जी! आप चैंकिए मत! थी यह बोर्ड परीक्षा ही, लेकिन हम चैड़ूधार के सभी छात्र-छात्राओं उर्फ छोर-छ्वारों के लिए पांचवी की बोल्ड परीक्षा ही होती थी. वैसे तो परीक्षा हर साल होती रही होगी, पर हमें उसका आभास कभी हुआ ही नहीं. बिल्कुल तनावमुक्त व भयमुक्त परीक्षा होती थी हमारी. रोज की तरह स्कूल गए, गुर्रजी ने जो कुछ लिखने को कहा लिखा, कॉपी गुर्रजी को थमाई, थोड़ी देर खेला कूदा और फिर अगले दिन के लिए गुर्रजी जो कुछ लिखने के लिए देने वाले होते उसका रिवीजन उर्फ रट्टाफिकेशन जोर-जोर से होता. कानों में उंगली देकर और जोर से हिल-हिल कर.
(5th Class Board Exam Memoir)
एक खास बात यह जरुर होती कि इस रट्टाफिकेशन के दिनों में विद्यालय के जो तीन अन्य कमरे हमेशा बंद रहते थे वह खुल जाते. कक्षा 5 को अलग कमरा, कक्षा 4 को अलग तथा कक्षा 3 को अलग कमरा आवंटित हो जाता. गुरुजी हर कक्षा को याद करने के लिए सामग्री देते हुए सख्त हिदायत देते-’’हे छ्वारौं टक्क लगा कर सुन लो! अगर याद नहीं हुआ तो मैंने तुम्हारा बरमंड फोड़ देना है. फिर मत कहना गुरुजी ने बथाया नहीं. और अगर फेल हो गए तो अपनी बोईयों को मत भेजना यहां कुकरौळ मचाने. वैसे तो मैं किसी से डरता नहीं, पर किसी की कहासुनी मुझे कतई पसंद नहीं.’’ इस चेतावनी के बाद हर कक्षा को ’गुट्या’ देते कमरों में.
थोड़ी देर तक सभी तल्लीनता से पढ़ते फिर शुरू हो जाती लड़कों की छेड़खानी. लड़कियों को किसी न किसी बहाने तंग करते. नीतू की नाक, कक्षा पांच अर्थात् ’सीनियर मोस्ट’ कक्षा में पहुंचने के बाद भी, बहुत बहती रहती थी. जब कभी वह नीचे गर्दन कर पढ़ती तो ’सींप’ की धार नीचे तक पहुंच जाती. लड़कों ने उसका नाम ही ’बुलाक’ रखा था. आपको तो पता ही है बुलाक नाक के अग्रभाग में पहनने वाला एक आभूषण होता है जो ऊपरी होंठ तक पहंचता है. भरतनाट्यम जैसे शास्त्रीय नृत्य की नृत्यांगनाओं की पारंपरिक वेशभूषा में भी इसका विषेश स्थान होता है. आप अभी भी नहीं समझे तो चलिए कल्पना करिए कि यदि बचपन में बहती नाक की दोनों धाराएं साथ निकलती और ’यू’ शेप ले लेती तो वह बुलाक जैसी ही होती.
खैर, तो लड़के नीतू से जब भी कुछ मांगते बुलाक संबोधन के जरिए ही मांगते. ऐसे में वाक्युद्ध की संभावनाएं प्रबल हो जाती. जैसे कक्षा में एक गोल मटोल लड़का ’गब्दू’ था, वैसे ही बच्ची भी ’गब्दी’ थी. सुनीता दुबली पतली थी तो वह ’खैड़-कटकीड़’ ही पुकारी जाती. कक्षा में सभी के नाम रखे गए थे. यानी मां बाप और पंडित जी द्वारा किए गए नामकरण से इतर एक नामकरण कक्षा में सहपाठियों द्वारा होना सुनिश्चित ही था. तो पढ़ने जैसा कष्ट साध्य काम आखिर कोई कितने समय तक कर सकता था? तो बोरियत दूर करने के लिए कोई रटते रटते यूं ही बोल पड़ता- ’बुलाऽऽक’!
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बस यहीं से वाक् युद्ध शुरू हो जाता. जिस पर अंदेशा होता नीतू उसकी तरफ घूर कर देखती हुई शब्दों के बाण फेंकती हुई- ’’क्य च रे ते थै? पैढ़ नि सक्दू तू चुपचाप. बोल द्यूं गुरुजी मां? निरभै छ्वारा!’’
प्रत्युत्तर में वह लड़का भी वापस वागास्त्र फेंकता-’’दिमाग खराब च त्यारु?, मिल कख ब्वाल?’’
’’तो किसने बोला?’’
’’मुझे क्या पता?’’ जैसे वागास्त्र चलते, और फिर इसी पर आधा घंटे तक तू-तू मैं-मैं.
कभी-कभी लड़कों का आपस में ही घमासान युद्ध हो जाता. हां, अंतर इतना होता कि उसकी शुरुआत ही हस्त-पाद शस्त्रों से होती. लड़कियां मजबूरी में तमाशबीन बनी रहतीं क्योंकि लड़ने वाले पहले ही संयुक्त रूप से चेतावनी जारी कर देते- ’’जैल गुर्रजी मां ब्वालु वैका दांत तोड़ दिणी हम द्वियूं न.’’(जिसने गुर्रजी को बोला, उसके दाँत तोड़ देने हैं हम दोनों ने.)
सोचिए कितनी नैतिकता और एकता होती दोनों में? वाह्य दुश्मन का मुकाबला दोनों मिलकर ही करना चाहते.
गणित की परीक्षा को छोड़कर और अन्य दिनों में यह तमाशा चलता ही रहता. फिर गुरुजी सबको बाहर गोले में बिठाते. पहाड़ों का सस्वर वाचन होता जिससे बड़ों की पुनरावृति और छोटों को कंठस्थ करने में सुगमता हो जाती. इसी तरह कविताओं का वाचन भी होता. नक्शे का अभ्यास, मिट्टी में गुरुजी द्वारा बनाए नक्शे पर उंगली रख रख कर यदा-कदा हो ही जाता.
तो ’बोल्ड’ परीक्षा में क्या खास था? दरअसल ’बोल्ड’ को हमारे सामने परीक्षा के रूप में प्रस्तुत किया जाता. गुरुजी पांचवी कक्षा के प्रथम दिन ही समझा देते -’छोर- छ्वारौं! यह साल बोर्ड परीक्षा का है. ढंग से पढ़ै करो अभी से. अगर तुम फेल हुए हौर मेरा नाक कटा, तो फिर मुझसे बुरा कोई नहीं होगा.’’ स्पष्ट चेतावनी. वैसे कुछ समझदार और गुर्रजी की बेंतों एवं शब्दभेदी वाणों से कभी आहत हो चुकी आत्मा वाले बच्चे इसे गुर्रजी से बदला लेने के सुअवसर के रूप में भी पाते.यह क्षणिक और यदाकदा सर उठानेवाला सांप वैसे तरकश में ही पड़ा-पड़ा निष्क्रिय हो जाता. कुछ समय बाद एक दिन गुर्रजी फिर प्यार से समझाते, विशेषकर उस परिस्थिति में जब कोई विद्यार्थी उनकी अपेक्षानुरूप कार्य नहीं कर रहा होता- मैं ऐसे नहीं बोल रहा, कि तुम टॉप कर दो ,पर वहां इस्वटी, सासों, पोखरी, चैड़ूधार और कोट पांच स्कूलों के बच्चे आते हैं. तुम्हारा लेख, तुम्हारे उत्तर सब अलग से चमकना चाहिए. चैड़ूधार और मेरी इज्जत सब तुम्हारे हाथों में है.
गुर्रजी के इन शब्दों का जादू जरूर बच्चों पर चल जाता. गुरुजी की इज्जत के साथ साथ चैड़ूधार विद्यालय और पुसोली के पंतों की इज्जत का सवाल भी सामने होता. आपको पता ही है जातीय श्रेष्ठता सिद्ध करने की आकांक्षा मनुष्य से क्या नहीं करवाती? हम तैयारी में जुट जाते. जिनका लेख अच्छा नहीं होता वे रोज सुलेख लिखकर गुरुजी को दिखाते या फिर गुरु जी द्वारा प्रदत दायित्वधारी को. जो लेखन में मात्राओं की अशुद्धियां करता वह कठिन शब्दों के लेखन का अभ्यास करता. बच्ची का चित्रकला में हाथ बहुत तंग था तो बड़ी मुश्किल से साल भर के अभ्यास के बाद एक आम तथा एक साड़ी का किनारा बना पाने में वह सफल हुई, वह भी अपनी तरह का पाषाण कालीन भित्ति चित्रों जैसा.
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गणित एकमात्र विषय था जिसमें किसी को कोई रियायत नहीं थी, सभी को पूर्ण अभ्यास करना होता फिर भी बच्ची जैसे कुछ आर्यभट्टीय वंशज शून्य पर ही पहुंच पाते थे. कविताएं सभी कंठस्थ करनी होती थी. मिट्टी के कुछ बर्तन, काश्तकारी का कोई सामान, एक बूनू (झाड़ू), या बाबिल की बनी हुई रस्सी या ’ज्यूड़ू’ (जानवरों को खूंटे से बांधने वाली रस्सी) हमारे ’प्रोजेक्ट वर्क’ के अंतर्गत आते थे, जिन्हें परीक्षकों के सम्मुख सादर प्रस्तुत किया जाता था. यह सब तो अलग तैयारियां थी जो साल भर होती रहती थी, असली तैयारी तो परीक्षा से दो दिन पहले शुरु होती.
पहली बार हम बच्चे घर से बाहर निकल कर किसी अन्य जगह पर रात बिताने जा रहे होते. जहाँ गुर्रजी हमारे एकमात्र अभिभावक होते. उत्साह कौतूहल और डर की लहर साथ-साथ चलती. घर वाले भी विशेष तैयारियां करते. गुरुजी के कथनानुसार सब कुछ समेटा जाता. वैसे ही तैयारियां जैसे रण क्षेत्र में जाने से पूर्व योद्धाओं के लिए की जाती रही होंगी कभी. सर्वप्रथम गुर्रजी जाने से दो दिन पूर्व ’ब्रीफ’ करते-’’टक्क लगाकर सुनो रे छोर-छ्वारौं! तुम्हें एक दरी, एक चादर और एक कंबल लाना है. इसमें से, जो अपना बोझा नहीं उठा सकते चादर कम कर सकते हैं. खाने के लिए एक थाली और गिलास. गिलास कम हो सकता है यदि एक ही ल्वट्ठया से तुम पानी पी लो तो. सुबह चाय जिसे पीनी है गिलास उसे लाना ही पड़ेगा. थोड़ा चावल, दाल ,तेल ,नून-मसाला, चीनी- चायपत्ती पुड़के में होना चाहिए.’’
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कुछ उत्साही पूछ बैठते-’’गुर्रजी तेल पुड़के में कैसे आएगा?’’
’अबे उल्लू पट्ठा! यही तो दिमाग लगाने वाली बात है. तेल बोतल में लाओगे, चावल दाल की अलग-अलग कुटरी बनाओगे और बाकी जो चीजें कही गई हैं वह पुड़के में आएंगे. ठीक है?’’
’’जी गुर्रजी!’’ सब समूह गान सा गाते.
’’हां, आगे सुनो, वहां भात खाने जा रहे हो क्या? बारात है तुम्हारी? यह तो कोई पूछ ही नहीं रहा की कॉपी किताब क्या-क्या चाहिए?’’
’’जी गुर्रजी, तुम बताओ क्या लाना है?’’ऐसे भाव से कहा जाता जैसे हनुमानजी श्रीराम से कह रहे हों कि आज्ञा दें प्रभु!
’’हां, लिखो- दो कलम, दो होल्डर पेन, निब, स्याही और फट्ठा.’’
’’फट्ठा?’’
हां, फट्ठा उसके ऊपर पेपर रखकर ही तो लिखोगे. जिनके पास फट्ठा (इग्जाम राइटिंग पैड) नहीं था वे आंखों से एक दूसरे से बतिया रहे थे. गुर्रजी तुरंत समाधान देते-’’जिनके पास फट्टा नहीं है, वह भूगोल की कॉपी का बाहर वाला गत्ता ले आना. हां पर खबर्रदार! कुछ लिखना मत उसमें. और अपना बनाया हुआ एक बूनू, ज्यूड़ और रस्सी भी, जिसने जो बनाया हो लेकर आना.’’
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यह सारी लिस्ट मौखिक रूप से घरवालों को सौंपकर हम खेलने चले जाते. एक दिन बाद सभी घरवाले मटखाणी में अपने-अपने पाल्यों का सामान लेकर पहुंच जाते ठीक तीन बजे, गुरु जी द्वारा मुकर्रर स्थान पर. बच्ची का सामान मामा जी द्वारा किर्खू तक पहुंचाया गया. वहां से दो किलोमीटर की चढ़ाई के बाद कोट का प्राथमिक स्कूल था दूसरी धार पर. किर्खू में सासों और पोखरी के गुरूजी तथा छात्र-छात्राएं भी मिल गए. यहां से एक साथ दो किलोमीटर की चढ़ाई, बोरिया बिस्तर सिर पर रख कर पार की गई.
आज वह चढ़ाई अलंघ्य लगती है, उस समय बंदरों की तरह कूदते-फांदते हमने कब वह पार की पता ही नहीं चला. पहुंचकर हाथ-मुंह धोकर, गुर्रजी द्वारा बताए गए स्थान पर अपना बोरिया बिस्तर बिछा दिया गया. कमरे में सांसों ,पोखरी और ईस्वटी की लड़कियां भी थीं. खूब देर तक हो हल्ला करते रहे. गुर्रजी लोगों ने कुछ समय बाद खाने के लिए आवाज दी. पंक्ति में बिठाकर हमें खाना खिलाया गया. खाना- अर्थात् खिचड़ी, जिसमें हर तरह की दाल थी अरहर से लेकर उड़द, मूंग, रैंस, मसूर, मटर और रेग बिरंगी छीमियां (बीन्स) भी. कुल मिलाकर ’सतनाजे’ (सात अनाजों) की खिचड़ी. पेट भर खाकर हम सो गए.
अगली सुबह परीक्षा थी और इतने सारे लोगों को शौच आदि से भी निवृत होना था तो लड़कियों को गुर्रजी लोगों ने पहले उठा दिया. वैसे टॉयलेट्स तो थे नहीं कि कुछ जाते और कुछ बाहर प्रतीक्षा में खड़े रहते, तो हम सभी झुंड में खेत में गई और फिर बिखर गई चिड़ियों की तरह. हाथ मुंह धो कर जब कमरे में पहुंचे तो गुर्रजी चाय की बड़ी सी केतली लेकर खड़े थे-’’निकाला रे छोरियों! अपण अपण ग्लास जैल च्या पीणै’’ उद्घोषणा के साथ. कौन पीछे रहता? एक तो इतनी सुबह उठ गए थे, ऊपर से गुर्रजी चाय दे रहे थे, चरणामृत सा सब ने अनिवार्य रूप से ग्रहण किया. ब्रश का झंझट तब तक हम पालते ही नहीं थे कभी कभी मन आया तो कोयले से और बहुत हुआ तो स्वाद बदलने के लिए डाबर के लाल दंत मंजन से दांतों को घिस लिया करते थे. पर यहां यह सब झंझट कौन करता?
’च्या’ की गर्मी से सारे कीटाणु-विटाणु सब मर गए. कलेवे की याद नहीं है, किया या नहीं? परीक्षा की तैयारियां होने लगीं. सभी ने अपनी-अपनी कलमें होल्डर पेन आदि निकाल लिए. बच्ची के मामा उसके लिए चेलपार्क की स्याही की पूरी दवात लेकर आए थे. दूसरी लड़कियां जहां स्याही की टिक्की घोलकर स्याही तैयार करने में जुटीं थीं वही बच्ची ने सगर्व सबसे पहले दवात बाहर निकाली और अपनी ओर से भरपूर प्रयास भी कि कम से कम एक बार सभी की नजर उस पर पड़े. जब एक दो ने फुसफुसाकर उसे ’घमड़ी’ कहा तब जाकर कलेजे को ठडक मिली.
दोपहर के भोजन से पूर्व दो पेपर तथा दोपहर के भोजन के पश्चात दो पेपर हुए. आज सतनाजे की खिचड़ी तो नहीं थी लेकिन दालें वही थीं, जिन्हें चावल में न मिलाकर अलग से बनाया गया था. अगले दिन के लिए सिर्फ चित्रकला और मौखिकी को रखा गया था, तथा कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होंगे गुर्रजी ने बताया. सूरी और बच्ची को विशेष रूप से बुलाकर गीत तथा कविता पाठ की तैयारी करने का आदेश गुर्रजी ने दिया. रात को फिर वही सतनाजे की खिचड़ी. दूसरे दिन चित्रकला का ही पेपर था, सभी लोग आराम से उठे. नहीं, नहीं आराम का मतलब आज की भांति दस ग्यारह बजे नहीं. बस पहले दिन की अपेक्षा थोड़ा सा लेट. कलेवा बना पूरी और चना. बच्चे गदगद. मजा आ गया. भरपेट भोजन हुआ.
अपना-अपना सामान सुबह ही समेट कर थैलों में भर लिया गया. परीक्षा हुई- परियोजना कार्यों के प्रदर्शन के साथ मौखिकी की. किसी से पहाड़े पूछे जा रहे थे किसी से राजधानियों के नाम, किसी से रंगो के नाम और पता नहीं क्या-क्या? गुर्रजी लोग इस आशा में थे कि दोपहर के भोजन से पूर्व भी सबकुछ निपट जाएगा, लेकिन साहब अगर समय पर आ जायें तो फिर कैसे साहब? इसलिए आनन-फानन में फिर से सातनाजों वाली खिचड़ी उबाली गई. साहब ठीक भोजन के समय ही पहुंचे. पता नहीं उन्होंने वह खिचड़ी खाई या नहीं? वैसे भी मिड डे मील का राशन तो था नहीं जो साहबगिरी दिखाते. खाना खा लेने व बर्तन आदि से निपटने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम का दौर शुरू हुआ. चैड़ूधार का सूरी उर्फ सुरेश चंद्र पंत सभी अन्य गायकों पर भारी पड़ा. साहब ने उसे दो रुपये इनाम भी दिया. बच्ची ने भी कविता सुनाई. ईस्वटी की एक लड़की ने डांस दिखाया तो पोखरी के लड़के ने जागर गीत लगाए. सांस्कृतिक कार्यक्रमों का समापन चार बजे हुआ, और इसी के साथ समापन हुआ बच्ची के एक प्रवास का क्योंकि यहां से भी निष्क्रमण का समय आ गया था जिससे बच्ची बिल्कुल अनजान थी.
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डॉक्टर अमिता प्रकाश राजकीय महाविद्यालय सोमेश्वर के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं. हिंदी व गढ़वाली में लेखन करने वाली अमिता के कहानी संग्रह – ‘रंगों की तलाश’ तथा ‘पहाड़ के बादल’ प्रकाशित हो चुके हैं. ‘आधुनिक भावबोध एवं कथाकार पंकज बिष्ट विषय पर शोध कर चुकी अमिता की कहानियां व शोध प्रबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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3 Comments
Kamal lakhera
कहानी !! नहीं ये तो कथा है ।
Kamal lakhera
शीर्षक से इतर, लेखिका ने कहानी को रसभरी कथा में पिरो दिया है, जिसके लिए वे भूरि भूरि प्रशंसा की हकदार हैं ।
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अति उत्तम वर्णन। ५वी की बोर्ड में हमने भी लगभग ऐसे ही परीक्षा दी थी। अहा वो दिन याद आ गए।लेखनी ने उम्दा प्रस्तुति दी है जिसकी लेखनी व लेखिका दोनों प्रशंशा की पात्र हैं।