हम लोगों के बीच उम्र का बहुत अंतर तो नहीं था, मगर मेरे कॉलेज में प्राध्यापक बन जाने के बाद उनका प्रवेश विद्यार्थी के रूप में हुआ था. वह हिंदी के छात्र भी नहीं थे, हालाँकि उनकी बातों से उनकी साहित्यिक-सांस्कृतिक अभिरुचि साफ झलकती थी.
(Indu Kumar Pande Uttarakhand)
दरअसल उनकी अपेक्षा उनके पिता हमारे साहित्य-सर्कल के आदर्श थे. नैनीताल की मालरोड पर डॉ. सीसी पांडे का क्लिनिक था, जिसमें घुसने की हमें कभी जरूरत नहीं पड़ी, न हमारी ऐसी सामर्थ्य थी; मगर जब भी क्लिनिक के बगल में ही स्थित किताबों की दुकान ‘नारायंस’ में जाना होता था, यदा-कदा काउंटर पर बैठे तिवारीजी के साथ बतियाते हुए उन्हें देखा जा सकता था. किसी डॉक्टर को साहित्य और दर्शन के दुरूह मसलों पर इतनी गहराई और अंतरंगता के साथ बातें करते हुए देखने का यह मेरा पहला मौका था. ताज्जुब होता था और हम सोचा करते, ऐसे लोग हमारे प्रोफ़ेसर क्यों नहीं हैं? वो हमसे हिंदी में लिखे जा रहे साहित्य की जानकारी लेते और दुनिया भर की समृद्ध भाषाओँ के साहित्य की जानकारी हमें देते. उन किताबों को पढ़ने का आग्रह करते मगर उस सब को पचा सकने का हमारे पास न विवेक था, न वैसा भाषा-ज्ञान. मगर उनके प्रति सम्मान और गुरू-भाव सारी ज़िन्दगी बना रहा.
इंदु कुमार पांडे उन्हीं के बेटे हैं. उत्तराखंड के पूर्व मुख्य सचिव और पांचवे वित्त आयोग के अध्यक्ष. मगर उन्हें मैंने इतने भारी-भरकम विशेषणों के साथ कभी नहीं देखा. उनकी छवि दिमाग में एक गुरू-पुत्र की-सी ही थी. मालूम था कि वो हमारे प्रदेश के सचिवालय में वरिष्ठ नौकरशाह हैं, मगर कभी इस रूप में मिलने का संयोग नहीं आया था. जब प्रत्यक्ष मिला तब भी वह अफसरशाह नहीं, एक ईमानदार और मददगार सहज इन्सान के रूप में मिले.
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सन दो हज़ार में जब मैं हंगरी में अपने तीन साल के कार्यकाल को पूरा करके वापस लौटा तो सरकार ने मेरी विदेश-सेवा को लेकर गंभीर अनियमितता का आरोप जड़ दिया. जुलाई 1997 को मैं अपने विश्वविद्यालय से कार्यमुक्त होकर चला गया था जिसकी सूचना मैंने तत्कालीन उत्तर प्रदेश शासन को भेज दी थी. वापस लौटकर आया तो सरकार ने मेरी तीन वर्षों की वेतन वृद्धि रोकी हुई थी और इस बात की तैयारी चल रही थी कि बिना शासन की अनुमति के देश छोड़ने के आरोप में मुझसे वसूली की जाए. हालाँकि अनेक बार मैं उप्र सरकार को लिख चुका था कि मैं भारत सरकार द्वारा विदेश सेवा में डेप्युटेशन पर भेजा गया था और सम्बंधित भत्ते भी ले रहा था, मगर जैसा कि यूपी सचिवालय की सनातन कार्य-प्रणाली थी, बार-बार एक ही तोता-रटंत आपत्ति दुहरायी जा रही थी. इसी बीच सन 2000 में नए प्रदेश का गठन हुआ और स्वभावतः मामला उत्तराखंड के वित्त विभाग में पहुंचा. उत्तराखंड शासन ने सारी आपत्तियों को बिना किसी विचार-विमर्श के मुझे नत्थी कर दिया और कहाँ तो मैं अवकाश अवधि की वेतन-वृद्धियों की बाट जोह रहा था, मुझसे कहा गया कि बिना अनुमति के विदेश जाने के कारण विगत तीन वर्षों में प्राप्त वेतन को मैं सरकारी खजाने में वापस करूं.
काफी समय तक मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया, दिमाग में था कि उत्तराखंड को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि उसके इलाके का हिंदी प्राध्यापक पहली बार यूरोप के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में विदेश सेवा का प्रतिनिधित्व कर रहा है; इसलिए खुद-ब-खुद सब ठीक हो जायेगा. तभी मित्रों ने कहा, मामला इतना सहज नहीं है, सरकार हजारों लोगों को विदेश भेजती है, वह व्यक्ति नहीं, अपनी रकम देखती है, जिसे वह अपने खजाने से बाँटती है. मुझे लगा, बात में दम है और मैं दौड़ा-दौड़ा अपनी अस्थायी राजधानी के सचिवालय पहुंचा.
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वित्त विभाग के अतिरिक्त सचिव की कुर्सी पर कोई सिंह साहब बैठे थे, जिनके साथ अगले दस-पंद्रह मिनट की बातचीत में मेरी अच्छी-खासी झड़प हो गयी. वो सिर्फ एक ही रट लगाये थे कि गलती मेरी है, मुझे अनुमति लेकर देश छोड़ना चाहिए था. हर हालत में मुझे पिछले तीन सालों में लिए गए वेतन को उन्हें वापस करना होगा. गुस्से में मैंने यह तक कह दिया कि पैसा मुझे भारत सरकार ने दिया है, मैं आपको क्यों वापस करूं? मगर वो नहीं माने; दरवाजे पर उनकी धमकी भरी आवाज सुनाई दी, पैसा वसूल करने के हमारे अनेक तरीके हैं. फिर भी मैं अपनी ही धुन में था. जाने क्यों मुझे डर नहीं लगा और मैं भुनभुनाता हुआ वापस चला आया.
वापस लौट रहा था कि गैलरी में वित्त सचिव इंदु कुमार पांडे दिखाई दिए. मैं बात करने की हिम्मत जुटा पाता कि तभी उन्होंने खुद ही नमस्कार किया. एकाएक मुझे इस दृश्य पर खुद ही यकीन नहीं हुआ. सारे प्रकरण को मैं जैसे भूल गया और नमस्कार का जवाब भी नहीं दे सका. खुद उन्होंने ही पूछा, ‘कैसे हैं? यहाँ कैसे आये?’ संक्षेप में इतना ही मुँह से निकला, ‘आपसे ही मिलना था.”
पांडेजी ने कहा, ‘अभी तो कुछ जरूरी बैठकें हैं, कल सुबह दस बजे मेरे कमरे में आ जाइए.’
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यह घटना शायद 15-20 जून, 2006 की है और 30 जून को मुझे रिटायर हो जाना था. मैं अपने सारे कागज़ों के साथ पहुंचा ही हुआ था. नियत समय पर करीब आधे घंटे तक हमारी बातें हुईं, मैंने न किसी की शिकायत की और न अपना रोना रोया; सिर्फ इतना कहा कि दस-बारह दिनों के बाद मैं रिटायर होने वाला हूँ और इन तीन सालों की वेतन-वृद्धि का असर मेरी जिन्दगी भर की पेंशन पर पड़ेगा. जैसा कि पांडेजी का स्वभाव है, उन्होंने मानो चुटकी-भर में मामले को समझ लिया मगर तत्काल कोई खास आश्वासन नहीं दिया, न सहमति व्यक्त की, न असहमति.
21 जून, 2006 को मुझे उनका यह फैक्स मिला जो कुलसचिव, कुमाऊँ विवि को संबोधित है. साल भर से लटकाए जा रहे मामले को इस सहृदय इन्सान ने किस तरह सिर्फ आधे घंटे में सुलझा दिया, यह अविश्वसनीय-सा लगता है.
(Indu Kumar Pande Uttarakhand)
हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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