प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और सामाजिक चिंतक प्रो. पी. सी. जोशी का यह कथन बेहद प्रासंगिक है कि ‘‘….यह स्वीकार करते हुए अत्यंत लज्जा महसूस करता हूँ कि मैंने देश-दुनिया में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में यथाशक्ति काम किया और प्रतिष्ठा भी प्राप्त की लेकिन उत्तराखण्ड के निर्माण और विकास संबंधी शोधकार्य में कोई भी योगदान नहीं दे पाया. मुझे यह भी महसूस करते हुए लज्जा होती है कि दिगोली ग्राम, जहाँ मेरा जन्म हुआ जिसने अनेक प्रतिभाशाली व्यक्तियों को जन्म दिया जिन्होने शिक्षा, प्रशासन आदि क्षेत्रों में नाम कमाया लेकिन अपने गाँव के प्रति इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों का कोई प्रत्यक्ष योगदान न हो सका. मुझे एक बार जियोर्जिया में एक अर्थशास्त्री ने इस कटु सत्य का अहसास कराया. उसने कहा कि उसकी उन्नति उसके ग्राम और उसके समस्त समुदाय की उन्नति के साथ हुई है. उसके पूछने पर मुझे यह स्वीकार करना पड़ा कि मेरी उन्नति अपने ग्राम और अपने इलाके की उन्नति के साथ नहीं हुई है, उससे कटकर हुई है. जो राष्ट्रीय उन्नति स्थानीय उन्नति को खोने की कीमत पर होती है वह कभी स्थाई नहीं हो सकती. उत्तराखण्ड के बुद्धिजीवियों का देश की उन्नति में कितना ही बड़ा योगदान हो, उनके उत्तराखण्ड की समस्याओं से अलगाव और उत्तराखण्ड की उन्नति में योगदान से उनकी उदासीनता उनके जीवन की बड़ी अपूर्णता है. यह राष्ट्र की भी बड़ी त्रासदी है.’
(प्रो पी.सी. जोशी, पहाड़- 8, नैनीताल, वर्ष-1995).
प्रो. पी. सी. जोशी के यह विचार मुझे हमेशा प्रेरक बनकर अपने गाँव-इलाके से जोड़े रखने में सहायक सिद्ध हुआ है. अपने गाँव चामी (असवालस्यूँ) पौड़ी (गढ़वाल) में रहते हुए मैं अभी भी उन मौलिक कारणों को समझने की प्रक्रिया में हूँ जो गाँव के युवाओं को देश के मैदानी नगरों और महानगरों की ओर धकलने के लिए प्रेरित करते हैं. मेरा चिंतन इस ओर भी है कि आखिर वे कौन से कारण हैं जिनके वशीभूत होकर अधिकांश प्रवासी वापस अपने गाँव नहीं आये.
उत्तराखण्ड अर्थव्यवस्था की दिशा
सरकारी आँकड़े कहते हैं कि पिछले 25 वर्षों में उत्तराखण्ड की वर्ष- 2001-02 की राजस्व आय ₹ 4000 करोड़ से बड़कर वर्ष- 2025-26 में ₹ 1 लाख करोड़ तक पहुँची है (इसमें ₹ 12 हजार करोड़ राजकोषीय घाटा शामिल है). प्रदेश की राजस्व आय में यह वृद्धि 25 गुना है. इसी अवधि में प्रति व्यक्ति आय ₹ 16 हजार से बढ़कर ₹ 2 लाख 75 हजार हो गई है. यह वृद्धि 17 गुना है. देखने वाली बात यह है कि साथ-साथ बने राज्य झारखण्ड, छत्तीसगढ और उत्तराखण्ड में सम्पूर्ण बजट में वृद्धि दर लगभग समान है. प्रति व्यक्ति आय में यह वृद्धि दर झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की तुलना में उत्तराखण्ड में बहुत ज्यादा है. लेकिन, यह खुश होने वाली नहीं है क्योंकि प्रति व्यक्ति में आय में यह जबरदस्त वृद्धि दर उत्तराखण्ड के प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक विदोहन (खनन) और जबरदस्त निर्माणकार्य (विद्युत, सड़क और रेल परियोजना) इसके मूल कारण है.
यह भी उल्लेखनीय है कि इसी अवधि में उत्तराखण्ड में शराब से प्राप्त राजस्व आय ₹ 231 करोड़ बड़कर ₹ 5000 करोड़ हो गई है. यह वृद्धि 22 गुना है. उत्तराखण्ड सरकार द्वारा शराब से प्राप्त आय की वृद्धि दर इसके साथ के झारखण्ड और छत्तीसगढ़ राज्यों से कहीं ज्यादा है.
स्थिति यह है कि उत्तराखण्ड राज्य पर वर्ष- 2000 में लगभग ₹ 4 हजार करोड कर्ज था जो 2012 में ₹ 22 हजार करोड़ और आज 2025 में ₹ 1 लाख करोड़ के करीब हो गया है. याने उत्तराखण्ड राज्य का प्रत्येक नागरिक ₹ 70 से 90 हजार के सरकारी कर्ज में है. आज 25 साल के जवान उत्तराखण्ड में सामाजिक-आर्थिक जीवन की चुनौतियों, उनके समाधानों और भविष्य की रूपरेखा को समझने से पहले विगत पचास सालों में उत्तराखण्ड में गाँवों के बदलते मिज़ाज को समझने की कोशिश करते हैं.
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स्वावलम्बी और आत्मसम्मान से भरपूर जीवन
मैं अपने आपको बैकगियर में ले जाता हूँ तो याद आता है, बचपन. स्वावलम्बी और सम्पन्न समाज में पल्लवित सहज, सरल और आत्मसम्मान से भरपूर, जीवन. बचपन की यादें सुख की वह गठरी है जिसे जब चाहें मन के सबसे नाजुक कोने में चुपचाप खोलकर परम आनन्द की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है. पौड़ी-कोटद्वार मोटर मार्ग में सतपुली से 7 किमी पहले है, बौंसाल. बौंसाल से पश्चिमी नयार नदी पार करके कल्जीखाल मोटर मार्ग पर 8 किमी की दूरी के बाद चामी गाँव की नीचे एवं ऊपर की सीमा रेखा यही सड़क है. चामी गाँव की बसासत तथा खेती के रंग-ढंग आम पहाड़ी गाँव की तरह ही है. गाँव में उपलब्ध भरपूर पानी ने अधिकाँश कृषि भूमि को सिंचित एवं उपजाऊ बनाया.
परिणामस्वरूप ग्रामीणों की पचास के दशक तक खेती-बाड़ी ही जीविका का मुख्य साधन था. नए रोजगार करने एवं पढ़ने-लिखने की चाह बढ़ी तो लोगों ने गाँव से मैदानी नगरों की ओर जाना शुरू किया. परन्तु, वर्षों तक प्रवासी रहने के बाद भी उनके प्रवास की प्रवृत्ति अस्थायी ही रहती थी.
गाँव में आना-जाना उनके नियमित सालाना क्रम में शामिल था. सालों-साल लोग नौकरी से वापस आकर गाँव में आसानी से पुनः रच-बस जाते थे. बाहरी दुनिया की जानकारी, आकर्षण तथा किस्से-कहानियां उनकी जुबानों पर होते थे. लेकिन, दैनिक और सामान्य व्यवहार में स्थानीय तौर-तरीके के अनुकूल ही उनकी क्रियाशीलता थी. प्रवास से वापस आये लोगों ने बाहरी अनुभव, ज्ञान और हुनर का उपयोग गाँव की समृद्धि के लिए किया. अपनी जीवन-चर्या को सुविधाजनक बनाने की अपेक्षा ग्रामीण जन-जीवन को अधिक उत्पादक बनाने का चिन्तन उनके मन-मस्तिष्क में था. उस दौर में गाँव के खेत-खलिहान, पंचायत, सामाजिक कार्य एवं उत्सवों की जीवन्तता का मूल आधार सामूहिक साझेदारी एवं सक्रियता थी.
मौलिक उद्यमिता की भावना ने गाँव को स्वावलम्बी समाज का स्वरूप प्रदान किया था. यह सच है कि वर्तमान में गाँव के रास्तों, मन्दिर, गूल, खेत, पानी की टंकी, थाड (सामूहिक मिलन स्थल) तथा पुराने पंचायती बर्तनों में अगर मजबूती है तो वह 6 दशक पूर्व के लोगों की देन है. आज भी गाँव के अधिकांश सार्वजनिक जरूरतों की भरपाई पूर्वजों द्वारा विकसित, निर्मित और संरक्षित किये गए संसाधनों से होती है. ये बात दीगर है कि अब उनके मौलिक एवं उपयोगी स्वरूप को बरकरार रखने के लिए मरम्मत एवं देखरेख करने में भी हम अपने को असमर्थ महसूस कर रहे हैं.
अभावों एवं दुरूहता को आसानी से स्वीकार करने वाले उस ग्रामीण समाज में जीवटता एवं सरलता का भाव समान रूप में विद्यमान था. प्रकृति के वर्ष भर के स्वाभाविक बदलावों के साथ ही उनकी दिनचर्या में स्वतः ही बदलाव आ जाता था. यह इंगित करता है कि उस समाज की गतिशीलता पर्यावरण सम्मत थी. प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व को कायम रखते हुए तब के ग्रामीण जीवन में कष्ट तो थे परन्तु कुण्ठाएं नहीं पनपी थी. परिणाम स्वरूप अभावों की परवाह न करते हुए उनके कार्य तथा निर्णय दीर्घकालिक एवं सामुहिक हितों के अनुरूप हुआ करते थे.
ढ़ाकर (पैदल चलकर घरेलू जरूरतों का सामान लाना) के लिए तब कोटद्वार जाना होता था. पश्चिमी नयार नदी में पुल नहीं था, ग्रामीण लोग नयार को तैर कर पार करते थे. स्थानीय लोगों ने इसकी जरूरत समझी तो सारा इलाका उमड़ा और पुल महीनों में तैयार हो गया. नेता, सरकार, अधिकारी तब इस काम में कहीं नहीं थे. स्वःस्फूर्त स्थानीय जन-सहभागिता की उपस्थिति का ही यह कमाल था.
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काम को आनन्द के साथ या फिर कहें काम करते हुए उसी में आनंद को पैदा करने की कला उनको बखूबी आती थी. खेती-बाड़ी, शादी-ब्याह, धार्मिक-सामाजिक उत्सवों में पूर्णतः रम जाना उनकी मौलिक प्रवृति में शामिल था. थाड़ में थडया, चैफला, झौड़ा नृत्यों के साथ गूंजते लोकगीत, कण्डारपाणी की रामलीला, खैरालिंग का कौथिग, बग्वाल में भैलो, बाँस की पिचकारी, तीज-त्यौहार में बनते स्वाला-भूडी-अरसा, गाँव की दीदियों के बनाए ढुंगला, खेतों में धान की रोपाई करते महिला-पुरुष और ढोल पर लम्बी थाप देते हुए उनके उत्साह एवं उमंग को बढ़ाते ग्रामीण जन. हर जगह जीवन में सामूहिकता, पूरकता, पारस्परिक निर्भरता तथा उल्लास का संगम देखने को मिलता था.
विकास शब्द का प्रचलन
समय ने करवट ली. समय बदला तो ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था की गति, दिशा एवं नियति में परिवर्तन स्वाभाविक था. विकास शब्द प्रचलन में आने लगा. कहा गया कि गाँव-इलाके का विकास करना है. वही रट आज भी है. विकास का प्रारम्भिक एवं व्यवहारिक मतलब यह माना गया कि सुविधाओं से खुशहाली बढ़ेगी. उसके लिए नए एवं बाहरी तौर-तरीकों को अपनाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई. इसमें यह ध्यान नहीं रहा कि स्थानीय सामाजिक परिवेश के मौलिक, परम्परागत और उपयोगी तत्वों को भी समयानुकूल संरक्षित एवं संवर्द्धित किया जाना आवश्यक है.
नतीजन, विकासरूपी परिवर्तनों से चामी गाँव, सड़क, शिक्षा, बिजली, पानी, टेलीफोन, टीवी, स्वास्थ्य आदि सुविधाओं की पहुँच में तो आया परन्तु ग्रामीण समाज में इसके कई सकारात्मक प्रभावों के साथ नकारात्मक लक्षण भी परिलक्षित हुए. यह परिवर्तन सामूहिक एवं पारस्परिक हितों, सहयोग एवं सामंजस्य की परम्परा को ताकतवर बनाने की अपेक्षा कमजोर करने में ज्यादा प्रभावी साबित हुए. ग्रामीणों में सामाजिक उत्पादकता के स्थान पर आधिकाधिक व्यक्तिगत उपभोग करने की प्रवृति बढ़ी. विकास के नाम पर नए उत्पाद, तकनीकी एवं जानकारियों ने अनावश्यक रूप से ग्रामीण जीवन में बाहरी ग्लैमर की घुसपैठ कराई. परिणाम स्वरूप आधुनिक सुविधाओं से लैस ग्रामीण परिवारों का रंग-ढंग शहरों की तरह एकांगी और बाजारोन्मुखी होने लगा.
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नतीजन, आज सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी का जांचा-परखा लोकज्ञान कुछ ही वर्षों में गुम होने की कगार पर है. स्थानीय समाज की पारस्परिक निर्भरता के स्थान पर छोटी-छोटी जरूरतों के लिए शहरों की आधीनता गाँव में बढ़ती जा रही है. मुझे छुटपन की याद है कि कुछ सरकारी विकासकर्मी नई रासायनिक खाद के प्रोत्साहन के लिए गाँव में आये थे. लेकिन, उनके आने से पहले ही गाँव के सभी सयाने कहीं अन्यत्र चले गए. क्योंकि वे उन सरकारी विकासकर्मियों का सामना नहीं करना चाहते थे. तब नई रसायन खाद को ‘हड्डी वाली खाद’ कहा जाता था. इस कारण गाँव के किसान ‘गोबर की खाद’ की जगह किसी भी हालत में अपने खेतों में नई ‘हड्डी वाली खाद ’ का प्रयोग नहीं करना चाहते थे. उन्हें धर्मभ्रष्ठ होने का इसमें खतरा नजर आता था. लेकिन, कुछ ही वर्षों बाद जोर-शोर के सरकारी प्रचार के कारण खेती में नई रसायन खाद का प्रचलन खूब होने लगा.
और, आज 6 दशक बाद गाँव में उसी सरकारी व्यवस्था के नये विकासकर्मी प्रचारित कर रहे हैं कि ‘रसायन खाद’ से कहीं बेहतर ‘गोबर की खाद’ है. गाँव के लोग धर्मभ्रष्ठ होने का खतरा तो भूल गए परन्तु उनके खेतों का उपाजाऊपन इस हद तक कम हुआ कि सारी खेती-बाड़ी रसायनिक खादों के नशे का शिकार हो गई है. यह चिन्ता हर एक के मन-मस्तिष्क में है.
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लोकज्ञान और हुनर की उपेक्षा
असल में विकास की आधुनिक प्रक्रिया में ग्रामीणों का लोकज्ञान और हुनर हमेशा सरकारी उपेक्षा का शिकार हुआ हैं. उदाहरण के लिए मेरे चामी गाँव के बगल के सीरौं, पौड़ी (गढ़वाल) में आज से 90 वर्ष पूर्व अन्वेषक एवं उद्यमी अमर सिंह रावत ने अपने मौलिक अध्ययन, शोध एवं अनुभवों के आधार पर स्थानीय संसाधनों एवं तकनीकी के माध्यम से कई उद्यमों को प्रारम्भ किया था. उनका मुख्य कार्य कंडाली, रामबाँस, चीड, भीमल आदि के रेशों से कपड़ा बनाना था. रामबाँस के रेशों से स्वःनिर्मित जैकेट को उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को भेंट स्वरूप पहनाया था. उद्यमी अमर सिंह रावत ने सन् 1936 में सीरौं गाँव की धार पर पवन चक्की का सफल प्रयोग किया था. परन्तु अनेक सफल उद्यमीय प्रयासों के बाद भी अपेक्षित सहयोग नहीं मिलने के कारण वे रीते ही इस दुनिया से अलविदा हो गए.
देश की आजादी के बाद उनके कार्यों को आगे बड़ाने के लिए कोई पहल नहीं की गई. आज की उत्तराखंड सरकार पिरूल, रामबाँस, भांग, कंडाली आदि के रेशों से उत्पादक कार्य करने की बात तो कह रही है परन्तु 90 साल पूर्व के इस उद्यमी के प्रयासों की उसे जानकारी नहीं है. और, यदि है भी तो वह उसका लाभ नहीं लेना चाहती है.
विकास की अवधारणा में सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य
वास्तव में चमक-दमक से भरपूर नए विकास की अवधारणा और प्रक्रिया यह नहीं बताती है कि ग्रामीण इन सुविधाओं के बदले क्या खो रहे हैं. गाँव में मोटर सड़क आने का उदाहरण इसके लिए काफी है. सन् 1980 के करीब गाँव के समीप सड़क बनकर तैयार हुई तो ग्रामीणों में नए-नए रोजगार की उम्मीद जगी थी. सड़क से लगी जमीन को दान करके उसमें विश्व बैंक का गोदाम बना. ग्रामीण उत्साहित थे कि नया बाजार बनेगा, चाय-पानी, आटा-चक्की, सब्जी, कपड़ा, जनरल स्टोर, परचून का व्यवसाय से लेकर सैलून खोलने की तैयारी शुरू हुई. परन्तु विश्व बैंक के इस गोदाम में वर्षों तक कभी भी एक दाणी अनाज नहीं आ सका. नतीजन, विश्व बैंक का गोदाम बनने के बाद से ही वीरान हो गया. गाँव के भावी उद्यमियों के साकार होते सपने भी धम्म से धराशाही हो गए. वर्षो तक आने-जाने वाले मुसाफिरों तथा बाद में स्कूली लड़कों के छुपने के लिए ये भवन कारगर रहे. आज इन भवनों के कंकाल ही दिखते हैं. सही बात तो यह है कि सड़क आने से गाँव जाना-आना तो आसान हुआ परन्तु मोटर सड़क गाँव की उत्पादकता को बड़ाने में सहायक सिद्ध नहीं हो सकी.
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बस, इसका प्रभाव यही हुआ कि मोटर सड़क के आस-पास के गाँवों में भी सड़क से चिपक कर ‘नीचे दुकान ऊपर मकान’ या ‘आगे दुकान पीछे मकान’ वाले कई नए भवनों की कतार दिखाई देने लगी है. गाँवों में शहरी जीवन शैली को पसारने में सड़क से सटे इन नई बसावतों का महत्वपूर्ण योगदान है.
विगत 25 वर्षों में उत्तराखण्ड राज्य में सड़कों की लम्बाई 8 हजार से 45 हजार किमी. तक पहुँच गई है. लेकिन, यह सड़कें निर्मित उत्पादों को गाँव तक पहुँचाने और ग्रामीण इलाकों के प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों को बाहर धकेलने के मुख्य माध्यम सिद्ध हुई हैं.
आधुनिक विकास ने ग्रामीणों के शिक्षा के प्रति आकर्षण को अधिक प्रभावी बनाया. गरीब-अमीर, लड़के-लड़कियाँ सभी ने पढ़ना अनिवार्य समझा. परन्तु विद्यालयी शिक्षा ने इन युवाओं के मन-मस्तिष्क में जीविकोपार्जन के लिए अपने परिवेश से बाहर का रास्ता ही बताया है. श्रम को बोझिल एवं अनुपयोगी मान लेने की मानसिकता युवाओं में तेजी से बड़ी. गाँव में पढ़ लिखकर रहना युवाओं के लिए असहाय हो गया है. सयाने कहते हैं कि ’अगर कुछ करना है तो बाहर निकलो, गाँव में क्या रखा है?’ वे खेती-किसानी में अपने बच्चों का भविष्य नहीं देख रहे हैं. लिहाजा, गाँव में रह रहे हाईस्कूल-इंटर पास युवा रोजगार के घनघोर संकट से गुजर रहें हैं. उनके परिवार आर्थिक दिक्कतों में हैं. खेती-बाड़ी से गुजारा करना कठिन है. गाँव में मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं है. शहरों में ठौर-ठिकाना नहीं होने से वे जायें तो जायें कहाँ? करें तो करें क्या? ज्यादातर युवा इसी उधेड़बुन में मैदानी महानगरों में रोजगार के लिए गोता लगाने चल देते हैं. कुछ सफल तो अधिकाँश असफल, फिर कुछ महीने गाँव में तो कुछ माह मैदानी प्रवास में. नतीजन, ’असल में करना क्या है’? का बोध उनमें विकसित नहीं हो पाया है.
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पहाड़ में अच्छी पढ़ाई माने अच्छी नौकरी और अच्छी नौकरी माने शादी की गारंटी फिर दिल्ली, लखनऊ, गाजियाबाद, मेरठ, चंडीगढ़, कोटद्वार, देहरादून में मकान, उसके बाद टाईवाले स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने की तमन्ना. सामान्यतया पहाड़ी समाज में एक कामयाब व्यक्ति की यही पहचान है.
विगत 25 साला सफ़र में जिस बड़ी तेजी से विद्यालयों, महाविद्यालयों, तकनीकी शिक्षा संस्थानों में वृद्धि हुई, उतनी ही तेजी से वे अब अप्रसांगिक होकर बन्द भी हो रहे हैं. कारण स्पष्ट है कि उनमें संख्यात्मक वृद्धि तो हुई परन्तु उनमें गुणात्मकता लाने में विफल रहे हैं. एआई के इस दौर में उनमें समयगत और आधुनिक शैक्षिक एवं तकनीकी बदलाव नहीं ला पाये हैं. अनेकों राजकीय प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालय, आईटीआई और पाॅलीटेक्नीक के वीरान परिसर इसके प्रमाण हैं.
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विद्यालय वीरान-मन्दिरों की भरमार
पिछले 5 दशकों में गाँव में आये कुछ परिवर्तन बार-बार यह विचार करने की ओर बाध्य करते हैं कि वाकई हमारा ग्रामीण समाज समझ और सभ्यता के स्तर पर आगे बड़ा है या उसे दिशाभ्रम हो गया है. गाँव में स्थानीय देवी-देवताओं की जीवंतता पहले भी थी और आज भी है. पहले लोक देवताओं के मंदिर होते ही नहीं थे. खेतों की मेडों या घर के धुरपल्ले (छत) या ढैपुर (कमरा और छत के बीच का ढाई फुट का हिस्सा) या फिर निर्जन स्थानों पर बहुत छोटे और खुले आकार में सादगी के साथ स्थानीय देवी-देवताओं के निवास होते थे. आज पहाड़ में जगह-जगह प्रवासियों के योगदान से स्थानीय एवं अन्य देवी-देवताओं के भव्य मंदिरों की उपस्थिति है.
किसी पहाड़ी धार से देखिए प्रत्येक गाँव छोटे-बड़े नए मन्दिरों से घिरे दिखाई देते हैं. भले ही उनमें नियमित पूजा करने वालों का अकाल है.
दूसरी तरफ पुराने दौर में ग्रामीण इलाके में केवल सरकारी स्कूल थे और वो भी बेहद कम संख्या में लेकिन उनकी भव्यता, उपयोगिता और जीवंतता में कहीं कमी नहीं थी. आज की तारीख में ये सारे सरकारी स्कूल अपनी बदहाली और किसी हद तक निरर्थकता के कारण वीरान हो गए हैं. सरकारी स्कूलों की बदहाली का फायदा उठाकर ग्रामीण क्षेत्रों में निजी स्कूल पूरी धमक के साथ फल-फूल रहे हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में नये मंदिरों एवं निजी स्कूलों की भरमार और पुराने सरकारी स्कूलों का गायब होना यह इंगित करता है कि ग्रामीण क्षेत्र की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रगति को सही दिशा एवं गति देने में हर स्तर पर चूक हुई है.
यह कैसा विकास है जो हमें बताता है कि जो कुछ मौलिक, परम्परागत एवं स्थानीय है, वह अब प्रासंगिक नहीं है. आधुनिक जीवन शैली पहाड़ी परिवेश की पैतृक एवं परम्परागत भाषा-भोजन-भेषभूषा, रीति-रिवाज, तौर-तरीके, उठना-बैठना, किस्से-कहानी, ब्यौ-कारज, रहने के रंग-ढंग सभी को जबरदस्ती और अनावश्यक बदलने की फिराक में हैं. यह बदला रूप कितना ही असहज हो, पर यह गलतफहमी है कि हम समाज की नजर में बड़े और सम्पन्न आदमी बन गए हैं.
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बदलता सामाजिक परिवेश
ज्यादा वक्त नहीं हुआ है, चार दशक पहले तक प्रवासी लोग हर साल लम्बी छुट्टी लेकर अपने गाँव आते थे. खेती-बाड़ी, तीज-त्यौहार, शादी-ब्याह, मकान की मरम्मत आदि कामों को निपटाते हुये मजे से गाँव में महीने-दो महीने रहते थे. खेती-बाड़ी अब रही नहीं. गाँव में तीज-त्यौहार मनाना बीते दिनों की बात हो गयी है. शादी-ब्याह में बहुत जरूरी हुआ तो एक रात शामिल होने आ गए. वैसे भी अधिकाँश लोगों के कुटम्ब अलग-अलग शहरों में छितरा गए हैं. फिर गाँव में रहेगें किसके पास? मूल प्रश्न यह है. ज्यादातर लोगों को तो पितरौड़ा में पितृलोड़ी रखने के लिए ही गाँव की याद आती है. एक कारण बड़ा मजबूत है, आज के दौर में गाँव जाने का, देवी-देवताओं के सामूहिक पूजन में शामिल होना और छुट्टियों का महीना जून इसके लिए निर्धारित सा लगता है.
आजकल पहाड़ी गाँव में सुखी-सम्पन्न वह है जो मजे से पेंशन की जुगाली कर रहा है. शारीरिक श्रम की उपयोगिता एवं अनिवार्यता को कम समझने के कारण स्थानीय जीवन के मूलभूत आधार, कृषि एवं पशुपालन के प्रति अरुचि बढ़ी है.
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स्थिति की गम्भीरता यह है कि सिंचित जमीन में भी छिटककर धान बोने का रिवाज चल पड़ा है. अधिकांश खेत बंजर है. ईधन के लिए गैस उपलब्ध है तो पेड़ों की कटाई कम हुई है. गाँव के नजदीक झाड़ी-जंगल में वृद्धि हुई तो बची-खुची खेती के लिए मुसीबत बढ़ गई. जंगली जानवरों का आतंक चरम पर है. मौसम की मार से बचाई हुई फसल को बंदर चट कर जाते हैं. प्रवासी लोगों के बंजर जमीनों ने इस समस्या को और बढ़ाया है. पहले सारा इलाका आबाद था तो सामूहिक देख-रेख से फसलों की पुख्ता सुरक्षा थी. अब इसका निदान यही है कि घर के आस-पास के खेतों को ही लाल करके खेती की रस्म अदायगी कर दी जाए, जो छूटा उसे देखना भी क्या है ?
तथ्य यह भी है कि उत्तराखंड के 63 प्रतिशत जमीन रिजर्व वन घोषित है, 25 प्रतिशत ऐसी जमीन है जहाँ नवीन स्वःरोजगार गतिविधियों को तुरंत शुरू नहीं किया जा सकता है. बाकी 12 प्रतिशत कृषि भूमि है (हकीकत में वास्तविक कृषि भूमि इससे कहीं कम है.). पलायन आयोग की रिर्पोट कहती है कि उत्तराखण्ड बनने के बाद से 1 लाख हैक्टयर कृषि भूमि बंजर हुई और 3 हजार से ज्यादा गाँव वीरान हुये हैं. अतः तेजी से सिमटती उपलब्ध पहाड़ी भूमि अब अतिरिक्त दबाव झेलने में असमर्थ है. परन्तु फिर भी सबसे ज्यादा बलिदान इसी भूमि का हो रहा है और आगे भी होना है.
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चकबन्दी की चर्चा
चकबन्दी की बातें बड़ी-बड़ी हो रही हैं, परन्तु जब व्यावहारिक धरातल पर शुरुआत होगी तभी उसके लाभों को सराहा जा सकता है. सालों से चकबंदी के अनुभव प्रायोगिक और गोष्ठी-सेमिनारों तक ही सीमित रहे हैं. चकबंदी का विचार उन लोगों को तो लुभाता है जो खेती-किसानी से सीधे नहीं जुड़े हैं. खेती – किसानी वाला व्यक्ति चकबंदी के प्रति अभी भी शताब्दियों से बनी-बनाई व्यवस्था में अपने हितों के नुकसान की आशंका से ज्यादा ग्रसित है. विडम्बना यह है कि सन् 1964 के भूमि बंदोबस्त के बाद नया भूमि बंदोबस्त नहीं किया जा सका है. यह नीति-निर्धारकों की घनघोर असफलता है. अभी भी पहाड़ों की जमीन के बारे में गोल-मोल नीति ही अपनाई है. वैसे भी पहाड़ में अधिकांश जमीन गोल खाते की है. पारिवारिक बटवांरा और संटवारा आपसी मौखिक सहमति के आधार पर हुआ है. आज भी एक सामान्य ग्रामीण अपनी भूमि का स्वतंत्र खातेदार न होकर संयुक्त हिस्सेदार है.
गाँव-इलाके की सार्वजनिक भूमि सरकार के प्रभुत्व में है. खाता-खतौनी में दर्ज जमीन और वास्तविक स्थिति में व्याप्त अंतर दिनों-दिन बड़ता जा रहा है. यह आशंका निरर्थक नहीं है कि आने वाले कुछ ही समय में ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि संबधी विवादों में बहुत तेजी आयेगी. अतः चकबंदी से पहले सरकार को उत्तराखण्ड में स्पष्ट, कारगर तथा सुसंगत भूमि बंदोबस्त नीति बना कर उसको अमली जामा पहनाना होगा.
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मनरेगा की भूमिका
गाँव में ग्रामीणों के लिए मनरेगा प्राण वायु साबित हुआ है. सरकार भी मनरेगा में काम दिलाने की बात जोर-शोर से कह रही है. परन्तु, युक्तिसंगत बात यह है कि सरकार को युवाओं के लिए मनरेगा में काम दिलाने से इतर व्यापक-सार्थक सोच को प्रभावी करने की ओर गतिशील होना होगा. मनरेगा को अनिवार्यतया और प्रत्यक्षतया खेती-किसानी से जोड़ना ही होगा. अन्यथा, ग्रामीण क्षेत्र में मनरेगा के माध्यम से श्रम शक्ति का अपव्यय होता रहेगा. मनरेगा ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराने हेतु अल्पकालिक और सतही युक्ति है. इसे दीर्घकालिक-स्थाई रूप में ग्रामीण रोजगार उपलब्धता का समाधान-विकल्प मान लेने के गम्भीर नकारात्मक सामाजिक-आर्थिक प्रभाव होंगे जो कि किन्हीं स्तरों पर ग्रामीण समाज में अभी से दिखने भी लगे हैं.
प्रवासी और ग्रामीण की मनोदशा
अभी हाल में किसी प्रवासी ने गाँव के बंधु को खेती के बारे में पूछ लिया ‘कितना हुआ तुम्हारा’? धाराप्रवाह सुनने को मिला. ’‘अब क्या बताना? बीज भी हाथ नहीं आया. जानवरों के लिए घास तो होता. थोड़ा बहुत फसल उगी भी थी, वह जंगली जानवरों ने चौपट कर दी. जंगलों में खाने को नहीं है. जानवर जाएं तो जाएं कहाँ? बंदर भरी दोपहरी में बेरोकटोक घर की दहलीज पर मजे से आने लगे हैं. यह बताने कि हमारे लिए भी खाना बना देना. अब बंदर-सुअर जंगली न होकर गाँव के स्थाई निवासी हो गये हैं. कहीं-कहीं तो आदमियों की आबादी से अधिक बंदर हैं गाँवों में. सरकार को सलाह है कि उनका भी राशनकार्ड बना दे. जैसे सेना में हमारे गाँवों के युवा दुश्मन से सावधान रह कर अपने देश की रक्षा कर रहे हैं, वैसे ही हम उनके अभिभावक गाँव की खेती को जानवरों से बचाने के लिए दिन-रात जंगली जानवरों से हर वक्त भिड़ंत की मुद्रा में रह रहे हैं. और, अब तो खेती क्या खुद को भी जानवरों से बचाना पड़ रहा है. बच्चों का स्कूल और इधर-उधर आना-जाना कठिन हो गया है. उन्होने गुलेल रखना शुरू कर दिया है. जानवरों से खुद को बचायें कि खेती को? पहले सारे गाँव के लोग खेती करते थे तो जानवरों से सामूहिक सुरक्षा हो जाती थी. आज जिसने हल चला कर अपने खेतों को आबाद किया है, उसी को तो परेशानी होगी. बगल के बंजर खेत वाला चण्डीगढ़, देहरादून, दिल्ली, मुम्बई, मेरठ, फरीदाबाद से तो आयेगा नहीं. खेतों के पास उग आये बेतरतीब झाड़ी-जंगलों में लोग आग इसलिए भी लगा रहे हैं ताकि जंगली जानवर गाँव के नजदीक न आ सकें.‘‘
’ये तो ठीक बात नहीं है,’ उस प्रवासी भाई ने कहा. तुरन्त उत्तर आया. ’दो-चार महीने गाँव में रह लो. सब ठीक लगने लगेगा.’
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वास्तव में, कभी-कभार गाँव जाने वाले प्रवासियों ने ग्रामीण जनजीवन से सामाजस्य रखने के बजाय अपने शहरी ग्लैमर से ग्रामीणों को प्रभावित करने की कोशिश अधिक की है. वे ग्रामीणजन की जीवन शैली और उसके श्रम को सामाजिक सम्मान देने में कतराते रहे है. शहर से गाँव आने वाले प्रवासी उम्मीद रखते हैं कि गाँव का दूध, दही, सब्जी, अनाज, दाल हमें फ्री या बहुत कम कीमत पर मिल जाए. प्रवासी लोग गाँव के लोगों से भाईचारे, ईमानदारी तथा सहृदयता की आशा रखते हैं परन्तु अपना सकारात्मक योगदान ग्रामीण व्यवस्था में प्रदान करने में हिचक जाते हैं. वास्तव में, स्थानीयता का अर्थ जड़ता नहीं है. अतः स्थानीयता के प्रति व्याप्त सामाजिक उदासीनता के भाव को हमें छोड़ना होगा.
अच्छी पढ़ाई के लिए देहरादून और अच्छे इलाज के लिए दिल्ली से नजदीक कोई सुविधा सरकार और समाज हमारे उत्तराखण्डी पहाड़ी गाँवों को नहीं दे पाई है. बावजूद इसके, हम ग्रामीण लोग कुंठाओं से ग्रस्त नहीं हुये हैं. यही हमारी ताकत और पहचान है.
ग्रामीण मनोविज्ञान को समझने की जरूरत
अतः आज आवश्यकता गाँव में रहकर ग्रामीणों के मनोविज्ञान और जीवनीय दिक्कतों को समझने तथा स्थानीय अवसरों, संसाधनों एवं सम्भावनाओं के अनुरूप कारगर कार्य करने की हैं. समाज में अधिकांश परिवर्तन स्वःस्फूर्त, स्वाभाविक एवं समयागत होते हैं. उन्हें रोका भी नहीं जा सकता और उनके मार्ग में अनावश्यक अवरोध भी खडे़ नहीं किए जाने चाहिए. वास्तविकता यह है कि परिवर्तनशीलता स्थानीय समाज को जीवन्तता तथा नवीन परिस्थितियों के अनुकूल आकार लेने की ओर प्रेरित एवं विकसित करती हैं. बस, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों को स्थानीय उद्यमशीलता से जोड़ने की जरूरत है. इसके लिए स्थानीय संसाधनों के मौलिक स्वरूप को समझते हुए उनके सर्वोत्तम उपयोगों की ओर क्रियाशील होना होगा.
इन्हीं अर्थों में मेरे गाँव चामी की तरह उत्तराखण्ड के सभी गाँवों की सकारात्मक परिर्वतनशील विकास प्रक्रिया को एक सही दिशा और गति देनी होगी. इसके लिए बाहर नहीं वरन् स्थानीय समाज में ही उपलब्ध संसाधनों, चुनौतियों एवं अवसरों को तलाशना और तराशना होगा.
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गाँव की अहमियत की समझ का बड़ना
मैं गाँव में रहते हुए इस बात से पूर्णतया आश्वस्त हूं कि इस कठिन संक्रमणकाल की चुनौतियाँ स्थानीय विकास के समग्र अवसरों में तब्दील होकर ग्रामीण पहाड़ी समाज को पुनः पैतृक आत्मनिर्भर स्वरूप प्रदान करने में सहायक होगा. ऐसा इसलिए कि गाँव के सयानों के साथ-साथ युवा और बच्चे अपने गाँव और पैतृक भूमि की नये संदर्भों में अहमियत को समझ रहे हैं. उदाहरण देता हूँ, कि ग्रामीणों को लगता है कि उदासी और नकारात्मकता का भाव सबसे ज्यादा रोज इन खण्डहर हो गये घरों को देखने से ही उपजता है. प्रवासियों से अपने पैतृक घरों को ठीक करने की अपील ने रंग जमाया. नतीजन, विगत वर्षों में गाँव के अधिकाँश टूटे-फूटे घर आज आधुनिक और खूबसूरत स्वरूप में आ गये हैं. समस्या यह है कि दिन में बंदर और रात को सुअर खेतों को नुकसान पहुँचाते हैं. इसके विकल्प में जड़ी-बूटी और ऐसी फसलों की ओर हम उन्मुख हुए हैं जिन्हें जानवर नुकसान नहीं पहुँचाते है. यह क्या कम है कि गाँव के ‘चामी टीनेजर्स’ ने अपने ही प्रयासों से पुस्तकालय और कम्प्यूटर सैंटर चलाने की पहल की है. प्रवासी बन्धुओं की मदद और मार्गदर्शन से इस कैरियर सैंटर को डिजिटल करने की ओर गाँव के युवा प्रयासरत हैं. ये युवा चामी ग्राम सभा का आगामी 25 वर्षो की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक मास्टर प्लान पर कार्य कर रहे हैं. इसमें गाँव के इतिहास, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं पर कार्य किया जा रहा है. इन युवाओं की यह पहल भविष्य के नये आयामों के द्वार खोलेगी.
अभी उनके चिन्तन और प्रयासों में थोड़ी हिचकिचाहट की छाया है, पर समय के साथ यह कुहासा भी छटेगा. मेरी समझ यह कहती है कि यदि हम गाँव में रह रहे ग्रामीणों और उनके प्रवासी बन्धु-बांधुओं के बीच निरन्तर सही, सुगम और पारदर्शी समन्वयन को सफलतापूर्वक संचालित कर लें तो पलायन की चर्चा ही निरर्थक लगेगी.
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स्वयं पहल को साबित करके दिखाना
मैं पुनः यह बात विनम्रता के साथ परन्तु मजबूती से कहना चाहता हूं कि किसी भी स्तर से गाँव के समग्र विकास की बात कही जाती है तो उसे/उन्हें स्वयं इस तरह का व्यवहारिक आचरण और पहल करनी होगी. कई वर्षों तक गाँव से बाहर रहने बाद पुनः गाँव में रहते हुए ग्रामीणों का विश्वास हासिल करने में मुझे ही चार साल लग गये थे. हमें दूसरों से कहने-लिखने से ज्यादा खुद साबित करके दिखाना होगा. गाँव में आना-जाना और गाँव में ग्रामीणों जैसा रहना इन दोनों प्रवृत्तियों में बहुत अन्तर है. इस पर भी पुरुषों और महिलाओं के गाँव के प्रति नजरिये में बहुत अन्तर और विरोधाभास अभी भी विद्यमान है. गाँव में जीवकोपार्जन करके जीवन चलाने की दिक्कतें दिखती कम हैं उसे गाँव में रहकर ही महसूस किया जा सकता है.
‘बावनी अकाल’ और स्पैनिश फ्लू-1920 से सबक
मुझे गढ़वाल के इतिहास में ‘बावनी अकाल’ का घ्यान आ रहा है. विक्रम संवत् 1852 (सन् 1795) के भयंकर अकाल में गढ़वाली लोग कई दिनों तक भूख से बेहाल रहे परन्तु उन्होने अपनी खेती के परम्परागत बीजों को नहीं खाया. उन्हें विश्वास था जब तक ये परम्परागत बीज उनके पास उपलब्ध है उन पर जीवनीय संकट नहीं आ सकता है. वे आश्वस्त थे कि कुछ समय के दुर्दिनों के बाद अपने इन मौलिक बीजों का खेती में उपयोग करने से वे अकाल पर विजय प्राप्त कर लेंगे. उनका विश्वास सही साबित हुआ उन्हीं बीजों के बदौलत बाद में उनके जीवन में फिर से खुशहाली आ गई थी.
इसी तरह गाँव के बुजुर्गों से जो उन्होने अपने सयानों से सुना था कि सन् 1920 की स्पैनिश फ्लू महामारी (इस महामारी की वजह से उत्तराखंड की जनसंख्या जो सन् 1911 में 22 लाख थी घटकर सन् 1921 में 21 लाख अर्थात इन 10 सालों में 1 लाख कम हो गई थी.) के समय भी पहाड़ के लोग जान बचाने जगंलों की ओर भागते समय अपने मूल्यवान धन के साथ तोमड़ियों (बीज रखने के लिए बड़ी-स्वस्थ्य लोकियों को झाल में ही सुखाया जाता है. झाल सूखने के बाद उनके अन्दर बचे-खुचे गूदे को बाहर निकाल कर उसके खोल में कृषि उपज के बीजों को रखा जाता है. ऐसा करके बीजों पर कीड़ा नहीं लगता और वे दीर्घकाल तक सुरक्षित रहते हैं.) में खेती-किसानी के बीजों को ले जाना नहीं भूले थे.
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पूर्ववत महामारियों में अपने पूर्वजों के अनुभवों के बल पर इन्हीं बीजों के कारण महामारी के टलने के बाद उन्हें अपनी ग्रामीण जीवन-चर्या को फिर से चलाने में कोई विशेष दिक्कत नहीं आई थी.
भविष्य की रूपरेखा
आज हमें अपने मन-मस्तिष्क में विगत शताब्दियों में आई भयंकर विपत्तियों से निपटने में हमारे पूर्वजों द्वारा अपनाई गई सकारात्मकता के बीजों को पुर्नजीवित करने की जरूरत है. इन 25 सालों में पहाड़ी गाँवों और ग्रामीणों की जीवन शैली का परिदृश्य बदल चुका है. मानवीय समझ और भौतिक सुविधाओं का आधुनिक जीवन शैली के अनुरूप विकास-विस्तार हुआ है. जीवनीय आशायें और अवसर आज पहले की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी रूप में विद्यमान हैं. उन्हें नई गति और दिशा देने की जरूरत है. अनवरत सामाजिक विकास में शताब्दी पूर्व के हुनर को पुनःस्थापित करना और कराना ज्यादा मुश्किल नहीं है.
यह वक्त नकारात्मकता की ओर देखने का नहीं वरन अपने को और अपनों के बीच की जद्दोजेहत से बाहर आकर पहाड़ और पहाड़ी जीवनचर्या के परम्परागत सामांजस्य को देखने-समझने और उसे अपनाने की जरूरत है. हम गाँठ बाँध ले कि यह कार्य केवल सरकारी भरोसे तो कदापि संभव नहीं है. संपूर्ण समाज की सामुहिक नागरिक शक्ति ही आत्मनिर्भर जीवन की जीवंतता को पुनः स्थापित करेगी.
विगत 25 साल के अनुभव इंगित करते हैं कि गाँवों से लोगों का पलायन रोजगार के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए सर्वाधिक है तो उनके वापस न लौटने का प्रमुख कारण गाँवों में स्वास्थ्य सुविधाओं का न होना रहा है. अतः बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य पर हर स्तर पर कार्य करने की जरूरत है.
यह समय सामाजिक उत्तेजना का नहीं वरन जागृत और सहज रहकर दूरदर्शी व्यवहार अपनाने का है. वैसे भी उत्तराखण्डी कर्मठता एवं सहजता के अपनाने के श्रेष्ठ उदाहरण है.
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संदर्भ-
1. उत्तराखण्ड विजन-2030: नियोजन विभाग, उत्तराखण्ड सरकार-2018, देहरादून, (उत्तराखण्ड).
2. आर्थिक सर्वेक्षण- 2014-15, 2016-17, 2021-21, 2024-25 भाग-01: अर्थ एवं संख्या निदेशालय, नियोजन विभाग, देहरादून (उत्तराखण्ड)
3. उत्तराखण्ड त्रिस्तरीय पंचायत योजना: मॉडल प्लान- सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी एण्ड गुड गवर्नेंस, देहरादून, (उत्तराखण्ड), 2021
4. रिर्पोट- अप्रैल एवं दिसम्बर-2018, सितम्बर-2019 तथा अक्टूबर-2020, ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग, उत्तराखण्ड, पौड़ी (गढ़वाल)
5. प्रो पी.सी. जोशी- स्थानीयता बनाम राष्ट्रीयता,:पहाड़-8, नैनीताल, सम्पादक- प्रो. शेखर पाठक -1995

वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.
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