आज विश्वास करना मुश्किल होता है कि जनार्दन बाबू कभी ऐसे न थे जैसे अब हो गए हैं. लगभग सालभर पहले कुछ और ही आदमी थे. उनके कई जानने वालों को आज भी यकीन सा नहीं होता कि वे इतने बदल गए हैं. तब वाले जनार्दन बाबू की तलाश आज भी कइयों को रहती है. लेकिन लगता नहीं कि पुराने ‘जेडी बाबू’ से दोबारा मुलाकात हो पाएगी. साल सवा साल का अनुभव यही कहता है, न चाहते हुए भी मजबूरन मानना पड़ता है कि अब यही जनार्दन बाबू हैं और ऐसे ही हैं.
जनार्दन बाबू शराब पहले भी पीते ही थे. कोई नई बात नहीं थी. हफ्ते में दो-तीन दिन लेते थे. कभी-कभी पूरा हफ्ता बिना पिए भी रह जाते. छूते तक नहीं थे. उनका मानना था कि नशे पर निर्भरता ठीक नहीं. बीच-बीच में अपने आपको चेक करते रहना चाहिए. सहकर्मियों के बीच कभी पीने-पिलाने की बात चलती तो मिसाल उन्हीं की दी जाती कि यार पीते तो अपने जेडी बॉस हैं, सलीका उन्हीं को है. हमें तो एक दिन शराब पी जाएगी.
घर से बाहर जनार्दन बाबू किसी भी हालत में शराब नहीं पीते थे. पार्टी समारोह में भी नहीं. उनके पड़ोसियों तक को उनके इस शौक के बारे में पता नहीं था. अपने सहकर्मियों का यह तरीका उन्हें पसंद नहीं आता था कि शाम को दफ्तर से छूटते ही कहीं भी चाय के ढाबों-होटलों में बैठकर शराब गटक ली जाए. उनका कहना था कि पर्दे की चीज़ है, इस तरह सार्वजनिक जगहों पर इसका सेवन ठीक बात नहीं. गप-शप में अंदाजा नहीं आता और अक्सर डोज ज्यादा हो जाता है. किसी के घर वाले आदमी का लड़खड़ाते घर लौटना पसंद नहीं करते. उन्हें समाज में शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है. घर में हुज्जत होती है. बाहर दस लोगों की नजर पड़ती, दस कहानियां बनती हैं. घर में बैठकर आराम से लिमिट की लो तो किसी को एतराज भी नहीं होता. और यार जब तक पीने में इत्मिनान न हो तो मजा ही क्या रहा. किसी दिन सुरूर को धीमे-धीमे जवान होता हुआ तो महसूस करके देखिए, फिर यूं कड़वी दवा की तरह गटकना भूल जाएंगे. अरे वो एक अनुष्ठान है भाई.
जिस दिन उनका पीने का मन होता, वे छुट्टी से एकाध घंटे पहले दफ्तर के स्वच्छक को आवाज देते, ‘अरे भाई राजकुमार, थोड़ा सा तारपीन का तेल ला दो मेरे लिए.’ राजकुमार जाकर व्हिस्की का क्वॉर्टर ले आता. बदले में बीस रुपये चाय के लिए पाता था. महीने में जनार्दन बाबू एकाध शाम उसकी भी अच्छी करवा देते. घर पहुंचकर हस्ब-ए-मामूल टीवी के आगे बैठकर दो-तीन कप चाय सुड़कने के बजाय पहली ही चाय के बाद अपने कमरे में चले जाते. इससे उनके मूड का अघोषित ऐलान हो जाता. फिर पत्नी-बच्चे उनके एकांत में खलल नहीं डालते थे.
जनार्दन बाबू ढेर सारा सलाद काटकर प्लेट में कलात्मक तरीके से सजाते, गिलास को खूब रगड़-रगड़कर धोते और पुराने अखबार से देर तक चमकाते. पैग बनाने के बाद उसे कुछ देर बड़ी हसरतभरी नजरों से निहारते, होठों से लगाने से पहले शराब में उंगली डुबोकर हवा में छींटे उड़ाते हुए कुछ बुदबुदाते. यह कार्यक्रम डेढ़-दो घंटे तक चलता. इस दरमियान ऑफिस से लाई कोई फाइल निपटा देते या हल्का-फुल्का पढ़ लेते. तीन लीगल पैग पीते थे, चौथा पैग उन्होंने कभी पिया ही नहीं था. पीने के बाद परिवार के साथ बैठकर खाना नहीं खाते थे. पत्नी उनका खाना ले आती. खाने के कुछ ही देर बाद नींद और सुरूर उन पर हावी हो जाते, गहरी नींद आ जाती.
सुबह मुंह अंधेरे उठकर वे परिवार को पहली चाय पिलाते और खुद लंबी सैर पर निकल जाते. पत्नी से उन्हें यही एक शिकायत रही कि उन्होंने इस सैर में एक दिन भी उनका साथ नहीं दिया. अपनी तंदुरुस्ती का राज वे इसी नियमित सैर को मानते थे. अक्सर कहा करते थे कि इस आदत ने उन्हें सेहत के अलावा कई अच्छे दोस्त भी दिए जो कई बार बड़े मददगार साबित हुए.
दफ़्तर में जनार्दन बाबू उम्र में सबसे वरिष्ठ थे और तजुर्बेदार भी. उन्हें लंबा अनुभव था. एक से एक खग्गाड़ ऑफिसरों और कांइयां बाबुओं के साथ काम कर चुके थे. उन्हें फाइलों का कीड़ा माना जाता था. दफ़्तर में उनका बड़ा मान था. बड़ा साहब भी जो कि नया-नया नौकरी में आया था, किसी महत्वपूर्ण फाइल पर दस्तख़त करने से पहले उनकी राय ज़रूर पूछता था. सहकर्मी मुंह सामने उन्हें बाबूजी और पीठ पीछे जेडी बाबू या जेडी बॉस बुलाते थे.
जनार्दन बाबू पचपन-छप्पन की उम्र के हो चले थे. उम्र के हिसाब से उनकी सेहत एकदम दुरुस्त थी. आंख-कान-घुटने सब फिट. बकौल उन्हीं के सारी इंद्रिया सुचारूपूर्ण ढंग से काम कर रही थीं. सर के बाल हल्के से उड़ गए थे और कभी-कभार बढ़ जाने वाले रक्तचाप के सिवाय उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी. मिज़ाज से विनम्र और थोड़ा कम बोलने की आदत थी. उनका कभी किसी से कोई विवाद नहीं रहा था. किसी के काम में कभी बेवजह अड़ंगा नहीं लगाया. अपने काम से मतलब रखा, जितना बन पड़ा दूसरों की मदद की. उनका हर काम चाक-चौबंद होता और टेबल करीने से सजी रहती. हर तरह से सुखी और संतोषी आदमी थे. उन्हें अपने जीवन से कोई शिकायत न थी. हां कभी-कभार बेटे को लेकर फ़िक्रमंद रहा करते थे. बेटा एक-दो साल से पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की तलाश में भटक रहा था. वे कई बार सहकर्मियों से अपनी इस चिंता को साझा किया करते थे कि न जाने यह लड़का अपनी जिंदगी में क्या करेगा. बेवकूफ़ी की हद तक सीधा है. बच्चे तक इसे उल्लू बना जाते हैं. जरा भी व्यावहारिक नहीं है. बस यही एक रोना है बाकी ईश्वर ने सब दिया, बहुत दिया.
कभी-कभी जनार्दन बाबू कहते, ‘यार सोचता हूं कि रिटायरमेंट के बाद छोटी सी दुकान खोल लूंगा, रोजमर्रा के घरेलू सामान की. घर से लगा हुआ गैराज भी खाली पड़ा है. काफ़ी बड़ा मोहल्ला है हमारा, अपना गरीबखाना भी तो मेन रास्ते में है, आख़िर इस लड़के का भी तो कुछ इंतजाम करना पड़ेगा. खुद गद्दी पर बैठा रहूंगा और बेटा ग्राहक संभाल लेगा. आप लोगों की क्या राय है?’ सहकर्मी उनका हौसला बढ़ाते, ‘सर आइडिया बहुत अच्छा है आपका, और आप देखिएगा दुकान खूब धड़ल्ले से चलेगी आपकी. दो-तीन नौकर रखने पड़ जाएंगे आपको और बेटे के लिए आप दुकानदारी जैसा छोटा सपना क्यों देखते हैं. पढ़ा लिखा होनहार बच्चा है, उसका अपना भविष्य है. आप बेकार में जरूरत से ज्यादा चिंता करते हैं. हां, अपने समय के सदुपयोग के लिए आप जरूर दुकान खोलिए.’
ऐसी बातें सुनकर वे बड़ी राहत सी महसूस करते. उनका चेहरा खिल उठता. एकाएक उनका मूड बड़ा अच्छा हो जाता, ‘हां, यार आप लोग ठीक कह रहे हैं, पता नहीं मुझे कभी-कभी क्या हो जाता है. बड़ा निगेटिव सोचने लगता हूं. खैर, छोड़ो हटाओ.’ फिर जनार्दन बाबू पूरे स्टाफ के लिए चाय के साथ समोसे भी मंगवा लेते. फिर हफ्तों-महीनों तक इस तरह की कोई बात उनके मुंह से सुनने को नहीं मिलती थी.
जनार्दन बाबू गंडे-ताबीज, ज्योतिष वगैरह के घोर विरोधी थे. इन सबका मजाक उड़ाने का कोई मौका नहीं चूकते थे. कीमती नगों के बारे में उनका कहना था कि इन रंगीन पत्थरों में मनुष्य का भाग्य बदलने की ताकत होती तो दुनिया के अनगिनत राजवंशों का नाम यूं न मिट गया होता, राजाओं के पास भला हीरे-जवाहरात की क्या कमी. वही जनार्दन बाबू एक दिन जब नग जड़ी सोने की अंगूठी धारण किए नजर आए तो स्टाफ में किसी ने हिम्मत करके पूछ लिया, ‘ये कौन सा नग है बाबू जी. पुखराज है शायद. फब रही है अंगूठी आप पर, इसी बीच बनवाई गई लगती है.’
जनार्दन बाबू एकदम से सटपटा से गए, ‘अरे वो क्या… क्या कहें यार, बस जानते ही हो. पत्नी की जिद के आगे सभी को हार माननी पड़ती है.’ उन्होंने हंसने की कोशिश की, ‘मैंने भी पहन ली कि कभी सफर में जेब कट गई तो इसी को बेच-बाच कर घर तो पहुंच जाऊंगा… और सुनाओ कुछ नया ताजा. तुम यार लंच में भिंडी नहीं लाए बहुत दिन से. हम से तो वैसी बनती ही नहीं.’
दो-एक महीने बाद जनार्दन बाबू फिर किसी बहाने बेटे का किस्सा लेकर बैठ जाते. उसके भविष्य को लेकर चिंता करने लगते. वे जब भी इस बात का जिक्र सहकर्मियों से करते तो खुद को अकेला पाते. सभी लोग एकमत होकर उन्हें समझाते कि वे नाहक जरूरत से ज्यादा चिंता कर के खुद के लिए तनाव पैदा कर रहे हैं. उन्हें कोई जवाब देते न बनता तो बात को यूं खत्म करके चुप्पी साध लेते, मानता हूं मिश्रा जी, आपकी बात सोलह आने सच है. पर इतना तो आप भी मानेंगे न कि एक पिता होने के नाते थोड़ी बहुत चिंता तो होती ही है. समय कैसा चल रहा है. आप देख ही रहे हैं. एक से एक टैलेंट वाले डिग्रीधारी बच्चे मारे-मारे फिर रहे हैं. ऐसे मौके पर चाय और समोसे उनके करीबी माने जाने वाले जोशी बाबू को मंगाने पड़ते. बड़ी मुश्किल से जनार्दन बाबू के चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट आती.
उस दिन सारे स्टाफ के बीच यही चिंता और चर्चा थी कि आज जेडी बाबू कहां रह गए? न अर्जी, न कोई फोन. उनके रिकार्ड को देखते हुए यह बड़ी अनहोनी सी बात थी. जनार्दन बाबू ठीक समय पर दफ्तर पहुंचने के लिए विख्यात बल्कि कुख्यात थे. उनकी वजह से दूसरों को भी लेटलतीफी का मौका नहीं मिल पाता था.करीब घंटा भर बाद जनार्दन बाबू दफ्तर में दाखिल हुए. सहकर्मियों की ओर से पहला सवाल यही हुआ कि सब कुशल तो है? उन्होंने मुस्कुराते हुए इशारों से समझाया कि हां सब ठीक है, यूं ही जरा देर हो गई. अपनी टेबल पर पहुंच कर उन्होंने बैग-टिफिन वगैरह यथास्थान रखे और कुर्सी संभाल ली. आज उनके मुंह में पान दबा था. इसी ओर इशाराकर किसी ने उन्हें छेड़ने की नीयत से कहा, ‘क्या बात है सर, आज तो मुख की शोभा देखते ही बनती है. सर पान बनारसी है या मगही?’ उन्होंने मुस्कुराते हुए कंधे उचकाकर अनभिज्ञता जताई. जनार्दन बाबू पान खाते ही नहीं थे. सभी को यही लगा कि शायद किसी परिचित ने जिद करके पान खिला दिया. बात हंसी मजाक में टल गई. सब अपने काम में लग गए.
जनार्दन बाबू की दाहिनी और जोशी बाबू बैठते थे. जनार्दन बाबू के हमउम्र और उनसे एकाध साल जूनियर. दोनों की आपस में खूब घुटती भी थी. दोनों काफी वरिष्ठ थे और बाकी स्टाफ से जरा फासले पर बैठते थे. जनार्दन बाबू ने जोशी बाबू को जरा करीब आने का इशारा किया और खुद भी थोड़ा उनकी ओर झुके, ‘यार जोशी, आज मुझसे एक बड़ी गड़बड़ हो गई. माफ करना यार. गलती हो गई. कहो तो सीएल लगाकर घर चला जाऊं. अभी मैंने रजिस्टर में दस्तखत नहीं किए हैं.’
जोशी बाबू को गंध आ चुकी थी. उन्होंने अपनी हैरानी और अविश्वास को बमुश्किल छिपाया. ‘बैठे रहिए आराम से, फिट हैं आप. एकदम नॉर्मल हैं. आप बताते नहीं तो मुझे पता भी नहीं चलता. आप परेशान मत होइए, उस बारे में सोचिए ही मत. ऑकेजनली चलता है सर, इसमें कहने वाली कोई बात ही नहीं. संयोग से आज बॉस भी बाहर हैं. आप बेफिकर रहें, बात आपके मेरे बीच में रहेगी.’
जनार्दन बाबू ने कृतज्ञतापूर्वक उनका हाथ दबाया और खुद को फाइलों में उलझा लिया, स्टाफ में किसी को भनक तक नहीं लगी.
पीकर दफ्तर आना कब उनकी दिनचर्या बन गया किसी को अंदाज ही नहीं लगा. दो-चार दिन तो स्टाफ को यकीन ही नहीं हुआ कि जनार्दन बाबू और पीकर दफ्तर आएं? धीरे-धीरे यकीन करना ही पड़ा, शराब की गंध कब तक छिपती. शुरू में एकाध महीना घर से पीकर आते थे. फिर जब दिन में पीने का अभ्यास सध गया तो बीच-बीच में उठकर कैंटीन में जाकर पी आते. कुछ ही दिनों में जनार्दन बाबू बड़े अस्त-व्यस्त से हो गए. फाइलें अक्सर समय पर नहीं निपट पातीं. दो-तीन दिन की दाढ़ी अक्सर बढ़ी रहती. धीरे-धीरे चेहरा मुरझाने लगा क्योंकि टिफिन भी तो अब यूंही पड़ा रहता, कभी खाते भी तो बराएनाम. एकाध बार तो नौबत यहां तक आई कि उन्हें सहारा देकर दफ्तर की गाड़ी से घर भिजवाना पड़ा. जल्दी ही वजन भी कम होने लगा. सारी पतलूनें ढीली हो गईं. अर्सा हुआ उनकी सुबह की सैर भी छूट चुकी थी. इस बीच न जाने कब उन्होंने सिगरेट की नई लत पाल ली, खांसते हुए सिगरेट पीते थे. बड़े ही निरीह से हो चले थे जनार्दन बाबू.
परिवार, सहकर्मी और नाते-रिश्तेदार कह-समझाकर हार गए, बॉस ने भी अब उन्हें डांटना या चेतावनी देना बंद कर दिया. सब ने मान लिया था कि अब उनका कुछ नहीं हो सकता. शराब उन पर पूरी तरह हावी हो चुकी थी, उन्हें अब इसी रूप में स्वीकार करना मजबूरी थी.
उस दिन जनार्दन बाबू अपनी बगल की सीट पर बैठने वाले जोशी बाबू से मुखातिब हुए, ‘अरे जोशी जी, कुछ समय पहले आपके एक कोई रिश्तेदार गुजर गए थे. शायद तहसील में थे, याद आया.’
जोशी बाबू ने अपनी कुर्सी उनकी ओर घुमा ली. आज कई दिनों बाद जेडी बाबू दफ्तर के कामकाज से इतर इतना लंबा वाक्य बोले थे. इस बीच वे कुछ ज्यादा ही चुप रहने लगे. ‘जी हां, याद है अभी पिछले महीने उनकी बरसी थी, कैसे याद आई उनकी?’
‘कुछ नहीं बस यूं ही’ जनार्दन बाबू जोशी से नजरें चुरा कर फाइल पलटने लगे, ‘क्या हुआ था उन्हें?’
‘जी, उनका लीवर जवाब दे गया था, परहेज किया नहीं…’
‘कैसे?’ जनार्दन बाबू ने बड़ी तत्परता से पूछा – ‘दारू-वारू कुछ ज्यादा पीते थे क्या?’
जोशी बाबू को एकाएक समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दें, बमुश्किल कह पाए ‘जी’.
‘लड़का तो काफी बड़ा था न उनका, आप बता रहे थे.’
‘जी हां, पिता के रहते ही ग्रेजुएशन कर चुका था.’
‘तो पिताजी की जगह उसे नौकरी मिल गई या अभी प्रोसेस चल रही है?’
‘मिल गई थी सर, दो-एक महीने में ही मिल गई थी. विभाग वालों ने काफी सहयोग किया. अब तो उसकी शादी-वादी की बात चल रही है.’
‘गुड, वेरी गुड.’ जनार्दन बाबू ने यह वाक्य इतनी ऊंची आवाज में कहा कि सारे स्टाफ ने चौंक कर उनकी तरफ देखा. वे काफी धीमा बोलते थे. ‘और सुनो जोशी, कभी बात हो उस लड़के की आपसे तो उसे समझा देना कि बेटा नौकरी ढंग से करना, मेहनत से जी मत चुराना. काफी आगे जाएगा. सरकारी नौकरी आजकल मिलती कहां है. जानते ही हो, बड़ा मुश्किल है भाई.’ जोशी बाबू ने महसूस किया कि जेडी बाबू की आवाज में हल्का सा कंपन है और आंखें पनियाई हुई हैं.
काफी देर तक जनार्दन बाबू आंखे मीचे शांत बैठे रहे. धीरे-धीरे होंठो को चबाते हुए, जैसे कोई गुत्थी सुलझा रहे हों. बड़ी देर बाद उनके मुंह से निकला ‘हूं! यस.’ फिर वे टेबल का सहारा लेकर धीरे से खड़े हुए, बोले, ‘आता हूं जोशी, जरा हल्का होकर आता हूं’ और धीरे-धीरे चलते हुए ऑफिस से बाहर चले गए. जोशी बाबू ने खिड़की से देखा कि जनार्दन बाबू मूत्रालय की ओर नहीं कैंटीन की तरफ जा रहे हैं.
शम्भू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढ़ाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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1 Comments
बटरोही
इस कहानी के जरिए एकदम नये रूप में शंभू राणा । बधाई।