चाणक्य!
डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार मोड़ पार ऊँचे में बना भवन जो नामी गिरामी वैज्ञानिक और प्राचार्य डॉ देवी दत्त पंत का आवास है. इसके गेट से गुजरती सड़क के दाईं ओर फिर महाविद्यालय का गेट. चार-पांच छोटे मोड़ और कुछ आगे एक दुमंजिला भवन जहां मेरी हाई स्कूल से आगे की पढ़ाई होनी थी. यह इंटर कॉलेज था. महाविद्यालय के साथ चिपका उसका ही हिस्सा. एडमिशन हो गया था.मेरे पिता इसी महाविद्यालय में 1951 से हेड क्लर्क व अब बरसर थे. ये बरसर साब उनके साथ ऐसा चिपक गया था कि कई बार पिता का नाम पूछते मेरे मुँह से बरसर साब ही निकल जाता. अपने नाम के आगे वह पांडे नहीं लगाते थे. क्यों? ये पूछने और भी कुछ पूछने का साहस तो मुझमें था नहीं. मेरे बड़े महेश दा उन्हें दुर्वासा कहते थे.
कॉलेज पहुंचा. हाईस्कूल की आदत. स्कूल का बैग जो साह पुस्तक भंडार तल्ली ताल से बीते दिन ही खरीदा था, कई अदद कॉपी और पेनों के साथ. सब साह जी नोट कर लेते. भुगतान बरसर साब करते कभी.
मेरी पीठ पर धौल लगा. मुड़ कर देखा गिरीश था. मेरा जिगरी यार. “अबे साले ये कॉलेज में बैग ले क्या आ गया तू? यहां तो एक कैपिटल कॉपी ले पैंट के पीछे भेल में घुसेड़ लो बस”.
“अभी पता चल जायेगा गिरुवा. पता है क्लास टीचर कौन है” यह विज्जु था.
“कौन”?
“चाणक्य है चाणक्य. पहली क्लास भी उन्हीं की है. हिंदी के हैं. हमारी दुकान से गुजरते देखा है उन्हें, ये चाणक्य नाम भी मैंने ही धरा है “.
दुकान यानी कैलाश आयुर्वेदिक फार्मेसी. पंडित सीताबर पंत जी हुए बड़े वैद्य, वहीं पंडित पीताम्बर पंत जी, उनके साथ जिनको लोग सिविल सर्जन कहते. उन्हीं के बड़े बेटे द्वारिका से मेरी खूब पटती थी. छुटपुट हमें भी वहीं भेजा जाता दवाई लेने. लोभ यह कि बड़ा स्वाद चूरन मिलता अनारदाने वाला.सामने ही न जाने क्या क्या धूसे पाउडर मिला घोट के कागज की आयतकार पुड़िया बनती. बस फांक लो. कभी ईजा, माया दी बीमार हों तो वह घर आ आला लगा मौका मुआयना करते. फिर हम दुकान जा पुड़िया ले आते. चूरन हर बार मिलता..
घंटी बजी. बड़े कायदे से प्रार्थना हुई. बस इलेवंथ -ट्वेल्थ की. कायदे से हमारी इलेवंथ- बी पहले तल के कुछ अँधेरे से कक्ष में चलती थी. आगे सब भरा हुआ था. मैं और गिरीश सबसे पीछे ही बैठ गये. गिरीश तो पीछे बैठने में पारंगत ही हुआ. उसकी परम्परा थी कि हाज़िरी हुई, अध्यापक का मुँह ब्लैक बोर्ड की ओर और वह साफ. हाजिरी इसलिए कि उसके कका बी डी शर्मा गोरखा लाइन हाईस्कूल में अध्यापक थे. गांव में उसकी खुराफ़ातो से तंग आ उसे नैनीताल आनंद निवास रवाना कर दिया गया कका की सख्त निगरानी में.ये सर्र सटकने का कौशल उसने मुझे भी सिखा दिया था.अचानक ही अपूर्व शांति छा गई. ब्लैक बोर्ड के पास छवि खड़ी हो गई भव्य और आकर्षक तो साथ में कुछ अस्त व्यस्त भी. ऑंखें बड़ी भेदक जैसे दिल का हाल जान रही हों.पहली नजर में वह मुझे भा गये. वही थे तारा चंद्र त्रिपाठी.
गिरीश मेरे कान में फुसफुसाया.
“चाणक्य”.
उनकी आँखें पूरी क्लास टटोल पीछे की कुर्सी तक घूमी. गिरीश ने खुसपुस की थी. मुझे लगा वह मुझ पर ही टिकी हैं
हां सही में.
हाथ उठा. आदेश हुआ. “इधर आओ”.
मेरी तो सिट्टी पिट्टी गुम. बाप रे. क्या किया मैंने? ये साला गिरुआ, मेरे कान में फुसफुसा रहा था. कहीं चंकट न लगा दें. मैं उठ खड़ा हुआ. चेयर भी कुछ ज्यादा ही जोर से पीछे गई.आवाज भी ज्यादा ही हो गई.
उन्होंने फिर कहा.
वो बैग भी लाओ.
मैंने बस्ता उठाया और आगे बढ़ा. सबसे आगे कोने पर बैठे मुझसे लम्बे एक सहपाठी को उन्होंने उठाया और मुझे वहाँ बैठने को कहा.
यहीं बैठोगे रोज.
जी.
“नाम क्या है तुम्हारा”?
जी, जी मृगेश.
“जीमृगेश या सिर्फ मृगेश”
जी सिर्फ…
सारी क्लास मैं कुछ मुश्कियां फूटी और उतनी ही शीघ्र वह शांत भी हो गईं क्योंकि कुछ बढ़ते ताप वाली दृष्टि वहां पड़ने लगी थी.
“नाम बहुत सोच के रखा है. क्या मतलब हुआ”?
मैं चुप ही रहा था. मृगों का राजा कहूँ या शेर? था तो मैं ऐसा कुछ भी नहीं. मेरे बप्पाजी मुझसे हमेशा असंतुष्ट. डोली और फ़ौकटू कहते.. बड़े महेश दा कहते कि मन नहीं लगाता लोफर बन रहा. खोपड़ी तो चन्ट है.
बप्पाजी और मेरे दिवंगत ताऊ जी के सुपुत्र बड़े दद्दा यानी महेश दा.उनसे छोटे दिनेश दद्दा. सबसे बड़ी माया दिद्दी.
घर में बप्पा जी और बड़े दद्दा के के दो विपरीत ध्रुव आपस में टकराते.हमेशा शीत युद्ध रहता.
“जो रचा गया है वह साहित्य है इसे ही पढ़ना, समझना, गुनना है”, जैसी कोई बात कही थी उन्होंने. अक्सर किसी को सुनते हुए मैं कहीं खो जाता पर तभी अपना नाम सुनाई दिया.
“अच्छा तो मृगेश. बताओ ये साहित्य क्या होता है?”
जी, कबीर,तुलसी…
वह मंद मुस्काए.
“कहानी कविता उपन्यास पढ़ता है”?
हाँ. मेरी आवाज खुली.
“बता, बस जल्दी से बोल दे”.
चंदामामा, पराग, नंदन, माधुरी, नीहारिका, कादम्बिनी सारिका.
“ये तो सब लड़कियों के नाम हैं, क्यों”?
क्लास में कुछ दबी सहमी हंसी उभरी व शांत भी हुई.
“अच्छा बता, चंदामामा का संपादक कौन है”?
हाथ उठा मैं बोला, “जी चाणक्य”. मुझे लगा ये साधारण आदमी नहीं, मन की बात जान लेने वाला बड़ा पंडित है, अभी ये साला गिरुआ येई बता रहा था.
क्लास में खुसर पुसर हुई, बगल में बैठे पीयूष ने मुझे कोह्निमारी.
अचानक मुझे याद आया कि चंदा मामा के सम्पादक तो चक्रपाणि हैं. पता नहीं कैसे हड़बड़ाहट में मैं चाणक्य बोल गया. चाणक्य नाम तो लौंडों मौंडों ने त्रिपाठी सर का रखा है. अब जो होता है. क्या पता जुतिया-लतिया न दे.
सॉरी सर, चंदामामा के सम्पादक का नाम चक्रपाणि है.
मेरे अगल बगल के साथियों ने कुछ वक्र निगाह से मुझे देखा. सारी क्लास बिल्कुल शांत.
“बिल्कुल सही. बैठ भाऊ”.
यह भाऊ सम्बोधन मुझे बहुत भा गया. भाऊss. ऐसा ही कुछ मुझे तब लगता जब मेरी आमा मुझसे नतिया कहती. कहीं मैं उस बलिष्ट, आकर्षक देहयष्टि वाले सर से जुड़ गया जिसकी आवाज सीधे मन को साधती थी.
उस पहले ही दिन दो शब्द दिमाग में बड़े लहराये. साहित्य और संस्कृति. जब आदिमयुग था. फिर आग आई. फिर बोल खुले. फिर अक्षर खुदे. जो अनुभव थे वह मुख से कहे गए. जिनसे भय था उनसे डरे. उनको हाथ जोड़े.
आखिर ये है क्या?
भगवान.
कोई बोला था
“हां. जो बलशाली था जो हीरो था उसे ही माना ना”?
गुरु की इस बात से मैं सहमत था.
बप्पा जी जिस शिव की रोज पूजा करते हैं वह हीरो ही तो है. देवी भी जिसका पाठ रोज करने का उनका नियम पांच बजे सुबह हमारे लिए बना था. उस ठंड में पहले बप्पा जी के लिए चाय बनाओ. फिर दिया जला देवी का पाठ करो. कैसे कैसे मंत्र. जिनको बोल देते थे समझ में तो आए नहीं.पूरी सप्तसती मुखाग्र याद थी.
धर्म से ही मोनोपोली क्रिएट होती है. धर्म अफीम है यह मार्क्स कहता है,महेश दा कहते. वह पांच साल मोस्को और कीव की यूनिवर्सिटी में रह एस्ट्रोफिजिक्स में पीएचडी किये थे.अब उनकी पढ़ाई के बोझ से मुझे आतंकित किया जाता ऊपर से फोर फर्स्ट क्लास. मेरी तो हाई स्कूल में बस सेकंड ही डिवीज़न थी. महेश दा सुबह आठ बजे से पहले कभी न उठते न ग्यारह से पहले सोते. उठते ही माया दी उन्हें चाय थमाती फिर वह घर से ऊपर जंगल जाती सड़क पर जा सिगरेट धोँकते. खाना भी पढ़ते -पढ़ते खाते.बप्पाजी को उनकी ये आदतें बिल्कुल पसंद न थीं, कहाँ वह दोनों समय धोती पहन चौके में बैठ खाने वाले. महेश दा तो घर में बस किताबों में सर गढ़ाए अपनी दुनिया में खोये रहते और ऑब्जरवेटरी निकल जाते.
बप्पा जी और महेश दा के बीच बड़े द्वन्द थे.
अब यह द्वन्द, यह विरोधाभास बहुत कुछ समझ में आने लगा तारा चंद्र त्रिपाठी जी की क्लास में. रोज ही उम्मीद होती कि आज कौन से नई बात समझआएगी. कॉलेज में उनका पहला पीरियड हो जाय तो लगता बोहनी हो गई. फिर फिजिक्स में जीवन दा. अभिनय उनकी रग- रग में बसा था, लिखते भी खूब थे और बिल्कुल टिच्च बने रहते, बड़े खूबसूरत भी. अब इसकेप विलोसिटी हो या मेग्नेटिक थ्योरी उनके लम्बे कद के साथ चाल का दोलन पूरे पीरियड भर चलता रहता. हमारे सर भी उनकी गति के साथ दाएं से बायें और बायें से दाएं होते रहते. तभी उनका नामकरण पेंडुलम हो गया था.वह कहते कि संतुलन कभी नहीं आता जिसको पाने की हम लगातार कोशिश करते फिरते हैं.अक्सर मुझे लगता कि विषय भले ही कोई भी हो उन्हें पढ़ाते ये गुरु अक्सर कहीं उन उलझे सवालों का रास्ता खोल देते हैं जो मन में कहीं पसरे रहते हैं. अंग्रेजी में जब जगदीश चंद्र पंत जी कितने दिग्गज राइटर्स का रचना संसार समझाते तो लगता ये कवि साहित्यकार सबसे ज्यादा अशांति से भरे हैं. हर किसी का जीवन दुख- पीड़ा से भरा. वह खुद भी अपनी पत्नी के स्वास्थ्य के बहुत खराब होने के बावजूद बड़े सहज रहते और इतने सीधे तरीके से लेखकों, कवि व नाटक कार की पीड़ा सामने रख देते कि वह सीधे दिल पर वार करती, दिमाग झख झोर देती. जितना पढ़ता सुनता सब त्रिपाठी जी के सामने खोल देता. यह छूट उनके व्यवहार से मिली कि पूछो सवाल करो. जो सही न लगे उसकी जड़ में जाओ.
उन्होंने ही बताया कि द्वन्द से ही रचना होती है. साहित्य जन्म लेता है. कालिदास ने उसी डाल को काटा तो? तुलसी की पत्नी ने घर से निकाला तभी?
मैं भी महसूस करता कि घर के द्वन्द से कई कहानियाँ जन्म लेती हैं जिनको ईजा और माया दी के मुख से सारे पड़ोसी और रिश्तेदार सुन और चटपट बनाते हैं.
महेश दा के एल्बम में एक पूरे पेज की बड़ी खूबसूरत फोटो थी. जिसका नाम लेना था.बिलकुल मीना कुमारी जिसकी झलक मैंने मल्ली ताल बी डी पांडे हॉस्पिटिल के नीचे वाले बंगले के गेट के पास देखी थी. वहाँ भीगी रातें फिल्म की शूटिंग चल रही थी. हीरो था प्रदीप कुमार और निर्देशक काली दास.तब में गोरखा लाइन में पढ़ता था. दूसरे पीरियड के बाद ही हम मल्ली ताल भाग लिए थे. मीना कुमारी ने सफेद साड़ी पहनी थी और वह बड़ी उदास लग रही थी. बिंदी भी काली लगा रखी थी. पाउडर तो जरूर लगाया होगा तभी ऐसी बरफ जैसी गोरी दिख रही थी. मैं उसको निहार ही रहा था कि सामने देखा हमारे क्लास टीचर और बप्पाजी के दोस्त टी डी साह जी भी वहां खड़े हैं, अपनी दोनों खूबसूरत लड़कियों के साथ. अरे मेरी तो हवा निकल गई और मैं वहां से फिर स्कूल पहुँच गया. मीना कुमारी दिमाग में रह गई. फिर तो मुझे कुमकुम भी अच्छी लगी और शशिकला भी. पर सबसे बढ़िया वहीदा रहमान थी जिसकी फ़िल्म गाइड मैंने तीन चार साल पहले कैपिटल में देखी. दुबारा पार साल जब वह अशोक में लगी तब फिर देखी दो बार. वो आर के नारायण की लिखी थी जो अंग्रेजी का धुरंधर साहित्यकार था. इधर मैं अंग्रेजी के उपन्यास भी अटक- अटक कर पढ़ने लगा था. महेश दा के पास तो रूसी के कितने ही मोटे मोटे उपन्यास थे. मुझे वह ऐसी कई किताबें देते रहते.धीरे बहो दोन रे भी तभी पढ़ाई थी.
क्लास में तारा चंद्र त्रिपाठी जी ने बताया था कि क्लासिक तो पढ़ने ही होंगे. मेरे अंग्रेजी वाले सर पंत जी भी जिक्र करते अलगजेंडर ड्यूमा का, और बहुत का. जब दुर्गा लाल साह जी से मैंने ऐसी किताब मांगी तो उन्होंने मुझे कुछ संशय से देखा और कई उपन्यासकारों के उपन्यास वाली इतनी मोटी किताब मुझे थमा दी जिसे बोकने में मेरे हाथ में दर्द हो गया.
दो पेज के बाद सर दर्द. बार बार डिक्सनरी देखो. महेश दा से भी पूछा. उन्होंने बताया फिर मुझे एक पतली सी किताब दी धीरे बहो दोन रे. मिखाइल शॉलोखोव. पूछा फिर, “वो ब्लिटज नहीं लाया”.
लाया हूँ. हिंदी वाला भी लाया हूँ.देखो आखिरी पेज,’आजाद कलम. ख़्वाजा अहमद अब्बास. क्या लिखते हैं न.
“हां. राज कपूर की ज्यादातर फ़िल्में इन्होने ही लिखी हैं. आवारा भी.एक तरफ नामी जज जो एक शक में अपनी बीबी को छोड़ देता है और उसका बेटा है आवारा राज कपूर. ओहो क्या पिक्चर. वो गुंडे के एन सिंग को देख तो मुझे बहुत ही डर लगी. चाकू दिखा कर कैसे कहता है, तू वही बनेगा.. आवारा. बड़े बाप की औलाद! हुँह.
“फ़िल्में बहुत देख रहा तू”.
दिनेश दा ने दिखाई. जब भी वो मुरादाबाद से आते हैं मुझे फ़िल्म जरूर दिखाते हैं. अबकी बार साहब बीबी और गुलाम दिखाई थी. प्रेम में बन टिक्की भी खिलाई.
“हाँ गुरु दत्त का फैन हुआ वो. सिगरेट भी वैसे ही पीता है.
वो लक्ष्मी में दो बीघा जमीन लगी है. उसे देखना. दुबारा लगी है”.
अरे हमारे हिंदी के सर तो इस फ़िल्म की बहुत ही तारीफ कर रहे थे.
“हूँ, बिमल रॉय ने जब किसी महोत्सव में बाइसिकिल थीफ देखी तो फिर सलिल चौधरी की कहानी रिक्शा वाला पर ये पिक्चर बनाई. कौन सर हैं ये”?
तारा चंद्र त्रिपाठी जी. सब उन्हें चाणक्य कहते हैं.
“हां. नाम सुना है,कल्चर और हिस्ट्री में पकड़ बहुत है. डॉ पंत बहुत तारीफ करते हैं. प्रोफेसर उपाध्याय भी, अतुल बता रहा कि कहीं कुछ सर्वे कर रहे, खोज कर रहे.
हां हर छुट्टी पर झोला झंटा ले पता नहीं कहाँ सटक जाते हैं. कई बार तो घर में उनकी टेबल अगल बगल ऐसा किताबों का गुद्दड़ रहता है कि वैसा तो आप भी नहीं करते. उनको सिगरेट पीते भी मैंने नहीं देखा.
“अरे! जब कहीं काम की धुन लगे,तब कहाँ किसको परवाह कि बाकी दुनिया क्या कर रही.खैर तू ये फ़िल्म जरूर देखना.इसमें बलराज साहनी है निरुपा राय है. हां मीना कुमारी भी है.”
वो तुम्हारी लेना जैसी?
“चुप कर. ये मेरी चीजों में खच बच मत किया कर. कैमरा ले के भी नाचता रहता है ना”?
हां वो सीख रहा था. आपने ही तो कहा यँत्र से ही क्रांति आएगी.
“हां हां बात खूब पकड़ता है, ये दो बीघा जमीन देखना तू. तब जानेगा मुफलिसी क्या होती है कितना बदहाल है किसान क्या कुछ नहीं सहता जीने के लिए.बलराज साहनी है इसमें हमेशा सूटेड बूटेड रहने वाला, वैल एजुकेटेड पर वक़्त के मारे की क्या एक्टिंग? जी गया अपने पात्र को.और वो नाना पलसीकर. हां! वह गाना ध्यान से सुनना
अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा…
ये रेड आर्मी के गाने पर है
इसमें भैरवी है, आलाप है, कोमल गांधार पर खतम किया इसे सलिल चौधरी ने”.
ले.
एक दो रूपये का नोट मेरे हाथ में दिया जा चुका था.
बप्पाजी से तो नहीं कहोगे न.
महेश दा चश्मे के भीतर की उदास सी निगाह से मुझे देख बोले, “ना “
फिर कहा, “देख और मुझे लिख के बताना. अपनी डायरी रोज लिखता है ना”.
हां हां. कभी कभी भूल भी जाता हूँ. त्रिपाठी जी भी कहते हैं रोज लिखो. और उनको दिखाना भी हुआ. कई बार तो सब लिखा काट पीट देते हैं.
ठीक करते हैं त्रिपाठी जी.
अचानक ही पौराणिक आख्यानों से छिटक कर उनका कुछ गंभीर सा प्रश्न पूरी क्लास के सामने था. मैं तो बस उनकी चेयर से दो फिट की दूरी पर बैठता था. उनके चेहरे के उतार चढ़ाव, भाव भंगिमा को उसी गहराई से देखता जैसे मार धाड़
वाली फ़िल्में.वह ब्लैक बोर्ड के एक कोने में खड़े थे. एक हाथ बोर्ड की टेक लिया था और दूसरे में चौक पकड़ी थी.
“जिसे हम मन कहते हैं क्या वह कोई आश्चर्यजनक शक्ति है? क्या इसी से सारे विचार उदित होते हैं? क्या विचारों के अतिरिक्त मन जैसी कोई वस्तु है ही नहीं”?
यह तो कादम्बिनी में आते बिंदु बिंदु विचार जैसी पहेली थी.या फिर वही द्वन्द. अभी वर्ग संघर्ष जैसा जुमला भी बार बार कहते हैं ये गुरु लोग.
पड़ोस में भोज मास्सब के यहां बाहर खुले बड़े गालियारे में जब महेश दा के शादी न करने व बप्पाजी के गुस्सा होने की कथा शुरू हुई तो मैंने भी कह दिया
क्यों करेगा दद्दा शादी? उसकी तो कीव में है.
कीव, जे हुनल यो, आमा बोली.
तू चुप कर कुनुवा. जा अपनी पढ़ाई कर. यहां औरतों के बीच क्या घुसा है.ईजा ने डांठा तो मैंने छोटी चाची की शरण में आ गया. वो मुझे कभी नहीं डांटती थी. उनके लिए मल्ली ताल चौरसिया के यहां से मीठे पान लगा के भी मैं ही लाता था.
मैंने देखी है फोटो. एल्बम में है. बहुत ही खूबसूरत. बिल्कुल मीना कुमारी.
माया दी तो यह सुन रोने लगी. भोज मास्साब की पत्नी जिन्हें हम ताई कहते उन्हें चुप कराने लगीं. उनकी बड़ी बेटी किरन जो मेरी बड़ी अच्छी दोस्त थी तुरंत मेरे पास आई.
सच्ची में है कोई दाज्यू की.
तेरी कसम
मेरे से भी अच्छी दिखती है
तू सिंगड़ूवा हुडक्याणी. कहाँ वो कहाँ तू?
नहीं बोलूंगी तुझ से बाप कसम. फिर अचानक बोली, “अच्छा मुझे दिखा एल्बम.
हँ. दद्दा चाबी लगा जाता है पर चाबी कहाँ छुपाता, मुझे मालूम है.
अगर मेरे से अच्छी न हुई तो?
सच्ची में. तो ददा ब्याह क्यों नहीं लाता. ये रूसी है इसलिए.
क्यों हमारे यहां ही सबसे थोड़ी हो जाती है शादी. तू कर लेगी पप्पू से शादी.
कौन पप्पू?
वोई हरलाल का लड़का. हमारे घर आता है रोज जो. गू का हंडा उठा के ले जाता है.
चुप साले. खसिणी हूँ मैं.
हमारे सर कहते हैं कि सब जन एक हैं. भले ही
भाषाऐं कितनी हैं बोलियां कितनी सारी पर सोचता तो मनुष्य है न. वही हाड़ मांस जो सबका एक है.
नहीं बोलती जा तेरे से. तेरी ही शादी होगी जा उस मोती माँ की लड़की से जो ठुमक ठुमक जाती है घास काटने लाल टंकी को.
इस लाल टंकी के बारे में मैंने दिनेश दा से पूछा था जब हम कैलाखान की तरफ घूमने जा रहे थे.
जवाब में ऐसा जोरदार झापड़ मेरे गाल पर पड़ा कि कान में सीटी जैसी बजने लगी. वो तो फिर मैंने गिरीश से कहा तो उसने और भी बताया कुछ पत्रिकाऐं भी दिखाई जो मॉडर्न बुक डिपो का सेल्स मैन गोल मोड़ कर दे देता है. ठीक उतने ही रुपए दें तो ठीक,ज्यादे दो तो वापस भी नहीं करता.बस आजाद लोक कहना हुआ. उपन्यास भी होते हैं प्यारे लाल के. किराये पर भी मिलते हैं पर उनसे बास आती है.
अरे!क्लास में बताया था न उन्होंने पीत लेखन के बारे में, येई तो हुआ वह. बड़े नामी लेखक अपना नाम बदल लिखते हैं हर पेज के हिसाब से पैसा लेते हैं और जो ये कर्नल रंजीत है ना और चन्दर भी वो इनके असली लेखक थोड़ी हैं असली तो आनंद प्रकाश जैन हैं.
अबे गुलशन नन्दा पढ़. क्या लिखता है.
ना. मैं तो बाण भट्ट कि आत्मकथा लाया हूँ लाइब्रेरी से. उनने चंद्रकांता संतति के बारे में भी कहा.
पहले ही दिन से कुछ अलग सी उथल पुथल हो गई. मन हुआ इनसे पूछूँ बहुत सवाल जो अपने बप्पा जी से न पूछ पाया वह मौका ही न देते. हमेशा गंभीर. घर में कुछ भी टस से मस न होना चाहिए. उनके पोंड्स की क्रीम भी ठीक वहीं रही होनी है जो उसकी जगह. ठीक छः बजे जब वह कॉलेज से आएं तो अंग्रेजी हिंदी का अखबार तह लगा मेज पर हो और उनकी सफेद धोती कुरता स्वेटर कायदे से अलमारी के बीच के खाने में.
लाइब्रेरी गया था. यह जवाब होता जब वह पूछते घर लौटते. हाथ में दुर्गा लाल साह लाइब्रेरी से इश्यू हुई किताब होती.
हूँss.
किताब कौन सी?क्या ये नहीं पूछते.
कोर्स की किताब भी पढ़ा करो. मैथ्स में मन नहीं लगाते क्या?
उफ! आज फिर मिले होंगे मैथ्स के सर. कोऑर्डिनेट का सवाल गलत किया था मैंने.
महेश से क्यों नहीं पूछता. ऊपर भोज मास्साब हैं. पीछे रह जाओगे सबसे.ईजा चाय नाश्ता लाती तो जोर से पूछते ये महेश शादी नहीं करेगा क्या. इतने लोगों ने बात की है कुनले आ रहे?
बगल के कमरे में महेश दा जहां किताब-किताब, कैमरा कितने कागज कितने नए अखबार.
नहीं करनी है शादी.
आखिर क्यो नहीं. उपराड़ा के पंत हैं नामी वैद्यों का खानदान खुद एमबीबीएस डॉक्टर, लखनऊ कैंट में कोठी. उनकी लड़की. लोरेटो में पढ़ी.
द्वन्द
साहित्य का जन्म.
ऐसे बड़े द्वन्द. गुरु के मन में पनपते होंगे. वह खोज में थे.
(जारी)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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