शिक्षा और विज्ञान

कोरोनावायरस के अंत के बाद की दुनिया

‘सेपीयन्स’ ‘होमो डेयस’ और ‘21 लेसन फॉर 21 फर्स्ट सेंचुरी’ आदि किताबों के लेखक युवाल नोहा हरारी के कोरोना महामारी के वक्त में लिखे गए लेख इस समय दुनिया भर में चर्चित हैं. अंग्रेजी में लिखे मूल लेख (The World After Coronavirus) का अनुवाद कविता रतूड़ी ने किया है -संपादक

इस समय पूरे विश्व में मानवजाति सकंट का सामना कर रही है. संभवत यह हमारी पीढ़ी का ही सबसे बड़ा संकट है.  आने वाले कुछ सप्ताह के अंतराल पर सरकारों का फैसला तय करेगा कि आने वाला वक़्त कैसा होगा. आगे न केवल स्वास्थ्य-व्यवस्था का ढांचा तय होने वाला है बल्कि आर्थिक, राजनीति और संस्कृति पर भी इसका  गहरा असर पड़ेगा.  हमें भविष्य को ध्यान मे रखते हुए जल्द और तीव्र निर्णय लेने होंगे, इस क्रम में, तूफान गुज़र जाने के बाद हमें खुद से पूछना होगा कि हम किस तरह की दुनिया मे रह रहे थे. किसी बिन्दु पर जाकर यह तूफान अवश्य ही थम जाने वाला है, मानवजाति बची रहेगी मगर यह तय है कि आने वाली पीढ़ी के लिए एक अलग तरह का संसार छोड़ कर जाने वाले हैं. सकंटकाल का यही चरित्र है कि वह एक छोटे समय के लिए आते हैं. सकंट के समय ऐसे निर्णय एक पल में ही ले लिए जाते हैं जिन्हें सामान्य समय वर्षों लग जाते हैं. इस प्रकार इतिहास की गति को ऐसा समय ‘फास्ट फारवर्ड’ कर देता है, इस तरह के समय में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का मतलब होता है संकट को बढ़ाना इसलिए पूरा संसार ही एक ‘गिनीपिग’ और एक सामाजिक प्रयोग की प्रयोगशाला में परिणत हो जाता है.

अभी के समय की तरह यदि आगे भी सभी लोग  घर से काम करने लगें, दूरी पर रहकर एक दूसरे से मुखातिब हों, विश्वविद्यालय ‘आनलाइन’ हो जाएं तो सोचने वाली बात है कि यह सब हमारे आगे आने वाले जीवन पर क्या प्रभाव डालेगा?  सामान्य समय में तो सरकारी व्यापार और अन्य संस्थाए यह स्वीकार नहीं करती मगर अभी हम ऐसी अवस्था में नहीं हैं  इसलिए हमारे पास दो ही उपाए है- पहला अधिनायक वादी निगरानी और नागरिक सबलीकरण और दूसरा, राष्ट्रीय अलगाव और वैश्विक एकता. महामारी से बचने के लिए नागरिकों को कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है इसके लिए दो नियम होते हैं- पहला सरकार प्रत्येक की निगरानी करे और नियम उल्ंघन करने वाले को दंडित करे, घर के भीतर ही रहना उसमें से एक है. आज के युग में टेक्नोलॉजी ने सभी की निगरानी संभव बना दी है. पचास साल पहले रूस की एक जासूसी संस्था केजीबी चौबीस करोड़ रूसियों की चौबीस घंटे तक निगरानी नहीं कर सकी और न ही प्राप्त सूचना का ठीक प्रकार से दोहन कर सकी, तकनीक के अपने उच्चतम स्तर पर होने के बावजूद भी केबीजी तथ्यों के संकलन और विश्लेषण के लिए मनुष्य पर ही आश्रित था. जासुस के लिए सभी नागरिकों की जासूसी एक ही समय में कर पाना संभव नहीं था. लेकिन आज इस प्रकार की टेक्नोलॉजी आसानी से उपलब्ध है जहां मनुष्य की आवश्यकता भी नहीं होती. कोरोनावायरस के साथ लड़ रही सरकारें आज  निगरानी (सर्विलान्स) के कई नए तरीके ईज़ाद कर चुकी है जैसे; व्यक्ति के स्मार्ट  फोन में ‘फेशियल रिगोनिशन’ यानि चेहरा पहचान करने वाली तकनीक, शरीर के तापक्रम जांच करना या शरीर में किसी अन्य चिकित्सकीय समस्या का होना,  चीनी अधिकारी इतनी आसानी से कोरोना वायरस का इसीलिए जल्द पता लगा सके.  यहां तक की कोरोना रोगी किस इलाके में हैं और किससे संपर्क में हैं, यह भी पता लगा सके. यह टेक्नोलॉजी केवल साउथ एशिया तक ही सीमिति नहीं है, इसराईल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहु ने वहां की सुरक्षा एजेंसी को कोरोना वाइरस का पता लगाने के लिए सर्विलान्स टेक्नोलोजी के इस्तेमाल की अनुमति कुछ दिनों पहले ही दी. संसदीय समति के भीतर इसके विरोध के बावजूद नेतन्याहु ने संकटकालीन विधेयक उपयोग करके विरोध की धार को कमजोर कर दिया.

हमें यह भी लग सकता है कि इसमें इतना आश्चर्य में पड़ने की क्या बात है? पिछले कुछ समय में सरकार और संस्थान मानव गतिविधि को ‘ट्रेस’ तथा नियंत्रित करने के लिए इससे भी कई उन्नत तकनीकों का प्रयोग कर रहे हैं,  हम सचेत नहीं रहे तो कोरोनावायरस की यह माहामारी निश्चित तौर पर इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी साबित हो सकती है. आज के समय में जो देश सर्विलांस ‘टूल्स’ प्रयोग करने से इंकार कर रहे थे आज वह राष्ट्र भी इसमें सम्मिलित हो चुके हैं.  आज से पहले मनुष्य के शरीर के बाहर की गतिविधियों की ही निगरानी की जा सकती थी भी मगर अब शरीर के भीतर होने वाली गतिविधियों का भी पता लगाना बहुत ही आसान है. अभी तक व्यक्ति, मोबाइल में उंगली के क्लिक करने के साथ ही सरकार यह जानने का प्रयास करती थी कि अमुक व्यक्ति क्या जानकारी प्राप्त करना चाहता है  मगर कोरोना के इस दौर ने यह दिलचस्पी अब खत्म कर दी है. अब सरकार उस उंगली का तापमान और रक्तचाप जानना चाहती है. सबसे प्रमुख बात यह है कि जिस समय यह निगरानी हो रही होती है उस समय यह पता नहीं चलता कि निगरानी हो भी रही है और इससे भविष्य में क्या फर्क पड़ेगा. निगरानी तकनीकों का विकास इतनी तेजी से हो रहा है कि अभी से मात्र दस साल पहले बनी साइंस फिक्शन हमें बहुत प्राचीन लगने लगी है. एक पल के लिए हम यह मान लें कि किसी सरकार ने उसके नागरिकों को बायो-माइट्रिक घड़ी पहना अनिवार्य  कर दिया हो, और चौबीस घंटे मे शरीर का तापक्रम और अन्य गतिविधि मापन आरंभ कर दिया,  ऐसी अवस्था में हमें यह पता चले कि हमें बुखार है इससे पहले यह जानकारी सरकार के पास चली जाती है. इस प्रणाली के मार्फत हम कहां गए और किससे मिले सभी पता चल सकता है. ऐसी स्थिति में तेजी से फैलते संक्रमण को जरूर रोका जा सकता है, नियंत्रित किया जा सकता है, ऐसा सुनकर आप सभी बहुत अनांदित हो रहे होंगे है न,  लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है जो कि निगरानी प्रणाली को वैधता प्रदान करता है. उदारहण के लिए यदि किसी को यह पता चले कि मैंने फॉक्स न्यूज़ चैनल के बदले सीएनएन चैनल देखा, यह मेरे राजनीतिक विचारों के बारे में ही नहीं बल्कि मेरे व्यक्तित्व के बारे में कुछ बताता है, और इसी क्रम में यदि अमुक वीडियो क्लिप देखते हुए यह जानना हो कि मेरे शरीर के तापक्रम, रक्तचाप और ह्रदय गति के साथ क्या होता है, कौन सी चीज मुझे गुस्सा दिलाती है और क्या मुझे हँसाता है यह स्पष्ट रूप से पता चल सकता है. खांसी बुखार की तरह ही बोरियत, प्रेम, हंसी गुस्सा आदि भी जाना जा सकता है. जिस टेक्नोलॉजी के माध्यम से हमारी बीमारी पता लग रही होती है वही टेक्नोलॉजी हमारी हंसी और गुस्से का भी पता लगा रही होती है. यदि संस्थाएं और सरकारें हमारे बायोमैट्रिक्स डेटा रखना शुरू कर दें तो हमें हम से बेहतर समझने में सक्षम हो जाती हैं, हम क्या खरीदें और किसे वोट दें यह सभी वह हमारे लिए तय करने में सक्षम हो सकते हैं. कैम्ब्रिज अटलांटिका डेटा हैकिंग अब पाषाणकालीन कोई घटना लगे लगी है. कल्पना करें सन 2030 में उत्तर कोरिया जब चौबीसों घंटे बायोमैट्रिक्स घड़ी पहनना अनिवार्य हो और नेता के भाषण के दौरान गुस्साए नागरिकों का तो काम ही तमाम हो जाएगा.

यद्यपि यह व्यवस्था केवल संकटकाल के समय ही प्रयोग में हो और इसके पश्चात खत्म हो जाए लेकिन इस दौरान के अस्थायी  उपाय भी क्षितिक्ष पर बुरा प्रभाव डालने की क्षमता रखते हैं. उदाहरण स्वररूप मैं अपने देश इजराइल के विषय में ही बात करूँ सन 1948 में स्वतन्त्रता की लड़ाई के दौरान सकंट के समय ने निगरानी के बहुत सारे अस्थाई उपायों को जैसे प्रेस की आजादी से लेकर खीर पकाने की स्वतन्त्रता तक को प्रतिबंधित किया. स्वतन्त्रता की वह लड़ाई खत्म भी हो चुकी है मगर उस समय में लगे प्रतिबंद्ध अभी (2011) तक खत्म नहीं हुए थे.

यद्यपि इस दौर में जब कोरोना के संकट से विश्व झूझ रहा है यही संकट फिर से आ सकता है कहकर सरकारें बायोमैट्रिक्स की यह प्रणाली लागू रख सकती है अथवा अफ्रीका में ईबोला का संकट दुबारा उभर सकता है, कोई भी तर्क दिया जा सकता है. इसी तरह हमारी गोपनियता की यह लड़ाई आगे चलकर बड़ी लड़ाई मे परिणत हो सकती है जिसकी शुरुआत कोरोना संकट से हो सकती है, क्योंकि स्वाभाविक रूप से यदि हमसे पूछा जाए कि तुम्हें स्वास्थ्य प्यारा है या गोपनियता जाहिर तौर पर हम स्वास्थ्य को चुनेंगे. मगर यह चुनाव करवाना ही एक नाटक है क्या हम दोनों नहीं चुन सकते. हम अधिनायकवादी निगरानी नियम का विरोध करते हुए नागरिक को मजबूत बनाते हुए भी अपने स्वास्थ्य रक्षा कर सकें और महामारी का अंत कर सकें ऐसी स्थिति में पहुँचना होगा. पिछले सप्ताहों के दौरान ताइवान, सिंगापूर और साउथ कोरिया जैसे मुल्क कोरोना विरुद्ध लड़ाई मे सक्षम दिखलाई पड़ रहे हैं. इन देशों ने भी सर्विलान्स टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जिसका एक खूबसूरत पहलू था कि उन्होने कोविड-19 के अधिक संख्या मे परीक्षण और ईमानदारी पूर्वक रिपोर्टिंग कर अपनी जनता को सु-सूचित कर उनसे सहयोग प्राप्त करने मे किया. केंदीकृत देखभाल और कड़ी सजा से ही सही रास्ता नहीं निकाला जा सकता बल्कि जनता को सीधी भाषा में तथ्य समझाने से वह आसानी से समझती है बनिस्पत इसके की उसके ऊपर किसी ‘बड़े भाई’ का डर का डंडा चलाया जाए. जागरूक और स्वप्रेरित जनता मूर्ख और डरी जनता से बेहतर होती है. एक क्षण के लिए साबुन पानी से हाथ धोने का ही उदाहरण लें, यह अपने आप में ‘हाइजीन’ आदतों में आगे प्रभाव डालने वाला एक कारक बन सकता है. एक एक साधारण क्रिया है जो करोड़ों लोगों की जान बचा रही है. यह 19वीं सदी की एक वैज्ञानिक खोज है, यहाँ तक की डाक्टर और नर्स भी हाथ धोकर सर्जरी और चीर-फाड़ करते हैं.  आज करोडों लोग इस डर से हाथ नहीं धोते की कोई उनके ऊपर कार्यवाही करेगा बल्कि वह इसके फायदे समझते हैं इसलिए ऐसा करते हैं.

मैं हाथ धोता हूँ क्योंकि मैंने बैक्टीरिया और वायरस के बारे में सुना है, जिसे साबुन पानी से हाथ धोने से खत्म किया जा सकता है, लेकिन इस प्रकार की बातों के लिए भी विज्ञान राज्य संस्थाओं पर भरोसे की आवश्यकता होती. पिछले कुछ सालों में सार्वजनिक समाज और मीडिया में विज्ञान पर भरोसा उठ गया जैसा लगता है. इस विश्वास को बनाने में अब कई लंबा समय लगने वाला है. जबकि अब  संकट के समय में सोच जल्दी बदल सकती है जैसे अपने ही भाई-बहनों के बीच सदियों से संबद्धों मे आयी खटास सकंट के वक़्त, पल में ही दबा छिपा विश्वास पटल पर आ ही जाता है. यह मानव चरित्र है. नागरिक को निगरानी में रखने के बावजूद उक्त संस्थानो में उनका भरोसा बढ़ाना  ही समझदारी और सूझबूझ युक्त कार्य है, इसके लिए अभी भी देर नहीं हुई है, हमें  इसके लिए नई  टेक्नोलॉजी भी प्रयोग करनी पड़ सकती है, लेकिन इस प्रकार की टेक्नोलॉजी मनुष्य को बंधक बनाने के लिए नहीं बल्कि ज़िंदगी और भी सहज बनाने के लिए प्रयोग की जानी चाहिए. मेरे शरीर के तापक्रम और रक्तचाप संबन्धित डेटा सरकार को देने में मुझे कोई गुरेज नहीं है, लेकिन वह डेटा सरकार गलत तरह से या फिर किसी भी गलत मकसद के लिए सरकारों को मजबूत बनाने के लिए उपयोग नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इसके माध्ययम से मुझे और भी सुरक्षित और चुनने के अधिकार के साथ साथ सरकार को नागरिक के प्रति जिम्मेदार बनने के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए.  

 यदि मुझे चौबीसों घंटे अपने स्वास्थ्य संबंधी जानकारी चाहिए तब मुझे यह भी समझना होगा की कहीं मेरी यह गतिविधी दूसरे व्यक्तियों के लिए हानिकारक  तो नहीं होने जा रही, और मेरे स्वास्थ्य को ठीक रखने में यह कैसे सहयोगी और महत्वपूर्ण है. यदि कोरोनावायरस के संबंध में सटीक तथ्य और डेटा तक मेरी पहुंच हो तब मैं सरकार की इस सम्बन्ध में नीति और सही दिशा का विश्लेषण करने में सक्षम हो सकता हूं. हम जिस निगरानी तकनीकी के बारे में बात कर रहे हैं वह सिर्फ सरकार को जनता के निगरानी के लिए प्रयोग में लाने के अलावा इसके मार्फत जनता भी सरकार की निगरानी कर सकती है  हमें यह नहीं भूलना चाहिए. इस प्रकार यह महामारी नागरिक के लिए एक परीक्षा लेकर आ रही है. आने वाले समय में हमें षड्यंत्र के सिद्धांतों, स्वार्थी राजनीतिज्ञता से परे हटकर जनता की वैज्ञानिकता और स्वस्थ्य विज्ञान पर भरोसा बनाए रखने के लिए कार्य करना चाहिए.

दूसरा ऐसे समय में हमें राष्ट्रीय अलगाव और वैश्विक एकता की आवश्यकता है, जबकि महामारी और आर्थिक संकट दोनों से ही हमें निपटना है, दोनों को ही वैश्विक सहकार्य के से ही हल किया जा सकता है. सबसे पहले तो वायरस को समाप्त करने के लिए संसार/राष्ट्र आपस मे सूचना आदान प्रदान करें. वायरस से लड़ने के लिए मनुष्यों के पास आज यह बड़ी सुविधा है. चीन मे वायरस कैसे आया और अमेरिका में कैसे? यह भले ही वह एक दूसरे को नहीं सीखा सकते मगर चीन से हम की महत्वपूर्ण सबक ले सकते है. मिलान में इटाइलियन डाक्टर ने यदि किसी शाम इलाज करते हुए कुछ नई जानकारी हासिल की हो तो वह अगली सुबह तेहरान में भी किसी की ज़िंदगी बचा सकती है. यदि यूएस की सरकार नीति निमार्ण करने में थोड़ा भी दुविधा महसूस करे तो वह कोरिया के साथ सलाह ले सकते हैं क्योंकि वह एक महीने पहले इसी प्रकार के संकट से गुजर रहे थे. यह करने के लिए हमें आपसी सहयोग और विश्वास का निर्माण करना जरूरी है. आगामी दिनों में हमें षड्यंत्र के सिद्धांत से परे विश्वास और स्वार्थी राजनीति से परे मानवजाति को बचाने के सिद्धांत को आगे रखना होगा. देशों को खुले तौर पर एक दूसरे से जानकारी साझा करना और सलाह लेना, मेडिकल टेस्टिंग किट्स और श्वसन यंत्र का आदान प्रदान करना होगा. क्या कोरोनोवायरस मृत्यु के बारे में हमारे वर्तमान दृष्टिकोण को बदलेगा

हर एक देश अपने स्तर पर स्वास्थ्य उपकरणों के उत्पादन के अलावा; कौन देश क्या बना सकता है और कैसे इन उपकरणों का समान वितरण कर ज़्यादा से ज़्यादा ज़िंदगी बचायी जा सकती है यह सोचने की आवश्यकता है. जैसे युद्ध के समय में राष्ट्र कारखानों का राष्ट्रीयकरण करते हैं वैसे ही कोरोनावायरस के विरुद्ध इस में अत्यावशक सामग्री के उत्पादन के लिए कुछ ऐसी ही प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है. कोरोना वायरस से कम सन्क्रमित् कोई घनी देश यदि ज्यादा कोरोना केसेस वाले गरीब मुल्क को अत्यावशक यंत्र भेजे और अन्य देश भी इस प्रकार के कामों में सहयोग करें, और अगले चरण में धनी देश को जरूरत पड़ने पर कोई अगला देश सहयोग करे यही समय की मांग  है. इसमें डाक्टर की टीम भेजने सामान आदि सभी शामिल हैं.

हमें  इस समय विश्वव्यापी कार्ययोजना का रास्ता सुदृढ़ करना होगा और आर्थिक क्षेत्र में भी सरकारों को चिकित्सकीय वैज्ञानिक, पत्रकार, राजनीतिज्ञ आदि को एक दूसरे देशों में भेजना चाहिए (अच्छे से मेडीकल परीक्षण करके ही ऐसा हो सकता है) ताकि किसी वैश्विक सम्मति की कोई सूरत बन सके. दुर्भाग्यवश अभी ऐसा कोई भी देश नहीं कर रहा है. अभी पूरा विश्व एक सामूहिक पैरालिसस की अवस्था में है, ऐसा लग रहा है जैसे आज हम अभिभावक विहीन धरती पर जीवित हैं. विश्व भर के नेताओं की कुछ समय पहले बैठक में कुछ सामूहिक निर्णय की आशा की जा रही थी. जी7 देशों की वीडियो मीटिंग भी ऐसा कोई ऐक्शन प्लान सामने नहीं आया. ऐसे ही संकट,  2008 की मंदी और 2014 में इबोला महामारी के दौरान अमेरिका ने आगे बढ़कर सहयोग किया था. आज अमरेकी उस तरह की भूमिका से पीछे हटता दिखलाई पड़ रहा है. आज के प्रशासन ने योरोपीय यूनियन की यात्राओं पर प्रतिबंधित लगाने से पहले एक बार उसे सूचना तक नहीं दी बाकी कार्ययोजना के विषय में अवगत कराना तो बहुत दूर की बात है. दूसरी ओर जर्मनी की एक फार्मासूटिकल कंपनी को एक अरब अमरेकी डालर में कोविड -19 के टीके खरीदने को अफवाह उड़ाई. यदि आज प्रशासन आगे आकार कुछ ज़िम्मेदारी लेने की कोशिश करे भी विश्व में बहुत कम ही देश ऐसे नेता के पीछे जाएँगे जो स्वयं कोई जिम्मेदारी  वहन नहीं करते और न ही गलती पर कोई पश्चाताप और माफी मांगते हैं बल्कि अपनी गलतियों का ठीकरा भी दूसरों के सरों पर फोड़ते हैं.

अमेरिका के पीछे हटने से वैश्विक लीडरशिप में जो रिक्तता पैदा हुई है उसकी जगह यदि कोई नेता भर सके, हो सकता है इस महामारी से लड़ने में थोड़ा आसानी पैदा हो. यह सब होते हुए भी, संकट अपने आप में अवसर भी लेकर आते हैं, हमें उम्मीद करनी चाहिए की वर्तमान संकट मानवजाति को एकता की ओर लेकर जाएगा. मानवजाति को यह भी तय करना होगा कि यह पतन की ओर की यात्रा जारी रखनी है या फिर एकता स्थापित कर भविष्य में आने वाली 21वीं सदी की सभी महामारियों पर विजय प्राप्त करने के लिए मानवजाति को तैयार करना है.

उत्तराखण्ड मूल की कविता रतूड़ी ने जेएनयू के जेंडर स्टडीज सेंटर से ‘नेपाल के जनयुद्ध में महिलाओं की भागीदारी’ विषय पर पीएचडी की है. फिलहाल काठमांडू, नेपाल में स्वतंत्र रिसर्च स्कॉलर के तौर पर काम कर रही हैं.

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Sudhir Kumar

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