4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – छठी क़िस्त
पिछली क़िस्त का लिंक: तुम्हारी मां के नसीब में कई अच्छे पुरुष भी थे
बहुत दिनों बाद आज तुम्हारे साथ हूं. ऐसा नहीं है कि मुझे तुम्हारी याद नहीं आती या फिर तुमसे बात करने का मन नहीं होता. सच तो ये है मेरी जान कि मैं तुमसें लगभग हर रोज/हर समय बतियाती रहती हूं,…क्योंकि तुमसे बात करने के लिए न मुझे तुम्हें फोन करना है, न इंटरनेट पर बैठना है, न मैसेज करना है और न ही स्पीड़ पोस्ट! कैसा अनोखा सा संवाद है न ये रंग! अभी तुम इस दुनिया में नहीं आए हो तो बिना किसी माध्यम के भी मैं तुमसे बात करती रहती हूं, …और जब तुम आ जाओगी तो तुमसे बात करने के लिए मुझे दुनिया भर संवाद के आधुनिक माध्यम अपनाने पड़ेंगे.
आज के वक्त में बड़ी चुनौती यही है मेरी बच्ची, कि बातचीत करने के इतने सारे माध्यम हो जाने के बावजूद भी लोगों के बीच में कोई ‘संवाद’ नहीं है. हर तरफ बातें ही बातें हैं, असंख्य तरह की बातें और बात करने के ढेर सारे माध्यम भी हैं, पर संवाद नहीं है कहीं! प्यार के नाम पर लोग गुंथे हुए हैं आपस में, लेकिन प्यार भरा एक स्पर्श कहीं नहीं है मेरी बच्ची! हम सब हर वक्त घिरे हुए हैं भीड़ से, लेकिन कोई किसी के साथ नहीं है. साथ तो क्या, आस-पास भी नहीं है कोई किसी के. जैसे नदी या ताल में पड़ा हुआ पत्थर हर वक्त पानी के बीच में होता है, पानी उससे छू के बहता है, लेकिन पत्थर के केन्द्र को फिर भी नहीं पता कि नमी क्या होती है? कैसी होती है? क्या होता है गीलापन? हममें से ज्यादातर लोग ऐसे ही प्यार की नमी से अछूते हैं मेरी जान!
मेरी बच्ची इस दुनिया में बहुत सारी चीजें बड़ी ही अजीब हैं. सारे लोग प्यार और साथ के लिए तड़पते हैं हर वक्त, लेकिन फिर भी ज्यादातर लोग प्यार नहीं करते, साथ नहीं देते, बस सब भोगना चाहते हैं, टाइम पास करना चाहते हैं! …बातों के बहाव में कहां से कहां पहुंच जाती हूं. कभी-कभी मन में आता है कि काश स्टीफन हॉकिंग्स की तरह मेरे दिमाग में भी कोई मशीन लगी होती, जो हर वक्त मेरे दिमाग में आने वाली सारी बातों को कंप्यूटर में दर्ज करती रहती. तब मेरी तुमसे की जाने वाली वो एक भी बात मिस नहीं होती, जो मैं तुमसे रास्ते में, बस में, बाजार में, रसोई में, लाइब्रेरी में, घूमते हुए, किसी से बात करते वक्त, बस का इंतजार करते वक्त और भी पता नहीं कब-कब, कहां-कहां करती ही रहती हूं!
परसों मैंने तुम्हारे लिए एक कविता लिखी थी, जो मैंने नवमी के दिन लिखनी शुरू की थी और विजयदशमी के दिन पूरी की… सुनों तो जरा-
बड़ा मुश्किल समय है मेरी बच्ची!
नफरत, शक, हिंसा, गुस्सा
सब कुछ घुल गया है हवा में
इनको फिल्टर करने वाला
खून में घुलने से रोकने वाला
कुछ भी नहीं है हमारे पास.
प्यार, दया, क्षमा,
दोस्ती, संवाद, भाईचारा
अब सिर्फ
अजायबघर में ही दिखते हैं.
यूं तो एक छोटा सा अजायबघर
हम सबके भीतर है,
जब-जब हम
नफरत, गुस्से, शक, हिंसा
और खून की बदबू से थक जाते हैं,
अपने अजायबघर की देहरी पर जाते हैं
कुछ पल वहां बिता
फिर उस पर मोटा ताला लगा
हम लौट आते हैं.
पशोपेश में हूं,
मैं तुम्हें क्या सिखाऊं मेरे बच्चे?
उस अजायबघर को बंद रखना
या फिर
खुद को अजायबघर में कैद करना
ये नरभक्षी सियासत का दौर है मेरे बच्चे!
तुम कैसे निबाहोगे…??
मैं इस बात से बेहद चिंतित और परेशान हूं कि मैं ऐसे दौर में तुम्हें जन्म देने को बाध्य हूं जो इंसानों के जीने लायक नहीं है, खासतौर से बच्चों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं! हर पल चीजें और ज्यादा सड़ती और बिगड़ती जा रही हैं. तुम सच में बेहद मुश्किल और कड़े समय में जन्म लेने वाली हो मेरी बच्ची! सब बताऊंगी मैं तुम्हें कि क्यों ये समय मुश्किल है…और क्यों हर पल और भी ज्यादा मुश्किल ही होता जा रहा है.
इन सब ख्यालों की अंतहीन लड़ियों ने मुझे मानसिक रूप से थका दिया है. दिमाग शांत करने के लिए, जीने के लिए सोना जरूरी है…और मैं अब सोना चाहती हूं. फिर मिलती हूँ तुमसे…
उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.
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