औपनिवेशिक मूल्यों की तलछट पर बिछा एक लाचार समाज
भारत को आज़ादी तो 1947 में मिल चुकी थी; मगर आज लगता है, आम आदमी तक पहुँचने में उसे पूरे सात दशक लग गए – 1950 से लेकर 2020 तक. दो-चार साल इधर या उधर. हम एक स्वतंत्र गणराज्य थे जिसे अपना भाग्य खुद लिखना था. हमारा अपना संविधान बना जिसके आधार पर पूरा तंत्र विकसित हुआ. हमारे बीच से ही हाकिम बने और हमारी अपनी न्याय-व्यवस्था और कार्य-पालिका बनी. यह उम्मीद की गई थी कि हम लोग एक-दूसरे के सुख-दुखों को समझते हैं, इसलिए आने वाला समाज हमारा अपना होगा. (Gahan Hai Yah Andhkara Review)
मगर इन सत्तर वर्षों में उन्हीं विडम्बनाओं की भित्ति पर हमारा देश रचा गया जिनके खिलाफ़ हमारे नेता संघर्ष कर रहे थे. नेता और आम-जन दो प्रतिस्पर्धी शक्तियों के रूप में उभरे जिनके बीच इस दौरान दो अनिर्णीत युद्ध लड़े गए. पहला, हिंदुस्तान के आम आदमी का नेताओं के वर्चस्व से मुक्ति का युद्ध और दूसरा नेताओं का आम आदमी के वर्चस्व से मुक्ति का युद्ध. इसमें कौन जीता और कौन हारा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है, मगर उसकी आहट नयी सदी के तीसरे दशक के प्रवेश द्वार पर कदम रखते ही साफ सुनाई देने लगी है. सारे नायक ध्वस्त किये जा रहे हैं, उनकी मूर्तियाँ खंडित हो रही हैं और खलनायकों को सिंहासन सौंपा जा रहा है. हालाँकि यह कहना भी गलत होगा कि सिंहासनारूढ़ लोग खलनायक ही हैं, उनके इस तर्क को नज़र-अंदाज कर पाना भी मुश्किल है कि जिन्हें हम आज तक नायक समझ रहे थे, उनमें से कई लोग खलनायक थे, जिनकी शिनाख्त समय-समय पर होती रही है. ऐसा नहीं कि उन अंतर्विरोधों की ओर इन दोनों में से किसी पक्ष का ध्यान नहीं गया था… निश्चय ही गया था, मगर जिन औजारों को लेकर आजाद भारत का युद्ध लड़ा जा रहा था, वे औजार इन दोनों में से किसी के द्वारा नहीं बनाये गए थे. ये दोनों पक्ष उन्हीं तलवारों से एक दूसरे को काट रहे थे, जिनकी धार गुलाम भारत में सान पर चढ़ाई गई थी; जो अब भोंथरे हो चुके थे, फिर भी जिन्दा थे.
दरअसल सैंतालीस की आज़ादी नेताओं के अपने मूल्यों पर रची गई थी, इसलिए इस बात का अहसास तो होता रहा था कि हम आज़ाद हो गए हैं, मगर आम आदमी लगातार इस बात की बेचैनी महसूस करता रहा कि नेताओं के वर्चस्व की लड़ाई में उसके अपने मूल्य कहीं गायब कर दिए गए और उसे एकदम अकेला छोड़ दिया गया. उसके अस्तित्व को, भाषा को, संस्कारों को उसकी पहचान से जुड़े प्रत्येक प्रतीक को एकदम अकेला. ऐसे में इस बेचैनी को एक दिन अवसाद की ज़द में आना ही था. और अंततः सात दशकों के बाद एक दिन अवसादग्रस्त भारत के निर्माण का अहसास सबको हो ही गया.
उत्तर-छायावादी भाषा के शीर्षक से लैस युवा लेखक अमित श्रीवास्तव का उपन्यास ‘गहन है यह अंधकारा’ कुछ ऐसे ही सवालों से हमें रू-ब-रू कराता है; और जैसा कि होना ही था, पाठक को एक गहरे अवसाद के अंधकार के बीच छोड़कर ख़त्म हो जाता है. क्या लेखक के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था? जाहिर है कि अगर देश के पास ही इसका वैकल्पिक रास्ता नहीं है तो लेखक के पास कहाँ से आएगा? अब वो ज़माना तो रहा नहीं, जब लेखक खुद के या अपने पुरखों के निष्कर्षों के आधार पर कहानी का उपसंहार रच दिया करता था और पाठक उसे आँख मूँद कर स्वीकार कर लेता था. बावजूद इसके, ‘गहन है यह अंधकारा’ कुछ हद तक अपने कथ्य की विश्वसनीयता और समकालीनता के मुहावरे के साथ अंतरंगता से जुड़े होने के कारण आश्वस्त करता महसूस होता है.
उपन्यास का सारा वितान पुलिस-व्यवस्था के इर्दगिर्द घूमता है. अमित श्रीवास्तव उत्तराखंड पुलिस सेवा में अधिकारी हैं, इसलिए भी इसकी विश्वसनीयता को लेकर कोई सवाल नहीं उठ सकते थे. ऐसा भी नहीं है कि मेरे मन में इस उपन्यास के जरिये अपने क्षेत्र की कानून-व्यवस्था की बारीकियों को जानने की इच्छा जगी हो या यह लालच कि इस घटनाक्रम के जरिये मैं एक बेहतर पहाड़ी समाज के सूत्र पा सकूंगा… निश्चय ही बात इससे अलग और खास थी. इसका लेखक हमारे बीच नहीं पैदा हुआ था इसलिए कहीं-न-कहीं यह अपेक्षा रही होगी की बाहर से आया व्यक्ति उन दबावों को किस तरह महसूस करता है, जिनके बीच से हम रोजमर्रा के जीवन में गुजरते हैं. यद्यपि बाहर से आए अनेक संवेदनशील लेखकों ने हमारे समाज के अंतर्विरोधों को छुआ था, एक हद तक वो इसके अन्दर घुसे भी थे, मगर हर बार लगता था कि वह घुसना एक मेहमान या पर्यटक का प्रयास था जहाँ आत्मीयता तो थी, अंतरंगता नहीं. ऐसा सोचते हुए मेरे दिमाग में औपनिवेशिक दौर की वे महान प्रतिभाएं मौजूद थीं, जिन्होंने अपनी उपलब्धियों के द्वारा यहाँ के लोगों का दिल जीता था, उनके साथ रिश्ते कायम किये थे, मगर वह सब एक अधिकारी के द्वारा अपने मातहत को बख्शीश देने की तरह था. यह बात सच भी है कि उनका योगदान इतना खास और मूल्यवान था कि उन उपलब्धियों को आज उसी रूप में दुहराया जाना संभव नहीं है. वैसी नीयत वाले लोग आज दिखाई भी नहीं देते. ऐसा भी नहीं है कि आजादी के बाद जब सत्ता का हस्तांतरण हुआ, हमारे सारे लोग अपनी स्थानीय नीतियों को लेकर बिना किसी की मदद के अपने काम में जुट गए थे. ऐसा न संभव था और न अपेक्षित था. इसके बावजूद इस उपन्यास में कुछ ऐसा जरूर था जो बाहरी और भीतरी आँख के अंतर के बारे में सोचने की इजाजत नहीं देता था और लेखक की आँख को पाठक की आँख में आसानी से बदल रहा था.
एक और बात जिसने मुझे ‘गहन है यह अंधकारा’ के प्रति आकर्षित किया, वह था इसका शिल्प, जो अपने कथ्य के साथ-साथ समकालीन हिंदी लेखन के अन्तरंग मुहावरे के साथ यात्रा करता है. स्थानीयता और अपनी जड़ों से जुड़े कथ्य को उसी अन्तरंग भाषा और शिल्प के साथ प्रस्तुत करने का कौशल पिछले दशकों में अनेक उपन्यासों में देखने को मिलता है, कितनी ही ऐसी कलाकृतियाँ चर्चित रही हैं, लेकिन ‘गहन है यह अंधकारा’ से गुजरते हुए मुझे हिंदी के ही दो लघु-उपन्यासों की बराबर याद आती रही, आकार, विषय-वस्तु और कथन-भंगिमा में – विभूतिनारायण राय का ‘शहर में कर्फ्यू’ और धर्मवीर भारती का ‘सूरज का सातवां घोड़ा’. पहला विशेष रूप से अपने कथ्य की वजह से और दूसरा शिल्प के कारण. वीएन राय भी पुलिस के अधिकारी रहे हैं और भारतीजी के उपन्यास ने शायद पहली बार मध्यवर्गीय चेतना की नयी करवट के अनुरूप सहज भाषा और जीवंत शिल्प में अपना कथा-संसार रचा. इन दोनों उपन्यासों की हिंदी में खासी चर्चा भी हुई और दोनों के ही कथ्य और शिल्प को अनेक परवर्ती रचनाकारों ने अपनाया. यह कहना ठीक नहीं होगा कि ‘गहन है यह अंधकारा’ में इन दो विशिष्ट उपन्यासों का प्रभाव है, शायद दूर-दूर तक कहीं नहीं है, फिर भी इसे पढ़ने के बाद कोई भी गंभीर पाठक इन दोनों उपन्यासों को याद किये बिना नहीं रह सकता.
दरअसल, उपन्यास पुलिस जीवन की कोई अन्तरंग या वस्तुनिष्ठ झांकी नहीं प्रस्तुत करता, यह उसका उद्देश्य भी नहीं लगता. यह एक पुलिस अधिकारी की व्यथा का लेखा-जोखा (डायरी) भी नहीं है और ऐसा तो कतई नहीं है कि उपन्यास पुलिस और आमजन के परस्पर रिश्तों से जुड़े अंतर्विरोधों को उजागर करने के लिए लिखा गया हो; उपन्यास किसी की आलोचना या प्रशंसा के लिए नहीं लिखा गया है और न इसका लेखक किसी सामाजिक-आर्थिक वर्ग के साथ खड़ा दिखाई देता है. अच्छी बात यह है कि शिल्प और भाषा की वह निरापद छवि भी इस उपन्यास में नहीं है जो अपने ही कक्ष में घूमने वाले समान-धर्मा रचनाकारों/पाठकों को ही आकर्षित करती है. यहाँ पर इस बात का विशेष जिक्र करना जरूरी है कि उपन्यास का आरम्भ अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ की शुरुआत के फांसी से जुड़े उद्धरण से किया गया है. सिर्फ इस बिना पर उन्हें अज्ञेयवादी तो नहीं कहा जा सकता. इसे प्रकाशित हुए थोड़ा ही वक़्त गुजरा है, फिर भी इसकी ताकत का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इसे लेकर अब तक जो चर्चाएँ सामने आई हैं उनमें उन बातों का संकेत नहीं है जिनका जिक्र ऊपर किया गया है.
खास बात यह है कि अपने पहले वाक्य से लेकर अंतिम शब्द तक पुलिस जनों की बात करता हुआ इसका नायक पुलिस का जवान या अधिकारी नहीं, भारतीय समाज का एक आम जन है. दारू से पूरी तरह चुस चुका एक मरियल हिन्दुस्तानी पुरुष भानू, जो मरते दम तक बीवी पर हाथ उठाना और उसकी देह का इस्तेमाल अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है और इसी रूप में अपने अगले जन्म के लिए भी आश्वस्त है. उपन्यास ख़त्म करने के बाद चुपके से यह सूचना मिलती है की दरअसल इसका केन्द्रीय चरित्र वह औरत है जो अपने पति को मरवाने के लिए चार लाख की सुपारी देती है. पुलिस का काम हमेशा की तरह सुपारी देने और लेने वाले के साथ ही अपराधी का पता लगाना और उसे सजा देना है, मगर उपन्यास कोई निर्णय नहीं देता, अलबत्ता एक सुखद अंत का संकेत अवश्य देता है. मोटे तौर पर उपन्यास आजादी के बाद उभरे भारतीय सामाजिक नियोजन पर उसके सत्तर साल के बाद, यानी २०१९ में किया गया सिंहावलोकन है. निश्चय ही यह विहंगावलोकन तो नहीं है.
एक पुलिस अधिकारी की आँखों देखी कुल १६ घटना-टीपों की पुलिस डायरी में अंकित १२ धाराओं की संहिता है यह उपन्यास, जिसकी शुरुआत ‘नक्शा नजरी संलग्न सीडी’ से किया गया है : “घटना स्थल के पूरब में जंगल है, पश्चिम में मनगाँव रोड, उत्तर में मनगाँव-भगोतपुर रोड, दक्षिण में जंगल है. नक्शा नजरी में ‘a’ वह स्थान है जहाँ मृतक पुरुष शव जो सिरकटा और अधजला है, जिसका सिर मौके पर नहीं है, मनगाँव-भगोतपुर मोटर मार्ग कच्चा से करीब बीस मीटर नीचे सूखे नाले में, जंगल में पड़ा है. चिह्न ‘c’ जहाँ पर पीठ पर शव के एक लाल स्वेटर हौजरी का अधजला टुकड़ा, एक सफ़ेद और नीली चेकदार कमीज का अधजला टुकड़ा, एक सफ़ेद अंदरूनी बनियान का अधजला टुकड़ा व लाल स्वेटर के टुकड़े पर पीली नायलोन की रस्सी के चार छोटे-छोटे अधजले टुकड़े चिपके हैं. चिह्न ‘d’ जहाँ पर शव के पैर में नीली जींस का अधजला टुकड़ा पड़ा है, चिह्न ‘f’ जहाँ पर एक अधजली हवाई चप्पल का टुकड़ा है, चिह्न ‘b’ जहाँ मैकडोवेल शराब की बोतल का सिरा ढक्कन लगा पड़ा है, चिह्न # (चौकोर निशान) जहाँ पर पांच गिलास प्लास्टिक के, एक खाली गोल्ड फ्लेक सिगरेट की डिब्बी, दो ठुड्डे सिगरेट, चार अधजली माचिस की तीली पड़ी हैं. चिह्न % (गोल निशान) पत्थर, चिह्न @ (पेड़ का निशान) पेड़, चिह्न ^ (छोटे पेड़ों के निशान) घास दर्शाई गई है. (नक्शा नज़री संलग्न सीडी (केस डायरी).
2019 में प्रकाशित उपन्यास के इस अंश को पढ़ते हुए पाठक सीधे लगभग सवा सदी पहले गोपाल राम गहमरी के जासूसी उपन्यासों की सैर करने लगता है, हालाँकि समूचा घटना-वृत्त पूरी तरह सम-सामयिक है. उन दिनों भला कहाँ थी मैकडोवेल शराब की बोतल और कहाँ प्लास्टिक के गिलास! उपन्यास समय के अंतराल को तेजी से पाटता हुआ हिंदी के जातीय उपन्यास की परंपरा को इस तरह जोड़ता है कि हम टाइम मशीन में सवार सिर्फ साहित्य नहीं, औपनिवेशिक युग को लांघते हुए भारतीय हिंदी पट्टी के सुदूर अतीत के सिरे पर पहुँच जाते हैं. 2019 के मनगाँव-भगोतपुर मोटर मार्ग (उत्तराखंड) से 1890-1900 की बनारस-बम्बई की रेल यात्रा तक.
खैर, यह तो हुई उपन्यास के क्राफ्ट की बातें. कथ्य के आधार पर बातें करें तो ऐसा नहीं लगता कि उपन्यासकार हिंदी के आम लेखक की तरह आधुनिक पश्चिमी लटकों-झटकों से आतंकित है. अपनी जड़ों से जुड़कर भी आधुनिक हुआ जा सकता है, उसकी बानगी पेश करता है इस उपन्यास का शिल्प.
आरम्भ में ही लेखक अपने दौर की समय संवेदना को स्पष्ट करते हुए लिखता है:
“ये वो समय था जब देश को आर्थिक गुलाटियां खाए दो दशक बीत चुके थे और वो उलटबांसियों में पूरी तरह ऊब-चूभ था. वायदे से बिलकुल उलट इंजीनियरिंग-एमबीए संस्थानों से निकले बेचलर्स और मास्टर्स की जेब में अपॉइंटमेंट लैटर तो क्या एक अठन्नी भी नहीं थी और सेंसेक्स दीवारें तोड़कर छत पर आमद करा चुका था. ये वो समय था जब सरकार अपनी दावेदारी हर संस्थान से हटाती जा रही थी और दशकों से चल रहे भ्रष्टाचार की सड़ांध इतनी बढ़ चुकी थी कि वो सरे आम लोगों के घर में घुस कर सहलाने लगी थी – नाक!…
“ये वो समय था जब जोश रंगीले यानी कि अपने सीओ साहब अखिल भारतीय ऑटो रिक्शा संघ, कार्यक्षेत्र बस स्टैंड चौराहे से रेलवे स्टेशन तिराहा, की बेमियादी हड़ताल, जिसे तीन दिन चलना था, पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार एसडीएम साहब के साथ जाकर उनकी बाईस में से छः मांगें मानकर तुड़वाकर आ चुके थे और शाम की चाय के साथ ‘शेखर: एक जीवनी’ से फ़लसफ़ामय होने के कगार पर थे….”
ऐसे ही माहौल के बीच थाने में बैठे एसओ और सीओ की बातचीत है जिसमें पता चलता है कि एक आदमी का क़त्ल हो गया है और उसका सिर कटा शव थाने से करीब दस किलोमीटर दूर जंगल में पड़ा है. उबासी-सी लेते हुए यह पता लगाने की कवायद शुरू होती है की शव किसका है. अहसास हो तो जाता है कि उसे आम आदमी ही होना चाहिए, मगर नियमों के अनुसार पूरी गंभीरता के साथ खोजबीन की शुरुआत होती है. पुलिस के कौतूहल का साथ-साथ पाठक के मन में भी जिज्ञासा जागती है नियमों की सीमाओं के साथ तहकीकात आगे बढ़ती है. यह अनुमान लगते देर नहीं लगती कि आजाद भारत के एक आम आदमी का सिर काट कर जंगल में फेंक दिया गया है, जिसकी पड़ताल करते हुए प्रशासन पूरी गंभीरता के साथ हत्यारे का पता लगा रही है.
पुलिस की नियमों की सीमाएँ हैं जिसके दायरे में रहकर ही उसे काम करना है. यहीं पर आदमी के संवेदन और नियमों की टकराहट होती है, कई उलझनें आती हैं, जिसके बीच अंततः सिर कटे ‘आम आदमी’ की शिनाख्त हो जाती है. पुलिस का काम पूरा होता है, मगर लेखक का नहीं. लेखक इस बात का पता लगाने की कोशिश करता है कि ऐसी कौन-सी मज़बूरी आ गई, जिस कारण एक औरत को अपने ही पति को मारने के लिए चार लाख की सुपारी देने को मजबूर होना पड़ा.
पुलिस का काम तहकीकात करना ही है और कहानी को भी ख़त्म होना ही था. मगर यह कहानी ख़त्म होने के बाद द्वारा निर्मित और शुरू होती है. रहस्य को उद्घाटित करने के लिए नहीं, उस कहानी का सूत्र ढूँढने के लिए, जिसका सिरा उस घटना से जुड़ता है जहाँ स्वतंत्र भारत के सपने संजोये हुए भारत के आम आदमी का सिर काटकर जंगल में फैंक दिया गया हैं… और पुलिस को उसकी तहकीकात करनी ही है.
“जिस जीवन को उत्पन्न करने में हमारे संसार को सारी शक्तियाँ, हमारे विकास, हमारे विज्ञान, हमारी सभ्यता द्वारा निर्मित सारी क्षमताएं या औजार असमर्थ हैं, उसी जीवन को छीन लेने में, उसी का विनाश करने में ऐसी भोली हृदयहीनता – फांसी!…
”यौवन के ज्वार में समुद्र शोषण! सूर्योदय पर रजनी के उलझे हुए और घनी छायाओं से भरे कुंतल! शारदीय नभ की छटा पर एक भीमकाय कला बरसाती बादल! इस विरोध में, इस अचानक खंडन में निहित अपूर्व भैरव कविता ही में इसको सिद्धि है…” (उपन्यास के आरम्भ में उद्धृत अज्ञेय के उपन्यास का अंश)
अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ का पहला भाग 1941 में प्रकाशित हुआ था, यानी आजादी से छः साल पहले. यह बानगी है उस भाषा और संवेदना की, जो आजादी के वक़्त आकार ले रही थी. तब ऐसी कौन-सी मज़बूरी आन पड़ी कि 78 वर्षों के बाद ‘गहन है यह अंधकारा’ का लेखक यह लिखने लगता है:
“कोई भी व्यक्ति पुलिस को तब तक प्यार नहीं करेगा, जब तक उससे कोई अपराध न हो जाए. अपराध होते ही वो पुलिस से नफ़रत करने लगेगा. कोई भी व्यक्ति पुलिस को तब तक प्यार नहीं करेगा, जब तक उसके साथ कोई अपराध न हो जाए. उसके साथ अपराध होते ही वो पुलिस से नफ़रत करने लगेगा.” (पृष्ठ 57 : धारा 3)
सात दशकों के बाद आजाद भारत की संवेदना और भाषा में कितना फर्क आ गया था! इस बात पर भी जरूर गौर किया जाना चाहिए कि इसी अवधि में ‘शेखर’ का प्रत्यावर्तन ‘भानू’ के रूप में हो गया था.
‘शेखर:एक जीवनी’ हिंदी में भारतीय मानस को गहरे चित्रित करने वाले आरंभिक उपन्यासों में से है. उपन्यास के प्रकाशन के बाद से ही यह कहा जाता रहा था कि यह उपन्यास मध्यवर्गीय भारतीय मनीषा को पहली बार इतनी बारीकी के साथ रेखांकित करता है.
सात दशकों के बाद अमित श्रीवास्तव अपने नायक की स्थिति के बारे में लिखते हैं:
“सबूत और गवाह दो बहुरूपिये होंगे… दरअसल ये दो कंधे होंगे जो कूल्हों की ततः इस्तेमाल होकर पहलु बदलने के काम आएंगे. जो कभी किसी के काम आएंगे कभी किसी के. और अंत में किसी की लाश ढोने के काम आएंगे.” (धारा 2, पृष्ठ 49)
‘विडंबना’ शब्द काफी घिस चुका है, और यह घिसावट निश्चित रूप से पिछले सात दशकों में और अधिक गहराई है. अब इस शब्द को सुनकर कष्ट और हताशा की अनुभूति नहीं होती; यह अब चुपचाप एक शब्द के रूप में अकारादि क्रम से शब्दकोशों में अपनी नियत जगह पर बैठ गया है. क्या अब शब्दों के अर्थ और आशय नए सिरे से तलाशने की जरूरत है? भोलू की हत्या या सावित्री की चीख के शब्द कुछ दूर लड़खड़ाते हुए बुझ जायेंगे. मृत्यु उनकी नियति है, शास्त्रों वाली नहीं, अज्ञेय के ‘वरण’ की तरह भी नहीं. सबूत और गवाहों के द्वारा ढोती चली जा रही लाशों की तरह.
कलाकृति की चर्चा करते हुए फतवे देने का रिवाज़ हिंदी में शुरू से है. मगर मैं इस उपन्यास के बारे में अंतिम टिप्पणी नहीं दे सकता. इसलिए नहीं कि देना नहीं चाहता, शायद इसलिए कि इस चर्चा में उसकी गुंजाइश ही नहीं है. मैं खुद पसोपेश में हूँ कि शेखर के बाद विकसित हुआ हिंदुस्तान का आम आदमी क्या उसी जगह पर पहुँच पाया, जहाँ भानू पहुंचा, या जहाँ सावित्री नहीं पहुंचना चाहती थी; इन सत्तर वर्षों में ये लोग कहाँ तक पहुँच पाए; कारा का अंधकार कुछ झीना हुआ है या अभी उतना ही गहन है जितना निराला और अज्ञेय के ज़माने में था!
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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