पांच दशक पूर्व तक पहाड़ में नारी के कठिन और संघर्षपूर्ण जीवन गाथा की आज कल्पना भी नहीं की जा सकती. उन दिनों गांव की अधिकांश महिलाओं को सुबह बिना कुछ खाए अथवा मंडूवे की रोटी का एक आधा टुकड़ा, बस इतना सा खाकर ही कई मील दूर खेतों में फसल काटने अथवा घास- लकड़ी के लिए जाना पड़ता था. पगडंडियों और उबड़ खाबड़ रास्तों से चलकर पसीने से तर हुई वह दोपहर के बाद ही घर लौट पाती. घर पहुंचकर सबसे पहले पानी का बर्तन उठा कर सीधे पहुंचती, पानी लेने पानी के धारे पर. वहीं पर जी भरकर पानी पीने को भी मिलता. इससे पूर्व घर में आने पर सास का भय और लिहाज से उसमें इतनी हिम्मत भी नहीं होती कि दिन भर काम से थकी वह जरा सी सुस्ताकर पानी का एक घूंट पी सके.
उन दिनों गांव के अधिकांश युवकों का व्यवसाय खेती अथवा फौज में भर्ती होकर सेना की नौकरी करना था. फौज से छुट्टी पर वर्ष में एक दो बार ही घर आना हो पाता था. घर में होते वृद्ध माता पिता और छोटे बच्चे. परिवार की बहुओं की दिनचर्या खेती-बाड़ी और घास-लकड़ी एकत्र करने तक ही सीमित थी. उनका नियंत्रणसास की मुट्ठी में रहता था. बहुओं का एक कदम भी अपनी सास की इच्छा से चलना संभव नहीं था. गाय-भैंसों के लिए घास-चारे की व्यवस्था करने वाली घर की इन बहुओं का अधिकार केवल छांछ से बने पलेऊ खाने तक सीमित रहता. दूध-घी बच्चों और वृद्धों को ही दिया जाता था. भूख और अपमान की असहनीयता कई नव विवाहितों को ससुराल से मायके भाग जाने को मजबूर कर देती थी. किन्तु उनके द्वारा कभी अपनी मर्यादा का उलंघन नहीं होता था. वह अपना दुखड़ा सुनाकर कुछ दिनों में लौट आती. उन दिनों गांवों में सास द्वारा बहुओं की प्रताड़ना की अनेक गाथाएं सुनी जाती थी.
पहाड़ की प्रत्येक मां की तरह मेरी मां भी कर्मठ और संघर्षशील महिला थी. आज जब मैं बचपन के दिनों को याद करता हूँ तो अहसास होता है कि माँ अपने बच्चों के लिए कितना कष्ट सहन करती थी? उनकी ख़ुशी के लिए वह अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर रहती थी.
हमारे पिताजी सेना में भर्ती हिकार चीन की सीमा पर तैनात थे. दादा-दादी का स्वर्गवास काफी पहले हो चुका था. इस प्रकार घर में मां जा एकाकी जीवन था. जरा सा हाथ बंटाने वाला भी कोई नहीं था. घर का सारा काम मां को स्वयं करना पड़ता था. मां दिन-रात, घर-बाहर, खेती-बाड़ी. घास लकड़ी और पशुओं की देखरेख में खटती रहती थी. निजि बच्चों का जन्म और पालतू पशुओं के ब्याने पर उनके देख-रेख में कितना कष्ट उठाया होगा. इन सब परिस्थितियों को कैसे झेला होगा उन्होंने? कल्पना भी नहीं की जा सकती.
मुझे स्मरण है कि उन दिनों मां ने एक बड़ी भैंस पाली हुई थी. जिससे हमें खूब दूध-घी खाने को मिलता था. जब भैंस ब्याती तो हमें बहुत सा खीस खाने को दिया जाता. सारा न खा सकने पर मां के भय से उसे छुपा कर कहीं फेंक देते थे. रयांस व तोर की भरी रोटी में घी की बड़ी सी डली रखकर खाने को दी जाती. उसका स्वाद निराला होता.
जब मां को घास- लकड़ी के लिए जाना होता हम दोनों भाईयों को घर के एक कमरे में बंद कर बाहर से सांकल लगा दिया जाता. हम थोड़ी देर खेलते-झगड़ते और न जाने कब वहीँ जमीन पर ही सो जाते. नदी-नालों, गाड़-गधेरों को पार कर मां कई घंटों बाद घास लेकर पहुँचती. सबसे पहले दरवाजा खोलकर हमें बाहर लाती. उस समय तक रो-रोकर आंसुओं और नाक से बहती हुई सींप से हमारे चेहरे लतपत हुए रहते. हमारे मुंह हाथ को धोकर मां अपनी धोती के पल्लू से पोंछती, फिर रसोई में ले जाकर चौकल में बिठाती और हमारे सामने में कांसी की थाली में बहुत सारा घी डालकर खीर खाने को रख देती. साथ ही यह भी कहती जाती – ‘भिंवल के खेत में झंगोरे की बालियां पाक गई हैं. आज ही उनको काटकर लाना होगा, नहीं तो वे झड़ जाएंगी.’ फिर मुझको संबोधित करती ‘तू घर पर ही रहना इधर-उधर मत जाना, छोटेभुला को देखते रहना.’ इसके बाद मां घर का काम निपटाकरजल्दी-जल्दी खेतों ओर चल पड़ती.
पास-पड़ोस के बच्चे देखते रहते कि हमारी मां दरांती हाथ में लेकर खेतों की ओर चली गयी है. वे तुरंत ही हमारे घर में आकर एकत्र हो जाते. हमारा पूरा घर खुला रहता था. घर में कोई नहीं इसलिए बिना किसी डर के हम सभी घर में खूब ऊधम मचाते. चारपाई और रजाई- गद्दों के ऊपर उछल-कूद कर उनका बुरा हाल कर देते. हम एक काम और भी करते किसीलंबे लड़के के कंधे पर खड़े होकर हम दुछत्ती में रखी गुड़ की भेली या लिचाड़ी भेली को निकालकर उसका कुछ हिस्सा चट कर जाते. पिटा जी दो महिने की छुट्टी काटकर वापस जाने से पहले दो चार मन भेली खरीदकर दुछत्ती में छुपाकर रख जाते थे. उन दिनों भेली का गुड़ कई अन्य उपयोगों के साथ मिठाई के रूप में भी प्रयोग किया जाता था.
मां की मुश्किलें इसलिए भी अधिक थी कि और लोगों की अपेक्षा हमारे खेत अधिक थे. पिताजी का स्वयं के अकेले होने के कारण खेतों का बटवारा नहीं हुआ था. उन दिनों खेती का बहुत महत्व था और अधिक खेती बड़प्पनकी निशानी होती थी. खेती के लिए मान ने बैलों की एक अच्छी जोड़ी भी पाल रखी थी. घर में दादा के समय का हल अच्छी हालत में उपलब्ध था. किन्तु अपने घर में हलवाहे के न होने के कारण पिता जी ने खेतों में हलवाहे का काम गांव के एक दादा को सौंपा हुआ था.
खेत जोतने के दौरान हल और बैलों को खेतों तक पहुँचाने का कार्य मां को स्वयं करना पड़ता था. इस कार्य को वे प्रातःकाल अँधेरे में ही कर आती थी. तब तक हम सोये हुए रहते थे. जिस दिन हमारे खेतों में हल लगता तो हलवाहे दादाजी के लिए रोटी-पानी लेकर मां को खेतों में जाना पड़ता था. एक तरफ से हल लगतातो दूसरी ओर ढेले तोड़ना, हल न लग पाने से छूटे हुए खेत के किनारे, गूंजे की कुदाल से खुदाई करना. पाटल से खेत के किनारे उगे काँटों की झाड़ियों को काटकर उनसे बाड़ करना ये सभी काम मां को ही करने पड़ते थे.
जब हम दोनों भाई तीन चार साल के हो गए तो खेत में काम करते समय मां हमको भी अपने साथ ले जाने लगी. खेतों में जाते समय मां के सिर में होती गोबर से भारी भरकम टोकरी, एक हाथ से संभाला होता छोटा भाई और मैं गिरता पड़ता मां के आगे आगे चलता रहता. खेत में पहुंचकर हलवाहा दादाजी पाटा लगाते समय हमको उसके ऊपर बिठाकर पूरे खेत की सैर कराते तो बड़ा ही आनंद आता. हमारा मन बहलाने के लिए मां एक छोटी सी कुदाल भी साथ ले आती जिससे हम खेत के किनारे कुछ ना कुछ खोदते रहते. खेत के किनारे पर खोदकर एक छोटा सा खेत बनाते उसमें दो चार बीज धान झंगोरा भी बोया करते. वह कभी पौधा बनकर उगा कि नहीं याद नहीं.
मां जब खेतों में काम करती रहती तो हम दोनों भाई निकट की बंजर जगह पर कुड़ी-बाड़ी बनाने का खेल खेलते रहते. किसी छोटी सी बात पर झगड़ा हो जाने पर हम एक दूसरे की कुड़ी-बाड़ी उखाड़कर बिखेर देते और लड़ झगड़कर रोते-रोते मां के पास शिकायत करने पहुँच जाते. लेकिन उनको शिकायत का फैसला करने का भी समय नहीं मिला.
सबेरे जब हमारी नींद खुलती तो मां चक्की के पास बैठी, चक्की घुमाती हुई कुछ न कुछ पीसती हुई दिखाई देती अथवा अँधेरे में ही घर के बाहर ओखली में अनाज कूटते हुए उसके मूसल की ठंम-ठंम का स्वर सुनाई देता. हमारे घर में हफ्ते में एकबार छांछ जरुर बनता था. मां दही मथने के बर्तन और रै की सफाई नींबू के पत्तों से करती थी जिसके बाद छांछ से भी वैसी ही खुशबू आती. रात खुलने से पहले ही चिमनी की रौशनी में छांछ मथते हुए रै की घुर-घुर, घुर-घुर की आवाज घर के भीतर गूंजती सुनाई देती. उन्हें यह सभी काम रात खुलने से पहले ही पूरे करने होते थे. सुबह होते ही पशुओं को गौशाला से बाहर निकालकर खलियान में बाधना, उनका दूध निकलना, गोबर साफ़ करना, पंदेरे से पानी लाना, हमारे लिए खाना बनाकर जाना आदि अनेक काम जल्दी जल्दी करने होते थे. ताकि वे भी गांव की अन्य घस्यारियों के साथ साथ जंगल जा सके.
अन्य दोनों छोटे भाईयों की परवरिश भी इसी प्रकार से कभी उन्हें घर के भीतर बंद कर, तो कभी पड़ोस की दादी के भरोसे छोड़कर अनेक कठिनाईयों में की. लेकिन मुझे याद है कि ऐसा एक दिन भी नहीं रहा होगा जब मां ने छोटे भाइयों की देख-रेख के बहाने हमको स्कूल जाने से रोका हो. भले उनके पास खेतीबाड़ी और घरबार के सैकड़ों काम थे. उन दिनों गर्मी और बरसात के दिनों में खेतों में गोठ लगाई जाती थी. घर के सभी पशु खेतों में बांधे जाते थे जहाँ पशुओं की सुरक्षा की के लिए चारों ओर से बांस के टांटे तथा बारिश से बचाव के लिए मालू के पत्तों से आच्छादित बड़े बड़े पल्ले लगाने पड़ते थे. जिस दिन हमारे खेत में गोठ लगाने की बारी होती, उस दिन तक पल्ले और टांटे पहुंचाने की जिम्मेदारी मां की होती थी जो बड़ा कठिन काम था. इसके लिए मां कू तीन-चार किमी की उबड़-खाबड़ खड़ी चढ़ाई पार करनी होती थी. एक क्विंटल से भी भारी भरकम पल्लों को एक-एककर सिर पर ढोकर अपने खेतों में पहुचना होता था.
मुझे याद है कि मां हमेशा एकसाथ कई काम करती थी घास लेने जाती तो चीड़ के जंगल से च्यों निकाल कर लाती. खेतों के किनारों को खोदने जाती तो तेडू या गिठी निकालकर ले आती. गर्मियों में लकड़ी घास लाने के साथ ही हिंसरे, किनगोडे, काफल ही नहीं, पके हुए तिमले भी धोती की गांती में बाँध कर लाती. जब हम स्कूल से घर लौटते तो बिना हाथ पैर धोये ही मां के लाये हुए फलों पर टूट पड़ते.
अपनी परेशानियों से कुछ राहत पाने ले लिए मां को एक उपाय सूझा अपने मायके से अपने छोटे भाई को बुलवा लाया. नाना के घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण छोटा मामा स्कूल न जाकर घर में ही गाय बकरी चरता था. एक दिन नानाजी मामा को लाकर हमारे गांव छोड़ गये. मामा के आने से हम बहुत खुश हुए मामा हमारे घर पर पूरे एक साल रहे. इस अवधि में मां को खेतों में काम करने और घास लकड़ी लाने का और अधिक समय मिल गया. मामा एक छोटे भांजे को गोद में पकड़कर तथा दूसरे को कंधे में बिठाकर जिस किसी तरह से उनको बहलाता रहता किन्तु दो नादान भांजों को दिन भर राजी ख़ुशी पकडे रहना उनके लिए इतना आसान नहीं था मामा की भी अभी खेलने कूदने की उम्र थी इसके बावजूद मां मामा से बहुत काम करवाती थी. मामा को हिदायत थी कि जब तक मां काम निपटा कर घर पहुंचे, किसी के घर से करछी में आग लगाकर रसोई में आग जलाकर रखे ताकि घर आते ही चूल्हे में तुरंत खाना रखा जा सके. खलियान की मुंडेर के पास घास का गठ्ठर उतारते ही मां मामा को बंठा पकड़ाकर पंदेरे से पानी लेने भेज देती.
हमारे घर में काम करते करते मामा के गले तक आ गयी थी. एक दिन हम दोनों भाई स्कूल गये हुये थे. मां खेतों में गुडाई करने गयी हुई थी. मामा ने अपने छोटे भांजों को घर के एक कमरे में बंदकर सांगल लगा दी और चंपत हो गए अपने गांव. मां घर आयी तो अ[अपने दोनों बच्चों को बंद कमरे में रोते हुए पाया. लोगों से पता लगा की बच्चों का मामा भागकर अपने गाँव चला गया था. कुछ ही दिनों में नाना के गाँव से खबर आयी की मामा सेना की बॉयज कंपनी में भर्ती हो गया है.
मेरी हाईस्कूल की पढाई पूरी हुई तो इंटर पढ़ने के लिए आसपास कोई स्कूल नहीं था. जो स्कूल था भी वह पन्द्रह-बीस किमी की दूरी पर था. आने-जाने की अनेक कठिनाईयां थी. उन दिनों पिताजी सेना से सेवानिवृत्त होकर कोटद्वार में एक छोटी सी नौकरी कर रहे थे. मां हमारी पढ़ाई को किसी भी दशा में अवरूध्द होते नहीं देखना चाहती थी पिताजी की इच्छा न होते हुए भी मां एक कठोर निर्णय लेने पर उतारूँ थी वह निर्णय था बच्चों की पढाई के लिए गाँव छोड़कर कोटद्वार चले जाना. पिताजी शहर में अल्प वेतन होने से जीवनयापन न हो पाने की लाचारी के विषय में कहते रहे किन्तु मां ने एक नहीं मानी और गांव के मकान में ताला डालकर, हम चारों भाईयों के साथ कोटद्वार आ गई, यह
हमारे गांव से पलायन की शुरुआत थी. वहां से पलायन करने वाला हमारा पहला परिवार था.
मां को अन्तर्मन से इस बात का अफसोस था कि गांव के अच्छे खासे घर को छोड़कर हमें शहर के एक छोटे से कमरे में अभावग्रस्त जिन्दगी जीने को मजबूर होना पड़ रहा है फिर भी अपने बच्चों के स्वर्णिम भविष्य के प्रति आशावान थी और हर हाल में खुश थी.
कुछ ही दिनों में ही मां के प्रयास से कोटद्वार के संलग्न क्षेत्र में जिस किसी तरह से अल्पमात्र जमीन खरीद ली उस पर फिर पहाड़ी मां की मेहनत रंग लायी खेत में अच्छा ख़ासा धान, गेंहू और दाल उगाई जाने लगी. यहां भी मां ने ज़िद करके एक गाय पाली जिसके लिए भाभर की भीषण गर्मी में पसीने से लतपत होकर, मां चार-पांच किमी दूर से नियमित घास का गठ्ठर लाती.
मां अब दादी बन गयी थी. उन्होंने अपने बच्चों को ही नहीं पोता-पोतियों को भी खूब दूध घी खिलाया. इतना ही नहीं एक पहाड़ी मां ने पोते के साथ देश की राजधानी के साथ की रौनक देखी. प्रदेश की राजधानी के पल्टन बाजार और घंटाघर की भी सैर की और अंतिम कर्मस्थली भी इसी पहाड़ी धरती को चुना.
श्री लक्ष्मी भंडार अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित पुरवासी के 2017 में छपे 38 वें अंक से डॉ दिनेश चन्द्र बलूनी का लेख.
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