4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – 36 (Column by Gayatree arya 36)
पिछली किस्त का लिंक: शारीरिक आकर्षण खो देना मां बनने की एक जरूरी और क्रूर शर्त है
तुम्हारा जन्म हो चुका है और तुम लड़के हो रंग! अपने जन्म के पांच दिन बाद आज पहली बार तुमने मेरी आंखों में आंखें डाल के देखा. हालांकि मैं जानती हूं तुम मुझे नहीं, शून्य में देख रहे थे. पर उस शून्य का केन्द्र मेरी आंखों में था उस वक्त. इतना प्यार मुझे आया कि क्या ही कहूं, वह कुछ अदभुत सा अहसास था मेरे बच्चे! शायद तुम्हारे पैदा होने के बाद आज पहली बार मुझे तुम पर इतना प्यार आया है, वर्ना अभी तक तो मैं अपने दर्द और तकलीफ से ही नहीं निकल पा रही. तुम्हारे ऐसे टकटकी लगा के, मेरी आंखों में आंखें डालकर देखने ने ऐसा कमाल किया, कि मैं कुछ पल को अपने दर्द भी भूल गई.
आज पहली बार ही तुम मुस्कुराए कानों तक है. तुम्हारी मुस्कुराहट भी बिल्कुल अपने पिता की तरह है. तुम्हारे होंठ भी बिल्कुल अपने पिता पर हैं, नीचे वाला छोटा ऊपर वाला बड़ा. तुम इस वक्त बिल्कुल इस डायरी के बगल में लेटे हो और मुंह मेरी तरफ करके चुपचाप एकटक मुझे लिखते हुए देख रहे हो. तुम्हारी मक्खन सी मुलायम मुठ्ठी मेरे सीधे हाथ से बार-बार छू रही है. तुम्हें नींद आने लगी है, पर फिर भी अपनी उनींदी आंखों से तुम बीच-बीच में मुझे लिखते हुए देख रहे हो. क्या तुम्हें पता है रंग कि मैं तुम्हें ही पत्र लिख रही हूं इस वक्त? इसी बीच तुम तीसरी बार मुस्कुराए हो, लेकिन इस बार तुम एक तरफ से ही मुस्कुराए थे, मतलब कि तिरछी स्माइल. उफ्फ! क्या कर जाऊं मैं तुम्हारी कातिल मुस्कुराहट देख के!
मुझे तुमसे प्यार होता जा रहा है मेरे रंगीले! आज तुम पहली ही बार इतनी देर जगे हो. आंखे खोली हैं और पहली ही बार इतना मुस्कुराए हो, अपने जन्म के पांचवे दिन तुमने नींद में मुस्कुराना शुरू कर दिया है. मैं अभी तक होस्पिटल में ही हूं. क्यों अभी तक यहां हूं वो बाद में बताऊंगी. बस अब मैं और नहीं बैठ पा रही हूं बेटू, इतनी देर भी मैं जैसे-तैसे, खुद को आड़ा तिरछा करके, बेहद-बेहद दर्द में बैठी हूं. कितनी तरह के और कितने गहरे दर्द में हूं मैं इस वक्त ये बताना मेरे लिये और समझना तुम्हारे लिए असंभव है मेरी जान.
2.15 पी.एम./8.9.09
तुम्हें लिखा जाने वाला ये खत आज मैं पहली बार लेटकर लिख रही हूं मेरे बच्चे! क्योंकि तुम्हारे जन्म के एक महीना आठ दिन बाद भी मैं अभी तक ठीक से बैठ नहीं पाती हूं. तुम्हारे जन्म के दौरान हुई गड़बड़ियों/गलतियों का नतीजा मैं आज तक भुगत नही हूं मेरे बच्चे. मैंने बस इतना ही लिखा था और फिर मैं तुम्हारी मच्छरदानी लगाने तुम्हारे पास गई. देखा की तुम जगे हुए थे और अपने बिस्तर पर ही सुस्सू करके खेलने में लगे थे. मुझे तुम पर कितना प्यार आया था मेरे भूखे बच्चे. उफ्फ मेरे नन्हे फरिश्ते! तुम भूख लगने पर भी रोते नहीं हो. इतना सब्र! तुम भूखे थे उस वक्त, सो मैं बस तुम्हें दूध पिलाने लगी. मैं अक्सर तुम्हें एक ही गाना सुनाती हूं मेरे बच्चे, ‘हरी-हरी वसुंधरा पे नीला-नीला ये गगन. ये कौन चित्रकार है?’ ये गाना मुझे बहुत पसंद है, असल में इस पूरे गाने में उस अनंत, असीम महाशक्ति की ही महिमा है, जिसने खुद तुम्हें मेरे भीतर रोपा और एक निश्चित समय पर तुम्हारे विकसित हो जाने पर तुम्हें मेरे भीतर से खुद ही बाहर भी कर दिया!
मैं सच में अभी भी घोर आश्चर्य और अविश्वास से तुम्हें देखती हूं. कैसे तुम सिर्फ दो बूंदों से, ऐसे हाथ-पैर, आंख, नाक, कान सिर वाले बच्चे बन गए? कैसे तुम इतने बड़े मेरे भीतर थे यार? कैसे और कब तुम्हारे शरीर का एक-एक अंग बना, विकसित हुआ? हाड़, मांस, मज्जा, खून, बाल, दिमाग, चमड़ी, आंखें… और कितने चुपचाप होता रहा ये सब मेरे भीतर! इतना चुपचाप कि मुझे भी रत्ती भर खबर नहीं थी इसकी, कि आज तुम्हारे शरीर का कौनसा हिस्सा बन रहा है. हर रोज तुम्हारा जन्म हो रहा था, हर पल तुम ज्यादा और ज्यादा जन्म ले रहे थे, विस्तार पा रहे थे मेरे भीतर. पर किसे खबर थी? और तो किसे ही खबर होगी भला, जब खुद तुम्हारी मां को नहीं पता था!
लेकिन देखो, जब तुम मेरे शरीर से बाहर आए, हमने सिर्फ उसी दिन कहा कि तुम्हारा जन्म हो गया. ये आधा सच है, है न मेरी जान? तुम तो नौ महीने तक हर रोज जन्म ले रहे थे मेरे भीतर.
11.30/11.10.09
तुम्हारा जादू मुझ पर चलने लगा है मेरे बच्चे. सोते हुए तुम जब मुस्कुराते हो, तो तुम्हें देखकर मैं अपना दर्द कुछ पलों को भूल जाती हूं.
4पी.एम./12.10.09
पहले भी दिन में चौबीस ही घंटे होते थे, आज भी 24 घंटे ही होते हैं. पर अब ये 24 घंटे सिकुड़ कर बहुत छोटे हो गए हैं. कब और कैसे दिन पूरा होता है पता ही नहीं चलता. इत्र की खुशबू की तरह दिन-रात उड़ रहे हैं तुम्हारे संग मेरे रंग! तुम अपना रंग और खुशबू, रफ्ता-रफ्ता मेरे जीवन में घोल रहे हो मेरे बच्चे, मेरे प्यार!
कल तुम्हारी पहली दीवाली थी मेरी रूह! तुम आजीवन स्वस्थ रहो. तुम्हारी आंखों की रौशनी हमेशा बनी रहे और तुम इस समाज को रौशन करो, पहली दीवाली पर तुम्हारे लिए मेरी यही दुआ है मेरे बच्चे. तुम्हारी नानी ने कहा था कि तुम्हारी पहली दीवाली पर कोई पौधा लगाऊं. सो मैंने चंपा का पौधा जमीन में रोप दिया. वो पौधा पिछले पांच साल से गमले में मेरे साथ था, अब उसे बढ़ने के लिए जमीन चाहिए थी. रंग मेरे बच्चे, तुम अब मुझे पहचानने लगे हो थोड़ा-थोड़ा. पता है जब तुम मेरी आंखों में आंखें डालकर देखते हो; उस वक्त, उस जगह, कहीं कुछ भी नहीं रहता सिवाए तुम्हारे. ऐ! सुन रहे हो न तुम?
12.45 पी.एम/18.10.09
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उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.
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