‘जहां कुछ नहीं, वहां प्रेम रहता है, आपसी विवाद तो जगह के भरने पर होता है कि उसके पास ज्यादा और अच्छा है, मेरे पास कम और खराब. हमारी पुश्तैनी जमीन-जायदाद कुछ थी नहीं, फिर, भाईयों में आपस में क्या बंटवारा करना था? बस, आपसी प्रेम बचा रहा. उसी की बदौलत बचपन से ही गरीबी में मजे से रहना सीख गये. अब अभावों में रहना, आदत में शुमार हो गया है. पिछले दिन-रात मेरे साथ नहीं चलते हैं. मेरे लिए आज का दिन बिल्कुल नया है, जिसमें बीते दिन के दाग-धब्बों के छींटे नहीं हैं…’
(Beer Sen Shrinagar Uttarakhand)
बीर सेन (60 साल) और भी बहुत कुछ कहते जा रहे हैं और मैं मंत्र-मुग्ध उनको सुनता जा रहा है. साथ चाय पीने का मेरा आफर उन्होने मना कर दिया है. उनसे बातचीत करने होटल में बैठे हैं. लिहाजा, मुझे तो पीनी ही पड़ेगी. वरना, बस स्टेशन की ग्राहकों से भरी दुकान पर कौन फालतू बैठने देगा.
श्रीनगर (गढ़वाल) के बाजार में सुबह और शाम बीर सेन गुब्बारे बेचते दिखते हैं. एक पीला गुब्बारा जो उनकी कद-काठी के बराबर ही है, उनके एक हाथ में डोलता रहता है. दूसरे हाथ की अंगुलियों के बीच में विभिन्न रंगों के बिन फुलाये कई गुब्बारे करीने से लटके रहते हैं. उनके ग्राहक आने-जाने वाली यात्री बसों, जीपों और स्कूलों के आस-पास ही हैं.
बच्चों ने गुब्बारों की ओर एक बार टकटकी लगाई कि बीर सिंह की मनमोहक मुस्कान बच्चों को गुब्बारा लेने को बरबस मोहित कर लेती है.
उत्तर प्रदेश के शामली जिले के कमोली गांव के बीर सेन वर्ष 2010 से श्रीनगर (गढ़वाल) के विभिन्न बाजारों घूम-घूम कर गुब्बारे बेचते हैं. उन्होने, दो महीने पहले अपने छोटे भाई सैन्दर सेन (50 साल) को भी गांव से यहां बुला कर इसी काम में लगा दिया है. गुब्बारे बेच कर ही वे गांव में अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधार पाये हैं. वैसे, उनका गांव कभी-कभार ही जाना होता है.
(Beer Sen Shrinagar Uttarakhand)
शामली से 8 कि.मी. दूर अपने गांव कमोली की पाठशाला में दर्जा 2 तक ही उनका जाना हुआ. जमीन-जायदाद के नाम पर एक कच्चा घर ही था. माता-पिता के साथ 8 भाई-बहिनों को भरपेट खाना मिल जाय, ये ही काफी था. जीवन में ठीक से चलना शुरू ही किया तो मेहनत-मजदूरी में जुटना पड़ा. जवान होने पर घर-गृहस्थी संभाली. एक बिटिया है जिसकी शादी के बाद पत्नी गुजर गई. जीवन जब नितांत अकेला हुआ तो शारीरिक कमजोरी भी उनके जीवन का हिस्सा बन गई.
गुब्बारे बेचते लोगों को देखकर ये ही काम करने का इरादा किया. जानकारों से आवश्यक जानकारी लेकर किसी परिचित के साथ वर्ष – 2010 में श्रीनगर (गढ़वाल) आये. अब इसी काम में उनका मन लग गया है. दिल्ली से थोक में गुब्बारे खरीदते हैं. खा-पीकर रोज 250-300 रुपये बचा लेते हैं.
‘साहब, मेरे ग्राहक बच्चे हैं, पर बड़े भी जब मुझे देखते हैं तो उनका अपना बचपन एक हल्की मुस्कराहट लिए स्वतः ही उनके चेहरों पर आ जाता है. इस नाते, ये क्या कम है कि मैं बूढ़ों को अचानक उनके बचपन की सैर करा देता हूं. अच्छा साहब, सुबह-सुबह बोनी का टैम है आपको भी अपने काम की देर हो रही होगी…’ बीर सिंह ये कहकर झट से होटल से बाहर हो गए हैं.
बीर सिंह से मेरे पहले से ही खरीदे दो गुब्बारों को होटल में काम करने वाले दो किशोरवय के लड़के आपसे कम्पटीशन से फुलाने में लगे हैं, कि कौन गुब्बारा ज्यादा फुला लेता है. उनके चेहरों पर बच्चों सी प्रफुल्लित मुस्कान मुझे अच्छी लगती है.
(Beer Sen Shrinagar Uttarakhand)
– डॉ. अरुण कुकसाल
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वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.
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