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बार-बार नहीं आते अरविन्द डंगवाल जैसे थानेदार

अरविन्द डंगवाल हल्द्वानी के पुलिस विजिलेंस डिपार्टमेंट से आज रिटायर हो रहे हैं. एक बहादुर और कर्मठ पुलिस अधिकारी के रूप में उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में जो प्रतिष्ठा अर्जित की वह उनके सहकर्मियों के लिए श्लाघा और ईर्ष्या का विषय है. वे जहाँ भी तैनात रहे उन्होंने अपनी अमिट छाप वहां छोड़ी. Tribute Arvind Dangwal on His Retirement

जिला टिहरी गढ़वाल की पट्टी चन्द्रबदनी पोस्ट ऑफिस लालुड़ी के ग्राम बुड़कोट में जन्मे अरविंद डंगवाल ने स्वामी राम तीर्थ संगठन महाविद्यालय, टिहरी गढ़वाल से बीएससी पास करने के बाद  साल 1982 के अक्टूबर महीने में बतौर सब इन्स्पेक्टर अपनी नौकरी शुरू की थी.  Tribute Arvind Dangwal on His Retirement

उनकी पहली पोस्टिंग जिला अल्मोड़ा में हुई जिसके दौरान वे रानीखेत, भतरौंजखान और बागेश्वर में थाना प्रभारी रहे. अपनी बेबाक कार्यशैली और साहस से परिपूरित ईमादारी के चलते उन्होंने क्षेत्र की जनता के बीच अपने लिए एक अलग जगह बना ली. उसके बाद उनकी नियुक्ति नैनीताल, बरेली, रुद्रप्रयाग, चमोली और उधमसिंहनगर जैसे जिलों में हुई. सिविल पुलिस के अलावा वे अनेक जगहों पर विजिलेंस में रहे. उनकी पिथौरागढ़ जिले की नियुक्ति इस मायने में बेहद मानीखेज और यादगार रही कि वे बेहद संवेदनशील माने जाने वाले धारचूला, झूलाघाट और थल थाना प्रभारी पदों पर नियुक्त रहे.

आज दिन भर सोशल मीडिया पर उन्हें याद किया जा रहा है और तमाम लोग उन्हें अपनी-अपनी तरह से याद कर रहे हैं. उनकी सबसे बड़ी खूबी यह निकल कर सामने आती है कि उनकी उपस्थिति मात्र से ही अपराधियों के खौफ और साधारण जनों में सुरक्षा का भाव उमड़ने लगता था. किसी भी सरकारी कर्मचारी की सफलता का यह सबसे बड़ा पैमाना है. और पुलिस के मामले में तो यह बात और भी मार्के की है कि कोई आदमी तमाम व्यवस्थागत खामियों और खतरों के इतने सलीके से निभा ले जाए. Tribute Arvind Dangwal on His Retirement

अरविन्द डंगवाल अपनी सर्विस के असंख्य लोगों के लिए एक रोल मॉडल हैं. काफल ट्री उन्हें सलाम करता है और शानदार भविष्य की कामना करता है.

प्रस्तुत है हमारे सहयोगी अमित श्रीवास्तव द्वारा उन पर लिखी आज की फेसबुक पोस्ट. ध्यान रहे तकनीकी रूप से अमित डंगवाल साहब के आख़िरी ‘बॉस’ भी हैं.

‘तुमने मेरा दिन बना दिया यार डंगवाल जी से मिलवाकर. मेरे कॉलेज के दिनों के हीरो हैं. आज मिलकर इतना भला लग रहा कि क्या कहूँ.’

मोबाइल स्क्रीन पर आज से लगभग 4 बरस पहले रात आठ बजे के आस-पास जब ये फ्लैश हुआ हम पीरूमदारा से रामनगर रोड पर थे. मैंने मुस्कुराते हुए उन्हें दिखाया ‘शिरीष मौर्य सर भी आपके चाहने वाले हुए.’ उन्होंने मुस्कुराते हुए धीरे से कहा (और यही इस साठ साला नफ़ीस किरदार का तकिया क़लाम भी है-‘ मैंने धीरे से कहा…’) ‘अरे… ये तो सर का बड़प्पन है’

अभी कुछ माह पहले ही डी-35, जज फार्म की एक दुपहरिया मजबूत हथेलियों में कॉफी का मग पकड़े जब किसी ने कहा-

-‘एक इंचार्ज सा’ब आए थे उधर पोस्टिंग पर. अरे मजाल क्या कि कोई चूं बोल दे उनके ख़िलाफ़. लोग तो घर-परिवार की सलाह लेते थे उनसे. इतना मान था. लंबे-लंबे से थे गढ़वाल साइड के. डंगवाल जी नाम था उनका’ तो धारचुला से आए कुंदन की बात सुनकर मेरे सीने का फुलाव पचपन इंच के आस-पास हो गया.

-‘मेरे साथ हैं डंगवाल जी आजकल. आइयेगा किसी दिन मिलवाता हूँ’ कहते हुए ऐसा लग रहा था कि डंगवाल जी के सीने पर लगे मेडल्स पूरी तरह जस्टीफाइड हैं. कुंदन नहीं जानते थे कि मैं कौन हूँ. मैं नहीं जानता था कि कुंदन कौन हैं. लेकिन मैं जानता था कि कुंदन के सीने में दारमा घाटी की साफ हवा है.

अरविन्द डंगवाल

शिरीष मौर्य प्रोफेसर हैं और कुंदन का भेड़ पालन और चराने का काम है. चरवाहे हैं. इन दोनों के बीच मुझे सैकड़ों, जी हाँ सैकड़ों किरदार डंगवाल जी को जानने वाले मिले हैं, मुख़्तलिफ़ पेशे, जाति-धर्म और रहन-सहन वाले, यहाँ तक कि जेल काटकर आए अपराधी भी, जिन्होंने हर बार ये बताया है कि इंसानियत की शक्ल कैसी होती है. Tribute Arvind Dangwal on His Retirement

इधर कई सालों से पुलिस सुधार को लेकर बहुत प्रयत्न किए जा रहे हैं. दरअसल पुलिस रिफॉर्म्स भी एक तरह का मिसगाइडेड मिसाइल है. रिफॉर्म में कई और ज़रूरी बातों को छोड़कर जबरिया पुलिस की इमेज को धो-पोंछकर साफ करने की कवायद की जा रही है. गाँव एडॉप्ट करने से लेकर कम्बल बाँटने तक, नुक्कड़ नाटक से लेकर कविता-गीत, बैनर- पोस्टर तक कितने ही सामूहिक, संस्थागत और व्यक्तिगत प्रयास हैं जो कोलोनियल इमेज की नींव पूरी ताकत के साथ हिलाने में लगे हैं. टूटने को तो अभी कंगूरे भी नहीं टूटे हैं. पुलिस के कामों की अत्यधिक मात्रा, रहने-खाने जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव और ख़राब वर्किंग कंडीशन्स को लेकर भी कोई तटस्थ-ठोस विचार नहीं बल्कि एक अलग किस्म का भावुक रूदन दिखता है. संतुलित और व्यावहारिक एप्रोच की जगह ये गलदश्रु स्यापा पुलिस रिफॉर्म के लक्ष्य से बहुत भटका देता है.

फोटो: शिरीष मौर्य

मैं पिछले कई महीनों से एक और प्रश्न से जूझ रहा हूँ. साहित्य की हिंदी पट्टी में पुलिस को किस तरह से चित्रित किया गया है. ये मानते हुए कि तंत्र और राजनीति के सबसे धारदार हथियारों में से एक है पुलिस, उससे डरना और घृणा करना बहुत सम्भव है (और सुविधाजनक भी) लेकिन पुलिस का जैसा चित्र मैंने यहाँ देखा है वो क्रूरता से अलग कोई चीज़ है. उसमें जुगुप्सा पैदा करने का प्रयास है. मैं प्रश्नाकुल हूँ. इसे समझने में कोई मेरी मदद करे. जैसे किसी लिजलिजे गंदे जीव को देखकर आपको उबकाई आ जाए, कहानी, उपन्यास और यहाँ तक कि कविताओं में भी पुलिस ऐसी ही क्यों दिखती है.

दोनों ही अतिरेक एक तीसरा आश्चर्य नहीं पैदा करते? ये दोनों ही बातें एक ही संस्था को लेकर कही जा रही हैं. मैं निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि आम जनता पुलिस को देखकर डरती है या उल्टी करने लगती है. आम जन में संस्था के रूप में पुलिस के वर्तमान चरित्र और रोल को लेकर एक कन्फ्यूजन है, यही कन्फ्यूजन पुलिस में भी है. यही कन्फ्यूजन इसकी इमेज में भी है.

दरअसल इमेज बनाने से नहीं बनती. इमेज वो बनती है जो आप होते हैं! डंगवाल जी की इमेज डंगवाल जी से इतर नहीं है. संस्था के रूप में बनी हुई इमेज से जब ऐसी इमेज अलहदा दिखने लगती है तो कहा जाता है कि ‘वो तो पुलिसवाले लगते ही नहीं हैं.’ जबकि आज जब मैं ये लिख रहा हूँ तो ये भी दर्ज करना चाहता हूँ कि डंगवाल जी एक बेहतरीन पुलिसवाले हैं और पुलिस का असली चेहरा दोनों ध्रुवों के बीच ही दिखाई देता है. Tribute Arvind Dangwal on His Retirement

माफ़ कीजिये मैं भटक गया. दरअसल भटकना सायास था. इस भटकाव में डंगवाल जी का भी हिस्सा है. उनके पास तीन दशकों से ज़्यादा लंबे कैरियर में कदम-कदम पर मिले किस्सों की पिटारी है. मैंने उस पिटारी में अक्सर नक़ब लगाई है. डंगवाल जी ने जानते बूझते नक़ब लगाने दी है. वैसे भी वो उस पीढ़ी से हैं जो दरवाज़े पर हमेशा एक दिया जला कर रख देती है. नहीं भाई, नक़बजनों के लिए नहीं! राहगीरों के लिए. उनके लिए जिन्हें रोशनी की दरकार है.

काफी दिनों पहले मैंने डंगवाल जी को किसी जूनियर को बहुत मोटी बात बारीकी से (और धीरे से) समझाते सुना. ‘मोटी बात ये है कि तुम्हारे वहाँ होने से अपराधी को डर और निरपराधी यानि आमजन को ताकत का अहसास होना चाहिए.’

पूरे कैरियर में इन दोनों ही बातों के लिए कटिबद्ध रहे डंगवाल जी की केस डायरी पहली बात की पुरजोर तस्दीक करती है और दूसरी की ताईद डंगवाल जी को देखते ही ‘शेर-ए-पंजाब भोजनालय, भगत सिंह चौक, रामनगर’ के प्रोपराइटर सुक्खी सिंह की खुली हुई चौड़ी बाहें ही कर देती हैं.

आज 31 मार्च 2020 को जब मैं ये लिख रहा हूँ अपने चार दशक के किनारों को छूते कैरियर को समाप्त कर डंगवाल जी अपनी बेदाग-कड़क वर्दी को टांग रहे हैं. जितना इस वर्दी ने पहनने वाले के सीने की माप बढ़ाई है उतना ही पहनने वाले ने इसकी शान में सितारे टांके हैं.

मुझे गर्व है कि मैंने उन सितारों को चुनने में मुब्तिला हाथों की गर्माहट महसूस की है.

हैट्स ऑफ! जय हिन्द!!

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अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास). 

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