और परंपराओं के सम्मान के लिए आवश्यक प्रयास हों. धार्मिक क्षेत्र में आस्था के नाम पर ठगी को रोकने के लिए भी लोगों का संवेदन शील व जागरूक होना जरुरी है. सरकार ने इसके लिए ऑपरेशन कालनेमि अभियान की शुरुआत कर ही रखी है.
सेवा क्षेत्र संवर्धन के प्रारूप में निजी सेक्टर व आध्यात्मिक संस्थानों के साथ राज्य सरकार का तालमेल संतुलन व स्पष्ट नीति निर्देशों के साथ हो. स्टार्टअप हब में योग-टेक, मैडिटेशन ऐप व वर्चुअल रिट्रीट प्लेटफॉर्म हों. उत्तराखंड अब टैग आधारित होलिस्टिक उत्पादों से जुड़ रहा है. मोटे अनाज, पारंपरिक दाल, मसाले, फल व सब्जियों के साथ जड़ी – बूटी व भेषजों पर आधारित वैलनेस उत्पाद स्थानीय सहकारी समितियों से जोड़े जाएं.
उपर्युक्त गतिविधियों का कुशल संचालन केवल तब संभव है जब वांछित सेवाएं प्रदान करने के लिए हर क्षेत्र में प्रशिक्षित सेवा प्रदाता हों. कुशल मानव शक्ति में यहां योग प्रशिक्षक, आयुर्वेदिक प्रैक्टिशनर, वेलनेस काउंसलर, आध्यात्मिक गाइड विशेष महत्त्व के होंगे क्योंकि प्रदान की जाने वाली सेवाओं का स्वरूप हॉस्पिटेलिटी व स्पिरिचुअल पर्यटन से संबंधित होगा. इसके लिए स्थानीय महिलाओं व युवाओं के लिए स्किल सेंटर खोलने होंगें. योग, आयुर्वेद व ध्यान केंद्र स्थापित करने में प्रामाणिक संस्थाओं व इनके चयन में पारदर्शी प्रक्रिया इनकी गुणवत्ता हेतु जरुरी है. इसके लिए आनन-फानन में बनी तदर्थ नीतियों के अवलम्ब पर आश्रित न रह कर सबसे पहले तो “आत्मिक-आर्थिक परिक्षेत्र एक्ट” लाया जाए. योग-आध्यात्म-आयुर्वेद के आपसी तालमेल के लिए “एकीकृत नियामक एजेंसी” हो. विदेशी पर्यटकों हेतु नियत किये कार्यक्रमों के लिए “सरल ई-वीसा” की सुविधा हो.
प्रदेश में लोक पर्व एवम अन्य धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजनों के लिए उत्तराखंड का आध्यात्मिक कैलेंडर प्रकाशित हो जिससे उन अवसरों पर ट्रैफिक व भीड़ नियंत्रण की व्यवस्था की जानी सम्भव हो. उत्तराखंड में चारधाम परिपथ व कुछ आध्यात्मिक केंद्रों जैसे कैंची धाम में व्यस्त सीजन में सुरक्षा व आपात प्रबंधन के बेहतर तरीके व विकल्प खोजे जाने होंगे. जहाँ होने वाली अव्यवस्था का असर पूरे परिपथ पर विपरीत प्रभाव छोड़ता है. अन्य ध्यान केंद्रों व ट्रैक के लिए आपात संपर्क व्यवस्था व पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाऐं उपलब्ध कराई जाएं जो तब तक संभव नहीँ है जब तक प्रदेश की बुनियादी चिकित्सा के ढांचे को आवश्यक सुविधाओं से पूर्ण करने पर ठोस कदम नहीं उठाए जाते.
उत्तराखंड का सेवा क्षेत्र पर्यटन वेलनेस से ले कर डिजिटल सेवाओं, शिक्षा, ग्रामीण पर्यटन और पर्यावरणीय सेवाओं तक अनेक आयामों में विकसित हो सकता है बशर्ते यह विकास सतत, विविधीकृत और हिमालयी संवेदनशीलता को ध्यान में रख कर किया जाए.

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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