कला साहित्य

जैसा भी था आदमी का बच्चा तो था

केशरू एक गुट्मुटी और बेडौल कद काठी का भोला भाला इंसान था. मेरी कैलकुलेशन के हिसाब से वह लगभग पौने फिट का भी क्या रहा होगा. हो भी सकता है कि मेरे अनुमान में एकाद इंच की घट बढ़ रही होगी. लेकिन गरीब और मेहनतकश समाज में उसका जन्म हुआ था. कहते हैं कि अरब में सब घोड़े ही घोड़े नहीं पैदा होते कोई कोई गधा भी पैदा होता है, माफ़ करना. अरे उसमें तो गधों के भी कोई गुण न थे. गधा तो श्रम शक्ति का प्रतीक है. यह तो समाज की नादानी है. वह इस श्रमजीवी जीव का सही सामाजिक या वैज्ञानिक आकलन भी नहीं कर सका. ना ही इस उपेक्षित जीव का आर्थिक और व्यावसायिक योगदान का सम्मान. इसके हिसाब से केसरू को गधा भी नहीं बोल सकते. हां, उसके पिताजी गुस्से में उसको गधे का बच्चा बोलकर तिरस्कृत जरूर करते थे.
(Story by Jageshwar Joshi)

यह उसकी भलमानुषता या कह सकते हैं मजबूरी थी कि वह अपने इस अपमान का प्रतिकार भी नहीं कर सकता था. करता भी तो कैसे और भागता तो कहां भागता. एक तो निठल्ला दूसरा साहस भी तो न था. दिन का भात और रात की रोटी तो उसे मां-बाप की मेहनत से ही मिल पा रही थी. मां की ककड़ाट (बड़बड़) और पिता की डांट से बचने के वास्ते वह सवेरे-सवेरे गांव से लगे रोड़ी बाजार की तरफ निकल जाता. उसका पूरा दिन चाहे ठिठुरती सर्दी हो,गर्मियों की चटक धूप या तेज़ बरसात. बाजार में आवाराओं की तरह फिरा करता. पर वह आदतन लुंडलोफर कतई नहीं था बल्कि उद्देश्यहीन घुमंतू प्रकृति का मानव मात्र था. साथ ही सेवा कारी भी था. गांव गलियारों में कोई उससे बीड़ी, तो कोई चायपत्ती और कोई अंडा मगवाता था तो कोई प्याज टमाटर. उसने कभी मना नहीं किया. सच्चा और ईमानदार इंसान था. हिसाब में भी कभी हेरफेर करने की कोशिश नहीं करता. पर टूटे पैसे वापस न लौटाता. अक्सर लोग मांगते भी नहीं थे. चप्पल की घिसाई तो बनती ही थी. अगर मां-बाप कुछ मांगा दें या तो पाव पटकता या फिर कन्नी काट लेता.

सवेरे-सवेरे गंगा लाला की चाय की दुकान के सामने की टूटी बेंच पर पसर जाता. बीड़ी फूंकता और बैंच से सटे बिजली के खंभे पर पीठ लगाकर जलेबी पकौड़ी बनते देखा करता. खुशबू लेता, वाह, क्या खुशबू, क्या मिठास! खुशबू ही तो ले सकता था. जी करता कि सारी खा जाऊं. पर जेबें तो खाली होती. कभी-कभी लाला को उस पर तरस आ जाती. वह एक कागज की टुकड़ी में दो जलेबी, पकौड़ी रखकर उसकी तरफ देखे बिना सरका भर देता. वह भी उकडू हो भट्टी की लकड़ियां खचोरता(खरोंचता) सरकाता अर फूंक मार आंच बढ़ता. आग तापता और कभी कभार एक आध गिलास छाल देता. बहुत हुआ थोड़ा बहुत ग्राहकों की सेवा भी करता. कभी-कभार कोई उसे चाय तो कोई पकौड़ी खिला पिला देता. सामने जिले का सुविधा-संपन्न दफ्तर था. कभी कभार वहां भी चाय पानी पहुंचा आता. ऑफिस वाले भी पान बीड़ी सिगरेट जैसे छोटे-मोटे काम करवा देते और वह खुशी-खुशी कर भी देता. वह इतने से ही संतुष्ट था. लाला ने एक बार पूछा भी था, परमानेंट हो जाए. उसने सफा मना कर दिया. आजाद पंछी जो था.

पर विधाता की इच्छा कुछ और थी. उस जमाने में आज की तरह न कोई हाकिम थे न हाकम. दया धर्म का राज था. लोभ और लालच से दूर भलमनसाहत सरकारी दफ्तरों में भी सर्वत्र व्याप्त थी.

उस दौर के मेहनतकश लोग अपनी खेती बाड़ी में मगन रहते थे. काहे की शिक्षा और किसकी नौकरी! लोग नौकरी के पीछे नहीं भागते थे. हाँ कभी कभार तो नौकरी खुद ही बिना पता पूछे अर दरवाजों पर दस्तक दिए बिना गले पड़ जाती थी. जिला मुख्यालय में मुहावरा भी था कि कोई डूंडा सांड भी यदि किसी दफ्तर के अगल-बगल से दो-चार बार गुजर जाए तो ऑफिस वाले उसका संज्ञान जरूर लेते और उसका प्रबंध किसी न किसी खूटे पर हो जाता. योग्यता के हिसाब से किसी कुर्सी या किसी स्टूल पर एडजेस्ट कर दिया जाता. केसरू एकदम निकज्जा और कामचोर जरूर था. लेकिन सूरत ऐसी थी कि किसी को भी उस पर कल-कली (दया) आ जाए कहते नहीं, कि रोता क्यों है? अरे भैया सूरत ही ऐसी है!

पर विधाता ने यह क्या खेल कर दिया न घूंटा जा रहा है न थूका. साहब क्या… सारे विभाग को उस पर कल-कली सी आ गई. पढ़ा लिखा खास नहीं था. कुर्सी लायक तो नहीं था. लेकिन उसकी प्राण प्रतिष्ठा एक स्टूल पर हो गई उसका काम गोंद लगाकर लिफाफा बनाना और उस पर टिकट चिपकाना भर था. इसके अलावा रजिस्टर इस बाबू से उस सांब तक पहुंचा भर देना.

केशरू के दिन फिर गए, खबर सुन कुछ दिन उसके तड़तड़े भाग की गाँव गलियारों में खूब चर्चा हुई. कुछ के कलेजे फुके, धुआं भी उठा. कुछ तो गुमसुम अपनी छाती पर पत्थर रखकर रह गए. कुछ भले मानुष तो अपनी भावनाओं के का गला घोंट, उसके घर-द्वार पहुँच बधाई देते. बड़े बूढ़े ज्यों ही दरवाजे से बाहर निकलते , मुंडी हिला-हिला कर मन ही मन बड़बड़ाते, अपने आप को दिलासा देते. ‘भाई जिसे दे ईश उससे काहे की रीश(इर्ष्या)!’

खुश थे तो मां-बाप. बाप तो सोच-सोच कर बार-बार आश्चर्य से अपने दांतों तले उंगली ही नहीं बल्कि पूरा हाथ निगलने की कोशिश कर रहा था.

“पूरी जिंदगी तो भगवान तूने भरपूर मेहनत के बाद भी भूखा-प्यासा रखा. औलाद के नाम पर यह निठल्ला जन्मा. इस बुढ़ापे में जब न मुहं में दांत और पेट में आंत और इतना बड़ा शिकार…? जो न खाया जा रहा न निगला जा रहा.. तूने तो आसमान फाड़ सब कुछ दे दिया.”

माता भी शर्मा-शर्मी धोती का पल्ला अपने मुंह के अंदर ठूंस-ठूंस कर ईश्वर को धन्यवाद देती.

“इस अभागे के दिन ऐसे फिरेंगे इसकी ना तो मन्नत मानी थी और ना ही कोई खास अनुष्ठा किया. हे परमेश्वर तूने तो बिना मांगे ही सब कुछ दे दिया. हे प्रभु, हम तो चिंता से मर गए थे… तूने कैसी औलाद दे दी, जो न कद की थी न काठी की. और नहीं किसी काम की… उम्मीद छोड़ चुके थे. पर प्रभु तू बहुत दयालु निकला. तेरी लीला न्यारी है. हे पितरों इसके जैसे लक्षण है, सारी जिंदगी हमें ठीक ढंग से क्या ही रखेगा. कम से कम बेफिक्र होकर मर तो सकेंगे… है तो कोख का! जब हमें मरने तक ना कोई सुख मिलना है और ना ही इसकी उम्मीद. लालसा भी इसी पर तो रहनी है. अब हम संतुष्ट हैं प्रभो… अतृप्त रहते तो हमारी आत्मा जिंदगी भर इस नालायक पर नाचती रहती. तब इसका मन खडोले (खड्डे) में और धन घड़ियालों (पितृ-पुजाई) में बर्बाद होता.”
(Story by Jageshwar Joshi)

आखिरकार एक उड़ता पंछी ऑफिस रूपी पिंजरे में कैद हो गया. अब वह पंख तक भी नहीं फड़फड़ा सकता था. कुछ पाने के लिए बहुत खोना पड़ता है. मन कुछ दिन बेचैन रहा. बंधन उसे कतई पसंद नहीं था .कई बार तो बोरियत सी आती. अच्छी खासी जिंदगी की बहती गंगा का पानी थम सा गया.

खैर, कुछ भी हो उसकी जेब में दो पैसे क्या हुए. उसकी फ्रेंड फॉलोइंग भी बढ़ गई. बाजार के लुंड-गुंड उसके चारों ओर मक्खियों से भिनभिनानें लगे. साथ ही अपनी राय सलाह से मच्छरों की भांति डंसते रहते. एक दिन उसने अपना दुखड़ा उन्हें सुना ही दिया धीरू के अचाणचक टी-स्टाल पर.

“यार मेरा मन उस स्टूल पर कतई नहीं लगता .पीठ लगाने तक की जगह भी नहीं है. बाहर देखता हूं तो निराशा ही हाथ आती है. आज दो पैसे ही तो है मेरे हाथ में. मेरा सुख चैन आजादी तो खत्म हो गई”

“अरे जिसको फ्री में सब कुछ मिल जाता है. उसने क्या कीमत समझनी है. हमको देख हम तुझेसे कहीं काबिल है”

“सही बात तू दस फेल तो है. मैं तो पांच पास भी दिन-रात कुंदन मास्टर का पानी भर के, कर पाया “

“इससे क्या! किस्मत तो तेरी तड़तड़ी थी. कभी हम तुझे कुछ भी नहीं समझते थे. आज हम तेरे सामने कुछ भी नहीं है कुछ भी तो नहीं..रे !

“तुम भी क्या बोल रहे हो यार… कौन सी तोप बन गया . अरे स्टूल लायक ही तो हूं मैं !

“सरकारी नौकरी तो सरकारी होती है. देवता भी तरसते हैं इसके लिए” एक भले मित्र ने सम्मति दी.
(Story by Jageshwar Joshi)

“अरे मेरे पास है इसका सॉल्यूशन!” धीरू साहब को एक सिगरेट बना… जरा साहब जी ₹दस का नोट अधिक आगे सरकाओ

“मेरे पैसे ऐसे ही मत फूंको यार”

“ओ दो पैसे जेब में क्या आये! फिर गया दिमाग… हो गया मक्खीचूस!”

“धीरू आज के पैसे मेरे हिसाब में लिख दे.”

“बेट्टे तेरा खाता बंद. पीछले पैसे भी नहीं दिए तूने! मैं नहीं दूंगा.”

“अरे निर्भगी जिंदगी भर का केस दे रहा हूं तुझे.”

धीरू को बात में दम नजर आयी अब वह सहमत था.

“ले सिगरेट पी ले! गोंद सा चिपक जाएगा स्टूल पर. उठने का भी दिल न बोलेगा.”

“ हां उल्लू की तरह बैठा रहेगा. वैसे भी सरकारी नौकरी में करने को होता क्या है”

“हां मैं ही जानता हूं करने को क्या नहीं होता…”

“अरे यार चिपक कर बैठने का ही तो प्रबंध हो रहा है” धीरू ने एक भरी सिगरेट जलाकर उसकी तरफ बढ़ा दी.

ना ना करते हुए उसने जोर का सोड़ (कश) खींच ही दिया. बस फिर तो सोड़ पर सोड़. गजब का परिवर्तन उसने अपने भीतर पाया. आनंद की तरंग कलेजे में उठी और वह हवा से भी हल्का होने लगा और धन्य धन्य हो गया

फिर तो वह रोज एक सिगरेट पी के स्टूल में ऐसा चिपक कर बैठता जैसे राज सिंहासन में हो बैठा हो.

ऑफिस के उस कमरे में उसके अलावा एक और प्राणी कुर्सी-मेज पर काबिज था. नाम था टीका बाबू, बुझी सी शक्ल भाव हीन चेहरा. उसे देख ऐसा लगता कि जिंदगी में सब कुछ खट्टा ही खट्टा हो. पेट का मरीज. छेदती आंखें. बड़ी कांइयां शख्सियत का मालिक था टीका बाबू. पूरे जिले भर के मायूस और मासूम लोग बाबूजी के सामने बेबस और मजबूर खड़े रहते. किसी की फाइल ही खो जाती. किसी के बिलों में ऑब्जेक्शन पर ऑब्जेक्शन लगते किसी का काउंटर साइन छूट जाता तो किसी का मेडिकल के कागज ही पूरे ना हो पाते. इन सब समस्याओं का डाक्टर था टीका बाबू. केसरू उसका नर्सिंग अर्दली बनने की प्रक्रिया में था. जितनी अच्छी फीस उतना जल्दी इलाज.. ट्रेंड करने वाला उस्ताद अनुभवी हो तो कैसे-कैसे जानवर तक परफेक्ट हो जाते हैं केसरू जैसा भी था आदमी का बच्चा था.
(Story by Jageshwar Joshi)

केसरू अब बाबू साहब का सहयोगी ही नहीं बल्कि पाप का भागीदार भी था. जब पाप सुख और समृद्धि का कारण बन जाए तो पुण्य की लालसा क्यों? अगर सुख का अमृत पीना है. इस वक्त और इसी धरती में पी. मरने के बाद क्या सत क्या असत, क्या पाप क्या पुण्य, क्या स्वर्ग, क्या नर्क. केसरू भी इस कपट जाल में फंस सा गया. उसका ताजा और अनुभवहीन तनकांटे में फंसी मछली की भांति तड़पता. मन कांटे पर बिधे केंचुए पर आसक्त था. पर उसके भीतर छुपा पाप का नुकीला कांटा भयभीत करता रहता. कहने का आशय यह है तन मन दोनों ही साथ न थे. उसने अपनी हताशा और दुखड़ा बाबूजी के सामने बिखेर कर रख दी.

“तू ये बता, इस संसार में पाप और पुण्य की क्या परिभाषा है. अरे मैं तो एक अंजल भर पाप के पानी का आचमन कर रहा हूं. तुझ पर तो दो छींटे तक नहीं पढ़ रहे हैं. तुझे दिख नहीं रहा. बड़े-बड़े लोग पाप के विशाल समुद्र में निडर होकर तैर रहे हैं और गोते पर गोता लगा रहे हैं. कोई डूबा आज तक? यही नहीं उसमें शानों-शौकत की बड़ी-बड़ी कश्तियां डाल रखी है उन्होंने! उसका लुफ्त ले रहे हैं. पाप लगेगा तुझको और मुझको? उनको क्यों नहीं? तू क्यों भयभीत हुआ है? हमारा नंबर तो बहुत बाद का है. दुनिया, है भी कितनी बड़ी! किसके पास है इतना टाइम, जो तेरा और मेरा पाप देखेगा.

प्रभु के दरबार में भी कुछ खास लोगों की फाइल मेंटेन रहती है. उनकी फाइल इतनी मोटी और भारी हो गई कि उसे उठाने को भी चित्रगुप्त रिस्क नहीं ले सकता. कहीं नाल ना पड़ जाए. इतनी भारि फाइलों का निपटान हो ही नहीं पता. हमारी कुपोषित फाइल तो पता नहीं किस कोने पर पड़ी होगी? किसको है इतनी फुर्सत जो तूझ जैसे और मुझ जैसे की तरफ देख सके? यह नौकरी भी तो हमें देवताओं की कृपा से नहीं मिली है. तड़तड़े (चोखे) भाग से है मिली है. तूने मैंने कौन से फूल प्रसाद चढ़ाये थे. मेरा तो सिद्धांत यह है दिन भर खूब पाप करो और पाप का भी बाप करो. शाम को आधा घंटा अपने दीन धर्म के हिसाब से प्रभु को पूज लो…

“प्रभु बहुत दयालु है. प्रभु ने धरती भी क्षमता और न्याय के भाव से नहीं बनाई. नहीं तो ऐसे कैसे होता बड़े-बड़े पेड़ों पर छोटे-छोटे फल और कद्दू जैसे बड़े फल मुलायम और लचीली बेलों पर”

“बाबूजी…धन्य हैं आप.”

“बेटा तत्व ज्ञान यही है की सब उसी की कृपा से. बोला भी गया है मूंकम करोति वाचलम… पंछी करे न काज” बाबूजी फंस से गए. फंसते क्यों नहीं. उस जमाने में गुरु कृपा से ही तो हुए थे दस पास.

सब गडमड हो गया था लेकिन बाबू जी थे तो छंटे हुए घाघ जिओ पढ़ना, और उसे अपने तरीके से इस्तेमाल करने में माहिर. भला, उस लाटे (भोले) केशरु को नहीं घुमा सकते थे. “यह बात अच्छे खासे पल्ले नहीं पड़ती तेरे समझ में क्या आएगी. इसका अर्थ यह समझ कि जिस की कृपा से जिनका गूंगा रहना भला था. वे बाचाल होकर अच्छे खासे ज्ञानियों को चूना लगा रहे हैं. नकली डूंडे करतब दिखा रहे और तू जैसे अजगर नौकरी बाजा रहे. अब कुछ और ज्यादा ना बुलवा. बाबूजी का मुंह खट्टा हो गया डकार छोड़ते हुए बोले. “बस और पोल पोल पट्टी न खुलवा… राजकाज की बातें हैं.”

बाबूजी की बात बहुत कड़वी थी. गुस्सा तो बहुत आ रहा था केशरू को. किसी तरह गटक गया. पर उसने कह ही दिया. किताब में तो इसका मतलब कुछ और ही था लिखा.

जब किताब तुझे इतनी ही समझ में आती है तो बीए, एमए करके साहब क्यों नहीं बन गया. किताब मत देख दुनिया देख. ऐसा क्या है इन किताबों में जो हमारे जीवन में काम आ रहा है. कहां गए ओ बाबर और हुमायूं. हमारे किस काम आ रहे हैं. मेरी कलम की ताकत एक जिसके सामने न्यूटन का नियम भी फेल है अपने को ही देख तू. जिसने खड्डे में जाना था तड़तड़े भाग होने से आसमान उड़ रहा है. ले..सफा खारिज हो गया ना न्यूटन का नियम. जो भाग में है उसे खा और जो उससे भी ऊपर मिल रहा है उसे भी खा…

केशरू ने कहां से जानना था. कौन था न्यूटन? क्या था उसका नियम? पांच तक के कोर्स में कहां था न्यूटन. उसने वक्त की नजाकत देखकर उत्तर दिया बात तो सच्ची है.. बाबूजी….सच होता भी है कड़ा और बेहद कड़वा!

हूं, तू ज्यादा तत्व ज्ञानी, भला मत बन यार! मूड खराब कर देता है. चल छोड़. तेरा दिल और नहीं दुखाना है. ऐसी ही ज्ञान की गंगा बहाते रहेंगे तो दोनों हरिद्वार लायक हो जाएंगे. बस तुम मेरे इशारों को समझ और जिंदगी का मजा ले. पेट में गैस बन रही है बीड़ी जला और मनन कर.
(Story by Jageshwar Joshi)

बाबूजी की बात मनन करने लायक तो थी ही आज जेब में कुछ ज्यादा पैसे थे. मन भी अजीब सा था. वह झटपट पहुंच धीरू लाला की दुकान. खरीदा एक मसालेदार दारू का पव्वा और एक कटोरी कलेजी. हर घूंट, चिंतन के साथ-साथ भरी सिगरेट के कश. धीरे-धीरे दो भरी सिगरेट और एक पव्वा मसालेदार का रंग गहरा होने लगा. फिर तो लथपथ होकर वह मेज में पसर गया उसकी चेतना वहीं लुप्त हो गई और आंख में दीमक लगे फूटे मेज का छेद सेट हो गया नीचे यह क्या दिख रहा है, “हे मेरी मां! कितना भयानक दृश्य … एक औरत…जो पीछे से उसकी पार्वती सी दिखाई दे रही थी. बल्कि उससे ज्यादा डरावनी. चेहरे भाव भी.. अजीब सी….हवा में तैरती काया वैसी ही करैण्या (नीली-भूरी )आंखें. बाबूजी पर झपट रही थी. इतने में उसकी मदद के लिए यमराज के दूत भी पुलिस की बर्दी पहने नज़र आते हैं और वह डायन उनको इशारा करती है. दूत बाबूजी को मैं बरामद रुपए के साथ मुस्क बांधकर ले जा रहे थे. बाज बाबूजी चिल्ला रहे थे “केशरू! केशरू! मुझे बचा!” केशरू घबराकर मेज के भीतर घुसने की कोशिश कर रहा था. तो कोई उसे बाहर खींच रहा था. लेकिन यह क्या? यह तो धीरू है! यमराज की पुलिस में कब भर्ती हुआ? और पीछे पार्वती साक्षात रणचंडी बनकर उसके सामने “चल घर…घर मर!” लेकिन दूत थे कि बाबूजी को बांधकर ले जा रहे थे. केशरू जोर से चिल्लाया टीका बाबू! बाबू साहब!

सुबह जब केशरू की नींद खुली तो सर भारी था बदन बुरी तरह से टूट रहा था और जोड़-जोड़ दुख रहे थे. तभी उसके कानों में पार्वती की आवाज आई.

“अरे निर्भगी (नशपिटे) अब उठ भी जा! ऑफिस नहीं जाना है… हे भगवान, मेरी तो किस्मत फूटी थी किस मनुष्य के पल्ले पड़ी. ना रंग, न रुप, न कद, न काठी का. ऐसा क्या था तुझ में, सरकारी नौकरी के सिवा. हे बबाजी तुम कैसे दुश्मन रहे मेरे. एक सरकारी नौकरी के खातिर कुबरगी भौंदू के साथ मेरे जीवन का सौदा कर दिया.” पार्वती आधुनिक नारी थी. वह उस बेचारे केशरु को कुछ भी तो नहीं समझती थी और न कभी उसने उसे सम्मानित शब्दों से संबोधित किया.

“वह तो भला हुआ मेरे अड़ोसी- पड़ोसियों का अगर यह नहीं होते तो कब की मर गई होती.”

केसरू का बाप तो पहले ही स्वर्ग सिधार गया था. बेबस मां बहू की कड़वी बात और बेटे की बेबसी पर कोने में बैठ कर अपनी फूटी आंखों से आंसू बहा रही थी. हे राम ऐसा लगता, आंशु कम मवाद ज्यादा बह रहा हो. मां तो मां होती है उससे रहा नहीं गया उसने बोल ही दिया. ऐसा मत बोल बहू उसके प्रताप से ही राज रच रहे हो तुम सब. एक ही एक ही तो ऐब है इस अभागे पर.. न कोई बाच(आवाज) न गुस्सा अरे जिंदा रहेगा तो.

“ऐसों को तो यमराज भी नहीं ले जाता. तड़तड़ी किस्मत का है. सावित्री जैसी भाग्यान जो पल्ले पड़ी है जो हर बार इसे यमराज के मुंह से बचा ले आती है”

“कभी मन में बुरा सा भी ख्याल उठता उसके. सरकारी आदमी है मर भी जायेगा पीछे वालों की मौज ही मौज. हे भगवान ऐसा कुविचार! उसने फौरन थू थू कर थूक दिया हे. बबा जी ऐसा सोचना तो एक सुहागवंती को शोभा नहीं देता, ना हीं शास्त्र सम्मत है. वह बेचारी करे भी तो क्या करें पाप की प्रेरणा भी वही देता है और पुण्य की भी. पाप न हो तो पुण्य करने का अवसर कैसे प्राप्त हों.

आज केसरू हताश और निराश था वह जानता था इसमें किसी का दोष नहीं है. स्वयं उसका और उस भगवान का जिसने मुझे बिना नापतोल का बनाया.. उसको गुस्सा कैसे किया जा सकता है वह तो सर्वशक्तिमान है. उनसे पंगा भी तो नहीं ले सकता.

आज कुछ देर हो गई रास्ते में दीरू की बदनाम दुकान भी थी इच्छा तो ऐसी थी कि उधर देखू भी ना लेकिन मन नहीं माना धीरू की आंखें शरारत से भरी और होंठ कुटिल मुस्कान से तने हुए थे. इससे पहले वह कोई ताना मारता. उसन्र नजर मिलाये बिना सिगरेट खरीदी और जल्दी बाजी में लंबे-लंबे कश खींचे सीधे पहुंचा ऑफिस. ऑफिस में बाबूजी उससे पहले पहुंच चुके थे. उन्हें देख, अन्दर एक सिहरन सी हुई बाबू साहब अखबार पर पढ़ रहे थे उनके चेहरे पर गंभीरता और गुस्से का भाव था –

“बाबूजी नमस्कार”

अखबार से आंखें हटाए बिना तल्ख लहजे में बोले, “आ गया रे!

“जी”

“तू मर क्यों नहीं गया.”

“ऐसा क्या हुआ बाबू साहब”

“तो कल धीरू की बदनाम दुकान की नाली के भीतर सर घुसा-घुसा कर मेरा नाम लेकर क्यों चिल्ला रहा था? वह भी जोर-जोर से!”

“नहीं बाबूजी कोई सपना आया होगा आपको.”

“उल्लू का घस्सा! सपना और मैं? जब तुझे होश हो ना. अरे कैसे बर्बाद हुआ तू. तू सुल्फे से बेहोश था और दारू से थी तेरी आवाज बुलंद.. वो तो भला हुआ तेरी बहू का मेरा और धीरू का नहीं तो पुलिस ले जा रही थी तुझे! फिर किसी तरह तेरे पड़ोसी तुझे घर ले गए.”
(Story by Jageshwar Joshi)

केशरू गुमसुम था.

बाबूजी फिर बोले “अरे तुझे कौन जानता है मुझे पूरे जिले में कौन नहीं जानता? टीका बाबू का नाम सुन लोगों के पसीने छूटते हैं ..पसीने! और तेरी वजह से मेरी बेइज्जती! “

“बाबूजी माफ करना कल कॉकटेल हो गया था माफी चाहता हूं आगे से ऐसी गलती नहीं होगी.”

“तुझ जैसे कमजोर दिल का मालिक किसी दिन मुझे फंसा ना दे. हमेशा से ही बहादुर लोग कमजोरों की वजह से ही मारे जाते हैं. किसी भी आफत का कारण कमजोर व्यक्ति होता है. अपने-आप तो रफू चक्कर हो जाते हैं और बहादुर आदिम मारा जाता है मैं तेरी नौकरी भी ले सकता हूं. तेरा परिवार तेरे वास्ते रोएगी तुझे ऐसे इंटीरियर में भेजना पड़ेगा कि जहां से तो कभी लौट कर सके! वहीं रह किसी पत्थर के नीचे या किसी उड्यार(गुफा) के अन्दर चित्त पड़ा हुआ. तू जिला ऑफिस लायक नहीं है.”

“साब.. ऐसा मत करना मैं बहुत टेंशन में हूं

“तू ही बता एक तो चंचल बुद्धि है तेरी! दूसरा तू पाप-पुण्य के फेर में पडा है.और ऊपर से हर तरह के नशे कर रहा है.”

“मैं पूरी कॉन्फिडेंस से कह रहा हूं और डंके की चोट पर बोलता हूं हां मैं पापी हूं चल मेरी क्या चल मेरी क्या तेरी भी गति परमजीत होटल में टंके हल्दी से लिपटे मुर्गे तंदूरी मुर्गे की तरह हो. अरे जब मैं मर ही गया.. आत्मा ही नहीं रहेगी तो क्या दंड और काहे दुख दर्द “
(Story by Jageshwar Joshi)

“बाबू जी ऐसा मत बोलिए आप मर भी गए तो फूलों में रहेंगे आप!”

मरने के बाद चाहे फूलों में रहूं या कांटो में इससे क्या…..

बात पूरी भी नहीं हुई थी तभी एक शिकार का प्रवेश होता है बाबूजी अपना गुस्सा छोड़ कर गंभीर हो के कागजों से खेलने लगते हैं.

“बाबूजी सब कागज़ फिट-फोर करके आया हूं..”

“तुम ही थोड़ी हो.. देख नहीं रहे हो.. यहां भी काम का कम सिरदर्द नहीं…. चट्टे लगे हुए कल आओ”

“साहब जी यहां रुकने का मतलब होटल का किराया खाने पीने का खर्चा कुछ तो कर कुछ तो कृपा करो”

“अरे एक दिन रुक जाओ. थोड़ी तफरीह कर लो.. सुंदर डंडी-काठियों को निहार लो, किस के भाग्य में ऐसे सुंदर नजारे”

“जानते हो रोड़ी बाजार चलता ही बाबू लोगों के पीछे है नहीं तो यहां के लोग भूखे मर जाएंगे भूखे केशरू टपक से बोला”

“ऐसे कैसे बोला तूने… किसने बोला तुझसे?” बाबू जी फट पड़े.

“इस रोड़ी में रहो तो कैसे रहो खटमल सोने नहीं देते और पिस्सू उठने नहीं देते” आगंतुक ने बेबसी जाहिर की.

“अरे बासी भात भी खाओगे और बोरे में भी सोओगे तब भी दो ढाई सौ रुपए कहीं नहीं जाते” केशरू ने मौके पर चौका मारा

अब तो बाबूजी संतुष्ट थे अपने शिष्य की उन्नति देखकर

चुपचाप ₹सौ नोट बाबूजी की तरफ बढ़ाकर कहता है

“मेरी सहयोग राशि”

“बहुत समझदार आदमी₹ लगते हो सौ तो आजकल भिखारी भी नहीं लेता” केशरू ने बाबूजी के प्रोटोकॉल के हिसाब से बोला

आदमी समझदार था सौदा पट गया

“केशरू फाइल लेकर बड़े साहब से चिड़िया छापवा के ले आ”  

“अर साब मेरी खुट्टा (पैर) घिसाई…”

“साब जरा इनकी बात भी गौर करने लायक है.”

आगंतुक ने कड़वा मुंह करके केशरू के हाथ बीस का नोट रखा.

अब तो केशरू का आत्मविश्वास देखकर बाबूजी गद-गद थे उन्हें विश्वास हो गया की दुनिया में मूर्ख कोई नहीं होता. आत्मविश्वास जगाना पड़ता है. बस, एक सच्चा गुरु चाहिए. जो राह दिखा सके… ट्रेनिंग से जानवर तक सध जाता केशरू जैसा भी था आदमी का बच्चा तो था ही…
(Story by Jageshwar Joshi)

दुगड्डा, पौड़ी गढ़वाल में रहने वाले जागेश्वर जोशी मूलतः बाडेछीना अल्मोड़ा के हैं. वर्त्तमान में माध्यमिक शिक्षा में अध्यापन कार्य कर रहे हैं. शौकिया व्यंगचित्रकार हैं जनसत्ता, विश्वामानव,अमर उजाला व अन्य समसामयिक में उनके व्यंग्य चित्र प्रकाशित होते रहते हैं. उनकी कथा और नाटक आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुके  हैं.

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घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

3 days ago