सुन लो हे मेरे चटोरे पाठको. हम न तो गोरे अंग्रेजों की तरह हैं,जो पूरी जिंदगी वो पास्ता-वास्ता, पिज्जा-विज्जा, टोस्ट-पोस्ट खाकर काट दें और न ही उन नाटे-बौने चीनी और जापानियों की तरह, जो जिंदगी केंचुए जैसी शक्ल वाले नूडल्स और केकड़े का सूप पीने में ही गुजार दें. हम तो खालिस हिंदुस्तानी हैं, जो इस ब्रहमांड के सबसे बड़े जन्मजात चटोरे ठैरे. हम भारतीयों का परम विश्वास है कि चौरासी लाख योनियों में एक बार मनुष्य का जन्म मिला है. अगला जन्म न जाने किसका मिले कुत्ता, बिल्ली, बकरी, चूहा या कीड़े-मकौड़े का. इससे भी बड़ा सौभाग्य ये कि हिंदुस्तान जैसे मुल्क में हमारी पैदाइश हुई, जहां प्रांत-प्रांत में है लजीज व्यंजनों का बसेरा. इसलिए इस जन्म का भारतीय भोजनों को खाने में भरपूर सदुपयोग हो और अपने जीवन को सुफल बनाया जाए.
इस देश में खाने-पीने के लिए बहुत कुछ है. कश्मीर में रिस्ता, यखनी, कीमा, कोरमा जैसे मांसाहारी व्यंजनों से सजा बाजवां है तो सुदूर दक्षिण के केरल में नाना प्रकार की रसेदार व सूखी सब्जियों, चटनी, अचार, पापड़, रायता, पायसम आदि से युक्त और केले के पत्ते में परोसा गया साद्यम. भारतीय चटोरों में भी उच्च कोटि के चटोरे पंजाबियों का तो सूत्र वाक्य ही है-खुल्ला खाना अते नंगा नहाना. खूब दबके खाते हैं ये अपने पंजाबी- छोले भठूरे, नान, माह राजमाह दी दाल, सरसों दा साग नाले मक्की दी रोटी. एक दौर था कि देश के ढाबों में 75 प्रतिशत पर पंजाबियों का कब्जा था. दशमेश ढाबा, गुरु नानक ढाबा, गुरदेव दा ढाबा, गुरतेज दा ढाबा, गुरनाम दा ढाबा, गुरजंट दा ढाबा, गुरबख्श दा ढाबा, गुरमेल दा ढाबा, गुरकीरत दा ढाबा, जरनैल दा ढाबा, करनैल दा ढाबा, लक्खे दा ढाबा, सुक्खे दा ढाबा, शंटी दा ढाबा, मिंटे दा ढाबा, जट्टां दा ढाबा, शेरे पंजाब ढाबा, पंजाबी वीर दा ढाबा… अब भई जो खाना जानता है, वही बनाना भी जानता है.
यूपी तो खैर अपने आप में एक लघु देश हुआ. इस प्रांत का शायद कोई ही शहर होगा जहां के खानपान में कुछ न कुछ मशहूर न हो. आगरा का पेठा, मथुरा के पेड़े, बनारस की लस्सी, लखनऊ की रेवड़ी, टुंडे के कबाब, इलाहाबाद के समोसे, मेरठ की नानखटाई, मुरादाबादी घोटा मूंग दाल, शाहजहांपुर की चंद्रकला, मैगलगंज के गुलाब जामुन, बड़हलगंज (गोरखपुर) के बुढऊ चचा की घोटा बर्फी वगैरह-वगैरह. अगर यूपी वालों को अपने विविधतापूर्ण भोजन पर नाज है तो बिहार वाले कौन से कम हुए. वहां के भोजपुरी और मगधी लिट्टी चोखा की वजह से मूंछों पर ताव देते हैं तो मैथिल भी महान भोजनभट्ट हुए. उधर, बंगाली दादा कहता है-बोशुन, बोशुन मेरे बंगाल का माछेर झोल खाओ, छोलार दाल खाओ, शुक्तो खाओ, रोसोगुल्ला खाओ, सोंदेश खाओ. ये नहीं खाते हो तो लुची भाजा ही खाओ. औरों की तो छोड़िए, ठेठ रेगिस्तान का मारवाड़ी भी अपनी चौड़ी सी थाली में दस-बारह कटोरियां सजा कर लाता है और गर्व से कहता है भाया म्हारी थाली सबसे न्यारी.
आपने कभी किसी विदेशी फिल्म का नाम ब्रेड, बटर, मैक्रोनी, चाउमिन, मंचूरियन, क्रीम रोल, सूप, जैम, जेली वगैरह कुछ सुना है…? शायद कभी नहीं, पर अपने देश में खानपान का इतना महत्व है कि यहां खानपान से जुड़े नामों की फिल्में भी बनती हैं, कहावतें भी और धमकियां भी. रोटी, मिर्च मसाला, नमकीन, चीनी कम, बर्फी आदि नामों के साथ फिल्में दुनिया में सिर्फ भारत में ही बनी हैं तो दाल-भात में मूसल चंद, गुजराती दाल और अरहर की टट्टी, ये मुंह और मसूर की दाल जैसे मुहावरे भी इसी धरती पर गढ़े गए हैं. यहां तो धमकियां भी खानपान में ही दी जाती हैं. उदाहरण देखिए… अबे तू सुधरा नहीं तो मार-मार के भुर्ता बना दूंगा. और तो और कष्ट व्यक्त करने के लिए भी बीच में दाल आ जाती है- यार इसने तो छाती पर मूंग ही दल रखी है. सोशल मीडिया के इस युग में विभिन्न संचार माध्यम भी भारत के भोजन प्रभाव से अछूते नहीं. मैं एक व्हाट्सएप ग्रुप का सदस्य हूं जिसका नाम दाल भात है, वहीं फेसबुक पर रायता नाम के एक ग्रुप से भी जुड़ा हूं.
अब आप ही बताइए जिस देश में भोजन की इतनी अधिक महता हो और कदम-कदम पर खान-पान के लिए इतनी वैरायटीज मौजूद हों, वहां जीवन का ध्येयवाक्य “भरपूर भोजनम्, तानकर शयनम्’ न हो तो और क्या हो. लेकिन प्रांत-प्रांत की इन तमाम वैरायटीज के बीच अगर आपने अपने जीवन में कुमाऊनी रायता छोड़ दिया तो यह वैसा ही अक्षम्य अपराध हुआ, जैसे सारे तीर्थ नहा लिए हों और हरिद्वार छोड़ दिया हो. कुमाऊनी रायते का महात्म्य इसके नाम में ही छिपा है. आपने घटक द्रव्यों के आधार पर खीरे का रायता, बूंदी, मिक्स वेज, पाइन एपल का रायता इत्यादि बहुत से रायते सुने होंगे, लेकिन क्या कभी पंजाबी रायता, गुजराती रायता, मद्रासी रायता, अवधी रायता, भोजपुरी रायता सुना है. किसी क्षेत्र विशेष के आधार पर रायते का नामकरण होने का गौरव सिर्फ और सिर्फ अनन्य रूप से उत्तराखंड के कुमाउनी रायते को ही हासिल है.
रायता भारतीय भोजन का आवश्यक अंग है. शादी-विवाह, तेरहवीं-बरसी, नामकरण-जन्मदिन, पूजा-कथा या फिर बीस-तीस या उससे अधिक लोगों के जीमने की गुंजायश वाले सार्वजनिक कार्यक्रम में रायता बनाना अनिवार्य समझो. कई घरों में भी नियमित रूप से रायता सेवन होता है, विशेषकर गर्मियों में तो जरूर. रायता की सर्वप्रियता और सामूहिक भोजन में अनिवार्यता दरअसल भारतीय भोजन विन्यास की सामान्य नियमावली के कारण है. भारत के लगभग सभी प्रांतों में भोजन तभी संपूर्ण माना जाता है, जब उसमें नमकीन, खट्टा व मीठा का सम्मिश्रण हो. नमकीन में दाल-सब्जियां हुईं तो खट्टे में अचार, चटनी, रायता आदि. भोजन के अंत में मीठे का चलन भी सर्वत्र है गुलाब जामुन, रसगुल्ला, खीर, हलवा वगैरह-वगैरह. इनमें से कुछ न मिला तो गुड़ की डली या सौंफ के साथ चीनी ही सही. लेकिन इन सभी भोजन अवयवों के बीच सर्वाधिक प्रतिष्ठा रायते ने हासिल की है. उसकी वजह है इसका शुभ्र वर्ण, दाल सब्जी का तीखापन कम करने की क्षमता और स्वाद की अलौकिकता. जनसाधारण में रायते की लोकप्रियता को समझना हो तो कभी हमारे हल्द्वानी में कोई शादी-पार्टी अटेंड कीजिए. पार्टी में भोजन के दौरान आप पाएंगे कि रायते के बरतन को महिलाओं ने घेरा हुआ है. बूफे सिस्टम में भी वे अधिकाधिक रायता सेवन के उद्देश्य से अलग से गुलाब जामुन परोसने वाली प्लास्टिक की कटोरी उठाकर ले आती हैं और रायते का भरपूर भोग लगाती हैं. कोई तो एक साथ दो-दो कटोरी भर के रायता पान करती हैं.
रायते के प्रति यह आसक्ति यूं तो सभी प्रकार के रायतों के प्रति रहती है, लेकिन अगर कुमाउनी रायता बना हो तो उसकी दो चम्मच हासिल करने के लिए कुछ ज्यादा ही जूझना पड़ता है. कुमाऊनी रायते के प्रति यह अतिरिक्त मोह बेवजह नहीं है. दूसरे रायतों से हटकर कुछ अलहदा स्वाद व खुशबू ही खाने वाले को इसके मोहपाश में बांध देते हैं. दूसरे तमाम रायतों में जहां उनकी मौलिकता उनका खट्टापन है, वहीं कुमाऊनी रायते में खट्टे के साथ पहाड़ी काखड़ी (खीरा) की विशिष्ट सरसता व सुगंध, राई का तीखापन व हरी मिर्च की बिलबिलाहट इसे अलग श्रेणी में खड़ा करती है. जहां तक मैं समझता हूं कुमाऊनी रायते ने अपना यह विशिष्ट स्वरूप इस अंचल की जलवायु व तापमान के कारण ग्रहण किया है. इस रायते का मूल घटक पहाड़ी काखड़ी है. यह काखड़ी बरसात के दिनों में ही पैदा होना शुरू होती है और बरसात के साथ ही पहाड़ में तापमान गिरकर ठंड भी पड़नी शुरू हो जाती है. लोकमानस में ऐसा विश्वास है कि दही व उससे बने पदार्थ तासीर में ठंडे होते हैं. अब पहाड़ी काखड़ी से बने लजीज रायते को भी खाना है और इसकी ठंडी तासीर को भी बेअसर करना है तो इसका तोड़ निकाला गया राई के दानों, हरी मिर्च व हल्दी से. ऐसा माना जाता है कि राई व हरी मिर्च दोनों ही अपनी प्रकृति में उष्ण हैं तो शीत प्रकृति वाले दही व काखड़ी में इन दोनों के मिलते ही शीतोष्ण का संतुलन स्थापित हो गया. इसमें एंटी बैक्टीरियल का काम किया हल्दी ने और इस तरह अस्तित्व में आया दुनिया का बेमिसाल रायता. जो खट्टा भी है, अनूठी खुशबू से भरा भी और तीखा भी.
पूरे कुमाऊं में घर-घर बनने वाले इस रायते को बाकी दुनिया तक फैलाने का काम किया गरमपानी नाम की जगह ने. पुरातन समय से यह मल्ला, तल्ला दानपुर, कत्यूर घाटी, गगास घाटी, बारामंडल क्षेत्र, रानीखेत छावनी के फौजी अफसरों व सिपाहियों और गढ़वाल के लोहबा, खनसर, बधाण से हल्द्वानी आने वाले पदयात्रियों के लिए सफर की थकान के दौरान सुस्ताने और जलपान लेने का ठिकाना रहा है. बाद में ब्रिटिश काल में हल्द्वानी से अल्मोड़ा के बीच गरमपानी होते हुए लोअर अल्मोड़ा रोड बनी तो इस रोड पर गाड़ियों की आवाजाही शुरू हो गई. तब सड़क एकमार्गीय थी और गरमपानी में बैरियर लगाकर एक तरफ की गाड़ियों को ही निकलने दिया जाता था. बैरियर के कारण यहां वाहन रुकने शुरू हुए तो यात्रियों की भीड़ लगनी शुरू हो गई. चाय आदि तो बिकनी ही थी. थके-मांदे, पहाड़ की सर्पीली सड़कों के सफऱ में हिचकोले खाते और मिनट-मिनट पर उल्टियां करके आते यात्रियों के लिए ये रायता भी बनना शुरू हो गया. क्वारब व आसपास के गांवों में उन दिनों दूध की प्रचुर उपलब्धता थी. जो बाल मिठाई बनने के लिए अल्मोड़ा जाता था और दही जमाने के लिए गरमपानी आता था. इसी दही से बनता था गरमपानी का यह गजब रायता. इस रायते की एक कटोरी पीते ही उल्टी के कारण कसैली हो चली जीभ भी दुरुस्त हो जाती और बदन भी नए सिरे से तरोताजा हो जाता और यात्री ताजादम हो आगे के सफर पर चल पड़ते. उधर, कालांतर में इसी प्रकार सोर घाटी और काली कुमाऊं से उतरने वाले यात्रियों के लिए चल्थी भी रायता केंद्र के रूप में विकसित हो गया.
तो साहब गरमपानी से कुमाऊनी रायते के फैलने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वो ऐसा फैला, ऐसा फैला कि आज बहकर खाड़ी देशों दुबई, बहरीन, अबू धाबी, कतर तक भी जा पहुंचा. पिछले साल दुबई में हुए उत्तराखंडियों के एक समागम में दूसरे कई उत्तराखंडी व्यंजनों के साथ कुमाऊनी रायता भी परोसा गया. उत्तराखंडी तो खैर इस पर टूटने ही थे, इस कार्यक्रम में आमंत्रित दूसरे प्रांतों के हिंदुस्तानी भी इसके मुरीद बन गए और उन्हें इसका ऐसा चटखारा लगा कि अब ये जब कभी किसी उत्तराखंडी के यहां भोजन पर आमंत्रित होते हैं तो उनकी विशेष मांग रहती है कि उस दिन वाला कुमाऊनी रायता जरूर बनाना भाई.
हो सकता है किसी दिन आपके घर भी कभी कुमाऊनी रायते का प्रेमी मेहमान आ जाए. तो उसकी आवभगत के लिए कुमाऊनी रायता बनाने की यह विधि गांठ बांध लीजिए और मेहमान के श्रीमुख से छूटी वाहवाही का आनंद लीजिए. अगर आप चाहते हैं कि मेहमान बार-बार आपसे ही इसे खिलाने का आग्रह न करे तो इसे बनाने की विधि मेहमान को भी सिखाइए ताकि अगली बार आप उनके घर जाकर कुमाऊनी रायते का लुत्फ उठा सकें.
आवश्यक सामग्री ( पांच से छह लोगों के लिए)
दही – आधा किलो
काखड़ी – आधा किलो
हरी मिर्च – तीन-चार
राई के दाने – दो चम्मच
हल्दी – आधा चम्मच
जीरा – आधा चम्मच
नमक – आधा चम्मच
निर्माण विधि
दही को भली-भांति फेंट कर एक बरतन में रख लें. काखड़ी को छीलकर कद्दूकस कर लें. यदि पहाड़ी काखड़ी उपलब्ध न हो तो मैदानी क्षेत्र के देसी खीरों से भी काम चलाया जा सकता है. कद्दूकस की गई काखड़ी को हल्का सा निचोड़ कर उसका अतिरिक्त पानी निकाल कर उसे फेंटे गए दही में मिला लें. अब किसी सिलबट्टे या इलेक्ट्रिक ग्राइंडर में राई के दाने, जीरा व हरी मिर्च को मिलाकर पीस लें. इस मिश्रण को भी दही में मिला लें. हल्दी भी दही में डाल दें. इस समस्त सामग्री को दही में अच्छी तरह घोलकर बरतन को करीब आधा घंटे फ्रिज में रख दें. सर्दियों के दिन हैं तो बाहर भी रखा जा सकता है. जब रायते को परोसना हो तो उसमें नमक भी मिला लीजिए. नमक को अंत में मिलाने का कारण यह है कि पहले से ही नमक मिलाकर रख देने से यह रायते को अधिक खट्टा कर सकता है.
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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.
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1 Comments
विभूति रंजन
सर, आपने तो हमे ये कभी नही खिलाया। एक बार मैं चार पांच दिनों के लिए हल्द्वानी आकर सारे पहाड़ी व्यंजनों को चखउँग
। आप तैयार हैं न