मौत हमारे आस-पास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहां आज उसी का राज था. हमारे शरीर लगातार हिमांक के पास थे और हमारे मन-मस्तिष्कों में भावनाओं का उबाल क्वथनांक से ऊपर पहुँच रहा था. इस मार्ग में बहुत कम लोग आते हैं. यह कहीं से भी तीर्थ यात्रा मार्ग नहीं है न ही व्यापार मार्ग है. न यहां मनुष्य है और न देवता. भूगर्भ और भूगोल तो है पर गिनी चुनी वनस्पतियाँ. इस मार्ग के साथ पुण्य या परलोक कुछ भी जुड़ा नहीं है. पौराणिक कथाओं से भी यह बच गया है.
(Book Review Himank aur Kvathnank Ke Beech)
हिमालय यहां आदिम राग गाता है अत्यंत विलंबित आवाज़ में. बीच बीच में गल और पहाड़ टूट कर अलग तरह के वाद्य यन्त्रों की आड़ी-तिरछी झंकार पैदा करते हैं. यह एक तरह का ‘राग हिमालय’ है. कभी कभी लगता है कि नीला आसमान इस राग का दर्शक और श्रोता है. अपने सितारों के जाल के साथ.
मन अभी भी सिर्फ चलने को था. पता नहीं क्यों रुकने में एक अजीब सी घबराहट हो रही थी. जैसे रुकने ओर मौत की परियां दबोच लेंगी. ऊंचाई और अंधकार मिल कर हमारा भ्रम बढ़ा रहे थे. शब्द जैसे गायब हो गये थे और भावनाएं जैसे पथरा गई थीं.
यह किताब पढ़ते हुए बार-बार मुझे वह दृश्य दिखे जहां चलते पहाड़ों की ऊंचाई नापते जाना था कि आखिर क्यों वह हमें अपने पास आने का निमंत्रण देते हैं. बार-बार इनके बीच से गुजरते इनकी समृद्धता का एहसास होता है व जल जंगल जमीन के सघन सहज सरल रिश्तों की बात समझ में आती है. दूरस्थ के इन इलाकों में प्रकृति ने जो रहने टिकने के बंदोबस्त किये हैं सीमांत वासियों ने उनके साथ जो समायोजन किया है उससे कितनी बसासतें आवास-प्रवास का क्रम बना अपने जीवन निर्वाह के अनोखे उपक्रम संजो गईं हैं. आगे जाते जब न कोई रास्ता दिखे, न कोई पग डंडी बस टटोल टटोल कर बढ़ना ही किसी के इशारों से संभव हो तब जाना जाता है कि आबो हवा के बदलने का मतलब किन नई परीक्षाओं से गुजर जाना है.अब यही प्रकृति परीक्षा लेती है कि कितना बूता है चल दिखा और बढ़ आगे तो पायेगा वह जिसकी तलाश थी जिसके लिए मन बेचैन था वह है यहां कहीं, तो देख.
हिमालय को कमोबेश थोड़ा ही देखा है मैंने, अपने हिस्से के उन पहाड़ों में, जहाँ में पहुंचा वह इस किताब को पढ़ते मुझे खूब याद आया और पहले पन्ने से ही इसके घटना क्रम मुझे अपने से जोड़ते चले.
हिमालय को जानने समझने के लिए जिस समग्र दृष्टिकोण की जरुरत होती है उसका इतिवृत शेखर पाठक की किताब “हिमांक और क्वथनांक के बीच ” आसानी से समझा जा सकता है. पचास साल से अधिक समय तक पहाड़ के बीच चलते इसके हर मूड को पहचानते, यहां हो रहे स्पंदन को महसूस करते,दिखाई दे रही हलचलों से सबक लेते, जो शब्द चित्र सामने रखे गये हैं उनके पीछे हिमालय के चप्पे चप्पे को अपने कदमों तले नाप लेने का हौसला है. किताब के साथ भेजी स्नेह भरी चिट्ठी में शेखर लिखते हैं कि “2009 में एन बी टी ने मेरी पहली यात्रा किताब छापी थी पर वह कैलास-मानस पर होने से कितना कुछ लिखवा सकती है? यह यात्रा एक ठन्डे एकांत में की और जबरदस्त मोनोटोनी हर तरफ पसरी मिलती थी, फिर भी मैंने कोशिश की”.
यह कोशिश स्वतः स्फूर्ति भरे प्रयासों का ऐसा समन्वय लगी जिसके सहारे पहाड़ को जानने समझने की बुनियादी जानकारी सरल-सहज बात कहने के अपने खास अंदाज से तो मिली ही वह सारे धागे भी आपस में जुड़ने लगे जिनके सहारे हिमालय को जानने समझने के लिए जान का जोखिम ले लिया गया था. बर्फ से ढके शिखर तो सबको सम्मोहित करते हैं जिस तक पहुँचने के लिए हरे भरे जंगल हैं, बहते हुए जलधारे हैं, रंग बिरंगे पंछी हैं तो, चुस्त फुर्तीले वन चर भी. पर हिम शिखरों के साथ जो रौखड़ है, गल है, हिमौड़ है और उस तक पहुँचने का कोई पथ नहीं तब आगे बढ़ते हुए कदम मन की हौस को पूरा करने के लिए कैसे आपदा अनुभवों के साक्षी बनेंगे? हिमालय कब किस बहाने अपना सौम्य मनभावन रूप बदल विकराल झंझावत बन अपने में समेट लेगा इसकी सम्भावना और प्रायिकता तो बस पल-प्रतिपल सामने आती मृत्यु ही है जिसने अपने साथ चल रहे साथियों में कइयों को अपने आलिंगन पाश में समा लिया. संयोग था कि कई साथी सही समय पर मिल गई मदद से इसके चंगुल से निकल आए.
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प्रदीप पांडे ऐसे छायाकार हैं जो लाइट और शेड का दुर्लभ संयोजन रच देते हैं, उनकी फ्रेमिंग अद्भुत होती है कथ्य को संपूर्णता देती. हिम की उन्नत ऊंचाइयों को जाता कारवां जिसमें काले सफेद के साथ रक्त और मटियाले आकार भोगे गये पलों के सिलसिले को जानने की उत्सुकता बढ़ाता मुख पन्ना हैं तो बैक में स्नो लाइन से झाँकता हिमालय, हिमौड़, रौखड़ और तल पर कसे हुए टेंट. इनसे गुजरती पदचाप में कितनी बार जिंदगी खामोश हो जाती है पर हौसले तो फिर फिर सिर उठाते हैं. जोखिम ले इन सिलसिलों में प्राण फूकने वाले मतवाले तभी बहुत कुछ जान पाते हैं.हिमालय की जटिल प्रकृति की समझ हम सबमें बाँटने का जज्बा रखते हैं. और इसमें वह सफल हुए हैं.
गंगोत्री से बद्रीनाथ-कालिंदीखाल अभियान की 8 सितम्बर से 22 सितम्बर 2008 तक बहुत कुछ टटोलने की ख्वाहिश रखे बेचैन घुमक्कड़ों अनूप, शेखर और प्रदीप के साथ तपोवन तक दीपा, नूतन, सुह्रद व विवेक चले तो साथ चौदह मेहनतकश साथी जिनमें छह सहयोगी काल का गाल बन हिमालय की अदृश्य शक्तियों में तिरोहित हो गये. शेखर की डायरी में रेखांकित हैं सोवेवर पँवार, चंद्र बहादुर, राम बहादुर, खिमराज और लालू. इसी पन्ने के बगल में टिहरी के बनने बिगड़ने की चर्चा की जुर्रत के बहाने शराबबंदी और बांध विरोधी आंदोलन के साथ राजशाही के खिलाफ जन प्रतिरोधों के शहर की जल विद्युत ऊर्जा के तिलिस्म में डूबने की हाय है. पूरी तरह डूबने से पहले शेखर की खींची फोटो दो उन्मुक्त नदियों की करुणा का ठहराव हैं जो अपने मायकों से पानी, पत्थर, गाद और पर्यावरण और समाज की स्मृतियां लिए मचलती थीं. सवाल भी उछलता है कि टिहरी झील के अंत और मनेरी-भाली 2 बिजली घर के बीच की दूरी इतनी क्यों थी, पूरी तरह डूबने वालों का कम और आंशिक रूप से डूबने वालों का पुनर्वास अधिक क्योंकर हुआ. झील के पार के के खेत, चरागाह और मुर्दाघाट सब अनुपयोगी हो गये. नदी की हत्या करने या अधमरा बनाने का हक किस्से मिला? भागीरथी नदी में गति व ताल ला देने वाला पानी को सुरंग के रस्ते दिए गये तो उन प्रजातियों के जीवन की चिंता किसे जो नदी में और नदी के पास सिर्फ नदी के कारण क़ायम थीं.
1974 में बिरला राजकीय महाविद्यालय में नौकरी लगी थी तभी कुछ दिन की छुट्टी पड़ने पर जीता जागता टिहरी देखा था. मुखजात्रा भी जानी थी. कैप्टेन शूरवीर सिंह पँवार की अद्भुत लाइब्रेरी भी देखी. 2011 में उत्तरकाशी महाविद्यालय आया तो इस इलाके को और ज्यादा देखा. नदी कितनी विकराल और क्रूर बन जाती है. रात के तीसरे पहर जीता जागता जोशियाड़ा आधा नदी की तरफ खिसक आता है. बेहिसाब मकान और चार पांच मंजिल ऊँचा होटल जमीं दोज हो जाता है. नदी विकराल हो कितने जानवरों कितने पेड़ों के साथ आपने बीच रंग बिरंगी धोतियों और कपड़ों में लिपटे शरीर को उछाल-उछाल तैराती शिलाखंडो में पटकती है. सारे रास्ते बंद कर एक शहर को बंदी ग्रह बना प्रकृति कैसे बदले लेती है पता चला. नदी के सुसाट-भुभाट, टूटे वृक्षों के रह-रह चट्टानों से टकराने, ढोर ढंकरों के प्रवाह मान पंक भरे जल में उलझने किनारे लगने के साथ बेहिसाब क्रंदन इसके नैपथ्य में है. पसरा हुआ वीराना लम्बी चुप्पी. आपदा की त्रिकोणमिति.
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सीमांत में मालपा हादसे के बाद की तस्वीर उभरने लगती हैं. ब्रिगेडियर अवधेश प्रकाश ने रपट लिखने के वास्ते पूरे रास्ते की सैर करवा दी तो जीजा बिपिन त्रिपाठी ने हिम से बेहिसाब फूल गये शरीर दिखा दिए जिनके पोस्ट मार्टम धूप की मोटी बत्तियों को सुलगा उनके धुंवे के बीच हो रहे थे तो फिर कतार से जलती चिताओं के बीच बिलखते परिजनों की सिसकियाँ. धरती जब धसकती है तो कोई परवाह नहीं करती.सन्नाटे ही याद रह जाते हैं.
हिमांक और क्वथनांक के बीच निर्जन सौंदर्य और मौत से मुलाकात के बीच अपरिग्रह का संवाद है जिसे शेखर की लेखनी तार्किक सामंजस्य के साथ प्रवाह मयी बना देती है तो अवचेतन की गुत्थियों को सपनों से जोड़ ऐसे सन्दर्भ व प्रसंगो से जोड़ देती है जिनके जवाब अनुत्तरित ही रहे हैं.
1974 में शेखर से नैनीताल रहते भेंट हुई थी. कमल जोशी ने शेखर के बारे में बताया था, चंद्रेश उसे बहुत पसंद करता था तो गौतम भट्टाचार्य उसकी खोज बीन की प्रवृति की तारीफ करता था. राजीव लोचन साह समसामयिक मुद्दों की खोज खबर के लिए नैनीताल समाचार की बुनियाद रख चुके थे. हरीश पंत और गोविंद राजू के तेवर बगावती थे. हरीश के बड़े भाई अनिल के साथ नाटकों पर खूब चर्चा होती थी तो अवस्थी मास्साब और गिरदा से पहाड़ के लोक को समझने के खूब मौके थे. कायदे से इतिहास और संस्कृति को बूझने के लिए तारा चंद्र त्रिपाठी जी की सोच मुझ पर हावी थी. अर्थशास्त्र के आपने महागुरु गिरीश चंद्र पांडे के मुँह से कटाक्ष हास्य से रचा पगा आर्थिक विवेचन अब मेरी रोजी रोटी का अहम हिस्सा बनने जा रहा था. इन सबके साथ पहाड़ को गहराई से जानने समझने के लिए हमें इसके डाने काने नापने होंगे वाली शेखर की बात तब कहीं दिल को छू गई थी क्योंकि ऐसे घूमते मेरी फोटोग्राफी को हर बार कुछ नया कुछ अनोखा मिलता. इसी साल बिरला कॉलेज श्रीनगर में मेरी नौकरी लग गई और वहाँ टकराये महेश कर्नाटक जो इंटर कॉलेज में कॉमर्स पढ़ाते थे व डॉ. सर्वजीत सिंह बोरा जो जूलॉजी के विभागाध्यक्ष थे और ये दोनों ही घुमक्कड़ी के शौकीन. खूब पैदल चलना और गाँव गाँव की टोह लेना. अब हम मास्साब हो गए थे तो हर जगह कोई न कोई चेला-छात्र मिल जाए. आस पास वह दिखा दे. श्रीनगर गढ़वाल से पदयात्रा की यह शुरुवात थी. असली घुमक्कड़ और हिमालय को उसकी समग्रता से अपने कैमरे में खींचने वाले स्वामी सुन्दरानन्द से भेंट भी ऐसे ही संयोग से हुई थी. पहले ऐसे ही दर-दर भटक फोटो को धरोहर बनाने वाले एस पाल से कमल जोशी ने पंजाबी बाग दिल्ली में मिलाया था.
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इस किताब की तस्वीरों में डूबते मुझे स्वामी जी, एस पाल और कमल जोशी की बहुत नराई लगी. शेखर की घूमक्कड़ी की यह धरोहर आङग थार्के, पासाङग भोटिया, कुनसाङग, एरिक शिप्टन और ‘बिल’ टिलमैन के साथ स्वामी सुन्दरानन्द के नाम है जो 1934 के बद्रीनाथ से गोमुख पहुँचने वाले पहले अभियान दल के साथी थे. स्वामी सुन्दरानन्द तो 1955 से दस बार इस पथ पर चले. इस किताब के छपते समय यह यादगार यात्राएं 88 व 67 साल का अंतराल ले चुकी थीं.
शेखर लिखते हैं कि इससे पहले की गई यात्राओं में प्रकृति, इतिहास और संस्कृति में विचरण करने की बहुत अधिक गुंजायश थी पर गंगोत्री-कालिंदी खाल-बद्रीनाथ की इस यात्रा में निर्जन सौंदर्य और मौत से मुलाकात रही जिसके पथ में शिखरों और गलों की बेमिसाल उपस्थिति और भौगोलिक मोनोटोनी के साथ सूरज और चाँद के कारनामें थे. पर मनुष्य की अनुपस्थिति उसे अंटार्कटिका का हिस्सा बना देती थीं. उस मोनोटोनी में किसी पाठक को टिकाए रखने का इम्तिहान तो यह किताब है ही.
इम्तिहान तो यह उस तेज कदम राही का था जिसने 1973 से पिंडारी गल से शुरू कर दिया नवोन्मेष भरा सफर जिसके साथ पहाड़ को जानने समझने की गहरी अंतरदृष्टि समाई थी. वह सोच थी जिसने नए तरीके से खोज बीन जानने समझने की उत्सुकता लोगों में जगा दी थी. शमशेर सिंह बिष्ट के साथ वह पहली बार चले.
1976 में मैं अल्मोड़ा महाविद्यालय ट्रांसफर हो चुका था. शमशेर कड़क छात्र नेता के साथ आंचलिक विकास में गहरी रूचि वाले शोध छात्र के रूप में दिखे. पहाड़ को चप्पे-चप्पे छान कर ही यहां की समस्याओं को सुलझाने की पहल की जा सकती है वाली उसकी बात मुझे तथाकथित शोध कार्य से हट कुछ व्यावहारिक करने का हौसला देती थी. शमशेर तब शुरू कर दी गई असकोट आराकोट यात्रा में पड़ने वाले गावों के हालात सुनाता था जो तथाकथित बड़े रिसर्च पेपर की परिधि से कहीं अधिक व्यापक और मुखर थे. विभाग में मेरे दाज्यू सा कड़क और इकोनॉमिक्स की गहरी पैठ वाला सीनियर डॉ निर्मल साह था जिससे इस मुद्दे पर विवाद होता कि रिसर्च मेथडलॉजी की परवाह किये बगैर ये घूम घाम महज अखबार या पत्रिका की सामग्री बन सकती है पर पालिसी प्लानिंग व इम्प्लीमेंटेशन में इस कोरी भावुकता का कोई अर्थ नहीं. शमशेर तब शोध कार्य की संलग्नता हेतु जेएनयू अक्सर जाता. उसकी एप्रोच में एक नयापन था. असकोट-आराकोट अभियान के उसके मुंह से सुने अनुभव जहां कहीं पहाड़ के सौंदर्य और गहन-सघन साधनों की बात करते तो तरल भावुक आवाज में बदल जाते तो वहीं जब संसाधनों की लूट और विदोहन से जुड़ते तो उनमें आक्रोश उभर आता. तभी सीमांत इलाके में तवाघाट त्रासदी की खबर आई.
जिलाधिकारी रहे मुकुल सनवाल जिन्होंने महाविद्यालय के दल को वहां जाने और राहत बचाव के साथ वहाँ की माली हालत के बारे में खोजी रपट लिखने की बात करी.देखते ही देखते महाविद्यालय के राष्ट्रीय सेवा योजना के विद्यार्थियों ने एक ट्रक भर कम्बल कपड़े राशन रसद इकट्ठा कर डाला. नैनीताल से गिरदा और शेखर आए. महाविद्यालय से प्रकाश पंत, शमशेर, पी सी तिवारी के साथ कुछ छात्र. तवाघाट से ऊपर खेला पलपला तक भयावह बारिश और बादल फटने का सिलसिला जारी था जिस मकान में हम टिके थे रात को वह धँस गया उस आखिरी कोने पर गिरदा सोया था.
तवाघाट दुर्घटना पर बनी रपट जिलाधिकारी मुकुल सनवाल को पसंद आई जिसे नैनीताल से चली शेखर की टीम ने फाइनल किया था. इस हादसे में जान माल के नुकसान के साथ जोर इस बात पर था कि प्रभावित परिवारों की रहगुजर के क्या इंतज़ाम हों. फौरी तौर पर कार्यवाही बड़ी तेजी से हुई. बाद में पता चला कि कई परिवार जिन्हें बसने के लिए सितारगंज में जमीन दी गई थी वह कुछ ही समय बाद लौट आये. पहाड़ के धचकों और बर्बादी को महसूस करने का यह मेरे लिए दूसरा मौका था इससे पहले श्रीनगर में अलकनन्दा का भयावह प्रवाह व उससे हुआ विनाश देखा था.
शेखर लिखते हैं कि असकोट-आराकोट की पहली यात्रा ने हम दर्जनों और फिर सैकड़ों लोगों की जीवन दृष्टि और दिशा बदल दी. असकोट-आराकोट यात्राओं की परंपरा के साथ अन्य दर्जनों स्वतंत्र अध्ययन यात्राएं हुईं. यात्राओं को बहुआयामी बनाया गया. यात्राओं ने हमें अधिक संवेदनशील बनाया और हमारी आँख को ज्यादा देखने वाला.
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जब मेरा स्थानांतरण अल्मोड़ा से पिथौरागढ़ महाविद्यालय हुआ तब सीमांत तक कदम बढ़ाने के बड़े अवसर मिले. ऐसा साथ भी जुटा जो मौका मिलने पर पहाड़ चढ़ने को आतुर रहता. बस सीमा यही होती कि छुट्टियां पड़ जाएं. लम्बी यात्रा पर जाड़ों की ठिठुरती ठंड में भी चढ़ जाने वाले साथी व चेले भी जुटे. छिपला कोट भी हम ऐसे ही बेमौसम निकले थे.
तभी उसी दौर में दिल्ली विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञानी डॉ वीरेंद्र कुमार के निर्देशन में गोरी गंगा जल विद्युत परियोजना के पर्यावरण आंकलन का अवसर मिला जिसमें पिथौरागढ़ के सीमांत को टटोलने का मौका मिला. इसमें आर्थिक पक्ष तो थे ही पर उससे अधिक प्रभावी कारक अनार्थिक थे जिससे इस इलाके की एक पूरी तस्वीर सामने आती. इतिहास व संस्कृति की पड़ताल शेखर व भौगोलिक घटक का विवेचन रघुवीर चंद ने किया तो पर्यावरण के मुद्दे समझाने को डॉ वीरेंद्र कुमार थे. आर्थिक संरचना मेरे जिम्मे थी. काफी लम्बे समय तक यह सर्वेक्षण चला और इस दौर में इस टीम के गठबंधन से इलाके की वह रपट तैयार हुई जिसमें आर्थिक चरों के साथ हिमालय की जटिल प्रवृति व उसकी खास समस्याओं का जिक्र था. असकोट-आराकोट यात्रा के पहले दौर के अनुभव उसमें शामिल अनेक घुमक्कड़ों से सुने.
दूसरी असकोट-आराकोट यात्रा के समय मेरा स्थानांतरण रानीखेत महाविद्यालय हो गया था जब कुंवारी पास, सिनला दर्रा और फिर मिलम से मनाली यात्रा में ऊँटा धूरा और खिंगरू के अभियान चले थे. फिर बाद में लिपु लेख हो कैलास के साथ अन्य यात्राएं हुईं. हर बार छोटे कॉलेज में छुट्टी की समस्या से मैं कोई यात्रा न कर पाया पर नैनीताल और कोटद्वार में कमल जोशी से मिलते इन यात्राओं पर चर्चा होती कई दुर्लभ फोटो देखने को मिलते. सांस की परेशानी के बावजूद कमल चल निकल चढ़ने को हमेशा तत्पर रहता और हौस बढ़ाए रखता.
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अब इन यात्राओं के विवरण कई लोगों से सुने और उनका लिखा पढ़ा. पहाड़ को जानने के लिए ये सबसे प्रभावी सन्दर्भ थे. बरसों पहले गोविन्द राजू की अंटार्टिका यात्रा पढ़ी. इस रोमांच और साहस की गाथा से अभिभूत रहा और यात्रा कथाएं पढ़ने की दिलचस्पी बढ़ी.
अब वर्ष 2008 में शेखर, अनूप व प्रदीप के साथ हुई कालिंदीखाल के निर्जन सौंदर्य व मौत से मुलाकात के शब्द चित्र सामने हैं. शेखर लिखते हैं :
“कालिंदी खाल की यह यात्रा उनके मन में बसी थी. जब चले तो पहले आठ दिन मौसम सुहावना था तो अगले दो दिन हिमालय के रौद्र रूप दिखे. कितना भयावह रूप जो देखते ही देखते साथ चलते लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ कर गया. अब दिखी आदमी की बेबसी उसकी लाचारी जब मौत की परियों को अपने सामने नाचते पाया… चले ऋषिकेश, नरेंद्र नगर, जाजल और चम्बा होकर. चम्बा की धार से टिहरी झील के दर्शन होते हैं.. यह हेंवल घाटी थी. दोनों नदियों भागीरथी और भिलंगना की उर्वर घाटी डूब चुकी थी और इस डूब के केंद्र में था टिहरी शहर”.
कमल जोशी के साथ टिहरी शहर को डूबते देखने के शाम को रात होने तक खींचे फोटो मुझे याद आ रहे हैं. श्रीनगर रहते कैप्टेन शूरवीर सिंह पवार के साथ अन्य कई हस्तियों से यहां मुलाकात हुई थी. यहां हुए आन्दोलन, बगावत और शहादत के इतिहास से मन इस धरती के लिए आसक्ति से भर उठा था. कई साल बाद जब ऋषिकेश स्वायत्त महाविद्यालय में प्राचार्य बन आया तो वहाँ के जुझारू छात्रों के साथ इस इलाके में खूब घूमा. छात्र संघ के ये पदाधिकारी अपने इलाके की खूब जानकारी रखते थे और नए टिहरी शहर के बनने में विस्थापितों को बसाने में हुई बंदर बाँट की खोज खबर भी. जब भी उनसे बात बहस होती तो आस पास हो रहे अनाचार और अव्यवस्था से उनके चेहरे लाल पड़े देखता पर जब वही सूरतें जिनकी भावनाएं एकरूप थीं महाविद्यालय की समस्याओं के लिए अलग-अलग झण्डोँ के नीचे कुतर्क पर सिमट दोफाड़ हो अपने-अपने राग गातीं तो सब खेत बांजे दिखते. शासन ने महाविद्यालय को स्वायत्त बना यू जी सी के सीमित प्रवेश होने के नियम थोप दिए थे तो बाकी छात्र कहाँ प्रवेश लें के लिए वह आंदोलनरत तो थे ही. ऐसे आंदोलन काल के गाल में किस तरह भोंतरे कर तिरोहित कर दिए जाते हैं देख मेरा मन भी आहत था. महाविद्यालय में बड़े मोहरे अपनी तेज चालों से सक्रिय थे और सरकारी अमली जामा उनके संतुष्टिकरण में. महाविद्यालय में मैंने अर्थशास्त्र की कक्षाएं लेना जारी रखा था. ये छात्र नेता क्लास डिस्टर्ब नहीं करते थे पर जब प्राचार्य कक्ष में बैठा हो या छुट्टी पर अपने आवास पर तब आ धमकते ऐसे में घूमते रहने यहां वहां भटकते रहने का पलायन विकल्प अपनी फितरत में था.
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बड़ी कृपा हुई मुझ पर शिक्षा सचिव शर्माजी की जिन्होंने मेरे अनुरोध पर मुझ अकेले का उस साल ट्रांसफर उत्तरकाशी कर दिया हालांकि जब मैंने उनसे पहली बार यह अनुरोध किया तो वह बोले कि लोग तो हल्द्वानी और ऋषिकेश जमे रहने के लिए खूंटे गाढे रखते हैं. अब तुम कैसे…? मैं उत्तरकाशी आ गया.
अपनी किताब में शेखर चित्र दिखाते हैं उत्तरकाशी और भाली के बीच अधिक दुर्बल पड़ी भागीरथी का. उत्तरकाशी तक आते-आते पानी और कम हो गया. सवाल उठाते हैं कि, “सरकारों का कि समाज को किसी नदी की हत्या करने या अधमरा बनाने का हक किस से मिला था? यह सवाल भविष्य की पीढ़ियां पूछेंगी जरूर. उन्हें यह चमक नहीं, ज्यादा अंधकार करने वाली साजिश लगेगी यदि वह हमारी पीढ़ी से जरा सी भी प्रबुद्ध होंगी तो गुस्सा भी होंगी”.
शेखर पहली बार उत्तरकाशी 1974 में आये अपनी पहली असकोट आराकोट यात्रा के समय फिर 1978 की बाढ़ के समय भागीरथी को टिहरी से डबराणी झील तक देखा. 1984 की असकोट-आराकोट यात्रा में चौरंगी खाल से जोशियाड़ा की ओर उतरे थे. अब गंगोरी के पुल से असिगंगा की ओर देखते हैं जो बकरिया पास से डोडी ताल और आसपास का पानी समेट कर लाती है. आगे चलते मनेरी में बैराज के बावजूद भागीरथी बहती दिखी. मनेरी बैराज से उत्तरकाशी बिजली घर को सुरंग से पानी जाता है. इसी सुरंग ने जामक गाँव को 1999 के भूकंप के समय खूब बर्बाद किया. आगे नदी पार डिडसारी गाँव है जहाँ भी आपदा में व्यापक जान धन हानि हुई. आगे भटवाड़ी है जिसके तिब्बती सीमांत का इलाका टक नौर हुआ जो सघन भूस्खलन व धंसाव वाला इलाका है. आगे रेंथल है जहां 300 साल से भी पुराना वह मकान है जिसे अविभाजित गढ़वाल, गोरखा, टिहरी, और आजाद भारतीय शासन तक सबने देखा. 1803 से 1991 तक सभी भूकम्पों में यह पांच मंजिला घर सीना तान खड़ा दिखा. यह भूकंप प्रभावित क्षेत्र में विकसित भवन निर्माण की स्थानीय और विज्ञान सम्मत शैली हुई जिसे कटखुनी या कोटी बनाल शैली या तकनीक कहा जाता है”.
शेखर याद दिलाते हैं कि वारसू को जाने वाले रास्ते के आसपास लोहारी नाग- पाला बिजली परियोजना के लोगों ने खूब तोड़फोड़ की थी. टिहरी बांधविरोधी आंदोलन के बाद 2009 में जी डी अग्रवाल सहित अनेक वैज्ञानिकों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने गंगा की निर्मलता और अविरलता की राष्ट्रीय चर्चा फिर करा दी थी. 2001 में गोमुख से उत्तरकाशी तक का 4001 वर्ग किलोमीटर इलाका ‘भागीरथी इको सेंसिटिव जोन’ घोषित किया गया था. सुक्खी के टॉप से भागीरथी की विस्तृत घाटी को देख़ते हर्षिल पहुंचे जहाँ के देवदार जंगल व सेव के बागान प्रसिद्ध हैं तो फ्रेडरिक विल्सन और उसकी प्राणप्यारी संग्रामी के प्रेमपर्वत की कथा भी. भैरों घाटी में एकदम पाताल में बहती सी जाडगंगा जिसके साथ ही तिब्बत को जाता रास्ता था जो सदियों से प्रचलन में था पर 1960 से बंद हो गया. 1943 में राहुल इसी रास्ते तिब्बत निकले.
याद आ रहा है मुझे जाड भाषा व संस्कृति पर काम कर रहे उत्तर काशी महाविद्यालय का यायावर चितेरा सुरेश ममगाई जिसने मुझे इस इलाके के बारे में बहुत कुछ बताया तो यहां आगे देखने-पहुँचने की उत्सुकता भी भरी. उत्तरकाशी रहते सुरेश ने अपना जीवन इस इलाके की संस्कृति व सभ्यता की खोज बीन व अन्वेषण में लगा दी और ऐसे चेले इसी इलाके में तैयार कर दिए जो उसके काम को आगे बढ़ाते रहेंगे.
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उत्तरकाशी होते शेखर गंगोत्री पहुँचते हैं और इस इलाके की खाक छानने वाले स्वामी सुंदरानन्द को याद करते हैं जो एक विलक्षण पथारोही, पर्वतारोही- फोटोकार और गाइड रहे. मेरी 1999 में बागेश्वर महाविद्यालय रहते की गई भौतिक विज्ञान के प्रवक्ता व अपने जिगरी दीप पंत के साथ की गई एक लम्बी यात्रा में स्वामी सुंदरानन्द से भेंट हुई थी. उनका जिक्र मेरे फोटो गुरू एस पाल अक्सर करते. नेपाल हिमालय की इस यात्रा को करने के लिए जितनी छुट्टी चाहिए होती उतनी थी नहीं. पिथौरागढ़ में पर्यटन का डिप्लोमा लिए नेपाल के पदम राज भट्ट ने यह लम्बी यात्रा आयोजित की थी. न आ पाने की मजबूरी की चिट्ठी भेजने की तैयारी थी कि प्राचार्य गजराज ने ऑफिस में नेपाल से आया एक लिफाफा मेरे हाथ में थमाया. उदास सा मैं उस पत्र को पढ़ने लगा जिसमें यात्रा का पूरा विवरण था. गजराज जी ने पूछा तो मैंने बता भी दिया कि पच्चिस दिन कहाँ सर? अरे जाओ. पर अकेले ही जाओगे. चलना तो दीप को भी है. अच्छा तो दो दाढ़ी वाले? अरे जाओ.
मैं भी खूब जानना चाहता था इन पर्वतों को पर अब तो डायबिटिक हूं. तुम दोनों जाओ बस. बेपरवाह रहो छुट्टी से. जब आ जाओगे तब इलाहाबाद भेजूंगा तुम्हें शर्माजी निदेशक हैं तुम्हारे प्राचार्य रहे हैं पिथौरागढ़. कॉलेज के कुछ काम अटके हैं. वो करवाने होंगे. जरूर सर. हम दोनों जायेंगे, विश्वकर्मा भी है वहां असिस्टेंट डायरेक्टर. और मेरे पिता के समय के श्री राम और मुश्ताक भी. सब अटक-बटक ठीक.
हम गये देहरादून होते फिर आगे गंगोत्री जहां स्वामी सुंदरानन्द से भेंट हुई खूब बातचीत हुई. शेखर ने जिस तपोवनम हिरण्य गर्भ कलादीर्घा व हिरण्य गर्भ मंदिर व ध्यान योग केंद्र के लोकार्पण का जिक्र किया है उसकी कई कथाएं उनके अनुभव सुने और उनके इस खरे पवित्र से काम में कुछ स्वार्थो की मनः स्थिति पर हैरत भी हुई .वह सब देखता है पुकार सुनता है के भाव वाली उनकी मुख मुद्रा मैं कभी भूल नहीं सकता. मेरे लिए यही स्वामी जी के अंतिम दर्शन थे. अगले ही बरस वह गोलोक वासी हो गये थे.
गंगोत्री से वापस अब नेपाल हिमालय के लिए बनबसा होते काठमांडू. पिथौरागढ़ के चेलों ने पर्यटन के कोर्स का असल अमल किया था टूर एंड ट्रैवलिंग की सुविधा युक्त व्यवस्था कर. अन्नपूर्णा के बीस किलोमीटर पैदल भी थे.
2010 में जब मैं राजकीय महाविद्यालय उत्तरकाशी आया तब यहां अर्थशास्त्र विभाग में एक अकेली हर्षवंती बिष्ट थीं. बहुत सक्रिय और पर्यावरण के लिए व्यवहारिक बहुत कुछ अपने बूते कर गुजरने वाली. गंगोत्री से आगे गोमुख और चीड़वासा में उन्होंने भोज पत्र की नर्सरी लगाई थी जिसे देख मुझे बहुत हैरत हुई. भोजवासा और लालबाबा के आश्रम तक मैं चढ़ गया था. महाविद्यालय का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हर्षिल निवासी राणा मेरा पथ प्रदर्शक व साथी था उसने दिखाया कि किस तरह यहां के वन उजाड़े जा रहे और कुछ कर इस इलाके को बेहतर बनाने वालों की बात दबा दी जाती है. अब तो ये कई साधु संत वेश धारी तथाकथित बाबा भी इस उजाड़ में लिप्त हैं.मैडम बिष्ट को ही देखिये सरकारी उच्च अधिकारियों से उनके बेहतर सम्बन्ध होने के बावजूद वन महकमा ही उनके काम और आगे की प्रगति को उलझा रहा है. महाविद्यालय में हर्षवंती बड़ी मेहनत से हर सौंपे काम को पूरी निष्ठा से करतीं दिखती थीं उन दिनों वह नैक की तैयारियों में थीं और अस्वस्थ भी. कारण वही था कि पूर्णता की ओर पहुँचते उनके काम में ऐसे ऐसे रोड़े उन विभागों के द्वारा लगाए जा रहे थे जिनका उत्तरदायित्व था प्रजातियों को बढ़ावा देना उन्हें बचाना. इस इलाके में पड़े पॉलीथिन व कूड़े के ढेर भी दिखे, इन पर कोई रोक टोक नहीं. भोजवासा, गोमुख-तपोवन तक की गई अपनी यात्रा में गंदगी के इन ढेरों को देख मन बहुत दुखा.
शिवलिंग की अध्यक्षता में तमाम पर्वतों में गंगोत्री गल से आती आवाजों को सुनाते हैं शेखर. धड़म-बड़म-खड़म. खड़ कम. और बताते हैं कि वह पहले आज की गंगोत्री से बस तीन मील ऊपर रहा होगा. 1808 में आई सर्वे ऑफ़ इंडिया की टीम ने यही बताया था और आज मैं दस मील ऊपर सरक गया. आखिर क्यों? सुन रहे हो? धड़म-बड़म-खड़म. धड़म-बड़म-खड़म. खड़कम… फट्टट्ट… घुदुडुंग… डुंग.
(Book Review Himank aur Kvathnank Ke Beech)
“गोमुख के दाईं ओर रक्त वन गल और गंगोत्री गल के मिलन स्थान के समीप चलने पर गल के ऊपर का हिमोड़ है लगातार ऊपर नीचे होती भीतर से खोखली होती जमीन. गल के भीतर बर्फ पिघलती है,पानी बनती है तो यह धंसता है. आगे खड़ी चढ़ाई है. पत्थर भी लुढ़कते हैं और धूल भी उड़ती है. दिखता है शिवलिंग का ऊपरी हिस्सा. आगे गंगोत्री गल, उसके बीच के उभार और छोटे जल कुंड. धार में लहराते झंडे-मौनी बाबा की कुटी. फिर आगे शिवलिंग दाईं तरफ और बाईँ तरफ गंगोत्री गल और भागीरथी के शिखर. इनके सामने खर्चकुंड शिखर और केदार नाथ शिखर भी नजर आते हैं घुत्तू से रीह और गंगी होकर खतलिंग गल का रास्ता अक्षत जंगल से भरा, भोज पत्र और रिंगाल की झाड़ियाँ उनके बीच भालूओं के परिवार. आगे कान्हा जलधारा को पार करते देखे भरलों के झुण्ड. आगे चल एक गुफा जिसमें न्यूजी लैंड की महिला इस कुटी में कुछ समय वास करतीं तो सामने की कुटी में कुछ अंग्रेज जिनमें एक लड़की कॉपी में शिवलिंग का चित्र बना रंग भरती मिली. आगे मिलते हैं सन योगी नाम धरे बाबा जी जो स्वयं को शिमला बाबा के शिष्य बताते हैं और अपने नाम पर उनका दावा है कि वह सूर्य की रोशनी से ऊर्जा प्राप्त करते हैं. सूर्य की रोशनी को उन्होंने योग से जोड़ा है. बाबा साल में जाड़ों के समय छह-सात महिने यहीं बिताते हैं”.
शेखर लिखते हैं कि यहां से वापस हो एकांत में कुछ देर बैठे. भागीरथी शिखर बादलों से ढका था पर शिवलिंग रौशनी के आखिरी रेशों से आकार ले रहा था. कुछ बादल आ कर उसपर ठहर गये और जैसे शिवलिंग परबत सो गया. प्रकृति में सबको सोना और जागना होता है. पहाड़ जब सोते हैं तो बर्फ गलना और गल कर बहना बंद कर देते हैं. जब पहाड़ जागता है तो बहना भी शुरू करता है पर इससे पहले पिघलना. हमारे सामने जो धरती नजर आने वाले जल से विहीन थी, उसमें फिर गति आ गई.
यहां से आगे लोग छूट जाते हैं. तपोवन की कुटिया जिसमें जय गंगे माई लिखा था में बंगाली माई के दर्शन हुए जो यहां पिछले सोलह साल से रह रहीं थी. यहां शिवलिंग शिखर पर 3 जून 1981 को दिवंगत निर्मल साह स्मृति स्थल को ढूंढने की कोशिश की. अभी तक साथ रहे लोगों से विदा ली. यहां से आगे बस हम तीन और गाइड हरीश राणा गल की तरफ उतरे. पुराने हिमोड़ और गतिशील गल की सीमा रेखा साफ पहचानी जा सकती थी. कीर्ति गल को जाने वाले रास्ते को छोड़ कठिन उतार पार कर गंगोत्री गल में आ गए.
“गल के नीचे पानी था. उसकी धाराओं का जाल फैला था. कहीं-कहीं बीच में ताल थे. गल में कहीं भी कान लगा कर अंतरध्वनि सुनी जा सकती थी. कहीं सिर्फ पानी की, कहीं पानियों की, कहीं पत्थर की प्रतिध्वनि सुनाई देती थी. यह आवाजों का कोलाज था. ऊपर कुछ नहीं सुनाई देता था और न गोमुख से ही आवाजें लीक होती थीं. गंगोत्री गल अनेक शाखाएं थी जिसकी. कहीं घाटी में पसरा कहीं झूलता लटकता. गोमुख से विष्णु गंगा / अलकनंदा के जल विभाजक तक या चौखम्बा शिखरों के उत्तर पश्चिमी ढाल तक यह तीस किलोमीटर लम्बा बताया जाता है जिसमें अनेक सहायक गल आ कर मिलते हैं. चारों ओर के शिखर इस गल और शाखाओं पर निगाह रखते हैं जैसे सुरक्षा सैनिक हों ये शिखर! इस गल पर लगातार शक करते हुए से! नजर रखते हुए से. ये शिखर जैसे नायक-अभिनेता हों और दर्शक भी. लटके और लेटे हुए गल जैसे नायिकाएं हों.
आगे घाटी थी जिसमें विचरण कर रहा था भरलों का झुण्ड अपनी पूरी स्वच्छदंता और मस्ती के साथ.पशुओं में बची मासूमियत और आपसी विश्वास से द्रवित होने के पल.
अब सुनाई दी अचानक जोर की आवाज… कहीं-कुछ आसमान से आती… निरन्तर बढ़ती… अवरोध रहित… करीब और करीब आती. यह न हवा थी, न एवलांच था, न किसी जहाज की आवाज. दरअसल यह बगल की सूखी धारा में ऊपर से पिघला पानी आ रहा था. लगता था पानी नहीं उसकी आवाज बह रही थी. जल रहित जगह में भरपूर पानी का आना आवाज के साथ एक दृश्य भी पैदा कर रहा था जैसे ठहरे हुए समय में एक गति आ गई हो. पानी का बहना परिवेश में रम गया तो एक न्योली गाई.
बासुली को बन
बगन्या पाणी थामी जांछ
नै थामीनो मन
बहते पानी के माध्यम से मन का फिर भी न थमना. सोया हुए गल और अदने से आदमी के शब्द चित्र सहज ही हवा पानी और विकट होते जा रहे एकांत के गूढ़ बिम्ब रचने लगे हैं अब. जिसमें चतुरंगी के साथ-साथ की शुरुआत स्वप्न के उस दृश्य से है जिसमें कभी सोने सा तो कभी चांदी सा गल है और वैसा ही उससे बहता जल. हलचल है चहुँ ओर. नदी पास आती जा रही हाथ में पकड़ी छड़ी आसमान की ओर ले जाने लगी. एक स्त्री की आवाज सुनाई दी घबराओ मत बेटा मैं हूँ. अब तक न सुनी थी ये आवाज. आँख खुल गई. बाहर आ देखा एक विराट जादुई सौंदर्य लहराता हुआ. शिवलिंग के टॉप, बल्ब की तरह चमकता केदारनाथ शिखर. फैलती हुई रौशनी. आफताब से आती उदार रौशनी और पर्वतों पर उसके प्रभाव कितनी ही तरह के दृश्यों, रंगों और अनुभवों की रचना कर रहे थे. कुछ को शायद हम पकड़ पा रहे थे.
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नेपाली साथियों का तेनजिंग नोर्गे की सर्वोच्च शिखर पर चढ़ने की कथा पर आधारित गाए गीत का कोरस उभर रहा है. आगे हिमालय के और करीब पहुँचते हैं. बायें हाथ के पर्वत शिखरों में चीड़ बासा शिखर, मैत्री तथा सुदर्शन आदि के पीछे जाड़गंगा का जलागम ज्यादा बड़ा था. इस क्षेत्र में भागीरथी, मन्दाकिनी, विष्णु गंगा /अलकनंदा के जलागम मिलते हैं और भागीरथी के उपजलागम भी. चतुरंगी गल के बायें किनारे के लम्बे हिमोड़ में हम चले जा रहे हैं उसके ताल, बर्फ, तरह तरह के पत्थरों को देखने का आनंद लेते. यहां कव्वे भी साथ साथ उड़ रहे थे जैसे हौसला बुलंद कर रहे हों.
आगे चले तो ऐसे त्रिभुज क्षेत्र में पहुँचने वाले थे जिसके एक ओर भागीरथी नदी के सभी गल थे. दूसरी ओर भागीरथी के कम, उसकी सहायक जाड़ गंगा के ज्यादा गल थे. तीसरी तरफ आरवा तथा सरस्वती नदियों का जलागम था, जो कालिंदीखाल से माणा दर्रे तक के गलों का पानी लाकर अलकनंदा को बड़ा बनाता था. संतोपंथ शिखर के उत्तर की तरफ चंद्रा पर्वत, माणा पर्वत और श्रीकैलास थे. दक्षिण में केदारनाथ, खर्चकुंड तथा चौखम्बा तथा दक्षिण -पूर्व में नीलकंठ शिखर. संतोपंथ के उत्तर में ही सुरालय गल चतुरंगी में मिलता था. दक्षिण में स्वच्छन्द बमक गंगोत्री गल में जाता था. पूर्व की तरफ भगीरथ खरक बांक था. इसमें चौखम्बा से पूर्व तथा नीलकंठ से उत्तर में स्थित सतोपंथ बांक मिला तो अलकनंदा नाला बना. यह माणा से आगे सरस्वती में मिलता था”.
इस इलाके के भूगोल की जानकारी देते शेखर लिखते हैं कि दक्षिण में श्री कंठ, रुद्र गैड़ा, जोगिन, केदारनाथ, सुमेरु तथा चौखम्बा आदि शिखर भागीरथी को भिलंगना तथा मन्दाकिनी के ऊपरी जलागम से अलग करते थे. कालिंदी खाल हमारे मार्ग का सर्वोच्च बिंदु था और खाल को एक ओर कालिंदी शिखर, दूसरी ओर एवलांच पीक से जोड़ने वाली धार अलकनंदा और भागीरथी की जल विभाजक थी.
खड़क पत्थर के बाद सेता गल की दूरी तय करने में बहुत देर लगी. यह चतुरंगी गल का ऊपरी हिस्सा है. गल के बीचों-बीच सफेद चौड़ी पट्टी में अनेक ताल और बर्फ की चट्टानें दिखाई देती रहीं. जैसे ये ताल गल की ऑंखें हों और हमें लगातार घूर रही हों बर्फ की चट्टानें तरह-तरह की थीं. कहीं चमकती सपाट दीवार, कहीं बीच-बीच में जैसे लोहे के ब्रश द्वारा खरोड़ी गई हो और कहीं चटकने के बाद की दरार लिए हुए. कहीं जैसे किसी रत्न की तरह कोई पत्थर बीच में आ जड़ा हो. गल को सुना. गल के भीतर बह रही नदी की बातचीत और उसकी चुप्पी को सुना.
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डायरी लिखते कितनी बातें मन में आ रही थी. इन निर्मम ऊँचाइयों में घूमने का क्या मक़सद य मतलब हो सकता था? क्या यह सिर्फ ज्ञान-अर्जन था? दुनिया देखना था? प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर क्या यह हिमालय और अपने इलाके को समझने का प्रयास था? क्या यह हमें शहरी मोनोटोनी से बचाने में मदद या दुर्लभ जीव और वनस्पति प्रजातियों के दर्शन का मौका देता था? क्या यह उस आध्यात्म को समझने में मदद देता था जो तमाम धर्मों, उनके ग्रंथों और उनकी तमाम विरासत के माध्यम से हिमालय से जुडा था? क्या इस तरह की यात्राएं देश और दुनिया को समझने का विवेक हमको देती हैं? दे सकती हैं?
शेखर के लेखन की खूबी जो इस किताब को कई बार पढ़ते महसूस हुई और हर बार गहराते गई कि अपनी आँखों से जितना पहाड़ देखा, उत्साह में भर और थक हार उसके रोमानी और रूद्र रूप देखे वह फिर फिर लौट आये. हिमालय अपनी थाह लेते अदने से मानव के धैर्य की परीक्षा लेता है उसकी साहस वृति में प्राण वायु भरता है तो अचानक की मिट्टी पानी हवा के घोल मेल से उपजे जोखिम भी खड़े कर देता है. और यहां तो अब आगे मार्ग है ही नहीं. बेचैन हिमालय प्रेमियों की उत्कँठा ने इस मार्ग को नक़्शे में बना डाला. यह हिमालयी अन्वेषण के परिणामों में से एक है. आस्था से अलग अन्वेषण हमें हिमालय को समझने में मदद करता है. ऐसे कोने-कान्तरों के हिमालय संबंधी अब तक उपलब्ध ज्ञान को भी जानना जरुरी है. हिमालय संबंधी ज्ञान को कभी भी व्यक्तिगत बनाने का प्रयास नहीं होना चाहिए. उसे सार्वजनिक और मानव मात्र की संपदा समझा जाना चाहिए ताकि हमारी और हिमालय की कई पीढ़ियां इसे भविष्य में इस्तेमाल कर सकें और एक विरासत की हिफाजत भी.
गोमुख से सेता गल पहुँचने के क्रम में शेखर एक बड़ा बारीक फर्क समझाते हैं जो हिमनद पर चलते कभी महसूस न हुआ था. वह था गल के किनारे और गल के बीच चलने का फर्क. वह वर्णन कर रहे हैं गल में चलते दो बार दो बड़े ताल आ जाने का जहां हिमोड़ से तालों तक विशाल बर्फ शिलाएं उतरी थीं पाषाण बनी बर्फ की एक विराट चट्टान. नीला और हरा रंग लिए ये ताल सुबह बर्फ की एक मोटी शीट होते और दिन में पिघल कर गतिवान पानी बन जाते. कभी-कभी पूरा ताल नहीं पिघलता. ताल की सतह पर पत्थर मारने की कोशिश की. एक बार सफलता मिली और तीन टप्पे खाकर पत्थर रुक गया पर आधे-पौने घंटे बाद दूसरे ताल में पत्थर फेंका तो गड़म्म हुई और पत्थर डूब गया. कुछ देर बुलबुले उठे. हिम और जल के बीच सिर्फ तापमान का कमाल. घट गया तो जम जाओ, बढ़ गया तो पिघल जाओ.
इतनी प्रकार के हिमोड़, कुंड-ताल-नदियां, गल, लटकते गल, दरारें, बर्फ के पेड़, बेंच या टेबल और स्वयं बर्फ और पानी के इतने रूप हमने कभी देखे न थे हिमोड़ जमाजम और पिघला हुआ. पानी शाम तक बर्फ बन जाए और बर्फ दोपहर तक पिघल कर बहने लगे. इतने रूप हमने किसी गल के देखे न थे. गल के अलावा हमारे साथ थे पक्षी, कव्वे, तितली, मकड़ी और चील. और थे सूरज, चाँद, तारे, आकाश गंगाएँ और बादल और कोहरा. और विचित्र पर मौलिक सपने. कभी कभी लगता था जैसे हम किसी और ग्रह के अपिरिचित वीराने में भटक के आ गये थे. मेरा मन कभी-कभी अपने प्रियजनों को धात लगाने को करता था कि अरे, हमें बर्फ की परियों के देश से निकाल कर ले जाओ!
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आगे दृश्य डगमगा जा रहे हैं. बर्फ की मीनारें लगातार बढ़ रही हैं.एवलांच पीक बादलों से ढकी. कालिंदी शिखर के नीचे बर्फ का विशाल भंडार. बर्फ के बड़े- बड़े खण्ड सहस्त्र श्वेत कमल दल की तरह जो बनाता था चक्रव्यूह, इसके भीतर कहाँ से घुसें? जिस कालिंदी शिखर के ऊपर कल तक बिल्कुल बर्फ नहीं थी, उसकी जड़ पर इतना बड़ा बर्फ का भंडार जो कई अनाम पर्वतारोहियों को अपने आँचल में छिपा गया था, सुला गया था चिर निद्रा में. हिम समाधि में गये पथारोहियों के शरीरों की हिफाजत की जिम्मेदारी लेती भी थी प्रकृति. कालिंदीखाल पहुँच गए. दाएं-बायें कुछ न दिखता था. न वनस्पति, न पक्षी, और तो और कोई कव्वा भी नहीं. बस आरवा नदी पार करते इस पथ को छू गये पर्वतारोहियों की स्मृतियां. आरवा ताल आया जो पहले किसी भी उच्च हिमालयी ताल की तरह रहा होगा. गल भी इससे चिपके होंगे. १९३० में यह ताल टूटा, ऐसे ही कितने ताल सिमटे. बाकी रह गया वही सवाल कि जो व्यक्ति या समाज या सरकार प्राकृतिक या अन्य मानव जनित आपदाओं या आर्थिक आपदाओं को भूलते हैं, क्या वह उन्हें पुनः-पुनः भुगतने के लिए अभिशप्त रहते हैं और आगामी समय में भी रहेंगे? नीतेश यहीं जीवन से वंचित हुआ.
बर्फ कम, बारिश ज्यादा, विकराल नदी,गिरना-फिसलना, थके शरीर, सामान का बोझ, पैर निर्जीव पड़ना, साथी की मदद, अकड़ा हुआ शरीर, मौत की परछाई. हिमांक के पास पहुँच गये शरीर. बदहवास, पराजित और हतप्रभ.
“शब्द मेरे गले तक आते थे और लार में मिल कर नीचे उतर आते थे. एक ओर जीवन से वंचित होते साथी नीतेश के द्वारा रचा गया हिमांक मेरे भीतर उथल- पुथल मचाये था तो दूसरी ओर बेचैनी, विवशता और विडंबना भाव से मचलता मेरा चेतन-अवचेतन क्वथनांक को पार कर रहा था.
हम नीतेश होने से बचना चाहते थे. हम जिन्दा रहना चाहते थे. पर नीतेश हमारे भीतर बैठा था. छिप गया था. हमारे चेतन में विराजमान, लगता था वह पुकार रहा है. उसका स्पर्श महसूस हो रहा था.
नदी की आवाज अब लगता था जैसे बढ़ गई थी. जैसे उसके दाँत निकल आये हों और वह अपने शिकार ढूंढ़ रही हो. हमारी चुप्पी नदी की आवाज को और बढ़ाती थी. पहली बार यह आवाज नहीं सुहा रही थी. कितने निर्मम और निष्ठुर हो गये थे हम! या परिस्थितियों ने हमें बना दिया था ऐसा अमानुष. मनुष्य की निरीहता का भान कुछ ज्यादा ही और जीवन की क्षण भंगुरता का भी. ऐसे मौकों पर हम कितना मनुष्य हो जाते थे. पारदर्शी, निरीह, डरपोक या फिर भी नाउम्मीद नहीं. रवाना होना हर बार पहुंचना नहीं होता.
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एकाएक मुझे कँपकँपी सी छूटी. परचित्त सा महसूस हुआ. अर्ध सपने, अर्ध बेहोशी. चारों तरफ मंडराती कुछ-कुछ अदृश्य शक्तियाँ. दिमाग में बने हुए मृत्यु दृश्य.
शैलेन्द्र का गीत –
हजार वेश धर के आई मौत तेरे द्वार पर
मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर.
“शैलेन्द्र को हमने हर बार अपने जीवन में स्पर्श की गई हिमालय की सर्वोच्च जगह पर गाया था. क्षण भर को लगा की जैसे नदी ने बहना बंद कर दिया हो. गीत पूरा हुआ तो नदी की आवाज सुनाई दी. मुझे लगा कि मैं गा सकता हूँ. सभी को लगा कि वह गा सकते हैं. गीत, जन गीत, होलियाँ. मृत्यु की परियां दूर और दूर होती जा रहीं थीं”.
कुछ आगे बड़े मैदान पर पहुंचे. बाईं तरफ के पहाड़ से पत्थर लुढ़के. गड़ -गड़ गड़म्म, गम्म. फिर इनकी संख्या बढ़ गई. पत्थरों के टकराने से चिंगारियां भी पैदा हो रही थीं. बहुत देर तक आवाजें आती रहीं. प्रतिध्वनियां भी. रास्ता न सूझा. बारिश थी. एक बड़े पत्थर के नीचे खड़े हो गये. बड़ी देर. पीछे से टॉर्च की रौशनी आई. देखा नेपाली साथी थे. झुरझुरी सी हुई आशंका सी कि उन्होंने क्या देखा? उनके चेहरों मैं गहरी उदासी थी. ऊपर तीन मृत देह तो वह देख ही आए थे.
आगे आईटीबीपी के कैंप पहुँच पता चला कि अभी दस लोग वापस नहीं आए हैं. सरल, कर्मठ, मददगार, तिमारदार, साहसी, दुस्साहसी-मौलिक पर्वत पुत्र. चले जाते हैं कहाँ?
दिवंगत सहयोगियों को याद करते रहे. ये सभी मेहनतकश थे, आंचलिक परिवेश में अपने तन-मन के अनुकूलन से अपनी तमाम जिम्मेदारियों को निभाते मजबूरियों की परिधि से घिरे और बहुत से षड़यन्त्रों के शिकार. अब लौट चले हैं माणा की ओर. हर पहाड़ बर्फ की टोपी पहने था. जिस इलाके में मृत्यु की परियों ने हमें घेर लिया था वहां भी खुशनुमा धूप फैली हुई थी. बद्रीनाथ आये. दिवंगतों के पोस्टमार्टम की तैयारी हो रही थी. पहली बार किसी यात्रा के अंत में हम रो रहे थे.
परिशिष्ट में नागार्जुन की ‘बादल को घिरते देखा है’ और रौजर डुप्लां की कविता ‘वसीयत’ है. चित्र कथाएं अविस्मरणीय हैं. नवारुण अपने नाम के अनुरूप.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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