अंधेरा घिरने लगा तो वापस गांव के ठिकाने को चले. तब सायद पांच परिवार ही मिलम में प्रवास पर आए थे. पहले मुनस्यारी के ल्वां, बिल्जू, टोला, मिलम, मर्तोली, बुर्फु, मापा, रेलकोट, छिलास आदि गांवों के हजारों सीमांतवासी अपने ग्रीष्मकालीन प्रवास के लिए उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बसे अपने गांवों में जाने पर आलू, जम्बू, पल्थी, कालाजीरा आदि महत्वपूर्ण फसलों की बुआर्इ करते थे. जानवरों का चुगान बुग्यालों से हो जाता था. फसल और जानवर ही इनकी आर्थिकी का एक प्रमुख साधन होते थे. इन्हीं से उनके परिवार की गुजर-बसर अच्छे ढंग से हो जाती थी. लेकिन अब संसाधनों के अभाव के साथ ही इस दुरूह क्षेत्र में आने वाली परेशानियों को देख कम ही लोग जोहार में जाते हैं.
कमरे में पहुंचे तो हमारा साथी गाइड मनोज किसी बुजुर्ग से बतिया रहा था. उनकी गप में हम भी शरीक हो लिए. जोहार के कुछ किस्से सुनाने की बात पर वो अंदर गए और ‘राजुला-मालूसाही की जर्द लगी किताब से धूल झाड़ते हुए आते दिखे. ‘जोहार घाटी के भी कुछ किस्से हैं इसमें. हमारे दादा सुनाया करते थे. सुनोगे. हमने हामी भरी तो वो सुनाने लगे.
‘मल्ला जोहार में सदियों पहले दो गिरोह रहते थे. एक गिरोह का हल्दुवा तो दूसरे गिरोह का पिंगलुवा नेता था. मल्ला जोहार इन दोनों नेताओं में आधा-आधा बटा था. मापा के उप्पर हल्दुवा और नीचे लस्पा तक पिंगलुवा के हिस्से में था. उस जमाने में जोहार का दर्रे के बारे में कुछ पता नहीं था. वो खुला नहीं था. एक बार गोरी नदी के उद्गम स्थान के पहाड़ से एक विशाल पक्षी पैदा हुआ. उसके पंख इतने लंबे थे कि उपर उड़ते-उड़ते लस्पा गांव के नीचे मापांग-दापांग की तंग घाटी में अटक जाने के कारण वह वहां से उपर की ओर लौट जाता था. वो भयानक पंक्षी अपने पंजों से आदमियों को उठा ले जाता था. उसने हल्दुवा-पिंगलुवा सहित तमाम लोगों को खा कर बस्तियों को उजाड़ बना दिया था. उस जमाने में जोहार के उस पार हुंणदेश की लपथेल नामक गुफा में एक लामा रहता था. उसे शकिया लामा कहते थे. वो दिन भर भगवान का भजन करता था और शाम को गुफा में लौट जाता था. उसकी सेवा में एक व्यक्ति रहा करता था. उस पर प्रसन्न होकर लामा ने उसे अस्त्र-शस्त्रों से सु—सज्जित कर उस विशाल पक्षी को मार कर क्षेत्र को आबाद करने भेज दिया. उसके साथ अपना एक शिष्य भी रास्ता दिखाने के लिए भेज दिया. लपथेल से थोड़ी दूर चलने के बाद वह शिष्य कुत्ता बन गया. उस स्थान का नाम खिंगरू रखा गया. कुछ दूर जाकर वह दोलथांग (बारहसिंगा) बन गया. उस स्थान का नाम दोलथांग पड़ गया. आगे चल कर टोपीढूं (भालू) हो गया तो उस स्थान का नाम टोपीढूंगा कहा जाने लगा. आगे ऊंट बन गया जिसे ऊंटाधुरा कहा जाने लगा. आगे वो दुग (बाघ) बन गया. हल्दुवा-पिंगलुवा के इलाके में आकर वो समगांऊ (खरगोश) बन गया. इन्हीं नामों से आज भी वे स्थान हैं.
वहां उस व्यक्ति ने उजाड़ घरों व मानव कंकालों को देखा तो वो विचलित होकर इधर-उधर घूमने लगा. तभी उसे एक बुढि़या मिली. उसने सारी करूण कथा का बखान करते हुए कहा कि आज उसकी बारी है और कल उसकी बारी आएगी. उस व्यक्ति ने बड़े-बड़े पत्थर आग में गरम कर अपने गादे (पहनने वाला लंबा लबादा) में छिपा लिए. पक्षी ने उस इलाके में आने के बाद उन्हें खाने के लिए ज्यों ही मुंह खोला तो उसने पक्षी के मुंह में सारे गर्म पत्थर डाल दिये. पक्षी उन्हें आहार समझकर निगलता गया. उसके पेट में इतने पत्थर भर गए कि उसका पेट फूट गया. उन पत्थरों के आज भी मिलम में होने की बाद कही जाती है. उस व्यक्ति ने तब वहां आग जलाकर लोगों को बसाने का काम शुरू कर दिया. तब वहां नमक नहीं होता था. उसने लामा के पास जाकर विनती की तो लामा ने अपनी शक्ति से लपथेल में नमक पैदा कर दिया. कहते हैं कि नमक पैदा करने की शक्ति का प्रयोग करने के बाद वह लामा शक्तिहीन हो गया और फिर कभी गुफा से बाहर नही आया. आज भी लपथेल में नमकीन चटटाने मिलती हैं.
वापस आने के बाद उस व्यक्ति ने जोहार इलाके को आबाद करवाया और शकिया लामा की पूजा को प्रचलित किया. और तभी से इस क्षेत्र के लोगों को शौका कहा जाने लगा. इन्हीं की संतान में एक सुनपति शौका हुआ जिसने मंदाकिनी के निकटवर्ती क्षेत्र को बसा कर तिजारती घाटों को खुलवाया. हांलाकि उसकी कोर्इ संतान नहीं रही लेकिन सुनपति शौका व उसकी वीरतापूर्ण कहानियां इस क्षेत्र में आज भी सुनार्इ जाती हैं. उसकी पुत्री की प्रेम गाथा को ही ‘राजूला-मालूशाही के नाम से जाना जाता है. आगे फिर लंबी कहानी है. यहां का काफी वर्णन है उस प्रेम कथा में.’
हम राजूला-मालूशाही का किस्सा भी सुनना चाहते थे लेकिन काफी रात हो गर्इ थी. सुबह नाश्ता किया और आइटीबीपी से आगे की परमिशन लेकर दुंग को चल पड़े. दुंग यहां से लगभग 12 किमी है. रास्ता धीरे-धीरे उंचाई लिए है. पुरानी यात्रा की यादें रह—रह कर वापस लौट आ रही थी. दुंग के रास्ते में तिब्बत से आ रही ग्वांख नदी के साथ-साथ उप्पर-नीचे होते हुए रास्ता है. तिब्बत के सरहदों की परवाह किए बिना ये नदी मस्तानी चाल में बह रही थी. इस नदी को गनसूखा गाढ़ भी यहां कह रहे थे.
रास्ते में नदी के पास भरलों का झुंड अठखेलियां करता दिखा. रास्ते को ठीक करते पीडब्लूडी के दो बुढ़े-जवान भी मिले. लोहे का पुल पार कर हम नदी के दूसरी ओर आ गए. उप्पर दूर दुंग की जगह दिखार्इ देने लगी. दुंग पहुंचते ही एक जवान ने हमारी तलाशी की कार्यवाही पूरी की. यहां तब के इंचार्ज रमेश साहब बड़ी ही गर्मजोशी से मिले. हमें एक कमरा देने के बाद उन्होंने मीठी नाराजगी जताते हुए शिकायत की कि यदि सुबह मिलम पोस्ट को अपनी रवानगी की सूचना दे देते तो हम लोग नीचे तक आप लोगों को लेने आ जाते. हमारे मलारी अभियान की वजह वो आंखिर तक तलाशने में जुटे रहे. जबकि हम उन्हें आश्वस्त करते ही रह गए कि गढ़वाल व कुमाऊं के इस दर्रे को पार करने के साथ ही यहां के ईतिहास को देखना-समझना भर ही हमारी साहसिक यात्रा का उदेश्य है. लेकिन यहां बार्डर में तैनात पोस्टें हमें अंत तक सरकारी चुगुलखोर ही समझती रहीं. उन्हें ये डर लंबे वक्त तक सालता रहा कि हम ना जाने क्या कुछ चुगली सरकार से कर दें.
शाम को जवान बालीबाल खेलने लगे तो हमारे साथियों ने भी एक-आध हाथ आजमा ही लिए. सुबह रमेश साहब से विदा ली. वो बुढ़ा दुंग की तरफ की रैकी कर आ रहे थे. उन्होंने हमें बताया कि हमारे दल के रवाना होने की जानकारी आगे हैड क्वाटर में भेज दी है. मौसम ठीक है. हम धीरे-धीरे बुढ़ा दुंग की चढ़ार्इ में बढ़ने लगे. हरी मखमली घास से थकान भी गायब हो जा रही थी. बीच में एक बड़े नाले ने रास्ता ही गायब कर दिया था उसे सकुशल पार कर बुढ़ा दुंग पहुंचे. 1998 में गाइड शंकरदा के बीमार होने पर हमें यहीं बूढ़ा दुंग से वापस लौटना पड़ा था. आज यहां पहुंचने पर थोड़ा सा ये एहसास हो रहा था कि तब बहुत कुछ झेला चलो अब ये अधूरी यात्रा पूरी होगी.
मनोज ने सामने की ओर हाथ उठाकर बताया कि वो बमरास है. हमें दुंग से बमरास लगभग नौ किलोमीटर बताया गया. लेकिन बमरास पहुचने पर लगा कि इसे दुंग से लगभग छह किलोमीटर ही होना चाहिए. बुढ़ा दुंग से आगे सिमलडांडी तक का रास्ता बुग्याली घास से पटा हल्का समतल सा है. सामने तिब्बत की ओर का पहाड़ बड़ा ही आकर्षक सा दिख रहा था. एक रोमांच. हम महान तिब्बत के बगल में हैं. तिब्बत एक अदभुत रहस्मयी लोक. कर्इ किस्से सुने थे तिब्बत के यहां के लोग लंबे-चौड़े होते हैं. अकसर हवा में भी उड़ते हैं. यहां लामा अदभुत शक्तियों वाले होते हैं. लेकिन ये किस्से मात्र किस्से ही रह गए. तिब्बत के शांति प्रिय लोगों को चीन ने चैन से कभी जीने ही नहीं दिया. लाखों लोगों के नरसंहार के बाद भी चीन की प्यास बुझी नहीं है. एक शांत पवित्र देश का जो हाल चीन ने किया है उससे पूरी दुनिया वाकिफ होने के बाद भी चुप है! तिब्बत में कब्जे के बाद वर्तमान दलार्इ लामा को 1959 में तिब्बत छोड़ भारत की शरण लेनी पड़ी. जिसकी खार चीन ने 1962 में भारत के साथ युद्व छेड़ कर निकाली. तिब्बत क्या था और अब क्या हो गया है, इस बारे में खुद दलार्इ लामा ने अपनी आत्मकथा ‘मेरा देश निकाला में अदभुत मार्मिक व सच्चा वर्णन किया है.
ग्वांख नदी के उप्पर लकड़ी के बल्लियों के उप्पर टिन बिछाकर पुल बना मिला. बांर्इ तरफ से लसरगाड़ भी उफनाती हुर्इ ग्वांख नदी में समा रही थी. ऊंचार्इ की वजह से चलने की रफतार भी धीमी हो गर्इ थी. चलते-बैठते साम पांच बजे करीब बमरास पहुंचे तो तंबू तान दिए. बादल घिरने के साथ ही बूंदे गिरने लगी. आधा घंटा बरसने के बाद मेघों ने अपना रास्ता पकड़ा तो सुकून सा मिला. बमरास में रूकना उचित नहीं लगा. यहां पर उप्पर पहाड़ी काफी तीखी है. इन पहाडि़यों से इतने पत्थर टूट कर नीचे बिखरे थे कि वो पत्थर ही खुद में अच्छे खासे पहाढ़ प्रतीत हो रहे थे. मौसम साफ होने से थोड़ा भय कम जान पड़ा.
ऊंटाधूरा दर्रे को पार करने के लिए सुबह जल्द ही बमरास से निकल पड़े. लगभग दो घंटे तक तिरछी चढ़ार्इ में कंकड़ों के पहाड़ में से होकर चलना हुवा. हमारे दाहिने ओर की ऊंची पहाडि़यों से टूटकर आए पत्थरों से बने पहाड़ में चलना काफी दु:खदायी हो रहा था. कभी कभार एक कदम आगे रखते तो फिसलकर दो कदम पीछे आ जाते. आगे दृष्य खुलता सा दिखा तो कदम तेजी से उठने लगे. योगेश आगे दूर से जल्दी आने का इशारा कर रहा था. सामने परी ताल था. लगभग 500 मी. की परिधी में फैला है खूबसूरत परीताल. इसकी खूबसूरती की वजह से इसका नाम सार्थक जान पड़ा. इस रास्ते से जब पहले व्यापारी तिब्बत को आते-जाते थे तब बमरास से परीताल के बीच के रास्ते को ‘शीकनडानी की चढ़ार्इ के नाम से जानते थे. ऊंटाधूरा के दाहिनी ओर हल्की बर्फ की सफेदी दिख रही थी. परीताल की खूबसूरती देख मन में बात उठी की काश! कल बमरास की जगह यहीं पढ़ाव डाला होता. यहां काफी देर तक बैठे रह गए.
योगेश की सीटी ने उठने को मजबूर कर दिया. ये चलने का इशारा था. आगे कुछ समतल में चलने के बाद बांर्इ ओर से हमने ऊंटाधूरा की चढ़ार्इ में चलना शुरू किया. बर्फ की मार झेलते-झेलते इस पहाड़ के पत्थर भी टूटे व कमजोर से दिख रहे थे. आसमान में बादलों व सूर्य के बीच आंख-मिचौली चल रही थी. योगेश, संजय व मनोज आगे-आगे चल रहे थे. मैं और नीतिन धीरे-धीरे ऊंटा धूरा की चढ़ार्इ चढ़ रहे थे. ऊंटाधूरा की चढ़ार्इ मुश्किल से सवा मील की ही होगी, लेकिन ऊंचार्इ पर पतली हवा के कारण फेफड़ों को काफी काम करना पड़ रहा था.
घंटे भर के बाद ऊंटाधूरा का टॉप दिखने लगा था. इस बार दम भी फूलने लगा था. ज्यों-ज्यों हिमालय नजदीक आता दिखा, ऐसा लगा कि उन पर्वतों में भी आकाश छूने की एक होड़ मची है जो हिमालय के पास होते हुवे भी बर्फ से वंचित हैं. इन पहाड़ों से गुजरते वक्त अपने भीतर उनके अंश जो समाते चले जाते हैं उसे व्यक्त कर पाना गूंगे के गुड़ खाने जैसा है. बर्फमय जगत में इतना आकर्षण क्यों होता होगा! परीताल के उप्पर अचानक सूर्य व बादलों के समागम में इन्द्रधनुष उल्टा बना दिखा तो हम चिहुंके. पहली बार ये नजारा देखने को मिला. हमारी थकान कुछ पल के लिए काफूर हो गर्इ. वहीं बैठ गए ये नजारा देखने को. दूर योगेश सीटी बजाते हुए खुशी से हाथ हिला रहा था. हमारी ओर से कोर्इ प्रतिक्रिया ना मिलने पर वो नीचे को आ गया. हम दोनों थोड़ा पस्त से हो गए थे. उसने और मनोज ने हमारा रूकसैक ले लिया. हमें थोड़ी राहत मिली. चाल में थोड़ी सी तेजी आ गर्इ. ना जाने क्यूं ये चढ़ार्इ अब मीठी सी लगने लगी थी.
कुछ ही देर बाद हम सभी ऊंटाधूरा के टॉप पर थे. दूर तक फैले पठार अपनी ओर खींचते से लगे. यहां से नंदा देवी की चोटी का भव्य नजारा दिख रहा था. नीचे गंगपानी में छोटी-बड़ी दर्जनों झीलें आकर्षक लग रही थीं. दाहिने ओर ‘जयंती धूरा पास’ तिब्बत की फिर से याद दिलाने लगा. ऊंटाधूरा, जयंती धूरा व किंगरी-बिंगरी तीन कठिन दर्रों को पार कर व्यापारी तिब्बत व्यापार के लिए आया-जाया करते थे. अब वहां इनर लार्इन तक फौंज ही गस्त पर जाती हैं.
हवाएं तीखी होने लगी तो गंगपानी के उतार को चले. घंटेभर बाद गंगपानी में थे. यहां फौंज ने अपने लिए एक जगह रूकने का पढ़ाव बनाया था. फौंजी टैंट बेतरतीब ढंग से गिरा पड़ा था. इस जगह पर ज्यादातर पैट्रोलिंग पार्टियां रूका करती हैं. तुफान या ठंड से सायद इस जगह को छोड़ने की जल्दी में वो टैंट को गिरा आगे चल दिए होंगे. यहां रूकने के लिए सकून सा दिखा तो कुछ देर ठहर गए. तसल्ली से भोजन किया. थकान अब दूर हो चुकी थी. टोपी ढूंगा अब यहां से करीब चार किमी दूर था. ढलान में छोटे से नाले के साथ चलता आढ़े-तिरछे बुग्याली रास्ते के साथ चलने में एक अलग ही मजा आ रहा था. लौंका नामक जगह के पास रास्ते के अगल-बगल खरगोश के बिल से दिखे. अचानक एक बिल से बाहर निकल दो पावों में खड़ा खरगोश से मिलता सा एक जीव हमें बड़ी ही उत्सुकता से देख रहा था. ये फिया था. हमारे नजदीक आने पर वो बिल में घुस गया. कुछ देर बाद कर्इ सारे फिया बिलों से बाहर निकल आ हमें कोतुहल से टकटकी लगा देखने लगे.
नीचे गिर्थी नदी के किनारे टोपी ढूंगा पढ़ाव दिखने लगा था. 4850 मीं की ऊंचार्इ पर टोपीढूंगा दो दर्रों के बीच में है. भारत-तिब्बत व्यापार के लिए तब यहीं से ही जाया जाता था. दोराहे पर पहुंचे. दांर्इ तरफ के रास्ते से ही हमें अगले दिन बावन बैंड की चढ़ार्इ नापनी थी. पहाड़ में घुमावदार रास्ते के बावन मोड़ों की वजह से ही इस रास्ते का नाम बावन बैंड पड़ गया. बांए ओर के ढलान की ओर बढ़े तो दूर पढ़ाव में से लकड़ी जलने का धुंवा उप्पर उठ धुंध में समाते दिखा.
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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