उस साल फ़रवरी के महीने में चकराता से लोखण्डी तक गाड़ी में, और वहाँ से गाँव तक पैदल सफ़र काफ़ी रोमाँचकारी रहा. एक पिक-अप गाड़ी वाला, जो चकराता से लोखण्डी जा रहा था, बड़ी मान-मनौव्वल के बाद पीछे ख़ुली ट्राली में बिठाने को राजी हुआ. चटक धूप और बर्फ़ीली हवाओं से दो चार होता हुआ मैं लगभग 12 बजे दोपहर के आस-पास लोखण्डी पहुँच गया था. बर्फ़ के कारण त्यूनी चकराता सड़क मार्ग लोखण्डी तक ही खुला था. मुझे पहले से ही मालूम था कि लोखण्डी से गाँव पैदल ही जाना पड़ेगा. वैसे अगर मैं विकासनगर से वाया मीनस अपने गाँव बस या जीप के द्वारा जा सकता था, लेकिन मन गुरबत के वक्त इस्तेमाल किए गए पुराने पैदल रास्तों से होकर जाने का था सो, लोखण्डी का रास्ता पकड़ लिया.
लोखण्डी आज भी तीन काम चलाऊ होटलों का शहर है. आपको जीने की जरूरत लायक खाने का सामान यहाँ मिल सकता है. मै भी ऐसे ही एक दड़बेनुमा होटल में जा बैठा. होटल में बिस्कुट और चाय का लुत्फ़ लिया और उसके बाद अपने गाँव का रास्ता पकड़ लिया. बर्फ़ के कारण रास्ते की हालात काफ़ी खराब थी. जंगल के बीचों-बीच गुजरता यह पैदल मार्ग बर्फ़ के चलते काफ़ी खतरनाक स्थिति में था.
समय-समय की बात है, जो रास्ता एक समय की मजबूरी थी, आज वो रोमाँच के लिए इस्तेमाल हो रहा था. राह चलते हरे-भरे बाँज, देवदार के जंगल के बीचो-बीच बर्फ़ की बेतरतीब फ़ैली चादर कुदरत की मनमोहक कला-कृति के विहंगम दृश्य से रू-ब-रू करवा रही थी. लोखण्डी से मेरे गाँव का पैदल रास्ता कई सौ सालों से आबाद रहा है. जब परिवहन के साधन नहीं थे तो जरूरी खरीददारी, जो साल में एक या दो बार होती तथा कोर्ट कचहरी के मामले निपटाने लोग इन्हीं रास्तों का इस्तेमाल करते. चकराता एवं कालसी एक जमाने से इस पूरे क्षेत्र के प्रशासनिक तथा व्यवसायिक केन्द्र थे. आप इस रास्ते को हमारे क्षेत्र का सिल्क रूट भी कह सकते हैं. कई-कई दिन चलकर लोग अपनी यात्रायें पूरी करते. सड़कें बनी, गाड़ियां चली और धीरे-धीरे पैदल के यह रास्ते बेमानी होने लगे. लेकिन कुछ गाँव हैं जो आज भी इन्हीं रास्तों का इस्तेमाल करते हैं.
तकरीबन चार घंटे के सफ़र के बाद बर्फ़ और देवदार की जुगलबंदी को पार करते हुए पुनीग लाणी पहुँचा. पुनीग लाणी से मेरे गाँव पहुँचने के दो रास्ते हैं. बस, ऊहापोह की स्थिति पैदा हो गई. किस रास्ते जाऊँ, इसी उधेड़-बुन में अगले दस मिनट निकल गये. ढलान वाले रास्ते से उतरने के रोमाँच के मोह ने मुझे आख़िर इस निर्णय पर पहुँचाया कि मुख्य रास्ता न लेकर वह पगडंडी ली जाय जो सर्दियों के दौरान आबाद रहने वाले बेनाल खड़ के खेड़ों से होकर जाती है. लगभग पंद्रह साल पहले मैं इन रास्तों का बराबर मुसाफ़िर था.
जैसे-जैसे नीचे ढाल में उतरने लगा, बर्फ़ कम होने लगी. लेकिन चीड़ के गिरे हुए सूखे पत्तों ने सफ़र आसान नहीं रहने दिया. फ़िर भी मैं लगभग चालीस मिनट के सफ़र के बाद एक खेड़े के नजदीक पहुँच गया. यह लगभग पांच बजे के आस पास का समय रहा होगा.
बेनाल खंड के ये खेड़े दरअसल सर्दियों में चरवाहों से आबाद रहते हैं. एक जमाने से इस तरह के खेड़े हमारे क्षेत्र में सर्दियों तथा गर्मियों के समय पशु पालकों के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था का काम करते आए हैं. क्योंकि सर्दियों में जब उंचाई वाले गाँवों की चरागाहें बर्फ़ से ढक जाती हैं तो उस दौरान घाटियों एवं निचले श्रेत्रों में यह खेड़े (मंजरे) इनके पालतूओं के लिए उचित चरगाहों का विकल्प हो जाते हैं.
सूरज पश्चिम के पहाड़ के लगभग छू चुका था. मैं खेड़े के नजदीक पहुँचने को ही था कि तभी कुछ दूरी पर मुझे एक चरवाहा, जो अपनी बकरियों को बस्ती की तरफ़ हांक रहा था, नजर आया. उसने परम्परानुसार दूर से ही आवाज लगाई.
“कहाँ से आ रहे हो?”
मैंने कहा, “विकासनगर से,”
उसने कहा, “कहाँ जा रहे हो?”
मैने कहा, “हटाल.”
उसने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “वाया मीनस होते हुए क्यों नहीं आये, क्या गाड़ी का भाड़ा नहीं था?”
इतने से वार्तालाप के समाप्त होने तक हम दोनों एक दूसरे के सामने खड़े थे. मैंने उसको बताया कि मैं इस रास्ते से अपने स्कूल के दिनों में कई बार आता जाता रहा हूँ. इस रास्ते से गुजरने का बहुत समय से मन था, सो आज फ़िर यह रास्ता पकड़ लिया.
चरवाहे ने अगला सवाल पूछा, “हटाल किसके घर से हो?”
यह पहाड़ों की विषेशता है कि आपको दसियों मील दूर रहने वाले व्यक्ति के लिए आपका परिचय आपका गाँव व परिवार है, जबकि शहर मे आपके पड़ोस में रह रहा व्यक्ति क्या पता आपको जानता ही न हो. यही है हमारा दर्शन. यह सामाजिक विशेषता आपको पहाड़ों में ही देखने को मिलेगी. मैंने अपने परिवार का नाम बताया तो उसने मेरे दादा के साथ-साथ मेरे गाँव के पाँच सात लोगों का परिचय दे दिया. उसकी पीठ पर ताजा कटी हरी पत्तियों का गट्ठर लदा था जो वह घर पर बकरी के बच्चों के लिए लाया था. उसने रास्ते के किनारे एक चट्टान पर पीठ में लदा गट्ठर टेकते हुए मुझे भी बैठने को कहा. मैं भी थकान महसूस कर रहा था, सो बैठ गया. परिचय का दौर चला. पता चला कि चरवाहे का नाम तेगसिहं है, और वह अपने मवेशियों के साथ इस बस्ती में ही रहता है. मैंने उसे अपने बारे में बताया. थोड़ी देर की बातचीत में हम दोनों के बीच काफ़ी आत्मीयता हो गई. जब चलने को हुआ तो उसने मुझे बताया कि उसके लिए उसके घरवालों ने गाँव से माघ (मरोज) का हिस्सा भेजा है और आज सभी चरवाहों की उसके घर दावत है. यदि मैं भी आज उसकी मेहमान नवाज़ी का लुत्फ़ उठाऊँ जो उसे बड़ी खुशी होगी.
यहाँ से मेरे गाँव का रास्ता लगभग घण्टे का था और मैं दिन के उजाले में अपने गाँव पहुँच सकता था, लेकिन तेगसिंह का निमंत्रण टाल नहीं सका. उसके कई कारण थे, मुझे तेगसिंह की सादगी और मेहमान नवाजी की भावना ने भाव-विभोर कर दिया था. मैं भी अब उसको कुछ देना चाहता था. देहरादून में मुझे मेरे एक अजीज ने स्काच की बोतल उपहार स्वरूप दी थी जिसके लिए मुझे अपने अलावा एक और उचित उम्मीदवार मिल गया था. खैर, मैंने उस समय उसे यह बात नहीं बताई और चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल दिया.
तेगसिहं की छानी (अस्थाई घर) दो मंजिला थी. छानी के निचले खण्ड़ के दो कमरे क्रमशः ढोर-डंगरों एवं बकरियों के लिए थे. दूसरी मंजिल के लिए लगभग पत्थर की पाँच सीढियाँ चढ़ने के बाद एक बरामदा, जिसके एक कोने में बकरे की खाल के बने ख़लटों (ख़ाल का बोरों) में रखा अनाज, छत के सहारे के लिए देवदार के मजबूत शहतीरों पर ठुकी कीलों में टंगे चीड़ के पत्तों से बने झाड़ूओं का गट्ठर, रस्सी बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाली स्थानीय जूट (भीमल) का पुलिन्दा और बकरी के बालों को कातकर करीने से बनाये गोले जो अब केवल एक विशेष किस्म के बिछौने (खारचे) बनाने के काम आते है, देखें जा सकते थे. बरामदे के बाद एक कमरा था जिसमें एक चौथाई भाग का इस्तेमाल बकरी के बच्चों के लिए बाड़े के रूप में किया गया था. कमरे के एक कोने में चूल्हा, कुछ बरतन, एक रिंगाल की टोकरी में ऊन के गोले, उसके पास रखी दो तकलियाँ, कुछ ऊनी कपड़े और बिस्तर थे. मैंने वहीं पर अपना झोला एक किनारे रखा और लौट कर तेगसिहं के पास बाहर आ गया जहाँ तेगसिहं बकरी के बच्चों को दूध पिलाने में व्यस्त था.
तेगसिहं ने चारा- पत्तियों के गट्ठर को चार भागों में बाँटकर आँगन में गडे खूँटों पर इस तरकीब से बाँधा कि बकरियों को अलग-अलग कर व्यस्त रखा जा सके . बकरी के बच्चों को दूध पिलाना मुश्किल भरा काम है. दिन भर दूर रहने के कारण बकरियां भ्रामक स्थिति में रहती है कि कौन सा बच्चा किसका है. ऐसी परिस्थिति में चरवाहे का हुनर एवं तजुर्बा काम आता है. ऐरा-गैरा तो उलझ कर रह जाए.
अँधेरा होने को था. तेगसिंह अब बकरियों से फ़ारिग हो चुका था. इन क्षेत्रों में चरवाहे अधिकतर अकेले ही रहते हैं. दिन भर मवेशी चराने के बाद वो अपने खाने-पीने की व्यवस्था खुद से ही करते हैं. तेगसिहं ने आँगन में रखी जलावन में इस्तेमाल होने वाली लकड़ियाँ उठाई और हम सीढ़ियां चढ़कर कमरे के अंदर चले गये.
रात का अंधेरा और जाड़ा एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर अपना-अपना परचम फहराने की होड़ में लगे हुए थे. तेगसिंह ने ढिबरी जलाई. चूल्हा फ़ूँका गया. मैं जाडे़ के प्रकोप से बचने हेतु चूल्हे के मुहाने पर सिमटा बैठा था. आग जली तो तेगसिंह ने काँसे का भड्डू (बर्तन) चूल्हे पर धर दिया. उसमें कुछ पानी डाला.
“ठण्ड के मौसम में आग ही सबकुछ है”
तेगसिंह ने मुस्कान के साथ आग की तरफ़ इशारा करते हुए कहा
-बचपन में माँ और सर्दियों में आग का सहारा सकून देता है. वह चूल्हे की लकड़ियों को दुरुस्त करते हुए बुदबुदाया.
दिन भर की जद्दोजहद के बाद जहां यह चरवाहा खाना बनाने की क़वायद में जुट गया वहीं मैं चूल्हे की लकड़ियों को किसी क्रान्तिकारी की तरह आग में झौंक कर भड़काने में व्यस्त हो गया .
तेगसिंह ने दीवार पर टंगा टोकरा उतारा और बकरे के सूखे माँस की टुकड़ियाँ एक थाली में निकाल दी. भड़्ड़ू में रखा पानी तब तक उबल चुका था. मांस की टुकड़ियों को खौलते पानी में डालते हुए तेगसिहं पूछने लगा,
– तुम्हारे घर में भी पालते हैं बकरा माघ के लिए?
मैने कहा ‘हाँ’,
-वैसे हमारे क्षेत्र में लोगों ने माघ मनाना लगभग खत्म ही कर दिया है.
उसने भड्डू में कड़छी घुमाते हुए कहा.
मैंने कहा,
-मेरे पिताजी त्यौहारों के बहुत शौकीन है, वो हमेशा बकरा पालते हैं .
तेगसिहं बड़ी मासूमियत के साथ कहने लगा,
-दो दिन का जीवन है, जो किया जाय खुशी से खुशी के लिए किया जाय.
उसके बाद वह जीरा, मिर्च, हरे लहसुन एवं धनिया के पत्ते सिलबट्टे पर पीसने लगा. ये हरे मसाले वह दिन में पास की बस्ती से तोड़ लाया था. उसने भड़्ड़ू में डली वाला नमक और हल्दी डाल दी. लगे हाथ तेगसिंह ने चावल पकाने के लिए बरतन चूल्हे पर चढ़ा दिया और बोला.
-मडुए के आटे की रोटी खाओगे?
मैंने कहा, बिल्कुल, क्यों नहीं, इससे बढ़िया क्या होगा.
क्योंकि आज तेगसिंह के घर (मगोज) की दावत थी तो थोड़ी देर में उसके घरिया मेहमान चरवाहे भी एक-एक कर पहुँचने लगे. सभी चरवाहों से परिचय हुआ.
सभी के आने के बाद तेगसिंह ने दीवार पर टंगे टोकरे से घर मे बनी शराब का भरा हुआ बर्तन निकाला, सबके आगे गिलास रखे गये. ठीक उसी वक्त मैंने भी अपने बैग में रखी बोतल तेगसिंह के हवाले की तो सभी लोग चहक गए. बोतल की बनावट देख एक युवा चरवाहे ने मसखरे अंदाज में कहा,
-यह बोतल तो मुझे चाहिये.
एक और चरवाहे नें तपाक से उसकी बात के जवाब में कहा,
-तुम्हें बोतल मिल जाएगी, लेकिन खाली होने के बाद.
यह सुनकर सभी लोग ठहाका मारकर हँस पड़े. शराब के जखीरे को एक दराज उम्र के आदमी को थमा तेगसिंह रोटियां बनाने में जुट गया. बाकी का खाना बनकर तैयार हो चुका था.
मनोरंजन का एक पारम्परिक दौर शुरू हुआ. दिन भर जीवन-यापन के तौर तरीकों से जूझने वाले ये चरवाहे अब तमाम मसलों पर खुलकर राय रखने लगे. गाँव की राजनीति से शुरू हुई बहस क्षेत्र, राज्य होते हुए राष्ट्रीय स्तर पर पहुँच गयी. मैं उन लोगों की बातें सुन रहा था. तभी सुरूर में तर तेगसिंह मुझसे मुखातिब होते हुए बोला,
– गीत-बात भी जानते हो?
मैंने फ़र्श पर इस्तेमाल तख्ते पर ताल देकर एक पारम्परिक गीत गाना शुरू कर दिया जिसमें कोरस की जरूरत थी.
स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.
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