कुमाऊँ की प्रचलित गौरा-महेश्वर की गाथा में शिव-पार्वती के विवाह में पड़ने वाली बाधाओं से सम्बन्धित आख्यान तथा जनश्रुतियां मिलती हैं. इसमें भारतीय संस्कृति के वैवाहिक आदर्श का चित्रण है.
(Gaura-Maheshwar in Kumaon)
इस गाथा में गौरा और महेश्वर को एक साधारण मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है. जबकि लोकजीवन में गौरा और महेश्वर भगवान के रूप में पूजे जाते हैं. गाथा में गौरा, हिमालय व मैनावती की पुत्री है जो गाय चराने नदी किनारे आती है, वहीं उसकी भेंट महेश्वर से होती है.
नदि पार मैंसर गुसैं बाकरा चराला. नदि का किनार लौलि गौवा चराली.
महेश्वर, गौरा के सामने शादी का प्रस्ताव रखते हैं लेकिन गौरा उन्हें माता-पिता के पास भेजती है. अनेक विनतियों के बाद मेनावती महेश्वर से गौरा का विवाह करने को तैयार हो जाती है और दोनों का विवाह खुशी-खुशी हो जाता है. एक दिन गौरा, महेश्वर से रूठकर अकेली आधी रात अपने मायके कष्टों को सहन करती हुई पहुँच जाती है, लेकिन दूसरे दिन ही महेश्वर गौरा के पीछे-पीछे उसके मायके पहुंच जाते हैं और गौरा को मनाकर अपने घर ले जाते हैं.
गाथा में गौरा एक सामान्य अभावग्रस्त पीड़ित स्त्री के रूप में प्रस्तुत की गई है. वह बेटी, माँ, बहू सभी रूपों में दिखाई देती है. महेश्वर गाथा के नायक हैं. गाथा में महेश्वर को एक साधारण मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है. वे गौरा से विवाह करने ले लिये अनेक रूप धारण करके माता-पिता के पास उन्हें माँगने के लिए जाते हैं और गौरा के रूठने पर अपना अहंकार त्याग कर मानते हैं.
(Gaura-Maheshwar in Kumaon)
हिमालय और मैनावती गौरा के माता-पिता हैं जो अपनी पुत्री के विवाह को लेकर चिन्तित हैं और महेश्वर का रूप देखकर विवाह के लिए तैयार नहीं होते हैं. लेकिन अपनी बेटी की खुशी के लिए मान जाते हैं. कुमाउँनी जन-जीवन के साथ लोकगाथाओं का बहुत गहरा सम्बन्ध रहा है.
गौरा-महेश्वर की गाथा में गौरा प्रमुख स्त्री पात्र के रूप में चित्रित की गयी है. जो इस प्रकार है :
सामान्य स्त्री
गौरा के रूप में गाथाकार ने समाज की उस स्त्री के चित्र को प्रतिबिम्बित किया है जो सामाजिक प्रताड़नाओं, यातनाओं एवं अत्याचारों को सह रही है. इसप्रकार गौरा एक सामान्य अभावग्रस्त पीड़ित स्त्री के रूप में दिखाई देती है. गौरा नदी के किनारे गाय चरा रही है. इस प्रकार भयानक हिम-काँटों की साधन विहीन भूमि में घूमती हुई, गौरा एक अभाव पीड़ित बालिका के रूप में जनमानस में उतरी है.
आज्ञाकारिणी पुत्री
गौरा एक आदर्श बेटी है जब महेश्वर-गौरा के सामने विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तब गौरा अपने माता-पिता से पूछने के लिए कहती हैं गौरा कहती है कि माँ-पिता की आज्ञा होगी तो ही विवाह करूँगी
तुमि जति बालि कन्या हमर आलि कि? बाबाज्यू जै देला कित किलै कि नी ऊँलो
रत्ते आये मैंसर गुसैं अलख जगाए.
सास द्वारा प्रताड़ित
गौरा अपने ससुराल में सास के ताने, उपालम्भ, उलाहना एवं अत्याचार से सुनती एवं सहन करती है. सास गौरा से कहती है कि अगर गोबर का दीपक नहीं जला सकती है तो अपने घर से घी का दीपक ले आ.
गुबर दियड़ी गूंतो अधार दीयो रे जगाओ. गुबर दियड़ी गूंतो अधार मेरि बेर दीयो न बल
ततना नांक कि ततना मुख की मैत है दियड़ो ली औ.
मातृत्व से वंचित
गौरा एक माँ होते हुए भी मातृत्व से वंचित हो जाती है. उसके पुत्र की उसकी अनुपस्थिति में हत्या कर दी जाती है. जब गौरा पितृदेश जाती है तब सास नन्हे शिशु को गौरा को नहीं ले जाने देती है और शिशु की हत्या तक करने की धमकी देती है. अतः गाथा में छोटे से शिशु की हत्या की मर्मन्तक व्यथा इसमें मिलती है –
नंद गुस्यैणि सादी आयूँ बाला दी आयूँ . सौतिया ढ्वाला ले मारि देछ बालो मारि देछ.
अभावग्रस्त कन्या
गौरा अनेक अभावों को झेलती है. जब गौरा सास द्वारा प्रताड़ित होकर अपने एक इकलौते पुत्र को छोड़ अपने मायके आती है तब भी गौरा को गरीबी का सामना करना पड़ता है. माँ कहती है कि बेटी तू इस भूखे भादों के महीने में आयी है, अब तू क्या खायेगी? जेठ के महीने में आती तो उमियाँ (हरे गेहूँओं की आग में भूनी हुई बाले खाती) और अगर कातिक में आती सिरौली (धान भूनकर कूटा गया चावल) चबाती. इस महीने में आयी है अब तू क्या खायेगी और क्या ले जाएगी?
ए भुख भदौ त गँवरा मैत ऐछ, जेठ ऊँनी त उमियाँ बुकूंनि
कातिक ऊँनी न सिरौली बुकूंनि,
कि खे जाँछि तू किली बेर जाँछि
ए मुख भदौ त गँवरा मैत ऐंछ.
(Gaura-Maheshwar in Kumaon)
आदर्श पत्नी
स्त्री के जीवन में पत्नी का स्थान महत्वपूर्ण होता है जिससे पति-पत्नी दाम्पत्य जीवन का निर्वाह करते हैं, जिसमें पारम्परिक पति-परायण रूप में साथ-साथ स्त्री स्वातंत्र्य की भावना भी समाहित होती है. जिसमें उसका स्वयं का अस्तित्व निहित होता है. गौरा एक आदर्श पत्नी है. जब गौरा मायके चली जाती है तब महेश्वर गौरा को लेने पहुंचते हैं. गौरा चाहती तो सास द्वारा परेशान होने के कारण महेश्वर के साथ चलने से इन्कार कर सकती थी लेकिन वह ऐसा नहीं करती है और अपने पति के साथ ससुराल चली जाती है.
परम्परागत स्त्री
गौरा एक परम्परागत स्त्री है जो लोक जीवन में व्याप्त स्त्री की अभावग्रस्त स्थिति, समस्याओं को सहना, सास के उपालम्भ, शिशु हत्या तथा पितृदेश में भी उपेक्षा के भाव आदि. गौरा के माध्यम से या नन्दा सुनन्दा के माध्यम से भी स्त्री की पीड़ा कही गयी है.
इस प्रकार गाथा में चाहे सामाजिक दुःख हो, अपने व्यक्तिगत दुःख हो, चाहे पति का हो, सास का हो, परिवार का हो या फिर सन्तान का हो स्त्री के द्वारा गाथाओं में ये सब प्रस्तुत किया गया है. गाथा में गौरा द्वारा प्रत्येक स्त्री की समाज में स्थिति दिखाने की कोशिश की गयी है.
गौरा-महेश्वर गाथा लोकगाथाओं के धार्मिक स्वरूप के अन्तर्गत ही मानी जाती है. इसमें गौरा-महेश्वर अलौकिक चरित्र न होकर कुमाऊँ के सामान्य स्त्री और पुरुष के रूप में चित्रित है. सम्पूर्ण कथानक में दोनों चरित्रों के माध्यम से कुमाऊँ के लोक जीवन की विशद और व्यापक झाँकी लोक मानस द्वारा प्रतिष्ठित हुई है.
(Gaura-Maheshwar in Kumaon)
कुमाउँनी लोकगाथाओं में स्त्री विविध रूपों में विद्यमान है जिनका कुमाउँनी जन-जीवन के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध रहा है. चाहे वह गाथाओं में प्रमुख स्त्री चरित्र के रूप में हो या फिर गौण स्त्री चरित्र में हमारे सामने आती है. माँ, पत्नी, प्रेयसी, सामान्य स्त्री तथा बेटी के रूप स्त्री विद्यमान है. गाथाओं में स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखने, जुआ खेलना, पुरुष द्वारा स्त्रियों के प्रति मोहित होना वर्णित है. आज भी समाज में ऐसा देखा जा रहा है.
दिन-प्रतिदिन औरत हिंसा की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं, कुमाउँनी लोकगाथाओं में स्त्री गृह जीवन में त्याग, ममता और कर्तव्य का एक महान उदाहरण है. स्त्री वेदना और पीड़ा दुःख और विषाद, विलास विराग के मध्य वह एक समान रहती है. स्त्री सहिष्णुता और धीरता की मूर्त रूप है. कन्या, बहू, पत्नी आदि रूपों में स्त्री सामाजिक कुरीतियों अत्याचारों परम्पराओं आदि का शिकार रही है.
(Gaura-Maheshwar in Kumaon)
–डॉ. निशा आर्या
डॉ. निशा आर्या का यह लेख श्री नन्दा स्मारिका 2011 से साभार लिया गया है.
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