दूसरे दिन प्रातः चाय के पश्चात् शाह जी थ्रीश कपूर और मैं पुनः खाती गांव गये. कुलियों के लिये राशन तथा आलू खरीदा गया. कपूर साहब विडिया फिल्म लेना चाहते थे. परन्तु बैट्री डाउन होने के कारण दुबारा चार्ज करने के लिए भराड़ी भेजना पड़ा. नास्ता लेने के पश्चात 9 बजे द्वाली के लिए प्रस्थान किया. ग्यारह बजे हम मल्या धौड़ पहुंचे. यहां से लोहे के पुल द्वारा नदी पार कर अब पिण्डर नदी के दायें किनारे चलना पड़ता है. स्वभावतः कुछ तेज गति से चलने के कारण मैं आगे बढ़ता जा रहा था. निगाले की घनी झाड़ी और घने जंगल के मध्य अकेले चलने पर मुख्यतः जंगली सुअर और भालू के भय से सशंकित होते हुए मैं 1 बजे पिण्डर नदी और कफनी गाड़ के संगम पर खाती से ग्यारह किमी दूर 9133 फीट की उंचाई पर स्थित द्वाली पहुंच गया. द्वाली में लकड़ी के कच्चे पुल द्वारा नदी पार कर अब नदी के बायें किनारे चलना पड़ता है. मैंने नहाने के पश्चात् भोजन किया, कर्नल साहब पहले ही पहुंच गये थे. अन्य सभी सदस्य करीब 3 बजे पहुंचे. 4 बजे नैनीताल के कुछ सदस्य नामिक ग्लेशियर से कफनी होते हुए द्वाली पहुंचे.
अपनी इस सफलता पर वे बहुत हर्षित हो रहे थे. हमारे अभियान दल के युवा सदस्यों के आग्रह पर एक भेड़ काटी गई. परन्तु रोटी के साथ केवल भुटवा बना. अल्मोड़ा अभियान दल के प्रमुख भारद्वाज कर्नल साहब से मिलने आये. परन्तु उनके कथानुसार लास्पाधूरा पर आरूढ़ होने की बात से हम लोग आश्वस्त नहीं थे. क्योंकि मानचित्र के अनुसार लास्पाधूरा की स्थिति कपनी ग्लेशियर और जौहार घाटी के लारया गांव के मध्य है न कि नन्दा भनार और लामचीर के मध्य. सुरा खड़क की ओर से एक सप्ताह तक दूरबीन से देखने पर किसी प्रकार के पद चिन्ह इस दिशा की ओर हमें दिखाई नहीं दिये. अतः पिण्डारी की ओर से लास्पाधूरा अभियान पर सन्देह होना स्वाभाविक है. धाकुरी से द्वाली तक के निकटवर्ती सभी पहाड़ रागा और खरसू के ऊॅंचे-ऊॅचे वृक्षों तथा नदी घाटी का क्षेत्र पॉंगर, अखरोट और खामिया के वृक्षों एवं रिंगाल की झाड़ियों से आच्छादित है. द्वाली से फुरकिया के मध्य भोजपत्र और तुनेर के वृक्ष पाये जाते हैं. तुनेर जिसका स्थानीय नाम ल्वेंट है की छाल के चूर्ण से नमकीन चाय ( ज्या ) बनाई जाती है. जिसके प्रयोग से रक्त विकार दूर होता है.
26 सितम्बर को हम ग्यारह बजे द्वाली से 6 किमी दूर 10870 फीट उंचाई पर स्थित फुरकिया पहुंचे. यहां पर भी लोक निर्माण विभाग और कुमाऊॅं विकास मण्डल के रेस्ट हाउस हैं. अग्रिम दल के सदस्यों ने खिचड़ी बनाई थी. तीन सदस्य खच्चर वालों के साथ आगे बढ़ गये क्योंकि उन्हें पिण्डर नदी पार शिविर स्थापित करने के लिए सुरक्षित स्थान पर खच्चरों का बोझ उतारना था. खिचड़ी खाने के पश्चात् हम भी आगे बढ़े. लगभग पांच किमी जाने के पश्चात् मुख्य मार्ग छोड़कर पिण्डर नदी पार जाना था. दल के कुछ सदस्य नदी पार भेड़ वालों के छप्पर तक पहुंच गये थे. अजपथ का सहारा लेते हुए हम भी नदी किनारे पहुंचे. पिण्डर नदी में दो विशाल पत्थरों के मध्य दो मीटर की दूरी को लकड़ी के सहारे पत्थर पाटकर पुलिया बनाई गई थी. परन्तु दूसरे पत्थर से नदी किनारे लगभग तीन मीटर ऊॅचाई से कूदकर उतरा जा सकता था. कुछ सदस्य खच्चरों का बोझ उठा-उठाकर नदी पार उतार रह थे. करीब दो घंटे पश्चात् अल्यूमिनियम की सीढ़ी के पहुंचने पर यह समस्या दूर हुईं. मरतोली सड़क में आधार शिविर स्थापित किया गया. सात टैन्ट लगाये गये. कुछ सदस्य और कुली भेड़ वालों के खाली छप्परों में रहे. एक सदस्य राजीव शाह द्वारा बनाये गये स्वादिष्ट मांस के साथ खूब रोटी खाई गई.
27 सितम्बर के प्रातः चाय के पश्चात् अनूप शाह जी डॉ. चन्द के साथ पुल पार कर ‘जीरो प्वाइंट’ की ओर जाते हुए दिखाई दिये. धीरे-धीरे सभी लोग उनके पीछे जाने लगे. किशन लाल शाह जी और मैं एक साथ जा रहे थे. सन् 1992 में मेरियानो नाय के एक स्पेनिस के साथ में नामिक, मिकला, कूनी होते हुए खाती से पिण्डारी तक आया था. आज हम जीरो प्वाइन्ट से दायीं ओर पहाड़ की ऊंचाई पर चढ़ते गये. लगभग चौदह हजार फिट की ऊंचाई पर अमेरीकन पर्वतरोही और उससे एक किमी आगे अल्मोड़ा के लामचीर अभियान दल वालों का कैम्प लगा था. हमारा लक्ष्य देवीताल तक पहुंचना था. परन्तु इस तालाब की स्थिति का ज्ञान किसी को नहीं था. अलग-अलग दिशा से सभी सदस्य पहाड़ की चढ़ाई चढ़ते जा रहे थे. कर्नल साहब और कुछ अन्य सदस्य नीचे से ही वापस लौट गये. हम 1 बजे सोलह हजार फिट की ऊंचाई पर स्थित देवीताल पर पहुंच गये. वहां से लामचीर शिखर के लिए ठोस ग्लेशियर आरम्भ होता है. आधा कि.मी. आगे अल्मोड़ा अभियान दल के सदस्य अपना अग्रिम शिविर स्थापित कर रहे थे. तीन ओर से मोरेन से घिरे एक चौरस खाई में ग्लेशियर के पिघले पानी के एकत्र होने से एक छोटी सी झील ही देवीकुण्ड कहलाती है. इस बुग्याल से पिण्डारी कांठा की स्थिति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है. बलचूरी से लामचीर तक के सभी उच्च हिम शिखर तथा उनके मध्य भाग का भली-भॉति अवलोकन किया जा सकता है. अनूप शाह जी ने बताया कि पिण्डारी ग्लेशियर की अपेक्षा बायीं दिशा की ओर चट्टान और बुग्याल से होकर ट्रेल पास अभियान पर जाना अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि पिण्डारी ग्लेशियर पर हजारों क्रभासेज दिखाई दे रहे थे और लगातार ग्लेशियर टूटने की भयंकर आवाज आ रही थी. चाय-बिस्कुट लेने और अनेक फोटोग्राफी करने के पश्चात् हम 3 बजे वापस लौटे तथा पांच बजे कैम्प में पहुंचे, आज दल के सभी सदस्य दिन भर भूखे रहे.
28 सितम्बर हमारा विश्राम का दिन था, कर्नल जोशी का आदेशा था कि नहाने-धोने से लेकर नाखून काटने तक का सभी प्रकार के व्यक्तिगत कार्य आज सम्पन्न हो जाना चाहिए. कल से एक्सपीडिशन प्रारम्भ हो जाने पर इस प्रकार के कार्य करने का अवसर नहीं मिल पाएगा. दिन में ग्रुप फोटोग्राफी की गई. पर्वतारोहण में प्रशिक्षण प्राप्त युवक आवश्यक उपकरण का वितरण करने लगे. चार बजे नीरज कुमार ने हमें इन उपकरणों की उपयोगिता बताते हुए रॉक क्लाइम्बिंग तथा रैप्लिंग की ट्रेंनंग भी दी. पर्वतरोहण सम्बन्धी किसी प्रकार के प्रशिक्षण और अनुभव की दृष्टि से मैंने इन उपकरणों का नाम तक नहीं सुना था. मेरी ही भांति कुछ अन्य सदस्य भी थे, जो ठुराखड़क के निकटवर्ती खड़ी चट्टान पर रस्सी द्वारा चढ़ने से घबरा कर वापस लौटने का निश्चय करने लगे. परन्तु मेरा एक ही संकल्प था, अन्तिम क्षण तक आगे बढ़ता रहुंगा.
29 सितम्बर के प्रातः ही पैक – लंच लेकर सभी सदस्यों को पिण्डर नदी के दायें किनारे होते हुए बुढ़िया गल कैम्प तक रूट सर्वे तथा इस नयी जलवायु में अभ्यस्त होने के लिए दस किलो सामान उठा कर ले जाने का आदेश हुआ. अनूश शाह जी इससे पूर्व 1972 में बलजूरी शिखर और पौलीद्वार शिखर अभियान पर जा चुके थे, अतः वे इस ट्रेक रूप से परिचित थे. परन्तु उनके पहुंचने से पूर्व चार सदस्यों के साथ मैं भी आगे बढ़ता हुआ दिशा भटक गया. जबकि पीछे से शाह जी सीटी देते हुए ऊपर चढ़ाई चढ़ते जा रहे थे. अतः हमें भी फींची घास और जूनीपर की झाड़ी पकड़ते हुए अन्त में खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ी, 11 बजे हम सब एक साथ मिल गये. अब हम एक हरे-भरे चरागाह में पहुंच गये थे, यह स्थान कैम्प के लिये उपयुक्त है, परन्तु यहां पानी का अभाव था. यहां से लगभग पांच सौ मीटर की चढ़ाई के पश्चात् बुढ़ियागल नाले की एक छोटी सी पठारी शृंखला है. इस शृंखला के दो सौ मीटर उत्तरी ढलान पर बुढ़ियागल नाले में बड़े-बड़े पत्थर डाल कर चार सदस्य नाला पार उतरने का प्रयास कर रहे थे, परन्तु ग्लेशियर पिघलने से नाले का पानी बढ़ता जा रहा था, अतः उन साथियों को वापस बुलाया गया, शाह जी ने उन चार सदस्यों और दो कुलियों के साथ बुढ़ियागल के निकट ही कैम्प लगाने का निश्चय किया. लंच लेने के पश्चात् अन्य सभी सदस्य आधार शिविर की ओर लौट आये, छः बजे कैम्प में पहुंचने के पश्चात् ही रात्रि भोजन की तैयारी हो पायी.
( जारी )
पुरवासी के सोलहवें अंक में डॉ एस. एस. पांगती का लिखा लेख ‘ ट्रेल पास अभियान ‘
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