1991 से देश में आर्थिक क्रांति हुई जो निःसंदेह 1947 में नेहरू द्वारा की गई राजनीतिक क्रांति से कहीं अधिक असरदार थी. अस्सी के दशक में देश आतंरिक अस्थायित्व यानी बेरोजगारी और मुद्रा स्फीति के गहरे चंगुल में फंस चुका था. दूसरी योजना से गहराया भुगतान संतुलन असमायोजन गहरी जड़ें पसार गया था. तीसरी योजना के बाद तीन साल तक योजना अवकाश रखने की मज़बूरी थी.
(Dr. Manmohan Singh Birthday 2025)
1962 के चीन से हुए युद्ध से ही आर्थिक हालत बिगड़ गई थी तो 1966 आते आते कर्जे की भरपाई में असमर्थ बने देश को अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आगे घुटने टेकने पड़े. डेनियल बेल की रिपोर्ट पर विश्व बैंक ने साफ कह दिया था कि रूपये का अवमूल्यन ही एकमात्र विकल्प है जिसके बाद ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से हो गए धाटे की भरपाई के लिए मदद मिलेगी. मोरारजी देसाई की सरकार के वित्त मंत्री सचिन चौधरी को भारतीय रूपये के अवमूल्यन करने के सिवाय कोई विकल्प न मिला.
आजादी मिलने के बाद ऐसे गणतंत्र की योजना बनी जहाँ गाँव आत्म निर्भर हों और गाँव के लोगों की आधार भूत आवश्यकताएं स्थानीय संसाधनों व देशी तकनीक की मदद से मिल सकें. मेहनतकश कामगारों को काम के बेहतर मौके मिलें. रोटी, कपड़ा और मकान की जरुरत पूरी हो.गाँव से शहर की ओर होता पलायन थमे. बेकारी दूर हो. गाँधी जी की इस सोच पर नेहरू ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम की रचना बड़े उत्साह से की पर प्रबंधकीय योग्यता और कुशलता के अभाव में विकास की सोच नौकरशाही के चंगुल में फंस गई. ऊपर से नीचे होने वाले नियोजन का चक्र शुरू हुआ. शुरुवाती दौर में माना गया कि मुक्त व्यापार और अंग्रेजी राज की अहस्तक्षेप नीति देश में व्याप्त आर्थिक समस्याओं की असल वजह है. ऐसे में बाजार की ताकतों पर भरोसा नहीं किया जा सकता.
परतंत्र भारत में बम्बई प्लान के समय से ही विदेशी पूंजी और तकनीक की जरुरत जरुरी मानी गई थी वह भी राज्य के सख्त नियंत्रण के अधीन. देश के बड़े उद्योगपति इक्विटी एवम उद्यम निवेश के बजाय विदेशी उधार लेने को बेहतर विकल्प मानते रहे तो बैंक, बीमा, ऊर्जा और विमान जैसे सेक्टर को विदेशी हस्तक्षेप से मुक्त रखने पर जोर दिया गया.
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जाहिर था विकास की शुरुवात में ही मुख्य संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण का बोलबाला था. ऐसे माहौल से ही व्यापार और विदेशी विनिमय पर रोकटोक के साथ यह चाहा गया कि लाइसेंस ले कर जो उत्पाद तैयार हों उनके उत्पादन हेतु पूंजी नियत हो, जो उपभोक्ता उत्पाद वितरित किये जाएं उनमें राज्य का सख्त नियंत्रण हो और इन सबमें सबसे अधिक विनाशक था मूल्य निर्धारण लाभांश की सीमा तय कर देना. ऐसी चाहत उद्योगपतियों ने की थी और अपने ही रास्ते में कांटे बो दिए थे. दूसरे महायुद्ध और फिर तीसा की मंदी से ही राज काज चलाने में सरकारी रोक बढ़ती चली आई थी. राशन, कीमत नियंत्रण और नौकरशाही का वर्चस्व था.
आजादी के बाद राज्य के द्वारा विकास और उद्योग धंधों के विकास की चाहत बढ़ी. लोकतान्त्रिक समाजवाद के रास्ते चलने में नेहरू के सामने प्रोफेसर प्रशांत चंद्र महालनोबीस देवदूत की तरह प्रकट हुए. भारी मशीनी उद्योगों की स्थापना के साथ कुटीरी उद्योगों का विकेंद्रीयकरण इस उम्मीद के साथ शुरू हुआ कि आम उपभोग की वस्तुएँ कम से कम कीमत पर मिल सकेंगी व समाज के ढांचे में ज्यादा छेड़ खानी किये बिना ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम भी मिल पायेगा. उधर गांधीवादी कुटीर उद्योगों का संरक्षण चाहते थे तो साम्यवादी भारी उद्योगों के प्रभाव और सार्वजनिक क्षेत्र की बढ़त से खुश लगते थे. तब सोवियत प्रारूप में नीतियों के झुकने से व्यापारी वर्ग असमंजस में भी आने लगा. नेहरू ने सामाजिक स्वामित्व व नियंत्रण में आर्थिक विकास की जमीन तैयार की जिसमें कीन्स की माइक्रो इकोनॉमिक्स, स्टालिन की पब्लिक इन्वेस्मेंट पालिसी व गांधीवादियों के रूरल डेवलपमेंट प्रोग्राम की खाद पड़ी और संयुक्त उपक्रम उगना शुरू हुए.
दूसरी योजना के जनक महालनोबीस दो बड़ी गलतियां कर बैठे.पहली तो यह कि भारत में निर्यात को तेजी से उभारने का कोई मौका नहीं वाली सोच पर चलना और दूसरा यह कि अभी देश में प्रतियोगिता की कोई गुंजाइश नहीं है. 1956 में विखंडित औद्योगिक नीति अधिनियम को आगे बढ़ाते पब्लिक सेक्टर की सत्रह औद्योगिक इकाईयों को संरक्षण दे दिया गया था. आरक्षित उद्योगों में लोहा इस्पात, खनन, मशीनी उपकरण, निर्माण और भारी विद्युत में निजी प्रवेश के लिए दरवाजे खोलने के भ्रम हुए पर हकीकत में ये आगे पेंतीस सालों तक बंद ही पड़े रहे. आरक्षण व संरक्षण की व्यवस्था 1991 में आर्थिक सुधारवाद का निर्णय लिए जाने तक आफत बनी रही. नियंत्रण में होने से निजी क्षेत्र पनप न पाया.
1951 से चले औद्योगिक लाइसेंसिंग अधिनियम को जिस तरह से नौकरशाही ने लागू किया उससे उद्योग पनौती का शिकार बन गए. निर्यात बढ़ाने वाले कदम थाम दिए गए. आयात की पगडंडी आसान लगी. नतीजा व्यापार में पिछड़ते गए. ऐसा भारी-भरकम, नाकारा और एक छत्र राज वाला पब्लिक सेक्टर पनप गया जहाँ किसी की जवाबदेही किसी के प्रति न थी. काम की गुणवत्ता की सोच हाशिये पर खिसकते गई.घरेलू बाजार में प्रतिस्पर्धा पनप न पाई. निजी उपक्रमों पर वहशियाना नियंत्रण जारी रहा. न तो विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के सुर सधे न उन्नत तकनीक का ओर्केस्ट्रा बजा. पश्चिम के विकास की देखादेखी असंगठित क्षेत्र अपनी व्यापक श्रम शक्ति के साथ दर -दर भटकता रहा. संगठित क्षेत्र सरकारी निगरानी के अंकुश से प्रतिफल के वृद्धिमान स्तर संयोजित कर पाने में विफल हो गया. लम्बे समय तक यह भ्रम बना रहा कि सोवियत मॉडल चमत्कार है सो भारी उद्योगों के प्रदर्शन प्रभाव वाला मोहपाश जारी रहा. किया गया विनियोग उत्पादन के लिए दीर्घ काल की बाट जोहता रहा. व्यय की राशि बाजार में कीमत बढ़ाते रही. खेती व हल्के उपभोक्ता उद्योग उपेक्षा के शिकार बने. खास वस्तुओं के वैकल्पिक आयातित उत्पादों पर निर्भरता बढ़ती गई. विदेशी पूंजी की कमी का रुदन चरम पर जा पहुंचा.
प्रश्न बढ़ते गए कि गरीब देश किस तरीके से,कौन सी रणनीति को अपना कर ‘निर्धनता के विषम दुश्चक्र’ से उबर सकते हैं? गुन्नार मिरडल ने इन्हें कम विकसित देश की संज्ञा दी थी जिन्हें विकासशील की श्रेणी में लाना था. विकासशील अर्थशास्त्र नामकरण से जो नया पाठ्यक्रम शुरू हुआ उसके जनक पॉल रोजनस्टीन रोडान और रेगनेर नर्क्से थे. रोडान कहते थे कि गरीबी का कारण विनियोग की असफलता है. यदि उत्पादक विनियोग करने में हिचकता है तो यह जिम्मेदारी राज्य को उठानी चाहिये. इस योजना को संतुलित वृद्धि नाम मिला. दूसरी ओर असंतुलित वृद्धि की नीति अल्बर्ट हिर्शमैन ने सामने रखी जिन्होंने बताया कि उत्पादक को विनियोग बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिले, न कि राज्य द्वारा सीधे विनियोग किया जाए.
भारत ऐसी प्रयोगशाला बनाया गया जहाँ रोजेनस्टीन रोडान और हैरोड- डोमर के बताए सुझाए उपाय अपनाये जा रहे थे. हैरोड-डोमर ने माना कि समाज अपनी आय का एक हिस्सा बचाए जिसे होशियारी से विनियोग किया जाए. बचत कितनी हो यह निर्भर करेगा बचत की औसत और सीमांत प्रवृति पर. हमारे देश में पहली योजना से ही रोडान और हैरोड -डोमर के प्रारूप अपनाये गये. यदि घरेलू बचत बढ़ा कर उसे सरकारी क्षेत्र की कंपनियों में विनियोग किया जाए तो इससे उत्पादकता में सुधार होगा, प्रतिफल बढ़ेंगे व देश की वित्तीय स्थिति में सुधार होगा. डब्लू. डब्लू रोस्टॉव ऐसी दशा को स्वयं स्फूर्ति यानी टेक-ऑफ की अवस्था कहते थे जो तब ही संभव बनता जब घरेलू बचत आत्मनिर्भरता के स्तर पर पहुँचने लगें. पर भारत में सरकारी विनियोग करने वाली कंपनियों की दशा शोचनीय बनी रही. लाभ, कार्य कुशलता व जिम्मेदारी तय करने के बीच भारी अंतर थे, स्वायत्तता थी नहीं जिससे प्रबंधकीय तंत्र दुर्बल ही रहा.
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नर्कसे का मत था कि भारत जैसे देश में बेकारी छिपे स्त्रोतों और श्रमिकों के बाहुल्य को दिखाती है पर इसका विनियोग के लिए सही इस्तेमाल नहीं होता. बेरोजगारी के इन विचारों से प्रभावित हो बम्बई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पी आर ब्रह्मानंद और सी एन वकील ने सेमिबोम्बला जैसा प्रारूप प्रस्तुत किया जिसे सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था. यह तो माना जा रहा था कि आर्थिक वृद्धि से उत्पादन-आय -उपभोग-बचत-पूंजी बढ़ेगी जिसके विनियोग से फिर उत्पादकता बढ़ेगी पर विनियोग की दिशा तो भटक गई. दीर्घ समय की योजनाओं में हुए विनियोग से उत्पादन तुरंत न बढ़ा-कीमत बढ़ी और बेकारी चरम में. नर्कसे तो यह कहते थे कि निर्यात बढ़ा प्रगति करने के दिन लद गये अब व्यापार उत्पादन वृद्धि के लिए इंजन नहीं बन सकता. रौल प्रिबिश का कहना था कि विकसित देशों में बनी वस्तुओं की कीमतें सदा बढ़ती ही रहेंगी जबकि खेती से जुड़े उत्पादों की कीमतें लगातार गिरेंगी. इस प्रकार तीसरी दुनिया के देश पिछड़े ही रहेंगे.
बंद व्यापार की ऐसी सोच के खिलाफ कैंब्रिज में अर्थशास्त्र के जिस सीधे -साधे छात्र ने अपना मत तर्कसंगत रूप से रखा वह मनमोहन सिंह थे. मनमोहन सिंह का यह दृढ़ विश्वास था कि देश का विकास तो तब ही होगा जब खुले व्यापार की नीति अपनाई जाय साथ ही आर्थिक नीति पर कम से कम नियंत्रण हों. मनमोहन सिंह ने 1960 से ही नर्कसे के बंद व्यापार के सिद्धांत से असहमति जताई और साफ कहा कि निर्यात बढ़ा कर जो विदेशी पूंजी जुटे उससे देश अपनी आयात की जरूरतें पूरी करे. भारत में निर्यात से आय में वृद्धि न हो पाने का कारण निर्भरता का सिद्धांत नहीं है बल्कि वह आर्थिक नीतियाँ हैं जो निर्यातमुखी वृद्धि में अवरोध ही पैदा करती रही.तीस साल बाद उसी सज्जन विनम्र व दृढ़ संकल्प शक्ति वाले अर्थशास्त्री ने भारत के वित्त मंत्री की जिम्मेदारी संभाली और चुपचाप ही आर्थिक सुधारों का सिलसिला आरम्भ कर दिया.
1991 के सुनहरे ग्रीष्म से भारत में आर्थिक क्रांति की लहर की सुगबुगाहट महसूस होने लगीं. उससे पहले का दौर छटपटाहट भरा था. वित्तीय संकट चरम पर जा पहुंचे थे. तेल की बढ़ती कीमतों से भुगतान संतुलन बहुत गहरे असमायोजित हो गया था. विदेशी पूंजी के भंडार सिमट गये थे. मई 1991 में मानव बम ने प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की जीवन लीला समाप्त कर दी थी. उनके ह्रदय विदारक अवसान से उपजी सहानुभूति ने कांग्रेस को जीतने का अनायास अवसर दिया. अल्पमत सरकार में तब प्रधान मंत्री पद के लिए चुने गये नरसिंह राव. 21 जून को नई कैबिनेट को शपथ दिलाई गई और राव ने अपना इरादा सा किया कि बीते हुए समय के इस मकड़ जाल को साफ कर अब हम एक नए समय में प्रवेश करेंगे. आई जी पटेल के बदले उन्होंने विनम्र, सहज और अपने निर्णयों के प्रति दृढ़ मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री के दायित्व हेतु श्रेष्ठ पा इस पद पर आसीन किया. रिज़र्व बैंक के गवर्नर के रूप में वह अपनी बेहतर छाप छोड़ ही चुके थे तो दक्षिणी आयोग जेनेवा में अध्यक्ष पद पर रहते एशिया की समस्याओं को सुलझाने में उनकी सोच स्पष्ट थी.
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वित्त मंत्री बनते ही मनमोहन सिंह ने रिज़र्व बैंक के गवर्नर एस वेंकट रमन और उनके सहयोगी सी रंगराजन के साथ वार्ता की. प्रधानमंत्री नरसिंह राव को देश पर छाऐ आतंरिक अस्थायित्व व वाहय असंतुलन की गंभीरता के समायोजन पर त्वरित कार्यवाही की जरुरत समझाई. मनमोहन सिंह ने स्पष्ट कहा कि अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण ही अभी बेहतर विकल्प है.इसके साथ ही कुछ आधारभूत सुधारों के प्रभावपूर्ण संयोजन से आर्थिक संकट के कुचक्र को तोड़ा जा सकता है.
अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रबंध संचालक ऍम. कैमदेसस को विश्वास दिलाया गया कि वह उद्योग और व्यापार नीति में भारी फेरबदल के पक्षधर हैं. भुगतान संतुलन के असमायोजन को दूर करने के लिए भारतीय रूपये का बीस प्रतिशत अवमूल्यन किया गया. नये वाणिज्य मंत्री पी चिदंबरम और वाणिज्य सचिव मोंटेक सिंह अहलुवालिया के सामने यह बात रखी गई कि निर्यात को दी जा रही सब्सिडी को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए. चिदंबरम ने कहा कि सी सी ए को अनावश्यक समझ इसे हटाने का निर्णय किसी वाणिज्य मंत्री के लिए अपना राजनीतिक कैरियर बनाने के पहिले ही दिन आत्महत्या की तरह होगा. पर वह मान गये. अब मोंटेक सिंह अहलुवालिया के साथ बात हुई.चालीस साल से चले आ रहे लाइसेंस राज की व्यापार शाखा को ढहाने की तैयारी करनी थी. आयात लाइसेंस को समाप्त कर विक्रय प्रोत्साहन के द्वारा प्रोत्साहित करने का विकल्प सामने रखा गया. इसके साथ ही उदारवादी व्यापार नीति के प्रस्तावों की घोषणा का आरम्भ हुआ.
अब सामने आया व्यापक संरचनात्मक सुधारों का सिलसिला. साख के लिए पावती पत्रों के उन्मूलन पर सहमति बनी. बाद में वित्त मंत्रालय ने एकीकृत विनिमय दर पर विश्वास जताया. मनमोहन सिंह अधिक से अधिक उद्योगों को लाइसेंस मुक्त करने के लिए राजी हुए. कैबिनेट में उदारवादी औद्योगिक नीति ले कर गये. आत्मविश्वास से भरी आवाज में पूछा, “क्यों न हम सब कुछ स्वतंत्र कर दें और वह भी पूरी तरह से. क्यों न हम कार और उसके जैसी अन्य चीजों को लाइसेंस मुक्त कर दें? इस तरह, आओ, हम सभी चीजों को, सिर्फ सुरक्षा सूची व पर्यावरण संबंधी चीजों को छोड़ कर, खुली बाजार नीति के अधीन ले आते हैं”.
आने वाले साल जता गए कि आर्थिक सुधार कैसा नतीजा देते हैं. 1991 में केंद्र सरकार का वित्तीय घाटा जो जी डी पी का 8.4 प्रतिशत था, 1992-93 में गिर कर 5.7 प्रतिशत रह गया. इसी अवधि में विदेशी मुद्रा भंडार एक हज़ार करोड़ से बढ़ कर दो हज़ार करोड़ डॉलर हो गया. 1993 जुलाई मध्य तक मुद्रा प्रसार की दर तेरह प्रतिशत से गिर छह प्रतिशत रह गई. अब क्रियात्मक तरीके से औद्योगिक लाइसेंसिंग प्रणाली को समाप्त कर दिया गया. काफी अधिक औद्योगिक संस्थान ऍम आर टी पी के शिकंजे से मुक्त किये गए जिसने इनके विस्तार और विनियोग की संभावनाओं पर रोक लगा रखी थी.
बैंक, एयरलाइन्स, विद्युत शक्ति, पेट्रोलियम व मोबाइल टेलीफोन के साथ अन्य कई उत्पादों से सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार खत्म कर उन्हें निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया. अब विदेशी विनियोग के आगमन का पथ खुला था. चौँतीस उद्योगों को स्वचालित प्रवेश की अनुमति मिली. विदेशी विनियोग प्रोत्साहन बोर्ड बना. विदेशी विनियोग 1997 तक हर वर्ष बढ़ते हुए तीन सौ करोड़ डॉलर तक जा पहुंचा.
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अब आयात नियंत्रण की उलझी पद्धति न थी. देश की जरुरत के हिसाब से कच्चा माल व पूंजीगत सामान सुविधा से लाया जा सकता था. आयात शुल्क कम होते गए. मूल्य के अनुसार शुल्क तय होने से उत्पाद शुल्क का ढांचा सरल बना. पूंजी बाजार अन्तर्राष्ट्रीय निवेशकों के लिए खुला तो उनके द्वारा किया विनियोग आशातीत रूप से बढ़ा.
उदारीकरण के चलते गैर – कृषि क्षेत्रों का व्यवस्थागत रूप बदल गया. सामाजिक- राष्ट्रीय उद्देश्यों के अनुरूप और सरकारी नियंत्रण में स्वावलम्बी आर्थिक प्रगति की उछाल के लिए कोशिश करते पूंजीवाद की जगह बड़ी – बड़ी देसी -परदेसी कंपनियों के इशारों पर चलने वाली मुक्त बाजार से खाद -पानी लेती पूंजीवादी व्यवस्था अपने पूरे तामझाम के साथ खूंटे गाड़ गईं पर देश के विशाल खेतिहर इलाके का 1991 में जो ढांचागत रूप था, वह न बदला. कृषि क्षेत्र में होने वाली घट-बढ़ से राष्ट्रीय आय, उद्योगों को मिलने वाले कच्चे माल की उपलब्धता और निर्यात से मिलने वाली आय प्रभावित होती है. कृषि को साथ लिए बगैर उदारीकरण अपनी चाही जाने वाली सफलता को हासिल करने में न तो कोई प्रतिमान बना पाया और न ही इसे स्थायित्व मिला. उलटे हुआ तो यह कि इसमें ढांचागत असंतुलन प्रकट होने लगे. मतलब यह कि जहाँ उत्पादन बढ़ रहा था उस क्षेत्र में रोजगार के अवसर नहीं बढ़ सके.खेती और गाँवो में व्यावसायिक विनियोग बढ़ा कर निर्यात बाजार में कूदने के मौके जरूर मिले तो साथ ही खेती में प्रयोग की जा रही नई तकनीकों, उपकरणों, खाद-बीज-कीटनाशकों के बड़े बाजार के दरवाजे खुले. कृषि उपज की बिक्री व उसके परिवहन, कृषि के कच्चे माल से तैयार माल के विनिर्माण, सार संभाल के गोदामों और शीतगृहों की जरुरत के चलते कृषि क्षेत्र से बाहर के व्यवसायियों को मुनाफा देने वाले अवसर खूब नजर आए. खेती में विनियोग की कमी बनी रही सो मिलने वाला प्रतिफल भी जरुरत से कहीं कम हुआ. ऐसे में खेती से जुड़े व्यवसाय के अवसर कैसे पनप सकते?
राष्ट्रीय आय में खेतिहर लोगों का हिस्सा कम ही होता रहा. हालांकि व्यवसायी चाहते थे कि खेती में कुछ नियमित वृद्धि हो जिससे उसके व्यवसाय और मुनाफा मिलने की नई सम्भावनाएं बनी रहें.बाजार वाद के समर्थक समझ गए कि खेती-किसानी और उससे संबंधित पशुपालन, मछली पालन, बागवानी से जुड़े लोगों को साथ लिए बिना उनके लाभ के रास्ते में रुकावटें ही आएंगी. यह समझा जा रहा था कि उदारीकरण की परिधि में लाये बिना आर्थिकी के विभिन्न क्षेत्रों का ढांचा अलग – थलग पड़ जायेगा. एक ओर भूमण्डलीकृत, औद्योगीकरण के रास्ते पर चलता भारत एक सच्चाई है तो उतना ही बड़ा सच बैल गाड़ी और अशिक्षित किसान भी. ऐसा दोहरापन कैसे संगत होता इसलिए खेती और उद्योगों के पुराने और नए रूपों के बीच की खाई को पाटना पड़ेगा. उपाय बनी ऐसी सोच जो हरित क्रांति वाले राज्यों की पूंजीवादी – व्यवसायिक खेती की व्यवस्था को सारे देश में प्रसारित करने की मंशा रखती थी. अब गुजर – बसर की खेती जो व्यवसाय कम और जीवन पद्धति अधिक होती की जगह उद्यमिता आधारित खेती पर मुड़ने की जरुरत पर जोर दिया जाने लगा जिसमें निजी के साथ सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों की भागीदारी हो.
(Dr. Manmohan Singh Birthday 2025)
असमंजस यह उभरा कि एक ओर अन्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धि घटी तो दूसरी ओर सस्ती कीमत पर अनाज का निर्यात हुआ जो उदार नीति की बंदिश थी. ऐसे चित्र भी सामने आते रहे जिसमें भुखमरी, कुपोषण और फटेहाली के साथ खेतिहरों की आत्महत्या की पटकथा शामिल थी. सवाल उभरते रहे कि सामान्यतः ठीक-ठाक फसल होने पर भी उसे खरीदने की क्रय शक्ति छोटे किसानों-खेतिहर मजदूरों और असंगठित क्षेत्र में बिखरे अन्य करोड़ों लोगों की जेब में नहीं है. सरकार लाभदायक न्यूनतम कीमत पर अन्न की खरीद से कतराने के कारण राशन की दुकानों से भी बिक्री नहीं बढ़ा पा रही. जीवन निर्वाह खेती में छोटे गरीब किसान अपनी जरुरत के अनाज को बोते -काटते हैं. यह जो फसल हाथ में आती है वह किसान की अपनी जरुरत का हिसाब है, बाजार की जरूरतों और मांग से अलग ही इसका स्वरुप होता है. ऐसी आपूर्ति -पक्षीय व्यवस्था देखी जाती रही जिसमें करोड़ों छोटे किसान अपनी जरुरत की पारम्परिक फसलों को पैदा तो करते हैं पर उस उपज की वाजिब कीमत तक बाजार से वसूल नहीं कर पाते. इसी दौर में ऐसी विसंगति भी देखने में आई कि अनाज की मांग तो नहीं बढ़ी पर फल फूलों, नई किस्म की महंगी सब्जियों, मांस और दुग्ध उत्पादों की मांग लगातार बढ़ी.. इनकी मांग निर्यात बाजार में भी खासी रही. पर देश के अधिकांश किसान इन महंगी आदाओं से बने कृषि जन्य पदार्थों का उत्पादन करने में असमर्थ बने रहे. इस प्रकार की मांग समर्थित वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाने के किये खेती के संस्थागत ढांचे और उसके संचालन के तरीके को बदलना जरुरी होता.
वित्त मंत्री चाहते थे कि नई तकनीक के आधार पर किसान आपूर्ति- आधारित प्रणाली के स्थान पर मांग-आधारित प्रणाली पर टिकते हुए बाजार की सूचनाओं को ध्यान में रख उत्पादन की सोचें. जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सिर्फ जीवन निर्वाह के लिए अन्न उगाने का समय तो गुजर गया. नई तकनीकों के आधार पर व्यवसाय की तरह संचालित खेती में महंगी और देश विदेश में चाही जाने वाली कृषि जन्य वस्तुओं का उत्पादन होना चाहिये. ऐसी वस्तुओं को विनिर्माण प्रक्रिया से निकाल उनका मूल्य संवर्धन होना चाहिये. इस तरह कृषि का व्यवसायीकरण और मजबूत होकर सारे देश में फैल जायेगा.
भारत की कृषि का वैकल्पिक ढांचा भी सामने रखा गया जिसमें उद्यमी खेतिहरों से पट्टे पर खेत ले खेती करेंगे, पंप सेट लगाएंगे, उपज का भंडारण कर उसे निजी – सरकारी साझेदारी से बनी सड़कों से घरेलू – विदेशी बाजार में भेजेंगे. खेती में सरकारी विनियोग का दबाव कम होगा. बैंक कर्ज और फसल बीमा से नये उपक्रमी किसान खेती की उपज बढ़ा आर्थिक वृद्धि को 7 से 8 प्रतिशत की लक्ष्य दर तक ले जाने की आकांक्षा को पूरा करने के साझीदार बनेंगे. छोटे किसान बड़े व्यापारियों व कंपनियों से तय अनुबंध के आधार पर उनके द्वारा दी खाद – बीज -कीटनाशक और मिले कर्ज से कृषि जिंसो का उत्पादन करेंगे व उन्हें ही पहले से करार की गई कीमतों पर बेच देंगे. बड़े कृषि उपक्रमी फसल का बीमा कराएंगे और फसलों के वायदा बाजार में सौदे करके लगाई गई अपनी पूंजी का जोखिम कम करने की गुंजाईश रखेंगे साथ ही इनकी सट्टेबाजी से कमाई भी करते रहेंगे. खेती के स्वरूप को आमूलचूल बदलने के ये मंसूबे रहे.
वित्त मंत्री जानते थे कि इन पर रजामंदी अनेक मुश्किलों से भरी होगी इसलिए उन्होने खेती के सुधारों को मुख्यतः निम्न मुद्दों से संबंधित किया:करार या अनुबंध खेती, अनाज की निजी मंडियाँ, खुदरा बाजार में विदेशी प्रत्यक्ष विनियोग और खेती में निजी और सरकारी क्षेत्र की साझेदारी. राज्य सरकारों को अनुदान दे इन सुधारों को लागू करने के मंसूबे भी पले.
ग्यारहवीं योजना की सोच में भारत की खेती का एक बदला हुआ नक्शा था जो ठेके की खेती और कंपनियों द्वारा बड़े खेतोँ के निर्माण और उनके संचालन को दिखाता था. स्पेशल इकोनॉमिक जोन के कानून में उद्योगों की परिभाषा में खेती और उससे जुड़े सारे व्यवसायों को सम्मिलित करने की व्यवस्था बनी. ठेके की खेती को कृषि के एक तरीके के रूप में उत्साहित करने की भी पुरजोर कोशिश हुई. पहले से ही हरित क्रांति के नाम पर खेती को बड़ी कंपनियों द्वारा उत्पादित बीज, खाद, कीटनाशक, ट्रैक्टर, कृषि यँत्र, पंपिंग मशीनों, डीजल व बिजली पर निर्भर बना दिया गया और खेती से मिला उत्पादन बाजार की ताकतों और कंपनियों की नीतियों और गतिविधियों पर निर्भर बन गया. इन परिवर्तनों से किसान की आमदनी मौसम की मनमानी के साथ कंपनी और बाजार की उठापटक की गुलाम बनती गई.
1991 के आर्थिक सुधारों की कहानी का आरम्भ उठापटक और सहमति -असहमति के दो टप्पोँ के खेल से शुरू हुआ था. उद्योगों को लाइसेंस राज से मुक्त करने की जिम्मेदारी संभालने ए एन वर्मा को मुख्य सचिव चुना गया. यह वही वर्मा थे जिन्होंने वी पी सिंह के कार्यकाल में कई कंपनियों के लाइसेंस रद्द करने में अपना कौशल दिखाया था. राव के कहने पर वर्मा ने राकेश मोहन के साथ मिल पुराने प्रस्तावों की तह में जा कर नई नीति बनाने की जिम्मेदारी ली.
वित्त मंत्रालय के कई अधिकारी अधिक से अधिक उद्योगों को लाइसेंस से मुक्त करने के प्रबल विरोध में थे. जब इसके मसविदे पर चर्चा हुई तब अर्जुन सिंह ने पुरानी नीतियों से कोई निरंतरता न रखने की शिकायत की. ऍम एस फोतेदार के हिसाब से ये नेहरू व भारत विरोधी थीं. तब राव ने चिदंबरम को यह जिम्मेदारी सौंपी कि इस नीति की भाषा को राजनीति के हिसाब से जायकेदार बनाया जाए. चिदंबरम ने उसमें नेहरू, इंदिरा व राजीव गाँधी के विकास व सुधार संबंधी वाक्य जोड़े. यह जताया कि ये नई नीतियाँ नेहरू जी के समाजवाद की सोच का विस्तार है. राव समझ गए कि लीक से हट कर चलने पर उन्हें अपनी ही पार्टी के प्रबल विरोध का सामना करना होगा.
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मनमोहन सिंह चाहते थे कि नई औद्योगिक नीति की घोषणा तुरंत हो पर उसे बजट के साथ जोड़ कर पेश करना जोखिम भरा होता. हुआ भी यही कि नई औद्योगिक नीति के लिए सरकार में किसी का रवैया आशा से भरा न था. स्थिति को अपने पक्ष में करने के लिए मनमोहन सिंह ने आर्थिक नीतियों से सम्बन्ध रखने वाले कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा और प्रधानमंत्री के सचिव ए एन वर्मा के साथ अन्य सचिवों की लगातार बैठक की. संचालन समिति बनी. अपने साथ मोंटेक सिंह अहलूवालिया और अशोक देसाई सा उदार अर्थशास्त्री रखा. तब सुधारों के पहले दो साल उल्लेखनीय सफलता से भरे नतीजे दे गये. वित्तीय घाटा कम हुआ. विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ा. मुद्रा प्रसार कम हुआ. क्रियात्मक रूप से औद्योगिक लाइसेंसिंग प्रणाली समाप्त हुई. अधिकांश औद्योगिक संस्थानों को ऍम आर टी पी के नियंत्रण से मुक्त किया गया. जटिल आयात नियंत्रण सरल हुए. पूंजी बाजार विनियोगियों के लिए खुला. उदारीकरण के पहले दो साल उपलब्धि बन गये.
संकट अभी थमे न थे. अर्थव्यवस्था को चूसने वाला सार्वजनिक क्षेत्र हमेशा की तरह बीमार था. श्रमिकों के लिए सुधार बाट जोह रहे थे. कृषि बीमा न हुआ था और नही सब्सिडी पर रोक लगी थी. लाइसेंस राज तो मिट गया पर इंस्पेक्टर राज कायम था जो उपक्रमियों के हौसले तोड़ रहा था. नब्बे के दशक में अर्थ व्यवस्था भले ही साढ़े छह प्रतिशत की दर से बढ़ी पर लोगों के किये अपेक्षित सुधार न हुए. नरसिंह राव ने एक कठिन रास्ता चुना जिसका नक्शा मनमोहन सिंह ने ही बनाया था. उन्होंने कई कमेटियों का गठन किया जैसे बैंक सुधारों के लिए नरसिंहन, कर सुधार के लिए चेलैया, बीमा सुधार के लिए मल्होत्रा समिति जिनके तर्कों का आधार ले मनमोहन सिंह ने विकास की उदार सुधार प्रेरित दिशा की ओर ठोस क्रियान्वयन की डगर पकड़ी.
आर्थिक सुधार तब किये गये जभी देश संकट में था, आतंरिक रूप से अस्थायित्व भरा और वाहय रूप से असंतुलित. भुगतान संतुलन के असमायोजन की समस्या विकट थी. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक ने भारी दबाव बनाया था तब व्यापक आर्थिक चरों को उदार नीति से प्रेरित करने की रणनीति मनमोहन सिंह ने सामने रख दी थी जिसमें स्वयं स्फूर्ति और प्रबल प्रयास का अनोखा मेल था. राव की यह उपलब्धि थी कि विषम जातीय बंधनों व उथल-पुथल भरे प्रजातंत्र में बहुदलीय सरकार होने के बावजूद वह सुधारों पर अडिग रहे और धीरे-धीरे उन्हें लागू करते रहे. उनकी दुर्बलता यह रही कि पार्टी में वह अपनी छवि सुद्रढ़ न कर पाए.
आर्थिक सिद्धांत व नीति के बेहतर संयोजन से समस्याओं को सुलझाने की कुशलता सौम्य व्यवहार व दृढ़ इरादे वाले मनमोहन सिंह ने रखी जो दुनिया भर में सुधारों के पथ प्रदर्शक के रूप में पहचान बना गए. वह सरलता से, साफगोई से जटिल से जटिल व उलझी आर्थिक परेशानियों का तोड़ अन्तर्राष्ट्रीय मंचों व व्यापार अधिवेशनों पर रखने में कुशल रहे.देश की नई पहचान बनी कि यहाँ विनियोग से उच्च प्रतिफल की आशा है.मनमोहन सिंह का सौम्य व्यवहार व आर्थिकी पर उनकी गहरी समझ उन्हें युवा भारतीयों का नायक बना गई. वह एक सत्यनिष्ट व्यक्ति थे.
(Dr. Manmohan Singh Birthday 2025)
1990 के दशक के लगते भारत के आर्थिक स्तरीकरण में मध्य वर्ग का प्रतिशत काफी अल्प था. छोटा शक्तिशाली आबादी का हिस्सा अमीर काफी अमीर था तो निर्धनों की तादाद ज्यादा काफी ज्यादा. सफल आर्थिक सुधार तभी सम्भव बनते हैं जब गरीबों की काफी तादाद को मध्य वर्ग की ओर लाते रहने के आवश्यक न्यूनतम प्रयासों में निरंतरता बनी रहे.लम्बे समय में सुधार निर्धनों के लिए सहायक होंगे. देश को आत्मप्रेरित वृद्धि के पथ पर ले जायेंगे. सुधार तब प्रेरित होंगे जब अधिक नौकरियों के अवसर मिलेंगे, कीमतों की वृद्धि लोगों की क्रय शक्ति को कम नहीं करेगी. आवश्यक वस्तुएं सस्ती होंगी. प्राथमिक क्षेत्र में, असंगठित क्षेत्र में जीवन निर्वाह स्तर से ऊपर उछाल लगाने का अवसर मिलेगा.
मनमोहन यही चाहते थे कि सुधार का अर्थ बने कुलक अमीर मध्यवर्गीय किसानों के लिए कम सब्सिडी और उद्योग पतियों के बीच सार्वजनिक क्षेत्र की बंदर बाँट की न्यूनता. गरीबों के लिए जीवन निर्वाह के समुचित प्रबंधन के साथ तत्काल और जरूर ही लागू किये जाने वाले सुधार हैं प्राथमिक विद्यालय और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जो उनकी सम्पन्नता के लिए गुणवत्ता युक्त विनियोग है और इनसे प्राप्त प्रतिफल हेतु प्रतीक्षा की समय अवधि.
भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की यह दुर्बलता रही कि राष्ट्र के जिस पुर्ननिर्माण की वास्तविक जरुरत थी उसका आतंरिकीकरण करने की सोच बलवती न बन पाई. यह जानते हुए कि आय वितरण की असमानता व विषमता देश की मुख्य दुविधा है इन्हें दूर करने के आवश्यक न्यूनतम प्रयास पहचाने न जा सके.
1991 से आर्थिक सुधार होने पर आरम्भ में मिश्रित प्रतिक्रिया हुई. जिस कांग्रेस पार्टी के मुखिया के शीष इसका सेहरा बँधा उसी के कई प्रभावशाली नेताओं के स्वर इसके विरोध में रहे. कारण साफ था कि इसी पार्टी ने व्यापक आर्थिक नीतियों में गरीबी हटाओ, लाइसेंस राज, बाजार विरोधी नीतियाँ भर दी थीं व सार्वजनिक क्षेत्र को उत्पादन हेतु सर्वोच्च ठहराया था.
नरसिंह राव इस मामले में अग्रणी रहे कि उन्होंने देश की नाजुक परिस्थिति में सुधार के निर्णायक कदम उठाए और मनमोहन सिंह जैसे सुलझे अर्थनीति विशेषज्ञ की प्रतिभा को पहचाना. सुधार लागू करने में हताशा भरा विलम्ब भी हुआ. इसका कारण साफ था कि देश में मुख्य राजनीतिक दलों का कोई स्पष्ट आर्थिक एजेंडा था ही नहीं. आर्थिक मामलों के मंत्रालय में कोई सुधारक नहीं दिखा जो समस्या को समाधान की स्पष्ट दिशा दे सके.
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मनमोहन सिंह आर्थिक मामलों की तह में जा उनके समाधान की योग्यता रखते थे. इसे राजनय की विसंगति कहें कि आर्थिक सुधार लागू किये जाने के बाद भी कई वर्षो तक वह अपनी पार्टी को अपनी नीतियों से संतुष्ट करने में असफल रहे.उन्होंने नियंत्रण और लाइसेंस राज का अंत किया. प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग के नियमों को सरल बनाया. विदेशी कंपनियों को भारत में विनियोग की अनुमति दी. औद्योगिक क्षेत्रों में सौ प्रतिशत एफ डी आई को बढ़ावा दिया. व्यापार नीति का उदारीकरण जहां आयात व निर्यात पर लगे प्रतिबंधों को ढीला करता था तो वहीं सीमा शुल्क में छूट दी गई. विश्व व्यापार संगठन के मापदंडो के अनुसार व्यापार को सरल और पारदर्शी बनाया. इसकी शुरुवात रूपये के अवमूल्यन से हुई जिसे निर्यात बढ़े. विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने के लिए रूपये को धीरे-धीरे परिवर्तनीय बनाया गया. बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र में सुधार की मंशा से सरकारी बैंकों की कार्यप्रणाली को चुस्त करने के प्रयास किये. निजी और विदेशी बैंकों को बाजार में प्रवेश करने की अनुमति दी. पूंजी बाजार गतिशील हुआ. निजीकरण को प्रोत्साहन मिला जिसके अधीन सरकारी उपक्रम निजीकृत हुए तो घाटे में चल रहे सार्वजनिक उपक्रमों को बंद करने व निजी क्षेत्र को सौंपने की प्रक्रिया शुरू हुई. सरकारी खर्चों को नियंत्रित करने और राजस्व में वृद्धि के उपाय लागू हुए. कर प्रणाली सरल व पारदर्शी हुई तो अप्रत्यक्ष करों में बदलाव करके कर संग्रह को और अधिक कुशल बनाया गया. उद्योगों और सेवाओं के विस्तार में सूचना प्रोद्योगिकी और सेवा क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया गया. देश में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए बुनियादी ढांचे में सुधार किया गया. विदेशों से पूंजी आकर्षित करने के उपाय किये गये तो सुधारों के आरम्भ में ही आई एम एफ से कोष आहरित किये गये.
मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के साथ प्रधानमंत्री के गुरुतर दायित्व को संभालते भारतीय अर्थतंत्र को एक नवीन दिशा देने वाले विशेषज्ञ की भूमिका का निर्वाह किया तो नीतियों और नेतृत्व को लेकर विवाद के पात्र भी बने. उन पर आक्षेप लगा कि भले ही आर्थिक सुधारों से आर्थिक वृद्धि की दरों में वृद्धि हुई पर इसका लाभ समाज के हर वर्ग तक समान रूप से नहीं पहुंचा. निर्धनता निवारण में आशानुरूप सफलता नहीं मिली और साथ ही ग्रामीण-शहरी असमानता बढ़ती रहीं. उदारीकरण से बड़े उद्योगों और कॉर्पोरेट घरानों का हित हुआ जबकि छोटे व्यापारी और किसानों की दशा विपन्न ही रही.
मनमोहन सिंह के कार्यकाल में कई बड़े भ्रष्टाचार घोटाले हुए, जिनमें 2 जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ गेम्स व कोल ब्लॉक घोटाला शामिल है जिससे सरकार की छवि धूमिल हुई. घोटालों पर मुखर प्रतिक्रिया देने में वह असफल रहे.
उनके दूसरे कार्यकाल (2009-2014) में उन पर नीतिगत पक्षघात का आरोप लगा. निर्णय लेने में देरी और राजनीतिक दबाव के कारण कई सुधार की प्रक्रियाएं ठप हो गईं. इससे सरकार पर विकास के प्रति उदासीन होने और प्रशासनिक अक्षमता का आरोप भी लगा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में कृषि क्षेत्र को उतनी प्राथमिकता नहीं मिली जितनी उद्योग और सेवा क्षेत्र को दी गई थी. कृषि क्षेत्र में विनियोग की कमी और किसानों को उचित समर्थन न मिलने से ग्रामीण संकट बढ़ा. किसान आत्महत्याओं ने समस्या को और अधिक गंभीर बनाया. आरंभिक दौर में छोटे काश्तकार व उद्यमियों को नई नीतियों से उपजी विसँगतियाँ झेलनी पड़ी. लघु व परम्परागत उद्योग नुकसान में आए और सब्सिडी में कटौती से इन पर निर्भर उत्पादन ह्रासमान प्रवृति दिखाने लगा. इस कारण सुधार गरीब विरोधी कहे गए.
(Dr. Manmohan Singh Birthday 2025)
आम आदमी को आर्थिक सुधारों का फायदा महसूस नहीं हुआ क्योंकि महंगाई पर रोक न लगी. विशेष रूप से खाद्यान्न की कीमतें तेजी से बढ़ती रहीं. रोजगार सृजन की गति मंद रही. औद्योगिक व विनिर्माण क्षेत्रों का प्रदर्शन आशानुकूल न बना .मनरेगा व अन्य सामाजिक कल्याण योजनाओं का सही क्रियान्वयन समुचित देखरेख के अभाव से कमजोर पड़ा . वाम पंथी नेता तो उदारीकरण व निजीकरण की नीतियों को गरीब व श्रमिक विरोधी मान मनमोहन सिंह सरकार को पूँजीपतियों के हितों का रक्षक कहते रहे . अमेरिका के साथ किये परमाणु समझौते पर भी उन पर तीर चले. कहा गया कि उनका नेतृत्व प्रशासनिक विफलताओं की कमजोर कड़ी है. वह बस कठपुतली प्रधान मंत्री हैं जो सोनिया गाँधी के इशारों पर काम करते रहे हैं. इसीलिए नीतिगत पक्षाघात की बीमारी से अर्थव्यवस्था पंगु व अशक्त बनती जा रही है .
मन मोहन सिंह की छवि एक कमजोर नेता के रूप में उभारी जाने लगी. विपक्ष उनके नेतृत्व की क्षमता व उनकी स्वायत्तता पर आक्रामक रहा. उनकी निर्णय क्षमता व राजनीतिक नियंत्रण कुशलता कमजोर मानी गई.आरोप लगते रहे कि वह हमेशा सोनिया गाँधी व कांग्रेस हाई कमान के अधीन रहते हैं. फिर उनके कार्यकाल में चीन व पाकिस्तान जैसे पडोसी देशों के साथ संबंधों में कटुता पैदा हुई. 26/11 मुंबई आतंकवादी हमले के बाद सरकार की प्रतिक्रिया को कमजोर माना गया. यूपीए के दौरान बढ़ती मंहगाई और भ्रष्टाचार के घोटालों से आम जनता ने भी उनकी आलोचना की. पत्रकारों और लेखकों ने उनकी चुप्पी और निर्णय लेने में कमजोरी को दबाव में घिरे रहने से आहत उनके व्यक्तित्व से जोड़ा.
कई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्रियों ने मनमोहन सिंह की नीतियों को असमानता बढ़ाने वाला बताया तो विश्व आर्थिक मंच पर कई विशेषज्ञ भारत में सुधारों की धीमी गति व बढ़ते कर्ज पर सवाल उठाते रहे.
आर्थिक विषमताओं पर उल्लेखनीय काम किये प्रोफेसर ए के सेन मनमोहन सिंह की नीतियों को ऐसे विकास पर केंद्रित कहते थे जो समाज के पिछड़े वर्ग की उपेक्षा करता था. उनके दौर में गरीबी हटाओ के नारे से जुड़ी योजनाएँ आधी अधूरी पड़ गयीं थीं व स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे मानव विकास को प्रभावित करने वाले पक्ष निम्न प्रतिमान पर ही बने रहे. हालांकि आरम्भ में उन्होंने भारत को आर्थिक स्थायित्व प्रदान किया और गरीबों के लिए कल्याण कारी योजनाओं की शुरुवात की. उनकी समग्र आर्थिक दृष्टि सराहनीय थी पर सामाजिक क्षेत्र पर ध्यान देने की कमी से वांछित लक्ष्य प्राप्त न हो सके.
प्रोफेसर जगदीश भगवती उदारीकरण के समर्थन में थे उन्होंने आर्थिक सुधारों को ऐतिहासिक बताया जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक मंच पर प्रतिस्पर्धा बनी. जगदीश भगवती ने उदारीकरण को भारत की आर्थिक आजादी का संकेतक माना पर मनमोहन सिंह द्वारा किये सुधारों की धीमी गति पर चिंता भी प्रकट की. कारण वही था कि खेती-बाड़ी और कुटीर उद्योग के साथ लघु उद्यम उपेक्षित हो गये थे तो इसके साथ ही सुधारों को क्रियाशील करने में आए राजनीतिक असमंजस को सूझ- बूझ से निबटाया नहीं जा सका था. प्रभात पटनायक ने भी मनमोहन सिंह की नीतियों को गरीब विरोधी और कॉर्पोरेट समर्थक बताया. विदेशी पूंजी पर आश्रित निर्भरता भारत की आर्थिक संप्रभुता के लिए खतरा मानी गई. आर्थिक उदारीकरण से विषमता गहराने और ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन निर्वाह की वस्तुओं के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ने के खतरे मंडराये.
(Dr. Manmohan Singh Birthday 2025)
के एन राज का कहना था कि मनमोहन सिंह ने असमायोजन से जूझती व्यवस्था को संकट से बचाने के लिए सही दिशा में कदम उठाए. दीर्घकालिक विकास के लिए उनकी जैसी नीतियों की प्रस्तावना जरुरी थी पर आर्थिक संकट से उबरने हेतु वैश्विक अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक निर्भरता अर्थतंत्र के लिए अभिशाप बन गई . थॉमस पिकेटी भी भारत में बढ़ती असमानता से चिंतित रहे जिससे पहले से विद्यमान अमीर-गरीब की खाई और गहरा गई. सी पी चंद्र शेखर ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्र और कृषि क्षेत्र की उपेक्षा, बढ़ते आयात और औद्योगिक मंदी से मनमोहन सिंह की नीतियाँ शहरी और संपन्न तबके के लिए ही प्रासंगिक रहीं. वरिष्ठ अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने उनके कार्यकाल में काले धन के बढ़ने पर चिंता व्यक्त की थी. नारायण मूर्ति धीमी निर्णय प्रक्रिया और नीतिगत पक्षाघात से उनकी नीतियों का विरोध करते रहे.
रघुराम राजन ने यूपीए सरकार के कार्यकाल में महंगाई और बढ़ते राजकोषीय घाटे पर सवाल उठाये और चेतावनी दी कि सब्सिडी व लोक लुभावन योजनाओं से दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता पर विपरीत प्रत्यावर्तन प्रभाव पड़ता है.अरविन्द पनगड़िया ने मनमोहन सिंह के निर्णय को सुधार की दिशा बताया व इसे भारत के इतिहास का महत्वपूर्ण मोड़ माना. उनकी नीति ने निजीकरण, उदारीकरण व वैश्वीकरण की प्रक्रिया को तीव्र किया. सेवा व औद्योगिक क्षेत्र में उनका योगदान सराहनीय है. जेफरी सैक्स ने मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों की प्रशंसा की. उनका मत था कि वैश्विक व्यवस्था में उन्होंने भारत का स्थान बनाया. उनकी योजनाएँ विकासशील देशों के लिए अनुकरणीय बनी. मेघनाद देसाई उन्हें आर्थिक सुधारों का महानायक मानते थे. भारत के मध्यम वर्ग और निजी क्षेत्र के लिए उनकी नीतियाँ वरदान साबित हुईं. इंद्रजीत दुबे के अनुसार उन्होंने अर्थव्यवस्था को वैश्विक मानकों के हिसाब से पुनर्गठित किया, उनके द्वारा किये गये सुधार ही भारत की नई आर्थिक नीति की नींव बने. योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने हमेशा मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों का समर्थन किया. उनके मत में 1991 के सुधारों ने भारत को आर्थिक रूप से स्वतंत्र व समृद्धि की ओर के जाने में निर्णायक भूमिका का निर्वाह किया जिससे वह परिपक्वता की दशा प्राप्त करेगा. आम आदमी की भावना मनमोहन सिंह के प्रति सरल सौम्य संवेदनशील विनम्र व्यक्तित्व की रही जिसके लिए वह हमेशा याद किये जाएंगे.
(Dr. Manmohan Singh Birthday 2025)
“जिसने मन का दीप जलाया
दुनिया को उसने ही उजला पाया”

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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