उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद में मछखाली और सोमश्वर के बीच लगभग सात हजार फीट ऊँची पर्वतश्रेणी एड़द्यो कहलाती है. इस पर्वत पर सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित जंगल, वन विभाग के अभिलेखों में, खजूरी बीट के नाम से अभिलिखित है. यह मनाण के समीप बमणिगाड़ से आरंभ होकर एड़द्यो के सर्वोच्च शिखर तक और पश्चिम में कैड़ा की रौ तक फैली ढलानों में लगभग 20 वर्ग कि.मी. में विस्तीर्ण चीड़, बाँज, बुराँस और देवदार के वन का राजकीय नाम है. Airadyo Memories by Tara Chandra Tripathi
बीट या वन का एक छोटा उपखंड, जिसकी देखरेख के लिए एक पतरौल नियुक्त होता है. पतरौल जो अंगे्र्रजी शासन के दौरान राजकीय अभिलेखों में फारेस्टगार्ड और स्वाधीनता के बाद वनरक्षक कहा जाने लगा. तब भी वह जनसामान्य के लिए पतरौल ज्यू और अधपढ़े ग्रामीणों के लिए फौस्काट सैप था, तो कुछ के लिए केवल गार्ड सैप. उसका काम था पेड़ों की टहनियों और पत्तों को काट कर ले जाने वाले लोगों को रोकना, उनकी दरातियाँ छीन कर चालान करना. चूँकि घासपात लाने का सारा दायित्व महिलाओं का है इसलिए पतरौल ज्यू का डर ग्रामीण महिलाओं के पीछे छाया की तरह चलता था. यह डर उनकी पिछली शताब्दी के आरंभिक दिनों की उस साली को भी था जिसके घर में नौ सेर दूध देनेवाली भैंस थी, पालने में उसका बच्चा रो रहा था. उग्र स्वभाव की सास उसके लिए एक बड़ी विपदा थी. आज भी जब लोक कवि का ध्यान इन सब परिस्थितियों से हट कर केवल रोमांस तक ही सीमित रह गया है, लोकगीतों के पतरौल ज्यू अभी भी जीजा हैं और घस्यारी साली ही है. फिर साली भी तो ऐसीवैसी नहीं है मोतिमा है. मोतिमा या मोतियों की तरह दंतपंक्ति वाली साली. वरदन्त की पंगति कुन्दकली अधराधर पल्लव डोलन की … लेकिन पतरौल ज्यू का डर अब भी यथावत है.
एड़द्यो में बाँज और चीड़ का घना जंगल था. चीड़ के पेड़ अधिकतर ऐंठन वाले थे अतः वे दार या भवन निर्माण के काम के नहीं थे. उनसे अधिक ऊँचाई पर लगभग तीनचार सौ मीटर तक बाँज का घना जंगल था. कहींकहीं पर तो यह वन इतना सघन था कि उसके लिए ’घना’ शब्द भी अपर्याप्त लगता था. केवल कुमाऊनी का ’भासि’ शब्द ही उसके लिए उपयुक्त लगता है. भासि या अपरिभाषेय.
इस घने वन की तलहटी में गैलेख, गोलछीना, बगड्वालगाँव जैसे दो चार छोटेछोटे गाँव बसे थे. गाँवों से ऊपर चैरस ढलानों पर आसपास के गाँवों के लोग गर्मियों में अपने पशुओं को चराने आ जाते थे. पशु आतेे तोे उनके साथ ही उनके रक्षक देवता ऐड़ी को भी यहाँ आना ही था. लोगों ने एक स्थान पर उसका छोटा सा मंदिर बना दिया. मंदिर क्या बना, इस पर्वत की पहचान हो गया. ऐड़ी देवता या स्थानीय बोली में एड़द्यो. Airadyo Memories by Tara Chandra Tripathi
ऐड़ी के मंदिर से लगभग एक सौ मीटर नीचे महादेवगिरि बाबा का आश्रम था. आज के पंचतारा आश्रमों की तरह नहीं. घने वन के बीच में एक मंदिर और दो चार कमरे. एक कमरे में महादेविगिरि बाबा का आसन और बाकी कमरों में मंदिर का पुजारी और वटुक.
वटुक बनाने का बाबा जी को बड़ा चाव था. हर साल वे कई किशोरों और युवाओं को पीले और कुछ को गेरुए वस्त्र पहना कर वटुक बनाते थे. उनमें से अधिकतर साल गुजरतेगुजरते चोला छोड कर, या तो युवा भक्तिनों के बालजाल में उलझ जाते या गाँवों में भैंस चराने लगते. बाबाजी लघुसिद्धान्त कौमुदी आरंभ करते ’ओम नमो सिद्धम्’ साल बीततेबीतते बहुत से चेले उसके साथ नयी अद्र्धाली जोड़ देते’’बाप पढ़े न हम’. इस विसंगति के बावजूद बाबा जी ने हार नहीं मानी. जातेजाते हल्द्वानी में संस्कृत पाठशाला खोल ही गये. जो आज महाविद्यालय का रूप ले चुकी है.
महादेव गिरि के आश्रम से लगभग तीन सौ मीटर की ऊँचाई पर नानतिन बाबा ने देवी का एक मंदिर स्थापित किया था. महादेवगिरि जब भी यहाँ आते कोई न कोई धार्मिक अनुष्ठान अवश्य होता था, पर नानतिन बाबा के आने पर ऐसा कोई कार्यक्रम हुआ हो, मुझे याद नहीं है. लोगों के अनुसार वे जड़ीबूटी के अच्छे जानकार थे और एक हद तक औघड़ भी. प्रायः बच्चों की सी हरकत कर बैठने के कारण लोग उन्हें नानतिन बाबा कहने लगे थे.
मैं लगभग पाँच माह तक पिता जी के साथ ऐड़द्यो रहा. दादी रौलियों से लिंगुड़े तोड़ लातीं. ग्रामीण आलू दे जाते. कौणी, मसूर की दाल, फाफड़, दूध और घी की कमी नहीं थी. आसपास चाय के बहुत से बगीचे थे. दादी चाय के पत्ते तोड़ लाती. उन्हें मसलती और सुखाने रख देती. Airadyo Memories by Tara Chandra Tripathi
पानी के लिए आवास से लगभग दो सौ मीटर नीचे एक रौली में जाना पड़ता था. वहाँ दिन में भी झुटपुटा सा रहता था. ऐसी अनेक रौलियाँ जन्तुओं और मानवों की साँझी जीवनधारा थीं. इन रौलियों में प्रायः डर भी लगता था. सुनते थे कि खबीस ऐसी ही रौलियों में रहता है और आदमी को तोड़ कर खा जाता है. पर यह खतरा तो ’भालु, बाघ वृक केहरि नागा’ से अधिक था. सबसे अधिक भालू से. क्या पता किस कोने से आ कर ’रूप तेरा मस्ताना’ के अन्दाज में पुचकारने लगे.
आते-जाते घने जंगल के बीच मार्ग में प्रायः बाघ दिखायी देते. पिता जी का निर्देश था कि जैसे ही बाघ दिखायी दे, चुपचाप खड़े हो जाना. वह कुछ नहीं करेगा. ऐसी स्थिति में और विकल्प भी क्या हो सकता था. वन में उनके लिए भोजन की कमी नहीं थी, इसलिए जब भी सामना होता, एक नजर हमारी ओर डाल, निद्र्वन्द्व भाव से चल देते. पहाड़ी ढलानों पर काँकड़ खेलते रहते. चट्टानों पर घुरड़ अठखेली करते, दादी पानी भर रही होती और मैं ग्रामीण बच्चों के साथ खुबानी की गुठलियों के सहारे अष्टाचंगा पौ और बाघबकरी खेल रहा होता. Airadyo Memories by Tara Chandra Tripathi
गोलछीना से लेकर सोमेश्वर तक लगभग 20 कि.मी. लंबे पैदल मार्ग पर हर चैराहे और गहरे मोड़ पर कठपतिया के ढेर दिखाई देते. कठपतिया या वह देवी जो केवल काठ और पात का भोग लगाने मात्र से ही वन के बीहड़ रास्तों पर पथिक की रक्षा करती है. जब भी पिताजी के साथ इन वनों से गुजरता, पिता जी एक मंत्र पढ़ते हुए छोटी सी सूखी टहनी और पत्थर का टुकड़ा उठा कर इस ढेर पर डाल देते. मंत्र, गलत या सही, मुझेे भी याद हो गया था. अकलेपन की धुकधुकी के बीच आखें बन्द कर पढ़ जाता-
शाकल्यस्थिता देवि! शाकल्येन परिपूजिता!
काष्ठ पाषाण भक्षन्ति मार्ग रक्षां करोतु मे.
एड़द्यो में रहते हुए मैंने प्राकृतिक परिवेश को उजाड़ कर रख देने वाली राजकीय गतिविधियों को देखा. एक ओर पतरौल, अपने पशुओं के चारे के लिए वन में आने वाली आसपास की ग्रामीण महिलाओं के आधेअधूरे घास के गठ्ठरों को ही नहीं, उनकी दरातियों को भी छीन लेते थे, तो दूसरी ओर वन विभाग सदियों से नदियों को सदानीरा बनाये रखने वाले बाँज के हजारों वृक्षों का छपान कर उन्हें कोयला बनाने के लिए नीलाम कर रहा था. हरेभरे मोटेताजे युवा और अधेड़ वृक्षों को टुकडे़़टुकड़े कर कोयला बनाने के लिए दमघोट भट्टियों में दफना दिया जाता. जंगल में कदमकदम पर गीली उसासें भरती भट्टियों से अधमरे पेड़ों का अन्तर्दाह वातावरण को बोझिल बनाता रहता.
यह वन अधिनियम था जिसके कारण ग्रामीण अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों से घास और लकड़ी भी नहीं ले सकते थे पर वन विभाग बेरहमी से वनों का विनाश करता था. आज की तरह जागरूक न होने के बावजूद उन दिनों हरेभरे पेड़ों को कटते देख कर जो पीड़ा होती थी उसे व्यक्त करने के लिए कुमाऊनी के ‘कइकइ’ के अलावा मेरे पास कोई शब्द नहीं है. ’बुरा’ और ’पीड़ा’ से तो उसे व्यक्त करना संभव ही नहीं है. धराशायी होते पेड़ों के साथ पक्षियों के घोंसले दूर छिटक जाते. अपने शावकों पर आये संकट को देख कर पक्षी चिचियाते रहते और भूमि पर पेड़ों की शाखाप्रशाखाओं के साथ यत्रतत्र मरे हुए चूजे और फूटे हुए अंडे बिखरे हुए दिखायी देते. Airadyo Memories by Tara Chandra Tripathi
तब हम इतने आधुनिक नहीं थे कि हर चीज को उपयोग और धन की तुला पर तोलने लगें. हमारे लिए वृक्ष वनदेवता थे. वे भी हमारी तरह सोतेजागते थे. उनकी भी संवेदनाएँ थीं. यदि मैं, कभी शाम होने के बाद किसी फूल को हाथ भी लगाता, दादी रुष्ट हो जाती थी. उसके विचार से शाम होते ही पौधे सोने लगते हैं. उनकी नींद तोड़ना महापातक है. आरंभ हो जाता पुराणों का हयग्रीव आख्यान. असुरों के साथ सोलह हजार वर्ष तक युद्ध करने के कारण बुरी तरह थक कर गहरी निद्रा में निलीन विष्णु को देवताओं द्वारा उनके धनुष की टंकार से जगाने का प्रयास. कीडे़ का घनुष की प्रत्यंचा को काटना, उसके छिटकने से विष्णु का सिरोच्छेद और उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए उनकी गर्दन पर घोड़े का सिर लगाया जाना आदिआदि.
मैं आज की बात नहीं कह रहा हूँ उस युग की बात कर रहा हूँ, जिस युग में शाम होने के बाद दूब तोड़ना निषिद्ध था. पेड़़ काटने से पहले वन देवता के सामने अपनी विवशता प्रकट करने की परंपरा थी. देवताओं का डर था. हर वस्तु जीवित मानी जाती थी. प्रत्येक वृक्ष केवल वृक्ष़ नहीं था किसी न किसी देवता का निवास था.
आज की तरह घर-घर रावण घर-घर लंका वाला युग नहीं था. लोग अपनी जरूरत भर की चीजें ही प्रकृति से लेते थे. बेच डालो या समेट लो वाली संस्कृति का प्रकोप भी नहीं था. अंधी कमाई भी नहीं थी. लोग पितरों की थात को महत्व देते थेे. उसे संवर्द्धित करना अपना दायित्व समझते थे. आज की तरह नहीं कि सारे गाँव के हितों की उपेक्षा कर अपने पितरों की थात को, सार्वजनिक जीवन के लिए अपरिहार्य जल, जंगल और जमीन को बेचने में कोई कसर न छोड़ रहे हों. घर को घर के चिराग ही आग लगा रहे हों. Airadyo Memories by Tara Chandra Tripathi
मैं देखता था कि वनाधिकारी और उनके अतिथि आते. आखेट करते. निशाने साधते. धराशायी होते कांकड़ और घुरड़ जैसे मरते हुए जूलियस सीजर की तरह ’अरे ब्रूटस तुम भी’ कहते हुए अंतिम सांस लेते. एक बार तो एक वन रक्षक ने अपनी निशाने बाजी का कमाल दिखाने के लिए एक ही गोली से सौ मीटर दूर परस्पर सिर भिड़ाए दो काँकड़ों को मार गिराया था. वनाधिकारी महोदय ने इस निशानेबाजी के लिए उसे पुरस्कृत किया था. उनके अतिथियों की वाहवाह ने उसका सीना चैड़ा कर दिया था. ऐसा लग रहा था कि यदि उसे एक बार यह कमाल और दिखाने के लिए कहा जाता तो वह दस पाँच घुरड़ों को और मार लाता. सच पूछें तो इस वन में मनुष्य के अलावा कोई भी प्राणी सुरक्षित नहीं था.
कितनी देर कर दी हम लोगों ने वन और वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम बनाने में. अभी भी वनों के भीतर हमारी घुसपैठ कहाँ कम हुई है. हम वनों में घुस रहे हैं और वनचर हमारे घरों में. जब कुमाऊँ में एक ही दिन में गाँव घरों से तीनतीन बाघ पकड़े जा रहे हों तो इस चरम विसंगति को समझा जा सकता है. फिर भी इस अधिनियम से कुछ तो थमा है.
ऐड़द्यो मैं मैंने जन सामान्य के देवत्व को देखा है. मुझे पीलिया ने घेर लिया था. दो मील दूर बगड्वाल गाँव की एक बूढ़ी मुस्लिम महिला इस रोग का स्थानीय उपचार जानती थी. वह रोज दो मील दूर अपने गाँव से आती. मेरे गले में कंटकारि के पीले फलों की ताजी माला पहनाती. काँसे के कटोरे में सरसों के तेल में कुछ पानी की बूँदे डाल कर उसे मेरे सिर पर रखती और देर तक कुछ बुदबुदाती हुई एक पत्ते से तेल को घुमाती रहती. जब तेल गाढ़ा और पीला हो जाता, उसे मुझे दिखाती और कहती, पीलिया, बस थोड़ा सा ही रह गया है. संभवतः यह तो मात्र मनौवैज्ञानिक उपाय था. असली उपचार तो आहार में परिवर्तन से हो रहा था. चिकनी चीजें बन्द. भट का जौला और मूली और उसके पत्तों का भोजन. एक माह में पूरी तरह ठीक हो गया. वृद्धा एक माह तक अपना सारा कामधाम छोड़ कर लगातार आती रही थी, लेकिन जब उसे पारिश्रमिक देने का प्रयास किया तो उसने नहीं लिया. कहा, जो अल्लाह का है, उसकी कीमत मैं कैसे ले सकती हूँ? Airadyo Memories by Tara Chandra Tripathi
एड़द्यो मेरा बचपन में देख हुआ एक स्वप्न भी है. यहीं मैंने ’लोक’ को समझा था. वह भी समीपस्थ गैलेख और बगड्वाल गाँव के निवासियों से. इन गाँवों में हिन्दू भी रहते थे, मुसलमान भी. पर जब तक नाम न पुकारा जाय यह पता ही नहीं चलता था कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान? इन लोगों का कभी इस ओर ध्यान ही नही गया था कि जिसे वे भगवान या अल्लाह कहते हैं उसके लिए भी कोई घर होना चाहिए. परकोटा होना चाहिए, हथियार बन्द पहरेदार होने चाहिए. थान अवश्य थे. पर उन थानों में शिव, विष्णु, दुर्गा और गणेश जैसे महा देवताओं की अपेक्षा उनके साँझे इष्ट देवताओं का निवास था. ऐसे देवता जिन तक वे सहजता से पहुँच कर अपने दुखसुख बाँट सकते थे. ग्वेल और गंगानाथ थे तो पीर और सिद्ध बाबा भी.
खजूरी बीट (1953 – 54)
-ताराचन्द्र त्रिपाठी
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27 जनवरी 1940 को जिला नैनीताल के ग्राम मझेड़ा में जन्मे तारा चन्द्र त्रिपाठी पेशे से अध्यापक रहे. उत्तराखंड के इतिहास और सामाजिक विशेषताओं के मर्मज्ञ त्रिपाठी जी की अनेक रचनाएं प्रकाशित हैं जिनमें प्रमुख हैं – उत्तराखंड का ऐतिहासिक भूगोल, मध्य हिमालय: भाषा लोक और स्थान-नाम, कोहरे के आर पार, टोक्यो की छत से, महाद्वीपों के आर पार, और आधी रात के सोर. फ़िलहाल हल्द्वानी में रहते हैं और उनकी इस आयु में भी उनकी रचनात्मक ऊर्जा और सक्रियता युवाओं की ईर्ष्या का विषय बन सकती है.
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