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कहानी: सूरज के डूबने से पहले

धर्मपाल सिंह रावत

“जरा सांस ले ले. बस थोडा और रह गया है, आ गई तैल्या की धार, वहाँ  टावर आ जाता है.” अपनी सत्तर साल की पत्नी को हिम्मत बंधाते हुए बोल पड़े पचहत्तर साल के शंकर सिंह. (Increasing Migration in Uttarakhand)

“अब नहीं चला जाता.” पत्नी ने जवाब दिया.

“चल वापिस चल, वैसे भी सूरज डूबने ही वाला है.”

बेटे, ब्वारी, पोती, पोता की आवाज सुनने की ललक ने बुढ़िया के शरीर में जान डाल दी, चल पड़ी. थोड़ी देर बाद दोनों पहुँच गए तैल्या की धार में. पहुँचते ही शंकर सिंह जी ने अपनी जवाहर कट वास्कट की जेब से नोकिया का मोबाइल निकाला. मोबाइल पर टावर की डंडिया देखकर उन के चेहरे पर रौनक आ गई. कांपती उंगलियों से बेटे दीनू का नम्बर लगा दिया. दो ही घन्टी में दीनू ने फोन उठा लिया.

“बाबा, आज तो आवाज साफ सुनाई दे रही है, माँ से भी बात करा देना. बच्चे भी तरस गए दादी से बात करने को.” दीनू ने ख़ुशी से कहा.

“उसी की जिद्द पर तो तैल्या धार आये है. तुझे और बच्चों को याद करते रोती रहती है. कहती है “तुम तो यहाँ-वहाँ से फ़ोन कर ही देते हो, मेरी भी बात कराओ बच्चों से.” पता नहीं इतनी चढ़ाई कैंसे चढ़ गई. ले बात कर ले अपनी माँ से.”

“कन छै रे तू, ब्वारी ,नाती नातिन।.तुम लोगों की बहुत याद आती है रे. जल्दी से बात करा दे सभी से. गांव म त बल टावर नि आता. हाँ इबारी दा दीपावाली में जरूर आना. तब तक गाय भी बिया जाएगी.” काफी देर रुंधे गले से बेटा, ब्वारी, पोता-पोती से बातें करती रही.

“बाबा अब घर जाओ, रात होने वाली है. बाघ रिक का भी डर है, फिर माँ से चला भी नहीं जाता. दीपावली में छुट्टी लेने की कोशिश करूंगा. नारायण भाई के हाथ पांच सौ रुपए और टॉर्च भेजे थे मिल गए?होंगे?” “अगले महीने और कोशिश करूंगा. इस साल नीतू का भी दाखिला करा दिया है. खर्चे भी बढ़ गए हैं, मजबूरी है क्या करें.”

“ठीक है बेटा, अपना औऱ बच्चों का ध्यान रखना.” कहकर फ़ोन वापस जेब में रख दिया.

शंकर सिंह ने सामने डूबते सूरज की ओर देखा जो कुछ ही देर में दीवा डांडा के पीछे छुपने ही वाला था. मन ही मन सोचने लगे, हमारी जिंदगी का सूरज भी कहीं बेटा, ब्वारी ,पोती-पोता को बिना देखे तो नहीं डूब जाएगा. 

शंकर सिंह दीनू की माँ को सहारा देते हुए धीरे-धीरे उतराई उतर रहे थे. हाँ दीनू की माँ के चेहरे पर बेटे, बहु, पोता-पोती की आवाज सुनने की खुशी साफ झलक रही थी.

पता नहीं पहाड़ में वीरान होते जा रहे गाँवों की रफ्तार कब थमेगी. रोजगार और मूलभूत सुविधाओं के लिए अपनों को अपनों से कब तक दूर रहना होगा.

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Sudhir Kumar

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