पहाड़ और मेरा जीवन- 55
पिथौरागढ़ में अखबारों, किताबों और स्टेशनरी की अब तो बहुत-सी दुकानें खुल गई हैं, पर हमारे स्कूल के दिनों में पुनेठा बुक स्टोर और उसी के सौ मीटर के दायरे पर जूपिटर पैलेस ऐसी दुकानें थीं, जहां बाजार जाने पर मैं एक बार तो चला ही जाता था. पुनेठा बुक स्टोर से मैं जाने कब से टाइम्स ऑफ इंडिया खरीदा करता था. यह आदत संभवत: हमारे मार्गदर्शक पत्रकार बद्रीदत्त कसनियाल जी के साथ रहते हुए लगी क्योंकि वे रोज एक नहीं कई अखबार खरीदते थे, सारे अंग्रेजी के. उन दिनों हर महीने मेरे और बड़े भाई के लिए पिताजी से 500 रुपये का मनीऑर्डर आता था. जेब हमेशा टाइट रहती थी, पर अखबार, किताबों को लेकर कभी समझौता नहीं किया. Sundar Chand Thakur Memoir 55
पुनेठा बुक स्टोर से ही उन दिनों एनडीए जैसी फौज में अफसर बनने के लिए होने वाली परीक्षाओं के लिए सीएसआर यानी कॉम्पिटिशन सक्सेस रिव्यू और प्रतियोगिता दर्पण जैसी पत्रिकाएं भी मैं बहुत खरीदा करता था. मनोरमा की सालाना किताब भी हर साल खरीदी जाती. जुपिटर पैलेस से मैं साहित्य की किताबें ज्यादा लेता था. हिमांशु जोशी जी की ‘छाया मत छूना मन’ और ‘कगार पर आग’ मैंने शायद वहीं से खरीदी थी. Sundar Chand Thakur Memoir 55
जुपिटर पैलेस के मालिक दो खर्कवाल भाई थे, जिनके बारे में सुनते थे कि वे आईएएस की तैयारी कर रहे हैं. उन दिनों आइएएस की तैयारी करना भी हमारे लिए जैसे कोई बहुत बड़ी क्वॉलिफिकेशन होती थी. तैयारी करने वाला क्वॉलिफाई करे या नहीं उसे हम पहले ही बहुत बड़ा मानने लगते थे. जुपिटर पैलेस में बाद में शायद बड़ा भाई बैठने लगा था. वह मुझे और मेरे बड़े भाई को बखूब जानते थे. मैं जितनी देर दुकान पर रहता हम साहित्य की बातें करते. आज भी मैं पिथौरागढ़ जाता हूं, तो जुपिटर पैलेस में कुछ देर रुककर उनसे बातें जरूर करता हूं. Sundar Chand Thakur Memoir 55
बहरहाल बात हो रही थी अंग्रेजी अखबार पढ़ने की. केंद्रीय विद्यालय में पढ़ते हुए कक्षा पांच में हमारी बहुत ही सुंदर और सुशील अध्यापिका रीता मैडम ने जिस तरह से हमें पास्ट, प्रेजेंट और फ्यूचर टेन्सेस और अंग्रेजी व्याकरण समझाया, उसी से मेरे मन से अंग्रेजी का डर चला गया. राजस्थान से आठवीं की अंग्रेजी की परीक्षा मैंने केंद्रीय विद्यालय में पढ़ी सातवीं की अंग्रेजी के बूते पर पास की क्योंकि स्कूल में मैं पढ़ता ही न था.
पता नहीं यह मुझे किसने बताया, समझाया, मैं नवीं में जीआईसी पिथौरागढ़ आने के बाद अंग्रेजी सीखने को थोड़ा ज्यादा लालायित रहता था. हालांकि नवीं दसवीं में हमारे जो अंग्रेजी के मास्साब थे, वे कक्षा में कई बार हमारे सामने ही तंबाकू यानी सूर्ति बना मुंह में डाल लिया करते थे और उसके बाद स्वाभाविक था कि वे बहुत कम बोल पाते थे. अमूमन तो वे हमें अंग्रेजी की किताब का कोई अध्याय खोलने को कहते और एक-एक कर लड़कों से एक-एक पैरा पढ़वाते. बहुत से लड़के थे जिन्हें पैरा पढ़ने में खासी मशक्कत करनी पड़ती, पसीने छूट जाते. पर मैं मन ही मन सोचता कि काश मास्साब मुझसे भी एक पैरा पढ़वा लेते. मेरा भी दो-तीन बार नंबर लगा. मैंने भी मास्साब का दिया पैरा पढ़कर पूरी क्लास को सुनाया. मास्साब ने एक बार मेरे पढ़ने के बाद धीर-गंभीर आवाज में कक्षा को संबोधित किया- देखो, ऐसे कॉन्फिडेंस से पढ़ते हैं अंग्रेजी.
एक बार हुआ यह कि मैं पुनेठा बुक स्टोर से टाइम्स ऑफ इंडिया खरीद उसे कोख में दबाए लौट रहा था कि मुझे स्कूल के एक दूसरे मास्साब मिल गए. वे दूसरी कक्षाओं को हिंदी पढ़ाते थे. उनका नाम याद नहीं आ रहा. मैंने नमस्ते सर कहते हुए उनके चरण छूए जैसा कि उन दिनों हम छात्रों के बीच रिवाज था. उन्होंने ऐसे ही पूछ लिया कहां से आ रहे हो हो सुंदर? मैंने ऐसे ही जवाब दे दिया- पुनेठा बुक स्टोर से ये अखबार लेकर आ रहा हूं. मैंने उन्हें बगल में दबा अखबार दिखाते हुए जवाब दिया. अखबार देखकर वे फिर बोले- ये तो अंग्रेजी का अखबार लग रहा है. रोज लेते हो क्या? मैंने कहा, जी मास्साब, जब भी बाजार आता हूं, ले लेता हूं. मेरा जवाब सुन उन्होंने बड़ी-बड़ी आखों से मुझे निहारा और शाबाश बोल मेरी पीठ पर प्यार से हौल जमाते हुए चले गए. और फिर हुआ यूं कि कुछ दिनों बाद ही मैं स्कूल में हाफ टाइम की छुट्टी में कुछ खाकर लौट रहा था, तो यही मास्साब कुछ लड़कों के बीच घिरे हुए खड़े थे. मुझे देखते ही इन्होंने इशारे से अपने पास बुला लिया. वे लोग मेरे आने से पहले किस विषय पर चर्चा कर रहे थे, मैं नहीं जानता, पर जैसे ही मैं उनके करीब पहुंचा वे लड़कों की ओर मुखातिब होकर बोले-
देखो इसे, पूरे स्कूल में अकेला लड़का होगा, जो रोज अंग्रेजी का अखबार खरीदकर पढ़ता है. ऐसे बच्चे ही तरक्की करते हैं, जीवन में कुछ अलग करके दिखाते हैं. आज मैं तुम्हें बोल रहा हूं यह लड़का बड़ा होकर बड़ा आदमी बनेगा.
मास्साब के इस बर्ताव से मैं लड़कों के सामने अचकचा-सा गया. मुझे क्या जो कहूं जैसी हो गई. मैं चेहरे पर खिसियानी हंसी लेकर आगे बढ़ गया. पर मुझे आज भी याद है कि मास्साब की बात से मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं. उन्होंने जितने भरोसे से कहा कि मैं बड़ा आदमी बनूंगा, उतना भरोसा तो मुझे भी खुद पर न था. हालांकि यहां यह बताना बहुत जरूरी है कि बावजूद इसके कि मैं नवीं, दसवीं के दिनों से ही अंग्रेजी अखबार पढ़ने लगा था और बाकायदा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी से अंग्रेजी शब्दों के मायने लिखने के लिए मैंने तब से लेकर आज तक भी एक अलग डायरी बनाई हुई है, मेरी अंग्रेजी कभी ऐसी नहीं रही कि मैं जिस तरह हिंदी में अपनी भावनाओं के आरोह-अवरोह दोनों बखूबी से पिरो सकता हूं, वैसा कुछ कारनामा अंग्रेजी में भी करके दिखाऊं. फौज में अफसर बनने के लिए हुए इंटरव्यू में भी मैंने हिंदी में ही भाषण दिया था. हिंदी अच्छी होने के कारण ही मुझे पत्रकारिता की नौकरी मिली और थोड़ा बहुत साहित्य भी मैं रच पाया. पर अंग्रेजी ने, उसे जैसा भी मैंने सीखा, अखबारों, पत्रिकाओं, किताबों, डिक्शनरियों से और फौज में सीनियर अफसरों से न आते हुए भी ‘आदेशानुसार’ बात करने से, उसने अपने तरीके से ज्ञान और खुद पर भरोसा बढ़ाया. हालांकि पिथौरागढ़ में अंग्रेजी के प्रति अपनी ललक के चलते हमेशा ऊपर जिक्र में आए दोनों मास्साबों जैसे हौसला बढ़ाने वाले लोग ही नहीं मिले, कई लोगों ने पैंट भी खींची, ‘साला खुद को बड़ा अंग्रेज की औलाद समझता है’ जैसे डायलॉग मारने वाले लोग भी मिले, पर अंतत: सब ठीक ही हुआ. मेरा काम चल गया.
मुझे कौन-सा ऑक्सफोर्ड जाकर अंग्रेजी पढ़ानी थी, पर मैं खास उन हिंदी के मास्साब को आज भी याद करता हूं जिन्होंने इतने लड़कों के बीच मेरे अंग्रेजी अखबार पढ़ने पर ऐसी तारीफ की क्योंकि अन्यथा तो पता नहीं क्या होता न होता, उनके वैसा कह देने से यह सुनिश्चित हो गया कि मैं कम से कम विद्यार्थी जीवन में तो अंग्रेजी अखबार पढ़ना नहीं छोड़ने वाला था.
(पिछली क़िस्त: पिथौरागढ़ की रामलीला, शरद का उत्सव और तारों भरी रातें
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सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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1 Comments
विकास नैनवाल
रोचक संस्मरण। अंग्रेजी बोलने पर तो मुझे अंग्रेज चले गए इसे छोड़ गए जैसे फिकरे सुनने को अक्सर मिल जाया करते थे। झूठ क्यों बोलना मैं भी कइयों को सुना दिया करता था। आपका संस्मरण अच्छा लगा।