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और मैंने कसम खाई कि लड़कियों के भरोसे कॉलेज में कोई चुनाव नहीं लड़ूंगा

पहाड़ और मेरा जीवन – 62

(पिछली क़िस्त: और मैं जुल्फ को हवा देता हुआ स्कूल से कॉलेज पहुंचा)

मैंने ऐसा फैसला क्यों लिया इसकी अब तो ठीक-ठीक वजह बताना मुश्किल है, लेकिन बीएससी फर्स्ट इयर में जब महाविद्यालय के छात्रसंघ के चुनाव होने को थे, तो उससे ठीक पहले कक्षा प्रतिनिधियों के चुनाव होते थे, मैं इस चुनाव में बतौर उम्मीदवार खड़ा हो गया. Sundar Chand Thakur Memoir 62

ये वे दिन थे जब मुझे ठीक-ठीक पता नहीं था कि मैं जीवन में क्या बनना चाहता हूं. मुझे हर चीज और हर प्रभावशाली शख्स अपनी ओर खींचता था. कॉलेज के बगल में रहने और इस वजह से भी कि मेरा बड़ा भाई वहां का छात्र था और उसके साथ के लोग गाहे-बगाहे उससे मिलने आते रहते थे, मैं पहले से ही कॉलेज की गतिविधियों से परिचित था, खासकर छात्रसंघ के चुनावों से क्योंकि चुनावों के दौरान गतिविधियां बढ़ जाती थी. Sundar Chand Thakur Memoir 62

बड़े भाई के एक मित्र हुआ करते थे, मदन सिंह महराना जी, जिन्होंने छात्रसंघ के सचिव पद से शुरुआत की थी और बाद में शायद वे अध्यक्ष बने और अंतत: सक्रिय राजनीति में भी आए. उनका एक कार दुर्घटना में असमय देहांत हुआ और उसके बाद उनकी पत्नी को भाजपा ने टिकट देकर विधायक बनाया. चूंकि मदन सिंह महराना जी हमारे कमरे के पास ही रहते थे उनके चुनाव प्रचार में मैं भी स्वत:स्फूर्त सक्रिय हो गया. पोस्टर वगैरह बनाने और कॉलेज की दीवारों में उन्हें चिपकाने में मैंने भी कारगर भूमिका अदा की. वे चुनाव जीते, तो जहन में आया कि मेरे ही पोस्टरों और सक्रिय भूमिका की वजह से जीते.

कॉलेज में आने के बाद जीवन में इस मायने में बड़ा बदलाव आया कि जहां स्कूल के दिनों में सुबह स्कूल जाने का मन नहीं करता था, कॉलेज में सुबह होने का इंतजार करता था कि दस बजे तो कॉलेज पहुंचा जाए. चूंकि कॉलेज का जीवन अभी-अभी शुरू ही किया था, मन में था कि मैं वहां अपनी नई पहचान बनाऊंगा. टीचर्स, लड़कों और लड़कियों के सामने मेरी एक अलग किस्म का छात्र होने की छवि बनेगी. मैं एक प्रखर व्यक्तित्व का धनी बनूंगा. इसलिए मेरा ध्यान अपने व्यक्तित्व को निखारने पर था. मैं महान लोगों की आत्मकथाएं पढ़ना शुरू कर चुका था और लीक से थोड़ा हटकर चलने के मौके खोजता रहता.

कक्षा दस में मेरे हिंदी के टीचर ने मुझे अंग्रेजी अखबार खरीदते देख कहा था कि एक दिन मैं बड़ा आदमी बनूंगा. अब उनकी बात को याद करते हुए कुछ बड़ा करने का आधार बनाने का वक्त आ गया था. इसलिए मैं अब अंग्रेजी अखबार पढ़ने के साथ-साथ कमरे में शीशे के सामने खड़ा होकर अंग्रेजी बोलने का अभ्यास भी शुरू कर चुका था. हालांकि इतने भर से काम न चलता क्योंकि अकेला होने के कारण मुझे पता नहीं चल पाता था कि मैं अच्छी तरह अंग्रेजी बोल रहा हूं या नहीं. अंग्रेजी के मामले में उन दिनों मेरा यह मानना था कि जब तक हम इसे आपसी बातचीत में बोलने का अभ्यास नहीं करेंगे, तब तक हमें व्यक्ति को महान बनाने वाली ये विद्या नहीं आने वाली थी. इसलिए मैं ऐसे लोगों की तलाश में रहता था जो इस मामले में मेरी तरह सोच रखते हों ताकि उनके साथ मैं बेधड़क, गलत ही सही, पर कॉन्फिडेंस के साथ अंग्रेजी बोलूं. Sundar Chand Thakur Memoir 62

चूंकि मुझे ऐसे दोस्त कम ही मिलते थे, जिन पर अंग्रेजी सीखने को लेकर मेरे जैसी ही धुन सवार हो, मैं किसी से भी बात करते हुए अंग्रेजी के वाक्य उगल दिया करता था. मेरी इस आदत के कारण या इसके चलते कि मैं संभ्रांत व्यक्तित्व का धनी बनने के वास्ते ज्यादातर पढ़ाई, करियर, महान लोगों, महान बनने आदि जैसी बातें ही करता रहता था, मेरी कक्षा के लड़कों का एक गुट था जिसे मैं सुहाता नहीं था. इस गुट में ज्यादातर लड़के दिमाग के और देखने के बहुत स्मार्ट थे. कालांतर में वे सभी मेरे अभिन्न मित्र बनें जिनके साथ कई मर्तबा सुरापान का सुख लेने की भी अद्भुत यादे हैं.

इस गुट के लोगों में विमल बगौली, युगल किशोर जोशी, सुभाष पंत, दिनेश कुमार यानी डीके, चंद्र सिंह थापा, उमेश जोशी आदि शामिल हैं. पिथौरागढ़ जाने पर इनसे लगभग अनिवार्य रूप से मुलाकात हो जाती है. विमल, सुभाष और थापा को मैं सेंट्रल स्कूल के दिनों से ही जानता था, जहां ये मुझसे एक क्लास सीनियर हुआ करते थे. विमल की शहर में बड़ी हार्डवेयर की पुश्तैनी दुकान है. वह वहीं बैठता है. उसका छोटा भाई आईएएस अधिकारी है, पर विमल ने घर की जिम्मेदारियों को खुद पर लेकर अपने करियर की तलाश में शहर छोड़ने की बजाय घर का स्तंभ बनना ज्यादा जरूरी समझा. थापा भी वहीं गणित का टीचर बन गया. युगल ने दिल्ली में आईआईटी से पढ़ाई की और बाद में इंडियन रेवन्यु सर्विसेज में गया. प्रधानमंत्री मोदी जी के स्वच्छता अभियान के प्रचार में उसकी बड़ी भूमिका रही है. सुभाष और उमेश की भी पिथौरागढ़ में ही बड़ी दुकानें हैं. उमेश ने मजाक-मजाक में विवाह ही नहीं किया और अब उम्र शायद हाथ से निकल गई. वैसा मेरा लिखा यह सब पढ़ने के बाद विमल और सुभाष उसे एक बार विवाह करने को उकसाएंगे जरूर, जैसा कि हम कई वर्षों से करते रहे हैं. डीके भी शायद कहीं नौकरी कर रहा है. उससे कई सालों से मुलाकात नहीं हुई.Sundar Chand Thakur Memoir 62

मुझे ऐसा लगता था कि मेरी अभिरुचियां मुझे लड़कियों में ज्यादा लोकप्रिय बनाती हैं. लोकप्रिय इस मायने में कि चूंकि मैं नियमों और नैतिकता का पक्षधर था, संस्कारवान था, सिगरेट, शराब नहीं पीता था और पढ़ने में अच्छा होने के साथ-साथ कविताएं लिखता था और वादविवाद प्रतियोगिताओं में स्थान प्राप्त करता था, इसलिए जब बात मेरे और किसी ऐसे लड़के के बीच चुनाव करने पर आएगी, जो मेरी तुलना में कम संस्कारवान, पढ़ने में कम अच्छा हो, तो सारी लड़कियां मुझे ही पसंद करेंगी. मुझे लगता है कि मैंने ऐसा ही कुछ सोचते हुए कक्षा प्रतिनिधि के चुनाव हेतु बतौर उम्मीदवार अपना नाम बढ़ा दिया.

मैं मन ही मन चुनाव होने और उसमें जीत दर्ज करने को महज औपचारिकता मानकर चल रहा था. मेरे बहुत करीबी दोस्तों का भी ऐसा ही कहना था – ‘देख भाई, कुछ लड़के तो तेरे से चिढ़ते हैं क्योंकि तू अंग्रेजी में गुटरगूं करता है और जब देखो लड़कियों के बीच घुसा रहता है. लेकिन लड़कियां तो सारी तुझे ही वोट देंगी.’ अपने इन करीबी दोस्तों के तर्क को मैंने अपनी कसौटी पर भी कसा और एक बार नहीं कई बार हिसाब लगाया कि मुझे कितने वोट मिलने की संभावना है. हर बार हिसाब में मैं भारी अंतर से जीत रहा था. मेरे खिलाफ जो खड़ा हुआ था या कहें कि जिसे खड़ा किया गया था उसका नाम गजेंद्र था. वह एक नाटे कद और गठीले शरीर वाला थोड़ा अपने में रहने वाला बंदा था.

नामांकन भरने के अगले दिन से जब प्रचार शुरू हुआ, तो मुझे समझने में देर नहीं लगी कि विमल बगौली एंड गैंग उसे सपोर्ट कर रहा था. लेकिन मैं अपनी जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त था. मैंने अपने प्रचार में बहुत ज्यादा खर्च भी नहीं किया लेकिन पैम्फलेट छापने से खुद को नहीं रोक सका. अपने कवि होने का भरपूर लाभ लेते हुए मैंने पैम्फलेट में चार लाइन की कविता डाली और अपने प्रचार के लिए भी एक-दो छोटी-छोटी मारक कविताएं बना लीं. मुझे अपना प्रचार करने में जो सुख मिल रहा था उसका मैं बयां नहीं कर सकता क्योंकि उस बहाने मुझे किसी भी लड़की के पास जाने की, उससे बात करने की छूट मिल रही थी. Sundar Chand Thakur Memoir 62

हमारे कॉलेज में पहले साल ज्यादातर लड़कियां झुंड में रहा करती थीं. अगर वे धूप में बैठकर स्वेटर या दस्तानें भी बुन रही होतीं, तो झुंड में बैठतीं. कॉलेज आते हुए, कॉलेज से जाते हुए, सड़क पर तीन-तीन, चार-चार लड़कियों की कतार मिलती थी. फर्स्ट इयर की लड़कियां बातें कम करती थीं. मैं उनके झुंड के बीच जाता तो ज्यादातर मेरे हाथ से पेम्फलेट लेकर मुस्करा भर देतीं. कोई बहुत बातूनी मिल जाती तो उससे जरूर सुनने को मिल जाता – हां रे सुंदर हम तो तेरी साइड ही हुए रे. तेरे को ही वोट देंगे. मुझे लगता है कि मैं ऐसी बातूनी लड़कियों के संपर्क में ज्यादा आया क्योंकि चुनाव का फैसला आने से पहले तक मैंने अपनी बंपर जीत का आधार इन्हीं लड़कियों की बातों को बनाया था. पर जब चुनाव के नतीजा आया तो मालूम चला कि मैं सात-आठ वोटों से हार गया हूं. कुछ देर तक मुझे यकीन करने में दिक्कत हुई.

मैं हारने के बाद जब बगौली और गैंग के सामने से गुजर रहा था, तो वे मेरी ओर कनखियों से देखते, मुस्कराते हुए आपस में बहुत खुसपुस कर रहे थे. ये मेरे ईगो को लगा पहला बड़ा झटका था. मैंने अपनी कक्षा की लड़कियों से अपनी हार पर कोई बात नहीं की. मुझे इस बात का तो अंदाजा था कि अधिकांश लड़के चिढ़कर मुझे वोट नहीं देने वाले, लेकिन लड़कियों ने ऐसा क्यों किया यह मेरे लिए एक अबूझ पहेली थी. मैं खुद को यही सोच-सोचकर आश्वासन देता रहा कि अच्छे और सच्चे लोगों को कोई आसानी से जीतने नहीं देता और आज भी मैं अपनी इसी सोच पर कायम हूं, ये दीगर बात है कि यह पहला ही झटका इतना जबरदस्त था कि उसके बाद कभी दोबारा चुनाव लड़ना छोड़िए मैंने ऐसी बात कभी जेहन में लाने तक की जुर्रत न की.  

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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  • शानदार संस्मरण
    सुन्दर भाई वो भी क्या दिन थे

    गजेन्द्र सिंह बुदियाल

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