जेठ-आषाढ़ की तप्त गर्मी और हाड़ तोड़ देने वाली धान की रोपाई के बाद सावन के घुमड़ते मेघ पहाड़ों के जीवन को कुछ पल के लिए शिथिल कर देते हैं. इन परसुकुन के पलों में जब प्रकृति भी अपना श्रृंगार कर रही होती है तब कहीं डाने (पहाड़ी) में घास काटती लड़की अपने मायके की याद में गुनगुना उठती है :
म्यारा मैते का डाना काना, बुरुशी फुलाँ छी ।
उदासीला दीना आया, पराणि झुलाँ छी ।।
‘वहां मेरे मायके के पर्वत शिखरों पर बुरांश के फूल खिले हैं और यहाँ उदासी भरे दिनों में मेरे प्राण विरह में छटपटा रहे हैं.’
यही हाल इधर उसकी माँ का भी है. वह भी अपनी नई ब्याही बेटी से मिलने को आतुर है. दोनों के हृदय में परस्पर मिलन की हूक जन्म देती है मिलने के अवसरों को, चूँकि ये हाल कमोबेश सभी का है तो ये अवसर एकल ना होकर सामूहिक रूप में उपजे और इस तरह जन्मे यह लोक पर्व. कुमाऊं में भादो का महीना कुछ फुर्सत का होता है. निराई-गुड़ाई के बाद धान की बालियों में दूध भरने लगता है. साफ़ तेज धूप फसलों को पका रही होती है. ऐसे में लोक-समाज का ‘हौसिया मन’ फुर्सत मिलते ही निकल पड़ता है मेले-खेलों में. तब शुरुआत होती है इन उत्सवों की. और इन उत्सवों का आगाज़ होता है- सातूं-आठूं पर्व से. उत्तराखंड राज्य में इस पर्व को कुमाऊं के अल्मोड़ा,बागेश्वर और चंपावत जनपद से लेकर सीमान्त पिथौरागढ़ जिले के लगभग सभी स्थानों में मनाया जाता है. पड़ोसी देश नेपाल के सीमावर्ती ग्रामों में भी भाद्रपद मास में सातूं-आठूं का उत्सव बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. आज के बदलते दौर में इनका अस्तित्व संक्रमण के दौर से गुजर रहा है. बदलते परिवेश और सामाजिक ढांचे में बदलाव ने भी इसके रूप को बदला है.
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि पर्वतीय अंचलों में इन मेलों की शुरुआत सातूं-आठूं पर्व से होती है. मुख्य रूप से यह पर्व हमारे आदिम खेतीहर समाज का प्रतिबिम्ब है. इसमें तत्कालीन समाज की विभिन्न सामजिक और धार्मिक छवियाँ दृष्टिगोचर होती हैं. प्राचीन काल से ही हिमालयी क्षेत्र के लोग स्थानीय देवी–देवताओं को भी अपने परिवार का हिस्सा मानते आये हैं. यही कारण है कि इस अंचल की प्रमुख आराध्य देवी गौरा (पार्वती) से लोक ने बेटी का रिश्ता बना लिया है. साथ ही हिमालय वासी महादेव (शिव) का उनसे विवाह कराकर उन्हें अपना जवांई यानी दामाद बना लिया। भाद्रपद मास में बेटी स्वरूपा गौरा जब अपने मायके आती है तो गमारा दीदी (गौरा) से मिलने के निमित्त तमाम विवाहित स्त्रियाँ भी अपने मायके आती हैं. अमुक्ताभरण सप्तमी को सातूं के दिन गमरा (गौरा–शिव ) के विग्रह स्वरूप की स्थापना की जाती है और दूर्बाष्टमी को आठूं का लोकपर्व मना कर गौरा और महेश के विग्रहों की विवाह की रस्में निभाई जाती हैं और बेटी व दामाद के रूप में उनकी पूजा-अर्चना भी की जाती है. इस मौके पर पञ्च अनाज के मेल (बिरुड़े) जो बिरुड़ाष्टमी को भिगाये जाते हैं उसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण किया जाता है. इस पूरे उत्सव के दौरान किये जाने वाले सभी विधि विधानों में स्थानीय परिवेश में पायी जाने वाली वस्तुओं का उपयोग किया जाता है. गौरा-महेश की प्रतिमा का निर्माण सूखी पराल, बंसा और दूब घास से कर उन्हें स्थानीय वेशभूषा और अलंकरणों से सजाया जाता है. पूजा-अर्चना में इस मौसम में होने वाले फल निम्बू,सेब, अमरुद,माल्टा आदि का उपयोग किया जाता है.
आठूं (अष्टमी) के दिन में गाँव के सारे लोग पूर्व निर्धारित स्थान पर एकत्र होकर इन विग्रहों की पूजा-अर्चना कर इनकी गाथा गाते हुए कहते हैं.
“का रे उपजी नवली गंवारा का रे भ्यो छ उज्यालो
हिमांचल उपजी नौली गंवारा, वसुधरा पड़ी ग्ये रात”
फिर शुरू होती है लोक अभिव्यक्तियों की यात्रा- न्योली, झोड़ा, चांचरी और खेल-ठुलखेल के क्रम. इस प्रकार ग्राम का पूरा समाज एक साथ इन उत्सवों में शामिल होता है.ग्रामीण परिवेश में ये उत्सव प्राय रात्रि को मनाये जाते हैं. दिनभर के काम ख़त्म होने और रात्रि भोजन के बाद लोग सामूहिक रूप से एकत्र होकर खेल आदि लगाते हैं और लोक संस्कृति पर आधारित इन गीतों को गाते हुए लयबद्ध नृत्य करते है.
इन लोक आधारित विधाओं की अपनी ही गेय और नृत्य शैली है. मुख्य रूप से इन उत्सवों में न्योली, छपेली और ठुलखेल आदि सामूहिक रूप से गाये और किये जाते हैं. लोक-साहित्य व संस्कृति को गहराई से जीने और समझने वाले डॉ.सी.बी.जोशी लोक विधाओं को अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम मानते हैं. वह न्योली को कुछ इस रूप में बताते हैं कि न्योली एकल मन में उपजी भावनायें हैं जो अधिकतर दो पंक्तियों की तुकात्मक और गाये जाने योग्य होती हैं. न्योली में मुख्या रूप से मन की विरह वेदना और करुण पक्ष का उभार दिखता है.
“काटना-काटना पल्वी ऊँछ चौमसिया वन
बगन्याँ पानी थामी जाँछ नै थामीनो मन”
न्योलियों के छंदों को जब एक सूत्र में पिरोया जाता है तो जन्म लेती है चांचरी,जो सामूहिक रूप से गायी जाती है. चांचरी में लयबद्ध तरीके से सामूहिक नृत्य भी किया जाता है. मुख्यता चांचरी का स्वभाव चंचल होता है. उत्तर-प्रतिउत्तर में चलती लयबद्ध कविता जिसका निर्माण लगातार उसी समय होता रहता है, रचनात्मकता का बेहतरीन उदाहरण है. चांचरी में न्योली को एक कथानक और पात्र के जरिये प्रस्तुत किया जाता है. चांचरी में पद संचालन धीरे –धीरे होता है. वेश-भूषा चमकदार होती है ताकि दर्शकों को लम्बे समय तक बाँधा जा सके. इन चांचरियों के जरिये समाज के बदलते स्वरूप को भी समझा जा सकता है.
गढ़ि दे सुनार नाकै की नथुली
गढ़ि दे सुनार हाथे की धागुली
गढ़ि दे सुनार वन काट्यो वन ताछयों सुनार
गौठे को थुमियाँ
जहाँ एक ओर चांचरी युवा मन को बांधती है, दूसरी ओर पहाड़ से पलायन के दर्द को भी बड़ी सरलता से लोक गीतों में अभिव्यक्त करती दिखती है :
“चडि हंसी गै बुग्याल फुलूरी देखी चडि हंसी गै
दिला न्हैसी गै पहाड़ का माया छाडी दिला न्हैसी गै
चडि हंसी गै राति व्याला दिन दोफेरी
दिला न्हैसी गै वी मेरी सोबती दिला”
इन सब के बाद इस क्रम का समापन ठुल-खेल के साथ होता है. डा जोशी बताते हैं कि ठुल-खेल रामायण व महाभारत के कथानकों पर आधारित पहाड़ी काव्यात्मक और लयबद्ध नृत्य शैली है.
पंचवटी सभा बैठी रैछ
रामज्यू मिरगै का खोज
सितु छन कुटिया भीतैर
रखवाला लछीमन भौल्या
मारी हाल्यो कपटी मिरग...
आखिर में ढोल-दमाऊं, मशक बीन आदि वाद्य-यंत्रों के साथ गौरा-महेश की मूर्तियों की शोभा यात्रा गांव / नगर में निकाली जाती है. पूरे गाँव में घुमाने के बाद गौरा-महेश की प्रतिमाओं को जल स्रोतों, नौलों, धारों या मंदिर में विसर्जित कर दिया जाता है.
ग्रामीण क्षेत्रों में इस पर्व की अब भी अत्यधिक धूम रहती है, जबकि नगरीय क्षेत्रों में अब इस त्योहार की मंचीय प्रस्तुतियां होने लगी हैं. मंचीय प्रस्तुति हेतु लोक समूह की बजाय कुछ चुनिन्दा सांस्कृतिक दल लोक-नृत्यों की प्रस्तुतियां देते हैं. कई जगह सप्तमी के दिन से शुरू होने वाला यह पर्व पूरे एक सप्ताह तक भी चलता है.
पिथौरागढ़ जिले में सातू-आंठू से शुरू होने वाले इस पर्व के समापन अवसर पर कृषि –जीवन की जीवंत झांकी का प्रस्तुतीकरण ‘हिल-जात्रा’ के रूप में आयोजित किया जाता है. पहाड़ों में इस कृषि पर्व को मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है. इस अनोखे पर्व में बैल, हिरन-चीतल , लखिया भूत जैसे दर्जनों पात्र मुखौटों के साथ मैदान में उतरकर देखने वालों को रोमांचित कर देते हैं. हिलजात्रा मुखौटा नृत्य नाटिका रूप में मनाया जाने वाला कृषि पर्व है जिसका मुख्य पात्र स्थान विशेष पर अलग–अलग है. पिथौरागढ़ के कुछ स्थानों कुमौड़ व उड़ई में जहाँ लखिया भूत इसका मुख्य पात्र है, वहीं दूसरी ओर सतगढ़ और बुंगाछीना में महाकाली लखिया भूत की जगह लेती है. किवदंती के अनुसार नेपाल के राजा ने चार महर भाईयों से खुश होकर यह जातरा(नेपाल में इंद्र जात के रूप में मनायी जाती है) इन्हें भेंट की थी. साथ ही इसमें प्रयुक्त होने वाले मुखौटे और हल आदि भी भेंट किये जिसे लेकर चारों महर भाई कुंवर सिंह महर, चेहज सिंह महर, चंचल सिंह महर और जाख सिंह महर वापस पिथौरागढ़ आ गये. सर्वप्रथम पिथौरागढ़ के कुमौड़ नामक गाँव में इस उत्सव को हलजातरा के नाम से मनाया. तब से लेकर अब तक इस उत्सव को प्रतिवर्ष पूरे हर्षोल्लास से मनाया जाता है. कालांतर में इसका नाम हलजातरा से हिलजात्रा हो गया.
मुख्य उत्सव के दिन सुबह से ही स्वांग भरने वाले अपने लकड़ी के मुखौटों को सजाने में लग जाते हैं. दोपहर बाद निर्धारित समय में गाँव के मुखिया या वयोवृद्ध व्यक्ति अपने पारम्परिक वाद्य-यंत्रो (ढोल-नगाड़ों) के साथ लाल ध्वजा–पताका लेकर कोट (प्रथम महर थोकदारों के आवास) की परिक्रमा करते हैं फिर एक स्वांगकर्ता काठी और घास–फूस के घोड़े में सवारी करके आता है और अपने रोचक करतबों से दर्शको को रोमांचित करता है.
फिर कुमौड़ के मैदान में शुरू होता है ग्रामीण जीवन और उससे जुड़े पात्रों का जीवंत चित्रण. सबसे पहले मैदान में आते हैं- झाड़ू लगाते स्त्री-पुरुष, फिर हुक्का –चिलम पीते मछुवारे, फिर आती है शानदार बैलों की जोड़ी और हल लिया किसान जो बैलों को लेकर अपने खेतों में जा रहा है. इसके बाद आते हैं गल्या बल्द (अड़ियल बैल) और फिर शुरू होता है बैल और किसान के आपसी मान-मनुहार का स्वांग. किसान अपने अड़ियल बैल को मनाते हुए उससे चलने को कहता है पर बैल जिद्दी है. हल जोतने के लिये जैसे ही उसे जुए में जोता जाता है तो वह खेत में लेट जाता है और किसान को परेशान करता है. इस के साथ –साथ हुड़के की थाप और चांचरी के बोलों के बीच महिलाओं की धान रोपाई और गुड़ाई का स्वांग भी चलते रहते हैं. यह स्वांग इतने रोचक और जीवंत होते हैं कि दर्शक तुरंत ही इनसे जुड जाते हैं. बीच –बीच में ग्रामीण जीवन में पाए जाने वाले अन्य अहम् पात्र भी इसका हिस्सा बनते जाते हैं जैसे – शिकारी, साधु, घास काटती घ्स्यारी और रंग –बरंगे परिधानों में सजी नृत्य करती महिलायें और पुरुष.
यह सभी पात्र जो ग्राम–समाज का अभिन्न अंग हैं, लोक नृत्य- नाटिका से दर्शकों को जब पूरी तरह अपने सम्मोहन में ले चुके होते हैं. तभी अचानक ढोल-दमाऊ की तेज आवाज आने लगती है. यह सूचना है- हिलजात्रा के मुख्य पात्र लखिया भूत के आगमन की और इसके साथ ही पूरे मैदान की निगाहें आवाज का पीछा करते हुए मुख्य द्वार की तरफ घूम जाती है पूर्व के सारे पात्र मैदान के अलग–अलग कोनो में अपने स्थानो में बैठ जाते हैं और पूरी जगह को खाली कर दिया जाता है. तब सर पर लकड़ी के विशाल मुखौटे, लाल-काली पोशाक, हाथों में दो काली चवंर, गले में रुद्राक्ष की माला और कमर में मोटी लोहे की जंजीर (जिसे दो गण पकड़े रहते हैं) के साथ ढोल-नगाड़े की विशिष्ट ध्वनि के साथ लयबद्ध तरीके से नाचते-कूदते हुए लखिया भूत मैदान में प्रवेश करता है. सभी लोग अक्षत और फूल चढ़ाकर लखिया भूत की पूजा अर्चना कर अच्छी फसल और सुख-समृद्धि की कामना करते हैं. घंटों चलने वाले हिलजात्रा पर्व का समापन उस लखिया भूत के वापस जाने के साथ होता है, जिसे भगवान शिव का गण माना जाता है. लखिया भूत अपनी डरावनी आकृति के बावजूद इस पर्व का सबसे बड़ा आकर्षण है. उमंग और उल्लास का यह महीना तैयार कर रहा है असौज के लिए जब काम के अत्यधिक दबाब से किसान को पानी पीने की भी फुर्सत नहीं मिलती.
प्राचीन काल से ही पहाड़ों के इन कृषि उत्सवों का मकसद न केवल प्रकृति और ईश्वर का धन्यवाद करना रहा है बल्कि इनका जुड़ाव कृषि सह-संबंधी क्रियाकलापों से भी रहा है. यह उत्सव मेलों (कौतिक) की तर्ज पर आयोजित किये जाते थे. इन मेलों में जहाँ एक ओर सामुदायिक मिलन, सूचनाओं और नवीन जानकारियों का आदान–प्रदान होता था. वहीं दूसरी ओर इनका व्यापारिक महत्त्व भी हुआ करता था. ग्रामीण समाज अपने कृषि संबंधी व अन्य दैनिक जरूरतों की खरीदारी भी इन मेलों से ही किया करता था.
आज सूचना क्रांति और मॉल संस्कृति के बढ़ते चलन ने इनके स्वाभाविक स्वरूप को बदल दिया है. अब ग्रामीण परिवेश में आयोजित होने वाले ये मेले कौतिक संक्रमण काल में है. लोक विधाओं के जानकार तेजी से घटे हैं. ग्राम–समाज की जगह अब यह मेले-उत्सव बहुधा मंचीय प्रस्तुति मात्र रह गए हैं. सामजिकता को जीवंत रखने के लिए इन लोक पर्वों और संस्कृतियों को सहेजा जाना आवश्यक लगता है. सदियों से समाज के दबे-पीड़ित और शोषित वर्ग खासकर महिलाओं ने सामाजिक उपेक्षा और जीवन संघर्षों से जुड़ी आपाधापी को अभिव्यक्त करने के लिए अपनी लोक भाषा का सहारा लिया. लोक गीत किसी कवि विशेष की रचना नहीं है. यह तमाम रचनाएं अलग अलग समयों में विभिन्न लोगों के मानस और कंठों से होकर ही पूर्ण और पल्लवित हुई हैं.
आज परिवेश आधारित लोक ज्ञान को संरक्षित व प्रसारित करने की आवश्यकता है. नई पीढ़ी के अधिकाँश लोगों को इनके बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं है. अगर इन लोक विधाओं को विद्यालयी पाठ्यक्रम से जोड़ते हुए बच्चों के सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं में शामिल किया जाए तो जहाँ एक ओर इन लोक विधाओं का संरक्षण हो सकेगा वहीं युवा पीढ़ी द्वारा इसे समृद्ध करने की दिशा में अपना योगदान दिया जा सकेगा.
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 भी इस बात की पुरजोर वकालत करती है. इसके अनुसार-
यदि हमें अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को सभी विविधताओं और समृधि के साथ सुरक्षित रखना है तो कला शिक्षा को हमारे विद्यार्थियों की औपचारिक शिक्षा में एकीकृत करने की जरुरत पर अविलम्ब ध्यान देने की आवश्यकता है.
यही दस्तावेज आगे कहता है कि-
भारत में कलाएं धर्म निरपेक्षता और सांस्कृतिक विविधता का भी जीवंत उदाहरण हैं जिसकी समझ हमारे युवाओं को कलात्मक परम्पराओं की समृद्धि और विविधता को बढावा देने की योग्यता प्रदान करेगी साथ ही उन्हें उदार, रचनात्मक चिन्तक और राष्ट्र का अच्छा नागरिक बनायेगी. कलाएं हमारे युवा नागरिकों को न केवल उनके विद्यालयी जीवन में अपितु जीवन पर्यंत समृद्ध करेंगी.
सुरेन्द्र धामी का यह लेख हमें विनोद उप्रेती ने भेजा है. सभी तस्वीरें विनोद उप्रेती ने 2016 में बजेटी की हिलजात्रा के दौरान ली हैं.
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