मोहन निवास में अपने कागजातों के ढेर से जूझते मेरे गुरु जैसे उन लहरों को चीर उस टापू की तलाश करने में लगे थे जहां इतिहास के पन्नों ने एक नई इबारत लिखे होने की मृग तृष्णा के संकेत लिखे थे. वह बहुत व्यस्त होते इसका मुझे पक्का एहसास होता उस पर भी अलग अलग मुद्दों पर पढ़ो खोजबीन करो और फिर लिख कर दिखाओ का आदेश तो रहता हो.
दिसम्बर आखिरी हफ्ते से विद्यालय में शीत अवकाश शुरू हो जाता. इसलिए उनके दर्शन घर पर ही होते. शाम को चार बजे के बाद. मैं अक्सर रामजे रोड से नीचे बक स्कूल और फिर चर्च से ऊपर दाएं जाने वाली सड़क से होते जाता जहां खूब पेड़ पत्ती वाला जंगल था और अक्सर गूंणियों के झुण्ड बांज के पेड़ों पर उसका बीज बड़े स्वाद से खा रहे होते और पांगड़ के पेड़ों पर कूद लगाते. जब दुर्गा लाल लाइब्रेरी से कोई किताब लेनी होती तब सीधे माल रोड उतर जाते. लाइब्रेरी से ऊपर ही प्राइमरी स्कूल से ऊपर की चढ़ाई चढ़ मोहन निवास आ जाता. इसी मोहन निवास में मैंने जाना कि गुरुदेव हमें हिंदी पढ़ाते जरूर हैं पर उनका दखल इतिहास पर कहीं अधिक है और इधर उनका अनुसन्धान ब्रह्मपुरी की खोज है. इतिहास में मुझे ज्यादा रूचि बनी नहीं क्योंकि भले ही उसकी कहानियाँ अलग अलग रुचिकर होतीं पर इतने सन और वर्ष घोटने पड़ते तिमाही छमाही और वार्षिक परीक्षा में कि उत्तर पुस्तिका में लिखते सब गड्ड मड्ड हो जाता.
त्रिपाठी जी के यहां ही पता चला कि बड़ी जानकारी तो ताम्रपत्र से जुटती हैं. फिर उस इलाके में जो खुदाई होती है और क्या कुछ मिलता है, सिक्के भी, सिंहासन भी, मूर्तियां भी. उनसे उस कालखंड की जानकारी होती है जिस पर काम करने वाले का दिमाग लग रहा होता. हमारे बिल्कुल पड़ोसी महाविद्यालय के गंजू साब थे प्रोफेसर इन्द्र किशन गंजू. उनके घर भी ऐसा ही माहौल रहता. हमारे बगल में जिस पर वह रहते उसकी छत इतनी बड़ी कि दिनेश दा महेश दा उस पर बेडमिंटन खेलते. पर तब जब गंजू साब कॉलेज गये होते या बाहर धूप में बैठ पढ़ लिख रहे होते.हम कभी धिरकेट करते तो तुरंत उनकी कड़क आवाज सुनाई देती. उनका लड़का पूरेन्दर हमसे बहुत बड़ा हमारी टोली का बॉस था. चक्कू भी था उसके पास गंजू साहब खूब गोरे चिट्टे सुदर्शन चेहरे वाले थे. वो भी कोई गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा कोई काम कर रहे थे.पूरेन्दर ने हमको बताया कि उनके जैसे कई ब्राह्मण हिन्दुओं को साले कमीन मुस्लियों ने काट पीट कर उनकी अपनी जमीन से बाहर कर दिया. उसकी मम्मी जब ईजा और खन्ना साब और भोज मास्साब की पत्नियों के साथ बैठी होती तो हम भी चुपके चुपके उनकी बातें सुनते. और खी खी खित खित करते. पर कई बार ये बातें बड़ी डरावनी होती.
कितनों की इज़्ज़त लूटी. पूरे मोहल्ले से खींच खींच लाए और मां बाप के सामने ही सलवार उतार नंगा नाच कटार घोप दी. उमरदार जो थी उनके बल्लम घुसेड़ दिया. हिंदुस्तान में तो बस हिन्दू रहने चाहिये पर इस नेहरू ने हमेशा उल्टा किया.
पंचशील ये क्या हुआ. चीनी घुस काट गये. आपके पास हथियार नहीं. रसद नहीं.गंजू साब बहुत क्रोध में होते जब बप्पाजी मोहन दा, एच डी पाठक जी के साथ यह चर्चा चली होती.
हकीकत मैंने भी देखी थी. चीन के साथ युद्ध का इतिहास उसने गहरा समझाया था. मुझे याद है शाम के समय भोंपू बजा था. असमय. सबने सोचा कहीं आग लग गई होगी. पर तभी माया दी ने रेडिओ पर कुछ सुना और बोली नेहरू जी नहीं रहे.
अब कल स्कूल की छुट्टी होगी. मैंने छोटी बहिन से कहा.
दिनेश दा पोलिटिकल साइंस पढ़ाते थे.उनके गुरु बम्बवाल साब थे, अर्गल साब थे जो हमारे ही मोहल्ले में रहते थे.दिनेश दा ने एक कठिन सी किताब लिखी थी, द्विध्रुवीयता में गुट निरपेक्षता. नेहरू जी की नीतियाँ कितनी कमजोर और लिजलिजी थीं इस पर उनने खूब विस्तार से लिखा था. दिनेश दा तब बड़े खुश हूए जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधान मंत्री बने. फिर ताशकन्द समझौता हुआ. लाल बहादुर शास्त्री जी की मौत ही गई. पाकिस्तान ने फिर युद्ध छेड़ा.
तब माहौल बड़े तनाव का था. बिहारी साह की कण्ट्रोल की दुकान में लाइन पर लगो तब घंटे भर बाद गेहूं चावल तुलता. बप्पा जी जब कहते अब पता चलेगा बेटा आटे चावल का भाव. पी एल 480 का गेहूं जिसे धो-धा सुखा हम भाई बहिन चार्ली बाबू की चक्की में पिसवाते. चार्ली बाबू इंटर कॉलेज में फिजिक्स के प्रयोगशाला सहायक थे. चक्की ठीक वहीं थी बस स्टैंड से आगे, जहां झील के किनारे खड़े लकड़ी के तीन पटरों से धकेल जगन उस्ताद तैराकी सिखाते थे. एक दिन ऐसे ही तैरते -तैरते जब पलटा तो हाथ में गज्ज सी हुई जैसे उबले प्याज़ पर हाथ पड़ गया हो. वो तो मेरी किस्मत कि मेरे बगल सुरेश चौधरी था. वही कमर पकड़ खींच लाया.ये गोपेश जोशी का मृत शरीर था. गोपेश बड़ा हैंडसम क्रिकेट का नायब खिलाड़ी था.
इस घटना को मैंने डायरी में लिखा घसीट में. जो लिखने के लिए खूब मसालों से भरी रहती. फिर इस पर एक कहानी लिख डाली. उसे खूब बढ़िया अक्षरों में लिख दिखाने वालों की भी कमी न थी. इन सबके प्रधान होते त्रिपाठी जी.
उसी दौर में जब कौन बने प्रधान मंत्री के प्रश्न की चारों ओर चर्चा थी तब इस पर अखबार से बटोर और कही सुनी मिला मैंने दो तीन पेज घसीटे थे. उसमें राइटिंग ठीक थी पर कुछ वाक्य त्रिपाठी जी के सामने रखना ठीक न समझ मैंने उन पर चार लाइन काट दिऐ था. उनके घर चाय पीने तक उन्होंने काटा खुर्चा पढ़ लिया फिर बोले असली लाइन तो तुमने काट ही दी क्यों?
सर वो.. मैं अचकचा गया.
तुमने लिखा है न कि ये जिद्दी सा अड़ियल मूत्र पान करने वाला मोरारजी अब फिल इन द गैप करेगा?ये बिल्कुल सही है. क्यों फालतू की अलंकारिक भाषा. राजकमल चौधरी को पढ़ो, यशपाल,भगवती चरण वर्मा,राही मासूम रजा, इस्मत चुगताई और वो अपने सरदार ज्जी खुशवंत सिंह साफ लिखते हैं कोई श्लील अश्लील का तकाजा नहीं.
तुमने मंटो पढ़ा है?
हां सर. महेश दा एक पत्रिका मंगाते हैं, “उर्दू कहानियां”. उसमें गजब की कहानियाँ होती हैं. पार्टीशन की भी.इस्मत चुगताई भी, जां निसार अख्तर भी.
हां, जाते जाते अंग्रेज हमें सबसे बड़ा तोहफा दे गये. धर्म के आधार पर ये विभाजन और इसका विद्रूप चेहरा खिंचते ही रहेगा.उन्होंने बड़े गंभीर हो कहा.
शब्द, साहित्य के साथ अब धर्म की घुसपैठ.तेजी से बदलते राजनीतिक परिवर्तन, राजनीतिक हत्याएँ, मण्डल कमीशन और उसके बाद बढ़ता रोष.उस पर देश की माली हालत बड़ी खराब. यह स्थिति 1966 में भारतीय रूपये के अवमूल्यन के बाद से गंभीर होती जा रही थी. भावनात्मक हो कर इसे देश की नाक कटने से समझा जा सकता था. कमलेश्वर की एक कहानी पढ़ी थी जॉर्ज पंचम की नाक. इस पर एक नाटक भी किया था. क्लाइमैक्स यही था कि बुत की नाक बचाने के फेर में सभी बुद्धिजीवियों की नाक कटी दिखती है.
एक लघु शोध परियोजना के सिलसिले में मुझे पिथौरागढ़ सीमांत जाति “रं” जनजाति के आर्थिक सामाजिक सर्वेक्षण में जाना था. त्रिपाठी जी को बताया तो वह बोले बिना उनके सांस्कृतिक परिवेश को जाने बात नहीं बनेगी. वहां के इतिहास भूगोल के बारे में मुझे विस्तार से बताया.शेर सिंह पांगती जी के बारे में बताया. उनको मैंने चिट्ठी भी लिखी तो तुरंत चार पेज फुलस्कैप में जवाब भी आया. उन्होंने वहाँ के रोमांचक रिवाज व अमरीमो के बारे में बताया. त्रिपाठी जी ने कुछ ही उदाहरणों से यह बात साफ कर दी कि 1962 के भारत तिब्बत व्यापार बंद होने के बाद शौका व रं जनजाति ने जितनी तेजी से नई परिस्थितियों में अपने को ढाला और बच्चों की पढ़ाई लिखाई को प्राथमिकता दे व्यापार के साथ ही सेवा क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ते ही रहे. जबकि पहाड़ में नान धोती- ठुल धोती,छोटे ठाकुर व बड़े ठाकुर जैसे स्तरीकरण भी थे जिससे पूरा कुमाऊँ गढ़वाल घिरा पड़ा है.
जब में अर्थशास्त्र प्रवक्ता बन बिरला महाविद्यालय श्रीनगर और अल्मोड़ा महाविद्यालय से पिथौरागढ़ आया और काफी लम्बा समय रहा तब त्रिपाठी जी कुछ समय वहीं इंटर कॉलेज में थे. मुझे बड़ी कोफ्त होती थी कि सभी अहर्ता होने शोध की अनवरत प्रवृति होने के बाद कहाँ उन्हें विश्वविद्यालय में होना चाहिए था पर उन पर तो इंटर का ठप्पा लग चुका था. पिथौरागढ़ उनकी संगति में खोजबीन में उस्ताद जिन दो लोगों से मेरे गहरे रिश्ते बने वह डॉ राम सिंह और श्री पदमादत्त पंत थे. दोनों ही यायवर, बड़े प्रमाण इकट्ठा कर निरन्तर लिखने वाले सरल सहजता से जीने वाले धुरंधर रहे. डॉ राम सिंह तो उपक्रमी भी, सिनेमा लाइन में लौह लक्ष्मी नाम के अपने कारखाने में वह मोटे से रजिस्टर में लगातार लिखते हूए भी दिखते.
मैं लिखने से ज्यादा शौकिया फोटोग्राफी में रम चुका था और फिर नाटक में. पिथौरागढ़ में ऐसा माहौल मिला कि बड़े कायदे से काफी नाटक किये. जब मैं वहां गया तब वहां जागृति कला केंद्र के पारिवारिक नाटकों का ही चलन था जो ध्वनि प्रकाश सबसे सुसज्जित होते और इस मंडली के मुखिया प्राण जी थे जिनका प्राण पुस्तक भंडार था और अपने हर नाटक के नायक भी वही होते पारसी रंगमंच की बानगी लिए. नैनीताल डी एस बी में हम कुछ मित्र परदे के पीछे बहुत सक्रिय थे खासकर चंद्रप्रकाश जो बहुत पढ़ाकू व साहित्य अनुरागी था उसके साथ मैंने ऑब्जरवेटिरी में तकनीकी सहायक के रूप में भी काम किया. फिर श्रीनगर में प्रोफेसर गोविन्द शर्मा, ओम प्रकाश साह गंगोला, प्रभात उप्रेती व फिर सफ़दर हाशमी तो अल्मोड़ा में बसंत बल्लभ पांडे, जफ़र खान के साथ हर्फ़नमौला गिरीश जोशी जिसने मुझे अल्मोड़ा की हर सांस्कृतिक गतिविधि में ले जा बैठा दिया. अब पिथौरागढ़ आया तो शुरुवात हुई बिल्कुल नई धारा से. युद्ध मन, एक और द्रोणाचार्य, त्रिशंकु, एक था गधा, अंधों का हाथी से ले कर आदिविद्रोही और बलि का बकरा जो संख्या के लिहाज से पच्चिस तो रहे ही.
एक लम्बी अवधि तक त्रिपाठी जी से भेंट न हुई.1983 में मेरा स्थानांतरण रानीखेत हुआ. तब नैनीताल हर छुट्टी में जाता और कभी कभी उनसे भेंट होती बातचीत होती. क्या हो कैसे हो जैसी बात बहुत कम सीधे किसी चुभ रही सी बात पर वह बोलते और मैं शांत रह उनकी बात पर अमल की सोचता. उस दिन की चर्चा कहीं लिख लेना न भूलता. हर सोच को कागज पर लिख लेने उसे एक आकार देने की आदत मेरे भीतर पहले महेश दा ने डाली जिनके कागजों में उर्दू के शब्दों से भरी कविताएं अक्सर में टटोला करता. ऑब्जरवेटरी में उन्हें बड़ा खूबसूरत बंगला मिल गया था जहाँ हर शनिवार में पहुँच जाता और सोमवार वापस आता. उनकी मित्र मण्डली में अतुल दा, प्रकाश जोशी मैथ्स वाले, सनवाल साब जो बाद में कानपुर आई आई टी चले गये थे के साथ एल एम पुनेठा जी थे जो महेश दा की वोदका को अभिजात रस कहते और अपने झोले से गुलाब या माल्टा निकाल उसकी सुवास को ब्रह्म रंध्र खोलने वाला बताते. उनकी सारे देश, विदेश, विज्ञान, गिरता जा रहा राजनय, बिखर रहे मूल्य की चर्चा से अब भय ग्रस्त न होता. कौन सी ऐसी बात छूटी थी जिसका मूल त्रिपाठी जी ने हिंदी साहित्य के इंटर क्लास में न डाली और फिर वही मुद्दे मुझे फैलते दिखे भले ही वह धर्म के नाम पर विकसित अनाचार हों या पद प्रतिष्ठा कुर्सी के लिए किये जा रहे तांडव जिनमें कभी जय प्रकाश नारायण की आवाज कुचली गई महसूस हो या कश्मीर का हर मामला गड्ड मडड हो बार बार. शासन के लिए निरंकुश होना जरुरी है यह बात तब के ऑब्जरवेटरी के निदेशक डॉ सिनवल के निर्देशों से साफ झलकती जिनसे वहां के तमाम एस्ट्रोनोमर बड़े तनाव में रहते. आलम यह होता कि जैसे ही सिनवल साब की काली अमरीकी सरकारी कार फालकन दूर से आती दीखती ऑब्जरवेट्री के झुके दरख़्त भी सीधे खड़े हो जाते. मैंने तब एम ए में प्रवेश लिया ही था. बप्पाजी ऑब्जरवेटरी में रजिस्ट्रार रह चुके थे. और अब डॉ डी डी पंत द्वारा शासन से नई पोस्ट बरसर स्वीकृत करवाने पर वापस कॉलेज में आ चुके थे. यह बरसर शब्द उनका असली नाम निगल भी चुका था. उधर महेश दा को सोलर यूनिट सौंपी जा चुकी थी. वहां के ओ एस डी ढेला बाबू ने राम दत्त जोशी की दुकान पर चाय पीते मुझे बताया था कि सेटेलाइट ट्रेकिंग विभाग में एक तदर्थ टेक्नीकल असिस्टेंट की नियुक्ति होनी है. सीधे डायरेक्टर साब के पास एप्लीकेशन ले कर पहुँच जा. दिन में अपनी एम ए की क्लास पढ़ना. रात को भी चार पांच घंटे का ही काम होता है.
इंटर में जब त्रिपाठी जी के मायालोक में मैं खो जाता तो उसमें उनकी अद्भुत कहानियाँ होतीं. जब एक दिन उन्होंने बताया कि उनकी माँ तो उनके शिशु काल में ही चल बसी थीं तो मुझे तो रोना सा आ गया यह सोच कि अगर मेरी ईजा चली गई होती तो मेरा क्या होता ? असल में मेरा ख्याल रखने वाली वही तो है. बाप्पाजी तो दो पैग गटकने के बाद भी यही सोचते हैं कि में लिखता पढ़ता नहीं बस कभी हरीश चंद्र सती का नाता कभी त्रिपाठी की मैगजीन. साहित्य से वह ऐसे वीतरागी कैसे हो सकते हैं जबकि पढ़ने का उन्हें खूब चाव था हिंदी ही नहीं अंग्रेजी और बांग्ला तक. त्रिपाठी जी ने बताया था कि वो जंगलात में कारिंदे भी रहे और ऐसा फटाफट टाइप करते हैं कि पूछो नहीं. बस गुरु की राह मैं भी पकड़ता हूँ कब तक ये होटल वाले मिठाई वाले सेठों की औलादों को मैथ्स की ट्यूशन पढ़ा पांच दस रुपए महीना का करम करुँ. लौंडे भी ऐसे कि बाहर से कोट टाई खाप में अंग्रेजी पर मैथ्स में शून्य अनंत.
सिनवल साब के सामने में खड़ा था. मनोरा जा रहा सो कुछ फोटो भी मिल जाएंगी सोच वह भारी रूसी कैमरा भी लटका लिया था जिसके इस्तेमाल की छूट मुझे महेश दा ने दे रखी थी.
फोटोग्राफी का शौक है?
जी.
क्या खींचते हो?
चेहरे, अनजाने से, उन्हें बिना बताये.
कैंडिड फोटोग्राफी और?
प्रकृति जिसकी कोई सीमा नहीं है.
बनना क्या चाहते हो?
जी, अध्यापक.
ये अपना सर नेम पांडे लिखा है होता तो पांडेय है.
नहीं सर. पहाड़ में पांडे ही लिखते हैं. किसने बताया
जी हमारे सर त्रिपाठी जी ने. कुमाऊँ का इतिहास में भी लिखा है बी डी पांडे ने
हमारे रजिस्ट्रार रहे हरिश्चंद्र जी वो तो पांडेय लिखते ही नहीं थे
ये उनका ही बड़ा लड़का है.
पीछे हाथ बांधे खड़े ढेला बाबू बोले.
अच्छा तो कैमरा महेश ने दिया होगा. वो बड़ा सीरियस रहता है आजकल. तुमने मुझे बताया नहीं कि हरिश्चन्द्र जी के बेटे हो?
जी. क्या ये जरुरी होता?
ऐसी धोंस गुरू से मिली.
ढेला बाबू. रूम 104 में पुनेठा के साथ दो इसे. आज से ही.
गुरु के कदम जैसे पड़े मैं भी उसी डगर चला. और तीन सौ रूपये मिलने लगे, ऍम ए करते करते. फोटो डेवलपमेंट व दुनिया के बेहतरीन कैमरों से सेटेलाइट खींचने का अनुभव भी.
अगली दूसरी तारीख जब करारे नोट बप्पा जी के हाथ रखे तो उनकी ऑंखें बड़ी तरल हो गईं. बोले इतने साल कलम घिस मुझे पांच सौ बासठ रूपये मिले. तू खुशकिस्मत है. जब फ़ैजाबाद इंस्पेक्टर स्कूल में क्लर्की शुरू की तब बेटा चार रूपये मिलते थे.
ऑब्जरवेटरी में साथ में टेक्निकल असिस्टेंट मिले हरेन्द्रदा, हरीश जोशी उर्फ़ हरुआ मेट और चंद्रप्रकाश उर्फ़ सी पी. सी पी बड़ा पढ़ाकू, साहित्य अनुरागी, संयत उसके पास एक नीला बंद गले का कोट था. साल भर वह मुझे इसी में दिखा. उसको त्रिपाठी जी ने पढ़ाया तो नहीं था पर वह उनके लिखे लेख कतरन मुझे दिखाता और बोलता बिना तर्क और सोच के यह आदमी अपनी कलम नहीं घिसता. सी पी बाद में प्रशासनिक सेवा में आया और बड़े ऊँचे ओहदे पर आया. मुंबई में बस गये पीयूष पांडे ने जो नेहरू तारा मण्डल में निदेशक था से होने वाली फोन वार्ता से पता चलता कि सी पी पहाड़ के लोगों के लिए यहां खूब लगा रहता है. पर हमारी भेंट फिर कभी न हो पाई.
पिथौरागढ़ में जब इंटर कॉलेज में त्रिपाठी जी थे तो वहां सांस्कृतिक साहित्यिक कार्यक्रमों की बहार आ गई जिनका हमारे महाविद्यालय तक भी प्रसार हुआ. इसका एक कारण तो यह था कि हमारे महाविद्यालय के ठीक नीचे ही इंटर कॉलेज था और हमारे प्राचार्य का सरकारी आवास भी उसी परिसर में. दूसरा उनके द्वारा दीक्षित कई बच्चे अब महाविद्यालय में मेरे विद्यार्थी थे जिनकी अपनी पहचान बिल्कुल भिन्न.
महाविद्यालय में अजीब सी अशांति थी. पहले यहां प्राचार्य डॉ खन्ना रह चुके थे जिनके समय यह हर विधा में कीर्ति फैलाने वाला केंद्र बना फिर डॉ खन्ना कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति बन गये. उनसे पहले विश्वविद्यालय के नैनीताल व अल्मोड़ा परिसर पर न मेरा और न मेरी बहिन गंगोत्री का चयन हुआ. चयन के प्रतिमानबदल चुके थे और मेरे पिता को कुमाऊँ विश्व विद्यालय में उप कुलसचिव पद देने के बाद ऐसा कुछ कुचक्र चला था कि विश्व विद्यालय की टंटे बाजी पान बीड़ी की दुकानों तक पसर गई थी. बप्पाजी छुट्टी पर मेरे घर लौटने पर कहते कि वह विश्वविद्यालय कि नौकरी से सेवा निवृति ले रहे हैं. पिलानी से ब्रिगेडयर पांडे वहां के संस्थान में बुला रहे हैं इससे पहले भी शुक देव पांडे जी उन्हें वहां सब सुविधा देने के लिए तैयार हैं. पर कहाँ हरिश्चंद्र बरसर तो बस कुमाऊँ विश्वविद्यालय के स्वरुप के कागजों में अपनी बाबूगिरी के शिखर पर है और साथ हैं डॉ दिवाकर नाथ अग्रवाल जिनने अपना गुरुतर शिक्षण कार्य तक दांव पर लगा दिया.
विश्वविद्यालय तो बना जिसके तदन्तर एक महान वैज्ञानिक को अवमूल्यन का शिकार होना पड़ा. मैदानी देसज बनाम पहाड़ी सारा माहौल खराब कर गया. ऐसा कुछ हो गया कि जिस परिसर में जन्म लिया, पढ़ा वही चिढ़ाने लगा.कुमाऊँ विश्वविद्यालय कमाऊ विश्वविद्यालय का अलंकरण पा गया.
अच्छा हुआ कि उसके परिसर से छिटक राजकीय महाविद्यालयों में स्थानांतरण होते रहे और मैं जाते भी रहा. कुंवे का मेढक बनने से बचा रहा.
पिथौरागढ़ में उनसे शाम के समय सिलथाम सिमलगैर टहलते संवाद होते. घूम फिर अब उत्तराखंड बनने की बातें होतीं. मुझे याद है कि सिपाही धारा के ऊपर व नगरपालिका चुंगी के बीच रहने वाले व सामाजिक रूप से बड़े जागरूक श्री इंद्र सिंह नयाल जी ने बप्पा जी को उत्तराखंड की जरुरत पर एक पुस्तिका दी थी जो कई दिन उनकी फाइलों में ऊपर नीचे होते आखिर मुझे मिली. पेजों में पान के निशान थे. इसका मतलब बप्पा जी ने उसे पढ़ा था और आखिरी पेज से पहले का अध्याय जहां खतम हो रहा था उस पेज की खाली तीन चौथाई जगह पर उन्होंने लिखा था. हिमाचल आखिर पहाड़ी राज्य बना और उसने पंजाब के मैदानी इलाके को अपने में शामिल करने से इंकार कर दिया और अपनी जिद पूरी की. अपने यहां तो बस दो फाड़ दिखती है.
त्रिपाठी जी ने मुझे बताया था कि अब उनकी योजना उत्तराखंड के भूगोल पर किताब लिखने की है जिस पर बहुत काम वह कर चुके हैं तो उनसे फिर उत्तराखंड के भावी स्वरूप पर जिक्र हुआ तो इसके तथाकथित पुरोधाओं के बारे में वह एक ही लाइन बोले, “सब एक ही खाड़ के पिनालू”. जब सही मुद्दे से हट इनको अपनी प्रशंसा सुनने की लत लग जाती है तो उसके गलत नतीजे पूरा समाज भुगतता है, भाऊ”.
गिरदा का लिखा और लेनिन पंत का निर्देशित नाटक,”नगाड़े खामोश हैं “नैनीताल में हुआ जिसका क्लाइमेक्स उन मनखियों को जगाने से जुड़ गया था जो गनेल हो गये हैं. गिरदा के शैले हाल के पीछे की एकांत कुटी में में कमल जोशी के साथ कई बार जा उस अस्तव्यस्ता को समूचे पहाड़ से जोड़ चुका था. मेरे फोटो गुरु एस पाल ने जो रघुराय के बड़े भाई थे पर अपने फन में उनसे बिल्कुल उलट ने कौसानी की खूबसूरत पहाड़ियों में खो जाने के बाद कहा था ये पोस्टर जैसी खूबसूरती खूब बिकेगी. बर्फ में डूबा हर हिमालय खूब पैसा देगा पर इसके नीचे कीचड़ में डूबा ग्लेशियर. रौखड़ -उसे कौन खींचेगा?ऐसा ही त्रिपाठी जी भी जताते.
इसी पिथौरागढ़ महाविद्यालय में प्रशासनिक अकादमी में टोलिया साहिब के कहने पर और उनके द्वारा दिए वित्त से पहाड़ की समस्याओं के साथ यहां के सांस्कृतिक विघटन पर एक विचार पूर्ण गोष्ठी का आयोजन हुआ. इसके बाद यह मुंशियारी में भी संपन्न हुई.डॉ राम सिंह और तारा चंद्र त्रिपाठी ने उत्तराखंड की राजनीति के उन सारे विगलित पक्षोँ को बड़ी साफगोई से सामने रख दिया जो अब चुकने लगे थे. उत्तराखंड क्रांति दल अपनी उन सारी आकर्षण शक्तियों से विमुख हो गया था जिनके रहते उसने अपनी पहचान बनाई थी. महाविद्यालय स्तर पर विद्यमान सत्ता के विद्यार्थी दलों और सुन्दर लिखावट में नव चेतना के संदेश देते दल के बीच रस्साकशी जारी रहती. प्राचार्य भी इनमें फंसे रहते. जिलाधिकारी भले होते तो महाविद्यालय के अकादमिक माहौल के लिए उत्प्रेरक बन जाते. जब हवाई पट्टी के बनने की घोषणा हुई तो बड़ा असमंजस पनपा. कृषि भूमि का अधिग्रहण बनाम सरकारी विकास उड़ान. होना वही था जो खेतिहरों के पक्षधर थे व जो अपनी भूमि इस योजना में देने के घनघोर विरोधी थे वह मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के द्वारा इसका श्रीगणेश किये जाने तक पलट गये. जिलाधिकारी अनूप पांडे ने मुझे यह जिम्मेदारी दी कि नैनी सैनी में मुख्यमंत्री के भाषण से पूर्व पिथौरागढ़ की आर्थिकी और यहां की सम्भावनाओं पर सार गर्भित विचार रखूँ.
फिर वही अस्मिता का संकट व द्वन्द की दशा उभरी.आखिर गुरु ने ही पार लगाया. धारा के विरुद्ध जा कर खरी खरी बात सामने रख कर ही संकट से मुक्ति पाई जा सकती है. जब मैं बोल रहा था तो मुख्य मंत्री अपने दो मातहतों से लगातार कुछ सुन रहे और तनिक आवेश में आ कुछ सुना रहे थे. इससे पहले उनके स्वागत सत्कार की तैयारी बनाम वंदना स्वागत गीत जैसी परंपराओं का आयोजन भी मुझे ही करवाने हैं यह बात भी अनूप पांडे कह चुके थे. अब यार सी एम वहां से जल्दी ही निकल जाना चाहते हैं सो बस देख लेना. मैंने भी एक तरफ टीका पिठ्या मुख्य मंत्री के कपाल पर लगवाया तो दूसरी तरफ से गीत शुरू हो गया बाकायदा ग्रामीण वेशभूषा में, “ओ जैँता एक दिन तो आलो यो दूनी में.
फिरबल्ली सिंह चीमा
फिर राजेश जोशी
फिर नागार्जुन
और फिर फैज व गिरदा
ओढ़, बारूडि, ल्वार, कुल्ली कभाड़ी.
तालियां बजी उन्होंने बजाई जो इस आयोजन में बुलाए गये थे आसपास के ग्रामीण थे.
विकास का वादा और अपने लोहिया वाद का हवाला दे उनकी कारों का काफिला धूल उडाता चल निकला.
विमान अभी भी उड़ने को अभिशप्त है.
जारी…
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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