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और मैं जुल्फ को हवा देता हुआ स्कूल से कॉलेज पहुंचा

पहाड़ और मेरा जीवन- 61

(पिछली क़िस्त: गरीब के गुरूर को मत जगाना कभी, मैंने चश्मे वाले को यूं दी जबर धमकी)

पिथौरागढ़ के जिस राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय की बाडंड्री से सटे सद्गुरू निवास के कमरे में मैं कक्षा नौ में किराए पर आकर रहने लगा था और उठते-बैठते कॉलेज के अहाते के भीतर चलने वाली गतिविधियों का गवाह बना था, बतौर एक छात्र उस कॉलेज की इमारत के भीतर प्रवेश करने के लिए मुझे चार साल इंतजार करना पड़ा. Sundar Chand Thakur Memoir 61

पर जैसा कि हम जानते ही हैं कि इंतजार का फल हमेशा मीठा होता है, मेरे साथ भी यही हुआ. कॉलेज मेरे जीवन में मिठास लेकर आया. इस मिठास की कई वजहें थीं. पहली वजह तो यही थी कि लड़कों के स्कूल में पढ़ते हुए जिन लड़कियों के सान्निध्य के हम ख्वाब देखा करते थे, अब हमें वह साथ नसीब होने वाला था. ‘मैं’ की जगह ‘हम’ इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मेरी तरह सरकारी स्कूलों से आने वाले कमोवेश सभी लड़कों का यही हाल था. आने वाले दिनों में जीवन में पहली बार मेरा ध्यान पैंट की पिछली जेब पर जाने वाला था क्योंकि पर्स और कंघी उसी में रखी जाने वाली थी. Sundar Chand Thakur Memoir 61

कृपया हैरान न हों क्योंकि मैं जो लिख रहा हूं, वह सच है और पैंतीस वर्ष पूर्व घटित हो चुका है. मैंने सचमुच उन दिनों कॉलेज से पहले तक जेब में पर्स नहीं रखा था. पैसे ही न होते थे, तो पर्स किस बात के लिए रखता. पैसे तो खैर कॉलेज में भी ज्यादा नहीं रहने वाले थे, पर अब बाजार में चल रहे फैशन से भी जीवन और उसकी प्राथमिकताएं संचालित होने वाली थीं. बारहवीं तक कभी इस ओर ध्यान नहीं गया कि स्कूल जा रहे हैं तो पैंट धुली हुई पहनकर जाएं. उस पर प्रेस भी की हुई होनी चाहिए, यह पता चलने के बाद भी मैं इस हद तक संभ्रांत नहीं हो पाया. Sundar Chand Thakur Memoir 61

पैंट को रात भर तकिए के नीचे रखने से वह जितनी प्रेस हुई, उसी से काम चलाया. मुझे कॉलेज जाना शुरू करने के शुरुआती दिनों की दो चीजें इस तरह याद हैं कि आंख बंद करते ही उनके रंग, खुशबू सबकुछ सामने आ जाता है. एक तो मेरे पास नीले जींस की कमीज थी जिसकी पॉकेट पर एक उड़ते हुए बाज का चित्र टांका हुआ था. नीचे से वह बुशर्ट की तरह थी यानी उसे मैं पैंट के बाहर भी खुला हुआ रख सकता था. इसके अलावा एक बिना कॉलर वाली टी शर्ट थी जिसकी बांह कुहनियों से बालिश्त भर नीचे तक थी. लाल और सलेटी धारियों वाली टी शर्ट को पहनने के बाद अगर जो मैं गलती से भी इस पर चार्ली चैपलिन वाली परफ्यूम की एक-दो बौछारें भी डाल देता, तो तय था कि कॉलेज मे मेरे पैर जमीन पर नहीं रहते.

तब यह भी तय रहता कि मैं परफ्यूम की कीमत वसूलने के लिए ज्यादा से ज्यादा लड़कियों के सान्निध्य में रहने की कोशिश करता. हमारी क्लास में सात-आठ लड़कियां तो अनिवार्य रूप से रहती ही थीं क्योंकि इतनी ही लड़कियों ने पीसीएम यानी फीजिक्स, कैमिस्ट्री और मैथ लिया हुआ था. बायोलॉजी लेने वाली लड़कियों की संख्या ज्यादा थी. अब चूंकि बायो के साथ वे कैमिस्ट्री भी पढ़ती थीं, कैमिस्ट्री की क्लास में मैथ और फीजिक्स लेने वाले लड़कों को तादाद में ज्यादा लड़कियां देखने को मिलती थीं. ये सात लड़कियां थीं – कविता पांडे, भावना गुरुरानी, मीना सिंह, प्रेमा खाती, अनिता, अनुजा . सातवीं का नाम याद नहीं आ रहा.

मैं जब कमरे से कॉलेज के लिए निकलता था, तो आखिरी के पांच मिनट तो बाल बनाने में जाते. ये बाल ही थे जो मुझे कभी भूले नहीं. ओवरऑल देखें तो ये अमिताभ बच्चन की स्टाइल में कटे बाल थे यानी दोनों ओर से कानों पर आए हुए अलबत्ता कानों का थोड़ा-सा बालों से ढका रहना अनिवार्य है इस स्टाइल के तहत..(देखें तस्वीर) मेरे बाल बहुत मोटे और घने हुआ करते थे. इतने घने की नाई की कैंची घुस नहीं पाती थी इसलिए वह पहले दांतों वाली कैंची से आधे-आधे बाल काट उन्हें कुछ हल्का कर लेता था और बाद में रेगुलर काटने वाली कैची चलाता था. क्योंकि बाल भारी थे इसलिए बड़े होने पर वे सिर से गिरकर पूरे माथे पर फैल जाते थे. जिस तरह लड़कियां अपनी जुल्फों के साथ कई अदाओं से खेलती हैं, मैं भी अक्सर सिर को झटककर माथे पर झूल रहे बालों को सिर की दिशा में कुछ मिमी ऊपर धकेलता था. हालांकि कुछ सेकंड बाद बाल पुन: अपनी पुरानी जगह पर आ जाते, पर अदा तो अदा थी साहब. उसके पैसे तो लग नहीं रहे थे. Sundar Chand Thakur Memoir 61

क्योंकि मैं एक कवि था और शहर के सबसे बड़े पत्रकार बद्रीदत्त कसनियाल जी की सोहबत में रहने के चलते खुद को बाकी लड़कों की तुलना में ज्यादा संवेदनशील और बुद्धिजीवी समझता था इसलिए यह जरूरी था कि मैं पहनावे में उनसे थोड़ा अलग दिखूं. यही वजह थी कि मैंने अपने लिए महंगी दिखने वाली एक सस्ती-सी सैंडल खरीदी थी. सैंडल ऐसी थी कि उसमें पैर के अंगूठे के लिए एक हिस्सा था और बाकी में फीता ऐसे लगा था कि बची हुई चारों उंगलियां आ जाएं. पीछे ऐड़ी पर स्ट्रैप वाली सैंडल मैंने जानबूझकर नहीं ली क्योंकि वह बुद्धिजीवी लुक नहीं देती थी. वैसी सैंडल तो छिछोरे लड़के भी पहनकर घूमते थे.

कॉलेज में जल्दी ही मेरी छवि पढ़ने में अच्छे लड़के वाली बनने जा रही थी. तब तक मैं हर किस्म की बुरी आदतों से दूर था. मैं क्लास रूम में भी बहुत पीछे नहीं बैठता था. पीछे बैठने वाले लड़कों का अलग गैंग था, जिसके बारे में अगली किस्त में बताऊंगा. मैं कॉलेज में होने वाली ज्यादातर प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने की कोशिश करता था और कोई न कोई पुरस्कार तो पा ही लेता था. पुरस्कार में अक्सर किताबें ही मिलती थीं. अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट’ और धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’ मुझे ऐसे ही पुरस्कारों में मिली थीं. Sundar Chand Thakur Memoir 61

एक बार कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग ने एक कहानी प्रतियोगिता रखी थी. मैंने उसके लिए अपने गांव में मेरे ताऊ जी के बड़े बेटे की पत्नी, जिसे दिनभर काम करते देखते हुए मैं दंग रह जाता था क्योंकि वह आधी रात तक भी छोटी चक्की जिसे पहाड़ी में जतरा बोलते हैं, पर गेहूं और मक्का पीसती थी. उनके जरिए मैंने गांव में रहने वाली फौजियों की पत्नियों की स्थिति पर वह कहानी लिखी थी.

उस विभाग में मीना खर्कवाल इंचार्ज थीं, जो बाद में यूरोप चली गईं और इन दिनों वहीं रह रही हैं. उस कहानी की मूल प्रति उन्हीं के पास थी. कुछ साल पहले वह जब भारत यात्रा पर आई हुई थीं उनका संदेश मिला कि उन्हें मेरी पुरस्कृत कहानी की मूल प्रति मिली है. उन्होंने डाक से वह प्रति मुझे भिजवाई.

कॉलेज के कार्यक्रमों में मैं अपनी कविताएं सुनाने लगा था और हर मौके के लिए अलग कविता लिखता, जिसके अंत में मैं कोई न कोई बहुत भावुक, नीतिगत और श्रोताओं की संवेदना को झकझोरने वाला संदेश देने की कोशिश करता. तब तो मुझे लगता था कि मेरी ऐसी कविताओं का बाकी सब पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता था और वे मुझे बाकी लोगों से थोड़ा हटकर और जरा-सी ऊंचाई पर रखकर देखते थे, लेकिन आज सोचता हूं तो लगता है कि वह मेरी अपनी खब्त के सिवाय कुछ न था.

लेकिन यह खब्त ही मुझे प्रशिक्षित करने वाली थी क्योंकि कॉलेज के दौरान लिखी कविताओं, व्यंग्यों, कहानियों और लेखों के कारण ही मैं फौज छोड़ने के बाद लिखने को अपना करियर बनाने का साहस कर सका. कॉलेज का जीवन शुरू होने के साथ ही मेरा हर तरह का प्रशिक्षण चालू हुआ. जीत का भी हार का भी. मैं पहले ही साल कॉलेज के चुनाव में भी हिस्सा लेने वाला था और अपनी जीत के पूरे भरोसे के बीच हार का स्वाद चखने वाला था. वह कहानी अगले हफ्ते.

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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  • खूबसूरत लम्हों को यादगार तस्वीर की तरह पेश किया है ।

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