मेरा बचपन-2 (डीडी पन्त की अप्रकाशित जीवनी के अंश)
-देवी दत्त पंत
पिछली कड़ी का लिंक: बचपन में फलदार पेड़ों का आनंद
कितनी मधुर याद आती है उस गुफा की जो शिखर चढ़ने पर रास्ते में मिलती थी. उसके अंदर घुस पर प्लेटो के केव मैन की याद आती थी जो बाहर न देख पाते थे और गुफा की दीवारों पर पड़ने वाली छाया से ही बाहर का ज्ञान प्राप्त करते थे. गुफा बड़ी है. कभी उसके अंदर बाघ रहता था. कहते हैं कई वर्ष पूर्व हमारी सात गायों ने घेरा डाल कर सात दिन तक बाघ को गुफा से बाहर नहीं निकलने दिया था. पर आखीर में गायें हार गयीं और बाघ ने उन्हें मार दिया. पर्वत के पश्चिमी ढलान में ग्रेनाइट की एक भीषण चट्टान है जो बीच से दो विशाल खण्डों में विभाजित है. उसे गढ़भेदुआ चट्टान कहते हैं. गांव से देखने पर वह विकराल राक्षस सी लगती थी. डर से लोग बीमार पड़ जाते थे. एक बार जंगली आग के सहारे उन लोगों ने उसे तोड़ दिया! सच-झूठ जो भी हो, नजदीक जाने पर अथाह रसातल नजर डालना चक्कर में डाल देता था. पर कुछ साथी चट्टान पर चढ़ जाते थे.गांव के दक्षिण में कई उड्यार हैं. उनमें एक में घुस कर हम किशोर अपने को सुरक्षित पाते और ताश खेलते थे. बड़ी कंदराएं घास काटने वाली महिलाओं को वर्षा होने पर शरण देती थीं. कभी-कभी ये कंदराएं क्रीड़ा के स्थल भी बन जाती थीं.
हमारे पूर्वज गंगोलीहाट के इलाके से डेढ़ -दो सौ वर्ष पूर्व यहां आए थे. तीन छोटे गांवों में तब के ठाकुरों ने बसने को स्थान दिया था. देवराड़ी भगवती वैष्णवी का गांव था. पूजा-अर्चना के अलावा खेती ओर पुरोहिती का धंधा होता था. कालांतर में बिरादर लोग नीचे (जिखेड़ा) बस गये. पिताजी ने एकांत में रहना पसंद किया. हमारे कुल ने कभी बड़ा नाम नहीं कमाया. मुझ से पहले मेरे एक चचेरे बड़े भाई मात्र वेक्सीनेटर रहे जो डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में नौकरी पर थे. कालांतर में पंत लोग स्थान भ्रष्ट हो गये. जाति का. जाति का प्रचलन केवल वर्ण व्यवस्था से नहीं है. सभी जातियों में खींचा-तानी, बड़े-छोटे का सवाल बना रहता है. दलितों से भी हुड़किया, ढोली, बादी के हाथ का पानी अन्य हरिजन नहीं पीते. टमटा औरों से अपने को बड़ा बताते है. ठाकुरों में कुछ जौकारी लोग अपने को अन्य ठाकुरों से बड़ा समझते हैं. बनिये पहाड़ी गावों में नहीं होते. शायद व्यापार की कम संभावनाओं के कारण. जो भी हो, जाति व्यवस्था हरिजनों को नीची श्रेणी में रखने के अलावा भी अन्य आंतरिक दुर्व्यवस्थाएं पैदा करती हैं.
बचपन से देखता रहा, हमें अन्य लोगों से सम्मान मिलता तो हमारे बड़ों को अपने से बडे ब्राह्मणों को इज्जत देनी पड़ती. खान-पान, नमस्कार, कुशल पूछने, सम्बन्धों (यानी विवाह) इत्यादि से ब्राह्मणों के बीच भी आंतरिक भेद सामने आते थे. बड़े-बूढ़ों और जवानों का बड़ा समय सम्बंधों के बारे में बात करने में व्यतीत होता था. पहाड़ में ‘कहां के हुए वे’ पूछने के साधारण से अधिक माने होते हैं. यानी ‘वे’ किस श्रेणी के ब्राह्मण हैं. सीबी गुप्ता ने बाद को पहाड़ियों की इस जातिगत व्यवस्था को छोटी धोती-बड़ी धोती के रूप में प्रचारित किया. केसी पन्त और एनडी तिवारी के संदर्भ में वे इसी का आनन्द लेते थे. पर बारीकी वाले भेद-प्रभेद पूरी तरह से बाहर वाला नहीं समझ सकता. आज कई अनुभवों के बाद हंसी आती है कि कितना समय नष्ट होता था इन सम्बंधों की बातों में. विशेष रूप से पंचबीड़ी ब्राह्मण जो मध्य श्रेणी के होते थे अपने सम्बंधों के बाबत बड़े सतर्क रहते थे. अपने बिरादरों में भी छोटे-बड़े हो जाते, यदि ‘सम्बंध’ किसी के खराब हो गये हैं. तल्ला मोल ‘बाखली’, मल्ला मोल में विभाजन भी हो सकता था. इसी प्रकार की बेमतलब बातें औरतों के सम्बंध में गपशप का माध्यम बनती थीं. परन्तु बलात्कार की घटना नहीं होती थी. औरत का दर्जा काफी नीचे था. वह काम में पिसती रहती. मर्द गप-शप करते, हुक्का पीते. शराब तब गांव में प्रचलित न थी. थोड़े बहुत लोग चरस, गांजे की दम लगा लेते थे. आज की जैसी सड़कें न थीं. दुकानें न थीं. वह सभ्यता बीड़ी, सिगरेट, चाय या शराब के साथ वहां पनपी न थी.
आज बुढ़ापे में पढ़ने-लिखने से ऊब जाता हूं तो पिछले जीवन को याद करता हूं. एकदम बचपन की बातें की इतनी लम्बी जिन्दगी में सबसे सुस्वादु लगती हैं. आज के हिन्दुस्तान के हिसाब से भी गांव का जीवन कष्टकर था पर किस वस्तु का आकर्षण था जो मुझे आज भी गांव की मधुर याद दिलाता है. हिसालू, काफल, बमौर, बेडू? सच है जंगल में जो उगता था वह खेतों में उगे मूलधन के अतिरिक्त बोनस है.
मेरी वास्तविक जन्मतिथि 14 अगस्त 1919 है. जो प्रमाण पत्र में दर्ज है वह है 6 जनवरी 1918 हमारे गांव में पहले स्कूल नहीं था. जब खुला तो उन्हें विद्यार्थियों की जरूरत पड़ी. तब मैं साढ़े चार वर्ष का रहा हूंगा, और अध्यापकों ने छात्र संख्या बढ़ाने के लिए छःवर्श लिख कर भर्ती कर लिया. वह जन्मतिथि हमेशा प्रमाण पत्र में बनी रही.
मेरी मां बहुत सीधी-साधी महिला थीं. पिता जो ही थे जो कुछ ठसके रखते थे. मेरा खयाल है कि मां के सम्बंध पिता जी के साथ बहुत अच्छे नहीं रहे. मां से उनका लगाव बहुत ज्यादा नहीं था. इसलिए मां का मेरे बाबत बहुत जोर पिताजी पर नहीं रहता था. हां, पिताजी की इच्छा जरूर थी कि मैं अपनी बिरादरी वालों से थोड़ा ऊपर रहूं. मेरा बेटा औरों से आगे रहे . कुछ ऐसे विचार उनके थे-मुझे पढ़ाने के या मुझे बड़ा आदमी बनने के.
जैसे कि बताया है, हमारे कुनबे में एकमात्र सरकारी नौकर हमारे चचेरे बड़े भाई थे जो वैक्सीनेटर रहे. उससे पहले कोई नौकरी में नहीं गया था. आस-पास के ठाकुर लोगों ने हमें रहने को जगह दे दी. वहीं कुछ पूजा-पाठ कर लिया करते थे. मेरे ख्याल से गांव में सभी का काम ऐसे ही चलता था. यहां तक कि ब्राह्मणों में भी, जो ‘ऊंचे’ किस्म का काम करते थे, उनमें भी कोई बनारस जाकर शस्त्री तक पढ़ आया तो पढ़ अया, वरना पढ़ाई लिखाई बहुत कुम थी. कुल मिलाकर जीवन अच्छा था. अपना जंगल था. लकड़ी, पानी, फल-फूल मिल जाते थे, खाने-पीने भर को हो जाता था.
जब मैं पढ़ने -लिखने की उम्र तक पहुंचा तो हमारे गांव में एक प्राइमरी स्कूल खुल गया. और उसमें मुझे भर्ती कराया गया. पिताजी ने थोड़ा बहुत पढ़ा था. पाठ-पूजा कर लेते थे. हमारा मुख्य गांव नीचे था जहां बिरादरी के अन्य परिवार रहते थे. उनमें भी मेरे ख्याल से दस-बीस प्रतिशत लोग ही ऐसे रहे होंगे जो थोड़ा बहुत पढ़ना लिखना जानते थे.
मेरे ख्याल से पिताजी और मेरी, दोनों की इच्छा थी कि मैं आगे पढ़ूं. मैं क्यों पढ़ना चाहता था इस पर बताऊं? तब मैं सात-आठ साल का था. एक बार हमारे यहां एक एसडीएम आया. वह गढ़वाल का रहने वाला था. उसकी तस्वीर मेरे दिमाग में आज भी जस की तस है. मैंने सोचा अगर मैं भी इसके जैसा बन जाता तो खूब रुपया मिलता. गांव वालों को देता. गरीब लोगों को देता. यानी पढ़ने-लिखने के पीछे कुछ इस तरह का विचार था. बड़ा आदमी किसे कहते हैं इस तरह की समझ तो नहीं थी. हां, यही समझ में आता था कि कुछ पढ़ लेते तो कुछ पैसा कमा लेते और बांटते लोगों में.
(…जारी)
(डीडी पन्त की अप्रकाशित जीवनी के अंश आशुतोष उपाध्याय के सौजन्य से ‘पहाड़’ में प्रकाशित हो चके हैं. वहां से साभार)
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