यह विचित्र किस्म का नाम एक ही व्यक्ति का है, जिसमें एक साथ तीन रिश्तों के संबोधन पिरोए गए हैं. दो संबंध तो स्पष्ट हैं, बड़ा भाई और चाचा, मगर तीसरा शब्द ‘बड़बाज्यू’ कुमाऊनी का है, जिसका अर्थ है, ‘दादा’ या ‘नाना’. पूरा नाम सुनने में जितना विचित्र लगता है, उसकी व्याख्या भी उतनी ही विचित्र है. एक ही आदमी, एक साथ इन तीन रिश्तों के साथ कैसे पुकारा जा सकता है? होगा तो वह तीनों में से किसी एक ही संबोधन से जुड़ा हुआ. मगर साठ के दशक में हमारे घर में परिवार के एक सदस्य के रूप में रहने वाले मोत्दा-च्चा-बड़बाज्यू जितने वास्तविक चरित्र थे, उतने ही वास्तविक थे उनके साथ जुड़े हुए ये रिश्ते.
मैं जब छोटा था, बड़े बाबजी ने बताया था कि साल 1944 की गर्मियों में जब वह बैठक के बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठे सुस्ता रहे थे, तेरह-चौदह साल का नाटे कद का एक लड़का दरवाजे पर खड़ा उन्हें टुकुर-टुकुर देख रहा था. कुछ कहना चाहता था, मगर मानो मुँह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे. पहले तो बड़े बाबजी ने उस ओर ध्यान नहीं दिया, मगर जब एक ही मुद्रा में खड़े-खड़े बहुत देर हो गई तो उन्होंने उसका नाम पूछा. लड़के के चेहरे से न तकलीफ झलकती थी, न परेशानी और न संतोष; सपाट चेहरे पर असमंजस का मिला-जुला एक भाव झलक रहा था, जिसे समझ पाना बहुत मुश्किल था. लड़के ने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने फिर नाम पूछा, मगर इस बार भी वह मौन खड़ा रहा. चेहरे के बीचों-बीच दबी हुई छोटी-सी नाक और उसके नीचे एक सीधी रेखा के दोनों ओर ओठों के रूप में विराजमान मानो उल्टे और सीधे दो छोटे-से धनुष. चेहरे से अपने-आपको अलग करता हुआ आगे की ओर उभरा हुआ माथा, जो किसी मूँठ वाली छड़ी के सिरे का भ्रम देता था. सिर के बालों में जटाएँ बन गई थीं और उनका रंग काफी-कुछ मिट्टी के रंग का हो चला था. माथे से लेकर चुटिया तक के हिस्से में अनेक गुठलियाँ-सी उभरी हुई साफ दिखाई दे रही थीं. आँखें पहाड़ियों की अपेक्षा चीनी-छवि अधिक देती थीं. रंग भी उम्र के हिसाब से साफ नहीं था, मगर यह महसूस होता था कि अगर ठीक से नहला कर उसे खड़ा कर दिया जाए तो उसका रंग काफी हद तक निखर आएगा.
सामने खड़े इस विचित्र-से प्राणी को देखकर, जरा-सी बात में गुस्से से उबल पड़ने वाले बड़े बाबजी की भी समझ में नहीं आया कि वह क्या करें? लड़का न निरीह लगता था, न उद्धत. आवाज़ में कुछ सख्ती लाकर उन्होंने फिर से उसका नाम पूछा तो लड़के ने किंचित् हकलाते हुए बताया कि उसका नाम मोती सिंह है. इस बार थोड़ा संयत हुए बड़े बाबजी और उन्होंने आवाज़ में भरसक स्नेह घोलते हुए कहा, ‘‘बैठ जा रे मोतिया….’’ लड़का बैठा नहीं; इस बार आवाज़ में अतिरिक्त जोर देते हुए बोला, ‘‘मेरा नाम मोतिया नहीं है शाप, मेरा नाम ठाकुर मोती शिङ बगडवाल बिश्ट, बगवाल वाले, मौजा बगवाल की धार, पट्टी मल्ला लखनपुर जिल्ला अलमोड़ा है.’’ लगभग एक ही साँस में वह यह कह गया. जिनके चेहरे पर मुस्कान हमेशा एक दुर्लभ वस्तु की तरह छिपी रहती थी, ऐसे बड़े बाब जी भी इस बार हँस पड़े. उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा भई मोती ठाकुर, तू आज से इसी घर में रहना. जैसे घर के सात बच्चे, ऐसा ही इस घर का एक बच्चा और.’’
उसी दिन मोत्दा च्चा बड़बाज्यू के बारे में दो बातें तय हो गईं. नाम मोती ठाकुर पड़ गया और घर के मुख्य दरवाज़े के पास वाली सीढ़ी के नीचे की कोठरी रहने के लिए मुकर्रर कर दी गई. एक पुरानी रज़ाई और मोटी दरी उसको ओढ़ने-बिछाने के लिए दे दी गई, जिन्हें उसने कमरा मिट्टी-गोबर से लीपने के बाद तह करके एक किनारे संभाल लिया. काम भी मुकर्रर हो गया. घर के कमरों और बरतनों की सफाई, सुबह-शाम दोनों कुत्तों को जंजीर से बाँध कर दो-तीन फर्लांग तक घुमाकर लाना और रात के सोने से पहले सारे दरवाज़ों को टटोल कर देखना कि वे ठीक से बंद हो गए हैं. पहले ही दिन उसने सारी साँकलों को खूब जोर-जोर से दरवाजों पर से खींच कर असाधारण आवाज के साथ टटोल लिया ताकि उनमें बाहरी व्यक्ति के द्वारा तोड़े जाने की कोई संभावना न रहे. पहले दिन वह लगभग आधी रात तक नहीं सोया. अपने बिस्तर में तभी घुसा, जब वह पूरी तरह से आश्वस्त हो गया कि अब किसी भी रास्ते से बाहरी व्यक्ति के घुसने की कोई संभावना नहीं है. फिर तो उसने इसे अपना रोज का सिलसिला बना लिया लिया. इसके बाद 1981 तक कभी भी उसको समझाने-बताने की जरूरत नहीं पड़ी; अलबत्ता दूसरों के द्वारा जरा भी चूक हो जाने पर वह तुरंत टोक देते और भावी संकट की भयावह तस्वीर खींचकर रख देते. अब बुजुर्गं और सयाने लोग उन्हें ‘मोती ठाकुर’ और छोटी उम्र के बच्चे ‘मोत्दा’ पुकारने लगे थे. मोत्दा यानी ‘मोती भैया’. इसके बाद घर का अंतरंग हिस्सा बनने में उन्हें जरा भी वक्त नहीं लगा, मानो वह जन्म से ही हमारे परिवार के सदस्य हों.
‘मोत्दा’ पुकारने वाली पीढ़ी जब बड़ी हो गई, उनके भी जब बाल-गोपाल हो गए… जब वे बोलने लायक हुए तो उन्होंने अपनी पूर्व-पीढ़ी की तरह उन्हें ‘मोत्दा’ कहना शुरू किया तो बच्चों के मुँह से अपने लिए यह संबोधन सुनकर एक दिन वह बिगड़ पड़े उन पर, ‘‘तुम्हारे इजा-बौज्यू (माँ-बाप) का मैं मोत्दा हूँ शालो. शरम नहीं आती तुझको मुझे मोत्दा कहते हुए! लगाऊंगा एक शरपट (चांटा) कि याद रखोगे जनम भर. अभी तो कम से कम सौ साल की जिंदगी बची है तुम्हारी, इतने समय के लिए तो तमीज सीखो यारो!’’
बच्चों की अपेक्षा उनके माता पिता को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसी दिन से दूसरी पीढ़ी के द्वारा उनका नाम पड़ गया, ’मोत्दा च्चा’. हालांकि यहाँ भी मोत्दा को एतराज था कि उन बच्चों में से कुछ के पिता की उम्र उनसे कम थी, इसलिए ऐसे बच्चों के द्वारा उन्हें ‘ताऊजी’ कहा जाना चाहिए, मगर यह ऐतराज उन्होंने अपने तक ही सीमित रखा. इस वक्त इतनी डाँट-फटकार ही काफी है, उन्होंने सोचा. अब वह बच्चों के ही नहीं, बड़ों के भी मोत्दा-च्चा बन गए. मजेदार बात यह कि मोत्दा ने बड़ों के द्वारा अपने लिए प्रयुक्त ‘चचा’ संबोधन पर कोई ऐतराज व्यक्त नहीं किया. और जब मोत्दा के मुहल्ले में रहते, हर पीढ़ी के साथ समान भाव से व्यवहार-वर्ताव करते हुए दूसरी पीढ़ी के भी बच्चे होने लगे तो मोत्दा च्चा को किसी प्रकार का ऐतराज करने की आवश्यकता नहीं पड़ी. तीसरी पीढ़ी ने उन्हें खुद ही मोत्दा च्चा बड़बाज्यू कहना शुरू कर दिया. बड़बाज्यू यानी दादा. मोती ठाकुर एक साथ बड़ा भाई भी हो गया, चाचा भी और दादा भी. नया संबोधन जोड़ते हुए किसी ने इस बात की जरूरत नहीं महसूस की कि पिछला संबोधन हटा दिया जाय. जैसे भाई और चाचा संबोध नहीं, नाम और जातिसूचक शब्द हों. कुछ व्यवहार भी उनका ऐसा रहा कि वे उम्र के हिसाब से बदले नहीं. चाचा बनने के बाद वात्सल्य आया तो तो भाई वाला लड़कपन छूटा नहीं और दादा बनने पर आवाज-व्यवहार में सयानापन आया तो जवानी की तल्खी और लड़कों-छोकरों की तरह की प्रतिस्पर्धा बनी रही. तेरह साल के मोती ठाकुर के बाल पकने लगे थे, सख्त-कठोर चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ने लगीं और हकलाना कम होकर आवाज़ धीमी हो गई.
हमारी पीढ़ी के जवान होने के साथ ही मुहल्ले के बच्चे अलग-अलग नौकरियों में लगे. मोत्दा भी सुबह का काम निबटा कर दिन भर खाली रहता था, तो किसी ने सुझाया कि क्यों न खाली समय का सदुपयोग किया जाय. सब लड़कों ने मिलकर उसके लिए एक तराजू, लोहे के छोटे बाँट और झोला खरीदा, जिसमें शुरू में पाँच रुपए की मूंगफली खरीद कर रखी गई और मोत्दा ‘मूमफली… करारी’… चिल्लाते हुए शहर का, खासकर बाज़ार और फ्लैट्स का चक्कर लगाते हुए मूँगफली बेचने लगे. सस्ता जमाना था, रुपए की आठ सेर मूँगफली आ जाती थी, दिन भर में अगर चार रुपए की भी बिक्री हुई तो भी आठ-दस आने का फायदा निकल ही आता था. लाभ के पैसे को खर्च करने के बजाय उसे जमा करने के लिए हमने पोस्ट ऑफिस में उनके नाम की पास बुक खोल दी जिसमें मोत्दा हर सप्ताह दो-ढाई रुपया जमा करने लगे. धीरे-धीरे साल भर में उनके पास सौ डेढ़ सौ रुपयों की रकम जमा हो गई. हमें मुफ्त में शाम को मूँगफली खाने को मिल जाती और सबसे बड़ी बात, मोत्दा आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो गए थे. अपने लिए तो वे खुद ही कभी-कभार जरूरी कपड़े बनाने लगे थे, बड़े बाबजी उस दिन हतप्रभ रह गए, जब उनके लिए वह एक ऊँनी मफलर खरीद कर लाए और हमारे साथ इस बात पर विचार करने लगे कि मफलर उन्हें कैसे दिया जाय ? बड़े बाबजी के सामने जाने की उनकी हिम्मत नहीं थी और किसी दूसरे के द्वारा दिये जाने का कोई मतलब नहीं था. बड़े बाबजी का गुस्सा नाक पर रहता था, कब किस बात पर वह आसमान सिर पर उठा लें, इसका किसी को अंदाज़ नहीं था.
तय हुआ कि जिस वक्त बड़े बाबजी घुमने के लिए गए होंगे, मफलर को चुपचाप उनकी चारपाई पर रख दिया जाएगा, और ज बवह पूछेंगे, कुछ देर के कौतूहल के बाद वास्तविकता बता दी जाएगी. यही किया गया, लेकिन जितना आसान हमने बसोचा था, समस्या का समाधान उतने सहज ढंग से नहीं हो पाया. चारपायी पर मफलर देखकर बड़े बाबजी चौंके, उन्होंने अपने स्वाभाव के अनुसार हम बच्चों की लापरवाही को कोसा. इतना नया मफलर ऐसे फैंक देते हैं, कैसे ये लोग अपनी गृहस्थी का बोझ उठा पाएंगे ?… इन्हें तो उल्टा लटका कर मिर्च की छोंक देनी चाहिए, तब इनके होश ठिकाने आएंगे. एक तो इतना महंगा मफलर खरीदने की जरूरत क्या थी; चलो खरीद ही लिया था तो उसे संभालने का होश तो होना ही चाहिए था… काफी देर तक चिल्लाने के बाद भी किसी ने मफलर की जिम्मेदारी अपने सिर नहीं ली तो बड़े बाबजी का पारा सातवें आसमान पर पहुँचना स्वाभाविक था.
बुआ से पूछा गया, बड़ी भाभी और पड़ोस की चाची को बुलाकर पूछा गया मगर कहीं से भी समाधान नहीं हो सका. सवाल किया गया कि इन दिनों बिड़ला में मेट्रन मुन्ना बुआ तो नहीं आई थीं… किसी बच्चे के लिए उन्होंने मफलर खरीदा हो और जल्छबाजी में उसे यहीं भूल गई हों. पता चला कि वह पिछले दो महने से नीचे नहीं उतरीं. तब यह कहाँ से टपक पड़ा ? – बड़े बाबजी फुँफकारते हुए पूरे घर का चक्कर लगा रहे थे. जब गुस्से की मार घर की औरतों पर पड़ने लगी, उनके चरित्र के बहाने आक्षेप किए जाने लगे… ‘’इतने छोटे-से घर को भी नहीं संभाल पातीं ये चार-चार औरतें. इन्हें अपना शृंगार चाहिए, मुँह पोतने के लिए महंगी-महंगी शीशियाँ चाहिए, उसमें पैसा पानी की तरह बहाएंगी, ये नहीं सोचेंगी कि कितनी मेहनत लगती है पैसा कमाने में! फुह!…’’
मुझसे फिर नहीं रहा गया. मैंने ही कहा, ‘‘वो मोत्दा रख गया था…’’
‘‘क्या…’’ जैसे कोई अनहोनी घटित हो गई हो, बड़े बाबजी आसमान से मानो धरती पर टपके, ‘‘वो कहाँ से लाया इतनी महंगी चीज? किस दुकान पर से चोर लाया वो साला ?’’
सब लोग अपने-अपने कोनों में दुबके हुए थे. मोत्दा गद्दे के ऊपर दोहरी रज़ाई बिछाकर सीढ़ी के नीचे की अपनी कोठरी में उल्टा सोया अपना मुँह छिपाए हुए था. बुआ के तो जैसे होश उड़ गए थे. कष्ट से अधिक उन्हें हैरानी हो रही थी. जीवन में पहली बार उनकी देखा-देखी ऐसी घटना घटी थी.
‘‘वो मोत्दा लाया था, आपके लिए…’’ किसी तरह हिम्मत करके मैंने कहा और फिर वहाँ खड़े रहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. तेजी से दौड़ कर मोत्दा की केठरी में गया और उसकी बगल में बैठ गया.
वह एक लंबी कहानी है, जब किसी तरह बड़े बाबजी की जिज्ञासा शांत की गई. बार-बार समझाने पर भी उनकी समझ में नहीं आ पा रहा था कि वह इतना महंगा मफलर उनके लिए क्यों लाया है? अपने बूते जिंदगी के रास्ते बनाने वाले विधुर बड़े बाबजी के लिए यह पहला मौका था जब कोई उनके लिए उपहार लाया था. वह समझ ही नहीं पा रहे थे कि इस भावना को लेकर कैसे रिएक्ट करें ? अब वे घर के तमाम लोगों की तरह हैरानी में शामिल होकर अवाक् से बैठे ही रह गए. मफलर को उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया; न संभाला, न हटाया. तेज़ी से उठे और किसी की ओर देखे बिना बाहर सड़क की ओर निकल गए. बहुत साफ दिखाई दे रहा था कि पत्थर की तरह कठोर दिल वाले बड़े बाबजी की आँखें आँसुओं से डबडबाई हुई थीं.
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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