आज बगुवावासा में पड़ाव था. रूपकुंड की तलहटी पर ठंडा पड़ाव है बगुवावासा. अविनखरक से सात किलोमीटर पर है पाथर नचौनियां और वहां से साढ़े चार किलोमीटर की दूरी पर है बगुवावासा. रकसेक कंधों पर डाल और आली बुग्याल के किनारे से होते हुए वेदनी बुग्याल के शीर्ष तक पहुंचे. यहां से दूर तक बलखाता, लहराता हुआ वेदनी बुग्याल जैसे अपनी बांहों में बुलाता महसूस होता है. पहले रूपकुंड जाने के लिए वेदनी ही पहला पड़ाव हुआ करता था लेकिन अब यहां रात्रि विश्राम पर रोक लग गई है.
(Baguvavasa Roopkund Trek Travelog)
चमोली जिले के लोहागंज निवासी तथा ‘आली-बेदनी-बागजी बुग्याल संरक्षण समिति’ के अध्यक्ष दयाल सिंह पटवाल ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की कि उत्तरी हिमालयी क्षेत्र में जिला चमोली के अंतर्गत थराली, देवाल और घाट ब्लाकों में रूपकुंड की तलहटी के बुग्यालों की हालत, ट्रेकिंग और व्यावसायिक चरान के चलते काफी खराब हो गई है, जिन्हें बचाना बेहद जरूरी है. अत: इस पर रोक लगाई जाए. उनकी दलील थी कि ट्रेकिंग के लिए बुग्यालों में रात्रि विश्राम पर रोक लगाने के साथ यहां सिर्फ स्थानीय पारंपरिक चरान को ही इज़ाज़त दी जानी चाहिए. लंबी लड़ाई के बाद हाईकोर्ट ने उनकी याचिका पर गौर करते हुए बुग्यालों में रात्रि विश्राम पर रोक लगा दी.
वर्ष 2014 की राजजात यात्रा में मैंने देखा था कि इस आयोजन ने प्रकृति को मीठे कम, खट्टे अनुभव ही ज्यादा दिए. वाण से सुतोल तक लगभग 70 किमी के हिमालयी भू-भाग को आस्था के नाम पर लोगों ने जो घाव दिए हैं उसे भरने में कहीं सदियां न लग जाएं. उस बार की राजजात को सरकार ने हिमालय का कुंभ नाम देकर लाखों लोगों का जमावड़ा इस नाजुक हिमालयी क्षेत्र में लगा दिया था. यात्रियों के रहने-खाने की व्यवस्था के नाम पर अरबों रुपयों की जमकर बंदरबांट हुई. आस्था का दिखावा कर अरबों रुपयों को लूटने में किसी को भी गुरेज नहीं था. यात्रा मार्ग के रखरखाव और व्यवस्था के नाम पर चमोली, अल्मोड़ा, बागेश्वर जिलों को भी करोड़ों रुपए आबंटित किये गए. वेदनी, पाथर नचौनियां, बगुआवासा, शिला समुद्र में रहने के लिए टैंटों की व्यवस्था तथा सफाई के लिए करोडों रुपयों का ठेका दिया गया. लेकिन इन जगहों पर प्लास्टिक की थैलियां, प्लास्टिक की बोतलें, डिस्पोजल बर्तन तथा शराब की बोतलों के साथ ही मानव जनित कूड़े के ढेर वर्षों तक बिखरे पड़े रहे. तब वेदनी में पहुंचे तो लगा कि कहीं कुंभ में पहुंच गए हैं. चारों ओर भयानक शोर था. लाउडस्पीकर में उद्घोषक गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे थे. भजनों के नाम पर फूहड़ फिल्मी गानों की पैरोडी का कानफोड़ शोर सुनाई दे रहा था. हल्की बारिश अनवरत जारी थी. रास्ते में मखमली घास की जगह चारों तरफ़ कीचड़ ही कीचड़ पसरा हुआ था. एक जगह लगे लंगर की सम्बी सर्पिल कतार में सैकड़ों लोग अपनी बारी के इंतजार में खड़े थे. जनरेटरों का शोर अलग था. चारों ओर लगे सैकड़ों टैंटों के समुद्र में बेदनी बुग्याल का सौंदर्य डूब गया था. समूचा बुग्याल आस्था के बोझ तले दर्द से कराहता प्रतीत होता था.
बहरहाल्! इस क्षेत्र में ट्रैकिंग व्यवसाइयों ने रूपकुंड ट्रैक के लिए अब दो रास्तों को अपना लिया है. एक दिदीना गांव से और दूसरा वाण गांव के बाद गैरोली पातल में रात्रि विश्राम के बाद वेदनी होते हुए बगुवावासा वाला है.
वेदनी के शीर्ष पर घोड़ालौटन धार पर हम रकसेक उतारकर पसर गए. इस जगह के अजीबो-गरीब नाम के बारे में मालूमात की तो पता चला कि वेदनी में घोड़े-खच्चर चरते-चरते इस धार तक पहुंचने के बाद अपने आप यंत्रवत वापस लौट आते थे, तो इसका नाम ‘घोड़ालौटन धार’ रख दिया गया. इस यात्रा में कई बार मैं गया हूं, लेकिन इतना खुशनुमा मौसम पहली बार मिला. दूर-दूर तल फैले बुग्याल हिमालय की चोटियों से मिलने की होड़ कर रहे थे. कैलुवा विनायक का सर्पिला चढ़ाईदार रास्ता साफ नजर आ रहा था.
(Baguvavasa Roopkund Trek Travelog)
यहां से आगे पाथर नचौनियां तक का पहाड़ से चिपका-बलखाता हुआ तिरछा रास्ता है. पाथर नचौनियां में रास्ते के किनारे वन विभाग ने तीन-चार बसेरे बनाए तो हैं, लेकिन पानी के अभाव में कोइ मजबूरी में ही यहाँ रुकता है. पानी यहां से किलोमीटर भर दूर नीचे है. आगे केलुवा विनायक की खड़ी चढ़ाई के बाद बगुवावासा में ही पानी मिलेगा. यह सूचना मिलने पर हमें भी पानी भरने की बात याद आई. लेकिन पानी काफी नीचे था और वहां जाकर पानी भरकर लाने के नाम पर सभी ने चुप्पी साध ली. इस पर जैक और डॉ. मनीष के साथ दो और लोग पानी लाने के लिए तैयार हो गए. सभी ने अपनी बोतले उन्हें थमा दीं और अपना लंच पैक को टटोलना शुरू कर दिया.
इस बीच युवा यात्रियों की एक टोली भी कमर में लटके ब्लूटूथ के स्पीकरों में गाने बजाते हुए हमारे पास पसर गई. उम्र बीस-पच्चीस के आसपास रही होगी. एक ने अपने पिटारे से हाथ से बनाई जाने वाली सिगरेट का पैकेट निकाला. दूसरे ने शिव बूटी निकाल उसमें डाल दी. एक-एक कर सभी ने कस खींचकर बम भोले के जयकारे लगाए. ऐसा लगा जैसे उनकी नजर में यह आस्था का हिस्सा है. वे शिव के धाम जो जा रहे ठैरे..! और शिव तो चिलम और चिलमचियों से खुश ही होने वाले हुए. कोई बीस मिनट बाद जब वे आगे निकल गए तो सभी ने राहत की सांस ली.
पानी लेने गई टोली वापस आ गई तो हमने आगे कैलुवा विनायक का रास्ता पकड़ लिया. थोड़ा आगे आड़े-तिरछे खड़े पत्थरों का नजारा मिला. इस ट्रैक पर जो पहली बार आए थे उनके लिए यह सब कौतुहल भरा था. उन्हें पुरानी प्रचलित कहानी सुनाकर शांत करने की कोशिश भी की, लेकिन सबके अपने-अपने तर्क थे, जिस पर चुप रहना ही बेहतर समझा.
स्थानीय मान्यता के मुताबिक कन्नौज के राजा जसधवल अपनी गर्भवती पत्नी रानी बलम्पा के साथ यहां तीर्थ यात्रा पर पर निकले थे. दरअसल, वह हिमालय पर मौजूद नंदा देवी मंदिर में माता के दर्शन के लिए जा रहे थे. वहां हर 12 साल पर नंदा देवी के दर्शन की बड़ी महत्ता थी. राजा बहुत जोर-शोर के साथ यात्रा पर निकले थे. लाव-लस्कर के साथ नाचने-गाने वाले भी साथ चल रहे थे. वेदनी के बाद राजा ने यहां पड़ाव डाला. दरबार सजा और राजा नर्तकियों के नाच-गाने में मस्त हो गया. उनकी इस हरकत पर देवी ने क्रोधित होकर सभी को पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया. जो जिस अवस्था में था वह वैसा ही पत्थर में जड़वत हो गया. और अब इस जगह में सारे पत्थर इस कहानी को सच करते प्रतीत होते हैं.
कोहरे ने धीरे से हम सभी को अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया था. अब हमें कैलुवा विनायक की चढ़ाई नापनी थी. 64 साल के दिगम्बर परिहार भी अपने शरीर को अब तक हिमालय के आदी बना चुके थे और सबके साथ कदम में कदम मिलाकर आगे बढ़ रहे थे. आओ-आओ की आवाज सुनाई दी तो ध्यान ऊपर की ओर गया. धुंध के बीच कैलुवा विनायक के बगल की उंची पहाड़ी से प्रदीप हाथों से इशाराकर ढाढस बंधा रहा था कि अब चढ़ाई ज्यादा नहीं है. उसका प्रयास रंग लाया और थके-मांदे सभी जनों ने अपनी हिम्मत बटोरी और चंद पलों में हम कैलुवा विनायक पहुंच गए.
यहां गणेश की काली प्रतिमा है, शायद इसी वजह से इसे केलुवा का नाम दिया गया हो. उंचाई में बुग्याली दर्रे को पार करने वाली जगह को यह विशेष का नाम देकर उसके पीछे ‘विनायक’ जोड़ दिया जाता है. तो..! यह जगह हो गई केलुवा-विनायक.
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शिव के युवा भक्तों ने कुछ पल यहां भी चिलम फूंकी. हम सभी उनसे अलग होना चाह रहे थे लेकिन वे खुद-ब-खुद हमसे चिपके जा रहे थे. रास्ता एक ही था तो उन्हें झेलना हमारी मजबूरी थी.
आधे घंटे बाद हम बगुवावासा के तिरछे समतल और हल्के उतार वाले पथरीले रास्ते पर थे. थोड़ी ही देर बाद रास्ते के दोनों ओर ब्रहमकमल का बगीचा दिखा तो जैसे सारी थकान जाती रही. हजारों ब्रहमकमल हमारे सामने थे और हर कोई उन्हें अपने कैमरे में कैद करने में व्यस्त था.
‘जल्दी करें.. मौसम खराब हो रहा है..’ पंकज ने आवाज देनी शुरू की तो धीरे-धीरे सभी इस हिमालयी बगिया से बाहर निकलकर रास्ते में बढ़ गए. बगुवावासा में करीने से टेंट लग चुके थे. रकसेक टेंट में उतारकर बाहर निकले तो गर्मागर्म चाय के साथ पकौड़े हमारा इंतजार कर रहे थे. रात में भोजन के वक्त प्रदीप ने बताया कि रूपकुंड के लिए सुबह सभी को जल्दी उठना पड़ेगा. करीब पांच बजे सभी तैयार रहें.
बगुवावासा की रात बेतरह ठंडी थी. रात का तापमान माइनस दस डिग्री पहुंच गया. करवटें बदलते आधे जागते आधे सोते हुए कटी रात. चार बजे पंकज ने टेंटों को हिलाना शुरू किया तो रूपकुंड के नाम पर सुबह सभी समय पर तैयार हो ही गए. घुप्प अंधेरे में टार्च की रोशनी में चलना शुरू कर दिया. रास्ते में छोटे-छोटे नाले बर्फ से ऐसे जमे थे जैसे इन्हें कभी सूरज के दर्शन ही न हुए हों और ये बहना भी भूल गए हों.
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(जारी)
केशव भट्ट
पिछली कड़ी : रूपकुंड यात्रा मार्ग पर स्थित मखमली घास वाला आली बुग्याल
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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1 Comments
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केशव भट्ट जी का यह कहना कि व्यवसायिक, धार्मिक कम राजनीतिक ज्यादा आयोजनों ने उत्तराखंड की सुंदरता छिन्न भिन्न की है, से सहमत हूं ।