हिमालय के पार के प्रदेश तिब्बत का प्राचीन नाम था “उत्तर कुरु “जहां कैलास मानसरोवर और गोर्ला मान्धाता तीर्थ थे. दक्षिणी कुरु का वैदिक नाम कुरु जांगल प्रदेश था. कुरु राज्य की राजधानी हस्तिनापुर से गंगातट होते उत्तराखंड में अनेक गिरिद्वारों से हो कर उत्तरकुरु या तिब्बत को जाने वाले कई पथ थे. इनमें थागला, रेठल, सांगचोकला, भगाला, मुलिङ्गला, माणा, नीती, शलशल ला, मंगस्थला, और लिपुलेख पास के रास्ते महत्वपूर्ण थे. इन्हीं से आर्य तिब्बत या चांगथांग पहुँचते थे.
(History of Kailash Mansarovar Yatra)
पश्चिमी तिब्बत के दक्षिण पूर्वी भाग में है कैलास पर्वत जहां विशाला है. जिसे श्वेतगिरि भी कहा गया. यहाँ विराजे भगवान शंकर सपरिवार. इसके समीप हुआ मंदरांचल जहां निवास करते मनिवर यक्ष और यक्षराज कुबेर. हंसों का स्थान है मानसरोवर.
तिब्बती भाषा में कैलास को कांग रिंपोचिन तो मानसरोवर को त्सो-मफोम या त्सो मवाँग कहा गया. साथ में है राक्षस ताल. मानसरोवर ताल शांति, शुद्धता, स्वच्छता व पवित्रता का प्रतीक है तो दूसरी ओर राक्षस ताल जो अशांति का द्योतक. ज्ञान व अज्ञान तथा शांति व अशांति के मध्य विवेक स्वरुप शिव कैलास के स्वरुप में यहाँ विराजे हैं.
कैलास को मेरु पर्वत भी कहा गया. इसके पूरब की ओर वाली पर्वत माला गोर्ला मान्धाता के नाम से जानी जाती है. कथा है कि समुद्र मंथन में मानस सरोवर में कैलास पर्वत प्रकट हुआ और अमृत की कुछ बूंदें मानस-सरोवर में गिर गयी. चार दिशाओं में बहने वाली दुनिया की चार बड़ी नदियों इसी स्थल से प्रकट हुईं. पूर्व दिशा की ओर बही ब्रह्मपुत्र जो तिब्बत में “तमचोक खमबाब” यानि घोड़े के मुँह से निकली कही गई. इसका नाम पक्शु भी रहा. पश्चिम की ओर बही सतलुज जिसे हाथी के मुँह से निकला या लांग्चेन खंबाब कहा गया. उत्तर से प्रवाहित हुई सिंधु जिसे कांगरी करचहाक में सीता कहा गया. अपने तिब्बती नाम सेंगे खंबाब में इसे शेर के मुँह से निसृत कहा गया. दक्षिण दिशा की ओर बही ‘करनाली’. तिब्बती में इसे मापचा खमबाब कहा गया जिसका अर्थ है कि यह नदी मोर के मुंह से निकलती है.
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वाराह पुराण में वर्णन है कि प्राचीन काल से ही कैलास-मानसरोवर के प्रति आर्यों की अप्रतिम श्रद्धा रही और सुमेरु से निकली चार गंगाओं में दक्षिण को बहने वाली गंगा का नाम अलकनंदा था. ये और उसकी सहायकों का तट मार्ग, आर्यों को उनके पुण्य प्रदेश कैलास मानसरोवर के दर्शन कराने में प्रमुख रहा. अपने ग्रन्थ “द जोग्रेफी ऑफ़ पुराणाज” में मुजफ्फर अली यह संकल्पना स्थापित करते हैं कि यदि आर्यों का पितृ देश उत्तरकुरु था और उसकी स्थिति कहीं तिब्बत में थी तो मानना होगा कि उसके अनेक प्रवाह भारत में हिमालय के गिरिद्वारों से ही आए होंगे जिससे इस पुण्य भूमि की ओर अनेक पथ विकसित होने का सिलसिला बना. इनमें उत्तरकुरु या तिब्बत का यात्रा पथ मुख्य रहा.
महाभारत के वनपर्व में उत्तराखंड से कैलास यात्रा के प्रसंग वर्णित हैं. पांडवों की तीर्थ यात्रा गंगा द्वार से आरम्भ हुई (अध्याय 84व 90) जो कनखल, कुब्जाम्रक, सामुद्रक, यमुना प्रभव, भृगुतुङ्ग व विशालाबद्री से होते नंदा अपरनन्दा व हेमकूट होते कौशिकी तट पहुंची. कुलिंदाधिपति सुबाहु का वर्णन है(अध्याय 140) अलकनंदा घाटी है. फिर महानदी व आकाश गंगा का वर्णन है, यह पुण्यागंगा ही है जो अलकनंदा कहलाती है.
डॉ यशवंत सिंह कठोच का मत है कि उत्तराखंड तीर्थयात्रा का मुख्य मार्ग ‘गङ्गाद्वार’ से आरम्भ होता था. महाभारतकालीन गङ्गा व भागीरथी ही वर्तमान अलकनंदा है. यह यात्रापथ गङ्गा तट से होते हुऐ कनखल, श्रीनगर, गंधमादन पर बद्री और श्वेत पर्वत की ओर जाता था. मुख्य मार्ग से एक रास्ता श्रीनगर व देवप्रयाग हो कर यमुनोत्तरी यमुनप्रभव को जाता था तो दूसरा रुद्रप्रयाग या लालसांगा – गोस्थल से “भृगुतुङ्ग ” की ओर निकलता था. गङ्गा ‘बदरीप्रभवा’ कहलाती थी, तब यमुनोत्तरी की यात्रा का महत्व था. गङ्गोत्तरी का वर्णन कहीं नहीं है. इसी तरह भृगुतुङ्ग यात्रा प्रसंग में केदारनाथ का भी उल्लेख नहीं है.
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कैलास दर्शन के लिए तीर्थ यात्री, परिज्रावक, शिवभक्त मुख्यतः चार मार्गों पर चलते थे. पहला गङ्गोत्तरी-नीलङ्ग से 17,490 फुट होकर जेलुखागा-घाट होकर जाता. यह 243 मील लम्बा है. दूसरा बद्रीनाथ से 18,400 फीट की ऊंचाई पर माणा-घाट होते हुए जाता. तीसरा रास्ता जोशीमठ से गुनला या दमजन हो कर नीति घाट का रहा. चौथा अल्मोड़ा से अस्कोट, गर्ब्यांग होते 16,750 फीट ऊँचा चढ़ लिपुलेख घाट होते जाता. यहाँ सीमा पार कर तकलाकोट व तरछेन होते कैलाश जाते हैं. स्वामी प्रणवानन्द इस मार्ग को सबसे सरल और सुरक्षित बताते थे.
कैलास खंड व केदार खंड के पथ मुख्यतः निम्न थे, जिनमें कैलास हेतु लिपु लेख दर्रे का रास्ता सबसे आसान रहा. श्रीनगर कश्मीर से लद्दाख होते 600 कि.मी., शिमला से शिपकी दर्रा व गरटोक होते 715 कि.मी. तो शिपकी व तुलिंग होते 760 कि.मी. की दूरी तय करनी पड़ती है. गंगोत्री से झेलकहांजा दर्रा पार कर 400 कि.मी. चलना पड़ता है तो माणा होते हुए बद्रीनाथ से कैलास 380 कि.मी. दूर है. जोशीमठ से कैलास यात्रा पथ गुला व नीति होते 320 कि.मी., दंजन व नीति होते 260 कि. मी. तो नोली और नीति दर्रे को पार कर 255 कि. मी. पड़ता है. अल्मोड़ा से ऊटाधुरा के रस्ते 340 कि.मी., तो धर्मा होते 365 कि. मी. तो सर्वाधिक प्रचलित लिपु दर्रे से होते कैलास की दूरी 370 कि. मी. रही.
काठगोदाम से गाला तक प्राचीन कैलास-मानसरोवर मार्ग के धार्मिक, पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व को कई इतिहासकारों ने रेखांकित किया. कहा जाता है कि आदि गुरू शंकराचार्य ने भी इसी पथ का अनुसरण किया था. पांडव भी महाभारत संग्राम के बाद इसी प्राचीन पथ से हिमालय को गए. जहां कुत्ते का रूप धर यमराज ने युधिष्ठिर की परीक्षा ली. तब ही उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुले. तिब्बत में कैलास के रस्ते यम द्वार आता है. जैन धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान भूदेव आदिनाथ श्री श्री वृषभ देव जी भी इसी पौराणिक मार्ग से कैलास गए जिनका निर्वाण अष्टपद कैलास पर हुआ.
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भगवान बुद्ध के बाद मुख्य लामाओं मारपा, तिलोप, अतिशा, पांचवे लामा ताशी, पंचेन लामा लोबसांग छोकी, ज्ञलछेन ने कैलास की यात्रा की.
सोलहवीं सदी में अकबर ने एक खोजी दल गंगा नदी के उदगम की खोज करने भेजा जो मानस तक जा पहुंचा, उनके बनाये नक़्शे में ब्रह्मपुत्र व सतलुज नदियों को भी दिखाया गया. 1625-26 में पुर्तगाली फादर रे अंटोनिओ दी अन्द्रोदे माणा दर्रे से होते छाबरांग तक पहुंचे जहाँ उन्होंने चर्च की स्थापना की.
1715 में रोमन पादरी मानसरोवर पहुंचे. 1711 से 1717 में चीनी सम्राट कंग ही ने कुछ मानचित्रकार इस इलाके के नक़्शे बनाने को भेजे तो 1770 में लार्ड वारेन हेस्टिंग ने एक अंग्रेज भोगले के साथ पुरंगीर नामक अनुवादक को यहाँ भेजा.
अठारहवीं सदी के आरम्भ में पशु चिकित्सक विलियम मूर क्राफ्ट व कप्तान हेयरसंग के साथ 1812 में चहु गोम्पा मानसरोवर पहुंचे. 1841 में जनरल जोरावर ने तिब्बत पर आक्रमण किया व पुरांग तकलाकोट तक पहुँच गए. तिब्बतियों ने चीनियों की मदद से जोरावर की हत्या कर दी. उनका शहीद स्मारक तोयो नामक स्थान पर बना है. 1845 में नेपाली नरेश द्वारा मानस खंड पर आक्रमण किया गया. 1846 में कैप्टेन हेनरी स्ट्रैची दारमा से चिहुँ गोम्पा यानि मानसरोवर पहुंचे और लिपुलेख दर्रे से वापस लौटे. 1848 में उनके भाई सर रिचर्ड स्ट्रेची मिलम और ग्यानिमा मंडी के रस्ते यहाँ आए. 1855 में दाबा मिलम होते हुए व तुलिंग माणा दर्रे के रस्ते यहाँ पहुँचने के प्रयास किए गए.
1856 में सर्वे ऑफ़ इंडिया ने कप्तान मांगटोमोरी के साथ ठाकुर नैन सिंह को यहाँ के नक़्शे बनाने रवाना किया. “वेस्टर्न तिब्बत एंड हिमालयन बोर्डेर लैंड” पुस्तक में शेरिंग लिखते हैं कि 1855 से 1860 की अवधि में बरेली के कमिश्नर ने मानसरोवर झील की नाव से परिक्रमा की तो 1864 में रोबर्ट ड्रमंड, हेनरी होड्गसै, लेफ्ट. कर्नल स्मिथ व वेब्बर गुरला मान्धाता के दक्षिण तक गए और स्पष्ट किया कि ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम स्थल यही है. 1865 में कप्तान स्मिथ और हैरिसन ने लिपुलेख दर्रे से दार्चिन या कैलास की यात्रा की. 1867 में सर्वे ऑफ़ इंडिया ने पुनः कप्तान मांगटोमोरिया व 1879 से 1882 की अवधि में जोहरी भूटिया व राई बहादुर को यहाँ के नक़्शे तैयार करने भेजा जो प्रकाशित भी हुए.
उन्नीसवीं सदी की शुरुवात में ही 1903 में तिब्बत से होते मानसरोवर तक आने वाले जापान के एकइ कावोगुची थे. लिपु दर्रा पार कर 1905 में अल्मोड़ा के डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स शेर्रिंग व डॉ. लोंगस्टोफ़ यहाँ आए और ऊंटाधूरा दर्रे से वापस लौटे. लिपुलेख होते हुए ही कैलास मानसरोवर की परिक्रमा करने वाले मुंबई के हंसा स्वामी 1908 में यहाँ आए और अपने संस्मरण मराठी में लिखे जिसका अँग्रेजी अनुवाद, ‘होली माउंटेन्स’ के नाम से छपा. 1912 में साधू मौर्यपंखी आए. 1915 में स्वामी सत्येंद्र परिव्राजक मिलम से ऊंटाधूरा होते कैलास आए और लिपुलेख दर्रे से वापस आए. उन्होंने कैलास यात्रा पर हिंदी में पुस्तक लिखी. 1924 में संत जनानन्द माणा दर्रे से शेर की खाल पहन कैलास आए और हौली दर्रे से वापस लौटे. इसी वर्ष लाहौर के राय बहादुर लिपुपास से कैलास गए और पुलिग व माणा होते वापस आए. फिर 1926 में हग रुटलेगा व कैप्टेन विल्सन ने लिपुलेख के रास्ते जा कैलास की परिक्रमा की.
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बनारस के श्री स्वामी जयेन्द्र पूरजी मंडलेश्वर माणा के रास्ते पचीस भक्तों के साथ कैलास मानसरोवर पहुंचे व लिपुलेख होते वापस आये. उनके एक भक्त ने “श्री कैलास प्रदीपिका” नामक पुस्तक लिखी जिसमें मानसरोवर में उगने वाले नीलकमल का वर्णन है. 1931 से 1938 की अवधि में मैसूर नरेश वाडियार ने कैलास मानसरोवर की परिक्रमा की जिसमें अस्कोट के पाल राजवंश ने व्यवस्था प्रबंध किया.
इसी बीच श्यामा प्रसाद मुखर्जी के भाई उमा प्रसाद मुखर्जी ने कैलास पर आधे घंटे का वृतचित्र बनाया तो 1937 में श्री नारायण स्वामी यहाँ अपनी भक्त मंडली के साथ आए जिसमें एक गुजराती महिला व कुछ स्थानीय भोटिया महिलाएं भी शामिल थीं. 1938 में आनंदमाई यहाँ आईं.
कैलास की सौ बार और मानसरोवर की बारह बार प्रदक्षिणा करने वाले कर्नाटक के श्री कैलास सारन थे जो 1943 में यहाँ आए. 1944 में मद्रास से पहली बार दल ले कर आने वाले श्री टी.एन. कृष्णास्वामी थे. कैलास के पक्षियों पर सालिम अली ने 1946 में विस्तार से लिखा जो 1945 में यहाँ शोधरत रहे.
1948 में अहमादेव के नाम से जाने गए ब्रम्हचारी भास्कर कैलास की परिक्रमा कर आए और फिर उन्ही ने डीडीहाट में वैकुण्ठ धाम नाम से आश्रम खोला. 8 अगस्त 1948 को गाँधी जी के अनुयायी सुरेन्द्र ने मानसरोवर में उनकी भस्म प्रवाहित की. 1949 से 1961 के बीच अस्कोट के पाल राजा की सहायता से यात्रा होती रही जिसमें तिब्बत में पालन नामक स्थान में तीर्थ यात्रियों के कागजातों का निरीक्षण होता था.
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फिर चीन के द्वारा भारत पर आक्रमण के कारण 1962 से 1981 की अवधि में कैलास मानसरोवर यात्रा प्रतिबंधित रही. अस्कोट के पाल राजाओं में राजा कुंवर भानुराज पाल के संग्रह के दुर्लभ दस्तावेज कैलास मानसरोवर यात्राओं के प्रामाणिक सन्दर्भ उपलब्ध कराती है. जिनके अनुसार भारत चीन युद्ध से पहले यह यात्रा ‘कैलास मानसरोवर यात्रा समिति ‘ के द्वारा संचालित होती थी जिसके अनुसार 1938 में तय पथ के अनुरूप यह यात्रा अल्मोड़ा, बाड़ेछिना, पनुआनौला, धौलछीना, सेराघाट, बेड़ीनाग, थल, डीडीहाट, अस्कोट, जौलजीबी, बलुआकोट, धारचूला, तपोवन, सोसा, जिप्ती, मालपा, गर्ब्यांग, कालापानी,नाबीढांग होते हुए लिपुलेख दर्रे से तिब्बत पहुँचती थी. वापसी में बेड़ीनाग तक इसी रास्ते होते सानी उडियार के बाद बागेश्वर, सोमेश्वर पहुँचती थी. आगे मोटर मार्ग से अल्मोड़ा व काठगोदाम, हल्द्वानी आया जाता था 1982 के उपरांत भारत सरकार के विदेश मंत्रालय, उत्तराखंड सरकार व भारत तिब्बत सीमा पुलिस के तत्वावधान से यात्रा पुनः संचालित हुई.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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