किसी भी सभ्य समाज में गाली एक कुत्सित व निदंनीय व्यवहार का ही परिचायक है, जिसकी उपज क्रोधजन्य है और परिणति अपने मनोभावों से दूसरों के दिल को चुभने वाले शब्द कहकर मानसिक रूप से प्रताड़ित करना है. गालियों का चलन भी उतना ही पुराना है, जितनी मानव सभ्यता. हमारे पौराणिक आख्यान शापित घटनाओं से अटे पड़े हैं. पौराणिक पात्रों के जन्म, पुनर्जन्म इन्हीं श्रापों की परिणति की घटनाऐं उजागर करती हैं. ये श्राप देने वाले भी हम और आप जैसे कोई साधारण इन्सान नहीं बल्कि तपस्वी, ऋषि, मुनि व सिद्ध पुरुष रहे हैं. (Kumaoni Folklife)
रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य इस बात के प्रमाण हैं कि तब भी गालियों का खूब चलन था. शिशुपाल वध में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा 100 गालियों के बाद ही अपनी प्रतिज्ञा पूरी की. वहीं भगवान राम जब सीताजी से विवाह करने जनकपुरी पहुंचे तो मिथिला की नारियों ने परम्परानुसार अयोध्यावासियों को खूब गरियाया, जो शादी की रस्मों में आज भी बदस्तूर जारी है, भले ही आज गांव-देहातों तक ही सीमित रह चुका हो. ये बात अलग है कि इन गालियों का मकसद किसी को ठेस पहुंचाना नहीं बल्कि स्वस्थ मनोरंजन तक सीमित होता है.
गाली इन्सान क्यों देता है? इसके भी कारण अलग अलग सकते हैं. आवेश में जब एक इन्सान शारीरिक रूप से उसे क्षति पहुंचाने में सक्षम न हो तो व कटु शब्दों के माध्यम से उसको मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के लिए अपशब्दों का प्रयोग करता है, जो उसे अन्दर तक चुभ जाय. यदि किसी के द्वारा उसके प्रति अन्याय किया गया हो और वह प्रतिकार करने की सामर्थ्य न रखता हो तो पीड़ित व्यक्ति असहाय अवस्था में ईश्वर को साक्षी मानकर फिटकार (श्राप) स्वरूप रोष प्रकट करता है, जिसे लोक भाषा में ’घात’ डालना कहा जाता है. इसे अन्याय करने वाला प्रत्यक्ष तो नहीं सुनता लेकिन लोकमान्यता के अनुसार यह कातर पुकार ईश्वर के दरबार तक पहुंचकर परोक्ष रूप से अन्याय का प्रतिशोध लेती है.
जाहिर है कि गाली जो हमारे सामाजिक ताने-बाने में इतनी घुली-मिली हो, वह भी हमारी संस्कृति का एक हिस्सा है. संस्कृति के गुणावगुण साहित्य में प्रतिबिम्बित होते हैं, लेकिन वास्तविकता ये है कि गालियों पर बहुत कम लिखा गया है. साहित्य में गालियों को नहीं के बराबर समाहित किया गया, संभवतः यह वर्जना साहित्य को सत्यं,शिवं सुन्दरं का साधक मानकर की गयी हो. लेकिन अगर गाली संस्कृति का अंग है तो साहित्य उससे अछूता नहीं रह सकता. दरअसल गालियों की भी एक मर्यादा होती है, जहां इस मर्यादा की सीमा लांघ ली जाय व न तो संस्कृति का अंग है और न साहित्य की विषय वस्तु.
देशज गालियां या यों कहें बाजारू गालियां जब लोकजीवन में प्रवेश करती हैं तो लोकभाषा के अनुरूप उसकी वर्तनी में बदलाव आना स्वाभाविक है. पीढ़ी दर पीढ़ी सुनते आ रहे इन शब्दों को हम व्यवहृत तो करते हैं, लेकिन यह पता नहीं कि यह किस गाली का देशज तर्जुमा अथवा अपभ्रंश है, अथवा इस गाली का भाव क्या है ? कुमाउनी में एक आम बोलचाल में शब्द प्रचलित है – रनकरा, रडकरा या रढकरा. हालांकि माना तो इसे गाली की श्रेणी में जाता है, लेकिन एक मां अपने बेटे से उसकी किसी शरारत पर ’ द ऽ रनकरा ’ कहकर अपना स्नेह उड़ेलती है. कारण, उसे इसे शब्द का वास्तविक अर्थ या भाव ही ज्ञात नहीं है अन्यथा एक मां अपने बेटे को ऐसा बदकिस्मत देखना तो कभी नहीं चाहेगी. दरअसल ’रनकरा’ शब्द देशज गाली रण्डुवा या विधुर के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द का कुमाउनी तर्जुमा है. गालियों में भी स्नेह प्रदर्शित करने के इस भाव को क्या कहेंगे आप? लेकिन यही ‘रनकरा’ शब्द जब क्रोध या आवेश में बोला जाता है, तो दुत्कारने का भाव स्पष्ट झलकता है.
कई देशज गालियों को तो हमने गाली न मानकर हर बात के साथ प्रयोग होने वाला तकिया कलाम बना दिया है. लगता है, बिना इस शब्द को इस्तेमाल किये हम अपनी बात दूसरे तक पहुंचा ही न पाते हो. माजेत् या माज्योद् और भैन्जोत् ऐसे की कुमाउनी शब्द है, जो देशज गालियों से पुरुष समाज द्वारा लोकजीवन में आयातित हुए और आज घर-परिवार में पुरुष एवं महिलाऐं इनका बेहिचक प्रयोग करते नजर आते है. कारण, हम यह नहीं जान पाते कि यह मूल किस देशज गाली का अपभ्रंश है? इसे यहां स्पष्ट करने की आवश्यकता मेैं नहीं समझता, सुधि पाठक स्वयं ही इसका अनुमान लगा सकते हैं कि ये शब्द किस देशज गाली के अपभ्रंश हैं ? ये शब्द देशज गालियों में जहां व्यक्ति केन्द्रित गाली है, वहीं लोकजीवन में हर परेशान करने वाली बात हो सकती है, माजेत् या भेंजोत् शब्द मौसम के लिए हो सकता है, काम की अधिकता के लिए हो सकता है, बीमारी के लिए हो सकता है, यानि कोई भी आफत में इस का प्रयोग महिलाओं तथा पुरुषों मे बेरोकटोक होता है. इसे लोकजीवन की सहजता व सरलता भी कह सकते या नासमझी भी.
ऐसा नहीं है कि कुमाउनी लोकजीवन में अपनी गालियां नहीं हैं. ’च्यापणी’, ’दाबणी’ और ’खड्यूणी’ लड़कियों के लिए दी जाने आम गाली है, जिसका लाक्षणिक प्रयोग हुआ है. परम्परा के अनुसार छोटी बालिकाओं की जब अकाल मौत हो जाती है, तो उसका दाह संस्कार न होकर उसे दफनाया जाता है. इसी दफनाने से लेकर इन शब्दों को गढ़ा गया है. लेकिन लोकजीवन में इसके लाक्षणिक अर्थ को नकार कर यदि मां-बाप ही अपनी बच्ची के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करें तो इसे या तो लड़कियों के प्रति अतीत में उपेक्षा का भाव हो सकता है अथवा लाक्षणिक समझ का अभाव. केवल ये ही शब्द नहीं लाक्षणिकता का जामा पहने कई गालियां लोकजीवन में प्रचलित हैं, यथा-त्येरि धोती ढुंगम धरण हैजो, त्येरि झगुलि स्याव लिजो, त्येरि झगुलि डाव लागि जो, नीं खैजये दशैं बग्वाव आदि आदि. इसे लोकजीवन के व्यवहार की खूबसूरती कहें वाक्पटुता कि तू कर जायेगा के स्थान पर लाक्षणिकता का चोला पहना दिया जाता है.
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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