आइए, जरा अपनी पृथ्वी पर नजर डालें. यह विशाल सौरमंडल का एकमात्र ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन है. इसमें कहीं ऊंची पर्वतमालाएं हैं तो कहीं दूर-दूर तक फैले मैदान, कहीं गहरी घाटियां हैं तो कहीं विशाल रेगिस्तान. कहीं हरे-भरे जंगल, तो कहीं विशाल गीले दलदल. कहीं सदानीरा नदियां बहती हैं तो कहीं ऊंचे पहाड़ों से छल-छल झरने गिरते हैं. कहीं अथाह गर्मी पड़ती है तो कहीं कड़ाके की सर्दी. कहीं घनघोर वर्षा होती है तो कहीं पानी की एक बूंद भी नहीं बरसती.
और, मौसम? कभी खिली-खिली धूप तो कभी भीषण गर्मी, कभी शरद ऋतु के गुनगुने दिन तो कभी माघ-पूस के चिल्ला जाड़े. क्यों होता है ऐसा? यहां मौसम बदलते हैं. ऋतुएं आती हैं जाती हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर खम देकर खड़ी है! यह अपनी धुरी की सीध से 23.5 अंश झुकी हुई है. इसलिए जब अपनी धुरी पर घूमती है तो घूमते हुए लट्टू की तरह अंडाकार डोलती भी है. डोलते-डोलते सूर्य की परिक्रमा भी करती है. इस सब का नतीजा यह होता है कि पृथ्वी के हर हिस्से पर साल भर सूर्य की रोशनी एक समान नहीं पड़ती. इसीलिए पृथ्वी की भूमध्य रेखा के आसपास सदा बेहद गर्म होता है. लेकिन, हम ज्यों-ज्यों उत्तर या दक्षिण की ओर बढ़ते हैं तो तपन कम होने लगती है और मौसम खुशगवार लगने लगता है. और आगे बढ़ने पर तापमान कम होने लगता है और ध्रुवों पर यह न्यूनतम हो जाता है. ये हमारी पृथ्वी की जलवायु यानी आबोहवा के विविध रंग हैं. यह जलवायु की ही देन है कि पृथ्वी पर हरियाली लहलहाती है, कहीं झमाझम वर्षा होती है, कहीं भयानक सूखा पड़ जाता है और कहीं बर्फ की चादर फैल जाती है. हमारा रहन-सहन, खेतीबाड़ी और आवागमन सभी कुछ जलवायु पर ही निर्भर करता है.
लेकिन, इधर पृथ्वी की आबोहवा गड़बड़ा गई है. पहले तक जहां समय पर ऋतुएं बदलती थीं. समय पर वसंत आता था, मई-जून की ‘छांहों चाहत छांह’ की गर्मी पड़ती थी, समय पर वर्षा और समय पर ही जाड़ों की ठिठुरन शुरू होती थी. ऋतुओं के हिसाब से किसान खेती करते थे, बोआई और कटाई के उत्सव मनाते थे. यहां तक कि पशु-पक्षी भी ऋतुओं के हिसाब से अपनी लंबी प्रवास यात्राएं करते थे या ठंडे प्रदेशों में गुफाओं, कोटरों और बिलों में शीत निद्रा या ग्रीष्म निद्रा में सो जाते थे. नन्हीं तितलियां तक वसंत के इंतजार में प्यूपा बन कर किसी टहनी, चट्टान या दीवार से लटक जाती थी कि वसंत आएगा और वे पंख फटफटा कर बाहर निकल आएंगीं, मधु और पराग चूसने के लिए खिलखिलाते फूलों पर पहुंच जाएंगीं. जलवायु के साथ हर जीवधारी का बेहद नाजुक संबंध था.
अब यह संबंध भी गड़बड़ा रहा है. ऋतुएं समय पर नहीं आ रही हैं. वसंत समय पर नहीं आता तो फूल भी समय पर नहीं खिलते. वसंत की आहट न पाकर तितलियां प्यूपों के ताबूत में ही बंद रह जाती हैं. बेमौसम बरसात होती है. बरसात भी ऐसी कि लगे प्रलय आ गया है, जैसे केदारनाथ घाटी में हुआ. अगर कहीं सूखा पड़ रहा है तो इतना सूखा कि हजारों लोगों के सपनों को सुखा दे. तूफान ऐसे कि ताडंव दिखा कर तबाही मचा दें. पहाड़ों में बेमौसम बारिश और ओलों की मार से बागबानों की फलदार फसलों के फूल झर गए तो मैदानों में गेहूं की पकी हुई फसलें तबाह हो गईं.
लेकिन क्यों? वैज्ञानिकों का कहना है कि आबोहवा खराब हो गई है और मौसम का मिजाज बदल गया है. और, यह स्वयं आदमी की करतूत का नतीजा है. अन्यथा, पहले तो सब कुछ ठीक-ठाक था. नदियां कल-कल, छल-छल बह रही थीं, हरे-भरे जंगल ठंडी बयार बहा कर हमारी सांसों के लिए प्राणवायु आक्सीजन दे रहे थे. हम प्रकृति में, प्रकृति के साथ रह रहे थे. लेकिन, विकास की एक ऐसी मूषक दौड़ शुरू हुई कि जमीन के चप्पे-चप्पे पर कंकरीट के जंगल खड़े होने लगे. हरे-भरे जंगल कटने लगे. तथाकथित विकास के नाम पर शहर पैर फैलाने लगे. लोग यह भूल गए कि मां प्रकृति पेड़-पौधों और हरे-भरे जंगलों में हमारी सांसें तैयार करती है. उनकी बनाई प्राणवायु आक्सीजन में ही सांस लेकर हम जीवित हैं.
प्रकृति ने हवा में कार्बन डाइआक्साइड और अन्य गैसों की ठीक उतनी ही मात्रा रखी थी, जितनी हमारे सांस लेने के लिए जरूरी थी. जब तक ऐसा था, तब तक सब कुछ ठीक था. जीने के लिए जैसी जलवायु चाहिए थीं, वह वैसी ही थी. लेकिन, फिर लाखों वर्ष पहले दो पैरों पर खड़े हो गए मनुष्य ने गुफाओं से निकल कर नदी-घाटियों में घर बना कर बसना शुरू किया. पशुओं को पालतू बना कर पशुपालन शुरू कर दिया. अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वह जंगलों को काट कर खेती करने लगा. उसकी आबादी बढ़ती गई, जरूरतें बढ़ती गईं और जमीन हथियाने की हवस भी बढ़ती गई. आगे चल कर उसने तथाकथित विकास की दौड़ में घने जंगलों का सफाया करना शुरू कर दिया. हरे-भरे जंगल शहरों में तब्दील होने लगे. कल-कारखानों को चलाने के लिए बड़े पैमाने पर कोयला फूंका जाने लगा. सड़कों पर लाखों गाड़ियां पेट्रोल का धुवां उगलने लगीं. इस तरह हर साल लाखों टन कार्बन डाइ आक्साइड वायुमंडल में पहुंचने लगी.
इससे वायुमंडल में प्रकृति द्वारा तय किया गया गैसों का हिसाब गड़बड़ा गया. विकास की अंधी दौड़ जारी रही और आसमान में धुवां भरता गया. फल यह हुआ कि पृथ्वी पर तपन बढ़ती गई. सूर्य की जिस गुनगुनी गरमाहट ने कभी पृथ्वी पर जीवन पनपने और उसके फलने-फूलने में मदद की थी, वह विगत कुछ दशकों में धीरे-धीरे बढ़ कर अब असहनीय होती जा रही है.
सन् 1780 के आसपास जेम्स वाट का धुवां उगलता भाप का इंजन आ खड़ा हुआ. रेलगाड़ी और कल-कारखानों को चलाने के लिए कोयला ‘काला सोना’ बन गया. औद्योगिक क्रांति हो गई और मशीनों को चलाने के लिए दुनिया भर में कोयले के भंडार खोजे जाने लगे. फिर मोटरगाड़ियों और मशीनों के लिए धरती के गर्भ में छिपे प्राकृतिक तेल के भंडारों की खोज शुरू हुई. कोयले और तेल के दहन से आसमान में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ती गई.
औद्योगीकरण के बाद वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ती ही चली गई. जंगलों के अंधाधुंध कटान से यह स्थिति और भी बिगड़ती गई. लाखों वर्षों से कोयले, तेल और प्राकृतिक गैस में कैद कार्बन भी धुएं के रूप में मुक्त होकर वायुमंडल में पहुंच गया. वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग का कारण ग्रीनहाउस गैसों को बताते हैं. यानी, वायुमंडल में मौजूद ऐसी कोई भी गैस जो इंफ्रारेड किरणों की गर्मी को सोख कर तापमान बढ़ा दे. मुख्य ग्रीनहाउस गैसें हैं: जल वाष्प, कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड और क्लोरोफ्लुओरोकार्बन (सी एफ सी) रसायन. ग्रीनहाउस प्रभाव से गर्मी बढ़ाने वाला मुख्य अपराधी कार्बन डाइआक्साइड गैस को माना गया है. अनुमान है कि हर साल करीब 3.2 अरब टन कार्बन डाइआक्साइड वायुमंडल में पहुंच रही है.
वैश्विक तपन के कारण ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है और ग्लेशियर भी पिघल कर सिकुड़ते जा रहे हैं. हिमालय क्षेत्र में ये तेजी से पिघल रहे हैं और आने वाले समय में इनके कारण गाद भरी नदियों में भारी बाढ़ आ सकती है. ध्रुवों पर जमा बर्फ के बाद हिमालय में ही बर्फ के रूप में सबसे अधिक पानी जमा है. ग्लेशियरों के पिघलने से भारत, नेपाल और चीन में भारी जल संकट पैदा हो सकता है.
बढ़ते तापमान के कारण पिछले 100 वर्षों में विश्व में समुद्रों का जल स्तर 10 से 25 सेमी. तक बढ़ चुका है. तापमान इसी तरह बढ़ता गया तो ग्लेशियरों के पिघलने तथा सागरजल के गर्मी से फैलने के कारण समुद्रों का जल स्तर काफी बढ़ जाएगा. इसके परिणाम भयानक होंगे. सागरतटों पर बसे शहरों के डूबने का खतरा पैदा हो जाएगा. महासागरों में स्थित तमाम द्वीप डूब जाएंगे. जलवायु परिवर्तन के कारण जलप्लावन की यह प्रक्रिया कई क्षेत्रों में शुरू भी हो चुकी है. हमारे देश के सुंदरवन क्षेत्र में घोड़ामारा द्वीप का क्षेत्रफल पहले 22,4000 बीघा था जो अब केवल 5,000 बीघा रह गया है. उस 5,000 की आबादी वाले द्वीप में अब केवल लगभग 3,500 लोग रह रहे हैं. उन्हें मालूम है कि उनका यह द्वीप जल्दी ही डूब जाएगा. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2020 तक सुंदरवन का करीब 15 प्रतिशत क्षेत्र डूब जाएगा.
जलवायु विज्ञानी बढ़ती वैश्विक तपन के कारण एक और आसन्न खतरे की ओर संकेत कर रहे हैं. वह खतरा है भीषण समुद्री तूफान और घनघोर बारिश. विगत लगभग पचास वर्षों में वायुमंडल की तपन से सागरों का पानी भी गरमा गया है जिसके कारण सागरों से उठने वाली भाप की मात्रा में काफी इजाफा हुआ है. इस कारण तेज और भीषण समुद्री तूफानों की घटनाएं बढ़ रही हैं. इसके अलावा वर्षा का पैटर्न भी बदल गया है. मौसम, बेमौसम, कहीं भी, कभी भी घनघोर बारिश हो जाती है. कहीं भीषण गर्मी पड़ रही होती है तो कहीं लंबे समय तक भारी बर्फबारी होने लगती है. इस कारण खेती पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है.
समय हाथ से निकल रहा है. विश्व पर घिर रहे ग्लोबल वार्मिंग के इस महासंकट को रोकने के प्रयास अब हमें आपातकालीन स्तर पर शुरू कर देने चाहिए. बदलती आबोहवा के संकेतों को समझ कर हमें आसन्न कार्बन ग्रीष्म-ऋतु के मारक कदमों को रोकना होगा. इसके लिए दुनिया के सभी देशों के नागरिकों के साथ ही नीति निर्धारकों और राजनेताओं को भी एकजुट होकर कार्बन डाइआक्साइड गैस और ग्रीनहाउस गैसों की नकेल कड़ाई से कसनी होगी.
देवेंद्र मेवाड़ी
लोकप्रिय विज्ञान की दर्ज़नों किताबें लिख चुके देवेन मेवाड़ी देश के वरिष्ठतम विज्ञान लेखकों में गिने जाते हैं. अनेक राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित देवेन मेवाड़ी मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी हैं और ‘मेरी यादों का पहाड़’ शीर्षक उनकी आत्मकथात्मक रचना हाल के वर्षों में बहुत लोकप्रिय रही है.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें