प्रो. मृगेश पाण्डे

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : ये वादियाँ ये सदायें बुला रही हैं तुम्हें

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जमीं चल रही, आसमां चल रहा

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उल्का देवी मंदिर परिसर के ठीक नीचे वन विभाग के रेस्ट हाउस और प्रशासन के आवासीय छोटे क्वार्टरों से नीचे उतरते आता है पिथौरागढ़ का जाना-माना कन्या विद्यालय. वहाँ जा गंगोत्रीदी से मिलना है. ये खबर रोहिणी ने सोबन से भेजी और कहा कि तुरंत चले आओ भाईसाब. दीप भाई को हम नारायण प्रेस होते ले चलेंगे. गंगोत्री दी वहां आईं हैं. कल धारचूला लौट जाएंगी. और हाँ, कैमरा जरूर ले चलना है. उनके कैमरे में कुछ खराबी आ गई तो इंजीनियर बने इस सोमू ने और खचबच कर दी.
(Rang Valley Article Mrigesh Pande)

तुम लोग चढ़ जाओ जीजीआईसी, मैं सिनेमा लाइन वीनस बुक डिपो से रौल ले के आता हूं, मेरे कैमरे में भी रौल करीब खतम है. मैंने सोबन से कहा. फिर सिनेमा लाइन चल दिया. वीनस स्टेशनर्स में सभी फोटो जरूरतों को पूरा करने वाला चेला भुवन जोशी मौजूद था. वह सौ फिट वाले ब्लैक एंड वाइट इलफोर्ड रौल का डिब्बा भी दिल्ली से मंगा देता. उसे अच्छी तकनीकी जानकारी थी. जितने भी एएसए का रौल चाहिए होता मिल जाता. हिसाब-किताब नोट होता जाता. जब जेब गरम रहती बैलेंस बराबर हो जाता. भुवन में नई चीजों को जानने उनको मंगाने की खूब ललक रहती. कलर ट्रांसपेरेंसी हों या प्रिंट, सब दिल्ली से करवा वह हाथ में रख देता. बड़ा मोहिला, विनम्र भुवन. उसके पिताजी जिन्हें हम पंडित जी माट्साब कहते माध्यमिक शिक्षा से सेवा निवृत हो चुके थे, लोक पर उनकी जानकारी बड़ी सार गर्भित होती तो कुमाऊंनी कर्मकांड के ज्ञाता तो वह थे ही. वैसे बड़े गुरू गंभीर पर बात-बात में ऐसी बात चलाते कि मैं तो सोचता रह जाता. एक बार शाम उनके बुक स्टोर से कुछ खरीदते,उनकी बातें सुनते, समान का पैकेट लपेट मेरे हाथ में थमाते, नोट गिन बाकी मुझे लौटाते बोले, “तो प्रोफेसर साब, बताओ अब :

सौ के दिए साठ
आधे दिए काट.
दस देंगे, दस दिलाएंगे
दस का क्या लेना देना ?
तो sss?

मैं सोचता रह गया. अभी जीजीआईसी जाना था इसलिए स्टेशन से पुलिस चौकी वाला रास्ता पकड़ वहाँ चढ़ा . धूप में कुर्सियां डाल सब बैठे थे. गंगोत्री दी को मैंने प्रणाम किया. उनसे पहले भेंट हो चुकी थी.

“अब धारचूला आ रहे हो. नारायण आश्रम जरूर ले आना इन्हें. अभी तो इन्हें मैं ‘रं’ समाज की अपनी लोकोक्ति के अर्थ समझा रही थी.”

उनकी मुद्रा शालीन और भव्य दिखी. चेहरे के आधे हिस्से पर धूप छन रही थी, बालों से कुछ चांदी से तार झिलमिला रहे थे. बस मैंने क्लिक कर दी.

हाँ, बताइये, जो आप समझा रही थीं.”

बैठो तो पहले, तो सुनो :

चमैं रिनस्या ढ़ङमच्यँ दंयेर सै
मढ़ँङमच्यँ खोखु शियss ना.

कुछ पलों की ख़ामोशी रही. फिर उनकी वही शांत आवाज उभरी, “मतलब ये हुआ कि हमारे समाज में यदि परिवार की बहनें और बेटियाँ प्रसन्न हैं तो देवियों के बराबर पूजनीय हैं पर वो नाराज हो गईं तो चुड़ैल और राक्षसी जैसी हैं”. इससे समझो कि औरत का दर्जा यहां बड़ा सम्मानित रहा है. कितनी ही औरतें हुईं, बड़ी सयानी जिनने वो काम कर दिखाए जो हर किसी के बस के नहीं थे. सुना भी होगा कि दारमां घाटी में गांव पड़ता है दांतू, तो बरस सत्रासौ की बात हुई,जब वहां हुई जसुली बुड़ी शौक्याणी. उसने कुमाऊँ गढ़वाल तो हुआ ही नेपाल और तिब्बत तक तीन सौ पचास धर्मशालाऐं बना दीं. ये हुई पुरानी बात,आजादी से पहले भी ‘रं’ समाज की कई औरतों ने अच्छी लिखाई पढ़ाई कर तीसरे-चौथे दशक में ही शिक्षण का कार्य किया और सामाजिक कार्यों में खूब बढ़-चढ़ कर भाग लिया. श्रीमती पार्वती ह्याँकी थी. रुक्मिणी ह्याँकी, पदमा गर्बयाल, मत्स्योदरी गर्बयाल जैसी बहुत और थीं. छटे दशक के बाद तो महिलाएं हायर एजुकेशन ले बढ़-चढ़ कर बहुत कुछ कर गईं. चंद्रप्रभा एतवाल को पद्म श्री के साथ पर्वतारोहण में अर्जुन पुरस्कार मिला. पर्वतारोहण में राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार सुमन दुगताल को मिला. अब कितनी लड़कियां देखते-देखते डॉक्टर बन गईं, टीचर प्रवक्ता हो गईं अपना व्यवसाय चला रहीं, नाम कमा गयीं.

“आपको शिक्षा में राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है न”, सोबन बोला.

“हाँ, खूब लिख-पढ़ने की आदत रही. मेरे परिवार मेरे माहौल से भी कोई रोकटोक नहीं हुई. वही आदत मैंने सबको बाँट दी.

हमारे यहां बेटी पैदा हो तो सब खुश रहते हैं. पर आज देखो, कैसी-कैसी खबरें आ रहीं औरतों पर हुए अत्याचार की. कहीं भ्रूण हत्या तो कहीं लड़का न होने पर औरत का तिरस्कार. अब हमारी लड़की बचपन से ही माँ बाप की लाडली बनी रहेगी तो बुढ़ापे में उनकी खूब सेवा भी करेगी. परिवार की आय बढ़ाने में उसकी हिस्सेदारी भी खूब है. लड़का न हो तो भी पैतृक जायदाद पर उसका हक़ है. कोई ढक-छोप वाली परदा प्रथा नहीं लदती उस पर. कोई पर्व त्यौहार हो सब में भागीदारी होती है. हमारे घरों में बहुत साफ सफाई और सावधानी से पूजा होती है ‘न्युँग्ठं देवी’ की जो अन्नपूर्णा मानी जाती है उसमें भाग भी सब बराबरी से लेते हैं”.
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“अपने यहां की शादी के बारे में बताइये न प्लीज” रोहिणी ने अनुरोध किया.

कुछ पल ठहर गंगोत्री दी मुस्काते हुए बोलीं, “‘रं’ समाज में कन्या तो बहुत कुछ है. लगन की बात हो तो लड़के वाले हाथ मांगने आते हैं. कन्या की पूरी बिरादरी जब घर में आपसी बातचीत कर लें तब लड़के वाले सहमति लेते हैं. दहेज लेनदेन की कोई रीत नहीं. बस,विदाई के समय नाते-रिश्तेदार कपड़ा, रोजमर्रा के भान-कुन उपहार में देते हैं. बारात के वधू के घर आने पर गांव की कन्याएं बरातियों का स्वागत कर उन्हें पिठ्या लगाती हैं. ब्याह हो जाता है तो वर जाता है वधू के गांव और पूजता है उस परिवार के ईष्ट देव को. माता के आभूषण पर बेटियों का हक जरूर होता है. यदि लड़की-लड़के के आपसी प्रेम का मामला हो तो वह तभी स्वीकार होता है जब तक लड़की वालों के यहां प्रचलित सामाजिक रिवाज व रीतियाँ निभा न लिए जाएं. विधवा विवाह हो जाते हैं उनमें कोई टोक कोई रोक नहीं. कोई त्यौहार हो या धार्मिक आयोजन, तब बेटियाँ ही पौणोँ को पिठ्या लगाती हैं. हमारे यहां किसी की मृत्यु होने पर अंतिम यात्रा में कुनबे की बहन-बेटियां मृतक की आत्मा के पथ प्रदर्शन के लिए सफेद कपड़े के प्रतीक “अम ल्है” ले कर चलतीं हैं व दाह हेतु मुखाग्नि भी औरतें ले कर आती हैं.

रोहिणी एकटक हो उनकी बातें सुन रही थी. अब गंगोत्री दी बोलीं, “अब तुम आओ नारायण आश्रम. पहाड़ की ढाल पर एक पठारी सुरम्य स्थल पर बना है ये सिद्ध पीठ.इसका भवन देखते ही रह जाओगी”.

“हाँ, ये सोम को तो जिद हो गई है, वहां पहुँचने की. मुझे तो डर लगती है कहीं वहाँ पहुँच ये बाबा न बन जाये ये दीप भाई की तरह “.

“नहीं, बिटिया. ऐसा कुछ नहीं. बस ये समझ लो कि वहां परमात्मा की असीम शक्ति है जो भक्तों को अपने वत्सल भाव से आशीष देती है. नारायण स्वामी जी ने साधना, भक्ति, क्रिया, नियति और प्रकृति के साथ आराधना से इस शक्ति की प्राप्ति की राह बताई. यही शक्ति जीवन में,जगत में हर रूप में विद्यमान रहती है. यह तो है भीतर की बात अब वहाँ का बाहरी स्वरूप देखोगी तो मन खुद ही रम जायेगा. वहाँ पूरब में नेपाल की पहाड़ियां हैं, दूर-दूर तक फैले गांव व घने जंगल दिखते हैं तो दक्षिण में खेला और पांगू का इलाका. पांगू तक तो चढ़ाई पड़ेगी साढ़े चार किलोमीटर की दूरी पर है नारायण आश्रम जिसे नारायण स्वामी जी ने बनाया था. व्यवस्था पंडित ईश्वरी दत्त जी और नर सिंह स्वामी ने संभाली थी. आश्रम के नीचे ही पस्ती, जयकोट और पांगला गांव देखोगे जो काली नदी के बिल्कुल पास है. पढ़ाई लिखाई के साथ सुधार के हर पक्ष में आश्रम के कार्यों का यहां बड़ा बेहतर प्रभाव पड़ा. अब तुम सब लोग आओ. मैं तो अब धारचूला लौट रही हूं. दो एक दिन वहाँ रुक कर फिर आश्रम चली जाऊंगी. बस इसी बीच तुम सब आओ”.
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तो पांगू होते नारायण आश्रम तक जाने की बात पक्की हो गई.

रोहिणी गंगोत्री दी से खूब प्रभावित हुई. अब उसने जिद पकड़ ली कि बस धारचूला तो जाना ही है देखने नारायण आश्रम. दीप उसे समझाता भी रहा कि वहाँ जाने और कायदे से सब देखने में तो दस दिन लगेंगे ही. धारचूला तक तो चलो सड़क है पर ये तुम्हारा दिल्ली से भटिंडा रूट थोड़े ही है कि टिकट लिया और हरियाणा रोडवेज की बस फुर्र चल पड़ी. और धारचूला से आगे तवाघाट और फिर आगे पांगू तक तो चढ़ाई है. पांगू से भी चार-पांच किलोमीटर आगे चढ़ तब आएगा नारायण आश्रम. वहाँ दो तीन दिन रहें तब कुछ आनंद आएगा.

“ये आनंद इसे तुम कैसे एक्सप्लेन करते हो, चलो बताओ” रोहिणी ने पूछा.

“ये तो आत्म साक्षात्कार है.. सेल्फ रियलाइजेशन “और यह कह उसने अपनी आंखे मूँद लीं. दीप भी पूरा कलाकार हुआ.

तुम्हारी संगत में कहीं मेरा सोम जोगी न हो जाये. रोहिणी अब सोम को देखने लगी जो हल्की सी मुस्कान में था.

जिला पुस्तकालय जाना नियमित होता. दीप को नारायण प्रेस से ले उधर जाते. सोबन मेरे घर ही आ जाता सो सब साथ निकल पड़ते. सोम वहां पहाड़ से जुड़ी किताबों जूझता दिखता तो रोहिणी जंगपागी जी लाइब्रेरियन साब से हंसी ठट्ठा करती मस्त मिलती.

उस दिन भी थोड़ी बारिश के बावजूद पुनेठा पुस्तक भंडार से अखबार ले हम लाइब्रेरी पहुँच गए. रोहिणी जंगपागी जी के साथ बातचीत में मस्त थी. लाइब्रेरी हमेशा की तरह कॉलेज के चिर परिचित छात्र छात्राओं से भरी थी. छात्राएं भी काफी अधिक संख्या में आतीं. जंगपागी जी लिखत पढ़त कर नई से नई किताबें मंगा उनके बारे में सबको बताते. उनको अपनी लाइब्रेरी के हर मेंबर की रूचि मालूम थी और जो किताब उसे चाहिए उसके बारे में बता, वह पढ़ने की उत्सुकता और बढ़ा देते.

मुझे नैनीताल की दुर्गा साह लाइब्रेरी याद आई जहाँ साह जी किताब वापस करते अक्सर पूछते भी कि क्या समझे इस किताब से. अक्सर वह कुछ किताबें जो उनकी बड़ी टेबल में पड़ी होती मुझे इश्यू कर देते. इसे पढ़. फिक्शन नहीं है ये कल्चर पर है अभी यमुना दत्त वैष्णव वापस कर गए हैं. जानता है उन्हें?

हाँ. मेरे घर के रास्ते प्रशांत होटल से ऊपर ही तो रहते हैं.

उनका धारावाहिक उपन्यास चल रहा था साप्ताहिक हिंदुस्तान में वो पढ़ा.

“अब देख, ऐसे जिम्मेदार सरकारी अफसर खूब पढ़ते भी हैं लिखते भी खूब हैं. इनसे कभी बात चीत की”

“ना. घर तो गया. उनके बेटे से बातचीत होती है”.

“मिलना चाहिए. ये पढ़े -गुने लोग बड़ी राह दिखाते हैं”

“जी sss”

लाइब्रेरी के मुखियाओं में अपने डीएसबी वाले ख्याली राम बिष्ट ताऊ जी, फिर सौ ज्यू और अब विनम्र सौम्य जंगपागी जी. ऐसे लोगों से मिलना ही किस्मत है.

“सुनो सब. जंगपागी जी बता रहे हैं कि आज ही फकलियाल जी आने वाले हैं. सो उनसे हम सब भी मिलेंगे” रोहिणी बोली.

मुझे फकलियाल जी के बारे में कुछ ज्यादा मालूम न था.

जंगपागी जी से पूछा तो बताया कि सरकारी सेवा में शिक्षक हैं हयात दा. अपने विद्यार्थियों में खूब लोकप्रिय कि अब सभी उन्हें “पंज्यू” यानी गुरू जी बुलाते हैं.दो तीन दिन के लिए आए हैं फिर चौदास की ओर चले जायेंगे. आज आऊंगा यहां, मुझसे कह रहे थे.
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“अब तो बड़ी तेज बारिश होने लगी. कैसी तड़तड़ाट हो रही. टिन की छत से तो धारे बह रहे”.

“ये क्या बोला तू सोबन.. तड़ तड़”

ये पहाड़ी बोल हुए दिदी. जो हो रहा वोई बोल”

“हाँ यार”.

धुप्प सी हुई और अब लाइट भी गई. पर वाह रे जंगपांगी जी का आभा मण्डल. शांति वैसी ही बनी रही. कुछ कुर्सियों में बैठे दिखे,कुछ लम्बी बेंचो में. कुछ की आदत खड़े ही रहने की होती है. कई बाहर निकल खूब गरजते मेघ और सोबन के कहे तड़तड़ाट में रम गए. भीतर तब तक बीच में और तीन-चार कोनों में मोमबत्ती जल चुकी थी. दीप के साथ मैं भी बाहर एक कोने में खड़ा हो गया. दीप ने पनामा सुलगा ली और मैंने जेब में ठूंसा विल्स का पाउच निकाला और कागज में उसकी सुनहरी भूरी पीली पत्ती रौल करने लगा.

“ये है तो बढ़िया पर मेरे से तो बनती नहीं. तू तो बढ़िया बनाने लगा है”.

छल्ले उड़ने लगे.

सोबन आया. “लो, आप यहां हो. कितने चक्कर लगा दिए मीने. आओ सर. पंज्यू सर आ गए हैं.”

हयात सिंह फकालियाल जी, ‘पंज्यू ‘ नाम से प्रसिद्ध. वह साधारण सा व्यक्ति जो नमस्कार कहते ही बड़ी गर्म जोशी से गले लगा लिपट सा गया. उनके हाथ की पकड़ बड़ी मजबूत थी और जिस तरह अंगवाल डाल वह पल तक लिपट गए समझो बहुत कुछ जोड़ गए .

लाइट भी आ गई थी और अब फकलियाल जी सबसे मिल रहे थे. बड़ा अफ़सोस हुआ कि कैमरा नहीं लाया. मेरे गुरू सही कहते थे कि हर बखत ये लटका रहे. नैनीताल बी दास एंड संस वाले सौज्यू के गले भी हर बखत कैमरा रहता.कमल जोशी के भी.

इस बीच जंगपागी जी ने अपने रूम में सफेद तौलिया पड़ी कुर्सी में उन्हें बैठा दिया . नीचे धामी गुरू की कैंटीन से कितली में आई चाय गिलास में उतरने लगी . उनके ठीक बगल में रोहिणी बैठ गई थी. कमरा पूरा भर गया और उनकी आवाज उभरनी शुरू हुई.

“शिक्षक हुआ तो सोचता हूं कि अपने विद्यार्थी अपनी जवान पीढ़ी शरीर से, मन से, बुद्धि से कैसे आगे बढ़े, बिना मजबूत चरित्र के यह संभव नहीं है बिटिया. इसके भीतर अनेकता में एकता और अपनी थात का आधार ले कर ही हम उन साधनों,दिशाओँ व उपायों की जाँच परख कर सकते हैं जिसकी पहचान से नौजवान , हमारे किशोर और बच्चे जान सकें कि उनकी संस्कृति क्या है. उनकी सभ्यता कैसे विकसित हुई और इसे बचाये रखने, बनाए रखने के लिए अब क्या करना होगा. आज तो पहचान का संकट है”.

“चौंदास छलमा-छिलासौं में गांव हुआ लुड़बा जहाँ जनम हुआ. पिताजी का नाम श्री मान सिंह फकलियाल और माताजी हुईं श्रीमती डमस्या देवी. चौंदास में पांगू गांव पड़ा वहां के स्वाधीनता संग्राम सेनानी हुए श्री परमल सिंह ह्याँकी जी, उनकी बैनी हुई मेरी माई. अक्षर ज्ञान कराया पिता ने, पढ़ाते भी रहे. फिर छल्मा-छिलासौँ के गांव वाले प्राइमरी स्कूल में पढ़ने लगा. पांगू के स्कूल से दर्जा आठ पास किया तो हाईस्कूल नारायण नगर डीडीहाट से. इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए राजकीय इंटर कॉलेज अल्मोड़ा गया. आगे स्नातकोत्तर पढ़ाई आगरा यूनिवर्सिटी से, प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में की तो बनारस से एलटी”.

“पौड़ी से अध्यापक जीवन आरम्भ हुआ. फिर चौदास के अपने पांगू हाईस्कूल आया. खूब पढ़ा और उसे बताते रहा अपने बच्चों को यार-दोस्तों को. लिख भी डाला, हर जरुरी बात नोट करने के अपने बचपन से चले शौक को बनाए रखा. अपने घर में ही पुस्तकालय खोल दिया. किताबों की संख्या बढ़ती गई. धार्मिक और आध्यात्मिक साहित्य से तो बड़ी प्रीत थी ही,हिंदी उपन्यास भी खूब पढ़े. सब पत्र-पत्रिका लेता था जब यहां आता मनीराम पुनेठा जी के यहां से, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, दिनमान, कादम्बिनी, नवनीत. खरकवाल जी जुपिटर वाले भी नई किताबें खूब मंगाते, चुन चुन कर इकट्ठा करता. पांगू के लिए महिने दो महिने का कोटा हो जाता. पिथौरागढ़ में अपने बी डी कसनियाल ने ‘पर्वत पीयूष’ शुरू किया तो उसमें कई लेख दिए. उसमें छपा लेख ‘गबला ही गणेश’ तो बड़ा पसंद आया सब को. इधर ही “रं जनजाति’ किताब छपी. इसके साथ ही जो हमारी थाती है, लोक के गीत हैं, लोक कथाऐं हैं और सबसे बढ़ कर ‘रं’ अनुष्ठान हैं उनको बनाए बचाये रखना मुझे सबसे जरुरी लगा. हमारे यहां संस्कार होता है “ग्वन”, उसे किया जाना क्यो जरुरी है समझ में आया. अब कोशिश है कि तुम नौजवान इस मिट्टी के जने भी जानें कि उसमें कितनी सूझ बूझ से पूरे जीवन के दर्शन को बांधा हुआ है. सो उसे लिख रहा हूं. इन पहाड़ों के बीच गूंजते हमारे स्वर हैं, कभी ये खो न जाएं तभी अपनी थात में “सै ह्याम” का तो कैसेट बना लिया. बस अब इसे सुनना -सुनाना है, रीत के अनुसार”.

“सन एक्कासी में चार जनवरी को धारचूला में “रं सांस्कृतिक परिषद” बना ली जिससे ये तो पता चले कि हमारी रं संस्कृति की खूबियां क्या रहीं. रं जाति व इसके इतिहास की गाथाऐं सबकी स्मृति में रहें. अब आज देखो! शहरों में तो कइयों को यह भी पता नहीं होता कि उनके बुबू उनके परदादा का नाम क्या था. उनकी राठ क्या है गांव कौन सा है?

तो बिटिया, आप सब ऊँची शिक्षा से, रिसर्च से जुडे हो. ये जो आज के किशोर हैं ना, युवा होने की सीढ़ी पर कदम रखने वाले इनको ले इनके मां बबा बड़े तनाव में रहते हैं कि लिखाई-पढ़ाई, खेल-कूद से परे न जाने क्या करते है? कुछ मानते ही नहीं. अब माहौल ही खराब कर दो और  बच्चों को अपनी रूचि का एक रास्ता न दिखे तो वह उद्दण्ड भी होंगे और नशा पानी भी करेंगे. इतनी बारिश में भी इस लाइब्रेरी में इतने युवा लोगों इतनी चेलियों को देख, मेरा मन खुशी से भर गया है. अब कुछ जिम्मेदारी तो आप लोगों की भी बनती है कि ऐसा कुछ माहौल बनाओ कि अपनी धरती अपनी रीत निभाए, अपने गीत गुनगुनाए, अपनी पौध को फलता देखे. मैं जब पांगू में पढ़ता था तो जब मौका मिला सीधे नारायण स्वामी की कुटिया,उनके आश्रम जा पसर जाता था. स्वामी जी को पेड़ पौधों से बड़ी प्रीत थी. मैं तो समझो,बड़ा ख़ुशक़िस्मत जो कई बार उनसे मिलने का उनकी बात समझने का मौका मिला. उनको पौधे लगाते देखा तो वह दृश्य मेरे मन में बस गया. जा कर देखना मेरा सेव का बगीचा. बोना में जो सेव होता है, उसी की टक्कर लेगा एक दिन. सनक सवार हो गई थी कि जहाँ भी सेव की नई किस्म मिले तो उसे मैं ला,अपनी बगिया में रोप दूं, खाद-पानी दूं. सही आबोहावा मिली तो वो पेड़ पनपे खूब लदे. बस जी लगन हो कुछ करने की उसमें मगन रहो. अभी अपने ‘रं’ समाज और इस पूरे इलाके पर किताब लिख रहा हूं. देखो! कब लगे कि सबके उपयोग की बन गई है.

फकलियाल जी से मिल भीतर कहीं बहुत कुछ बदला, मन में कुछ नई सी आस जगी सोम तो सम्मोहित हो गया उनसे. उनकी कही हर बात उसकी डायरी में नोट थी. खास कर नारायण स्वामी जी के सान्निध्य की. वह नारायण स्वामी आश्रम जाने को उतावला था. दीप और में भी कुछ छुट्टियों का इंतज़ार कर रहे थे जो कुछ कैजुअल लीव ले दस दिन की बन जाएं. असलम, सोम, रोहिणी इस मामले में आजाद थे. सोबन रोज कहता, सर इधर दशहरे में निकल पड़ें.
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अरे अभी तो कितनी छुट्टी देंगे प्राचार्य यही पता नहीं. कैजुवल लीव सैंक्शन कराते कहते हैं, “दे दे रहा हूं पर कैजूवल लीव कोई अधिकार नहीं कि ले लो. स्टेशन लीव लेनी पड़ती है अब. जब से वो पियक्कड़ लेक्चरर बिना छुट्टी लिए भाबर जा मरा मिला तब से तो बड़े बाबू भी हिटलर हो गए हैं”.

सोबन इतिहास से एमए कर रहा था तो रोहिणी ने सीमांत के सारे इतिहास की जानकारी का जिम्मा उसे दे रक्खा था. जब भी वो कहता कि ऐसा हुआ होगा, लोग बताते हैं तो वह उसकी पूरी क्लास लेती. डांटती भी कि बिना रेफ़्रेन्स के कैसे कोई बात कहता है.

उस दिन शाम भी हम ब्रिगेडयर चंद वाले उसके आवास में जोशी जी की चक्की से गुजरते आगे बढ़े तो बाहर कुर्सियों में सोम, असलम आराम की मुद्रा में पकोड़े खाते दिखे,वहीं सोबन बड़ा घबड़ाया सा दिखा.

“क्या हुआ भौ को?” दीप ने पूछा

“अरे!कुछ नहीं. मैंने पूछा कि बता तेरे पूर्वज कहाँ से आए, तुम हो कहाँ से? तो होंठ सिल दिए इस भौ ने “. रोहिणी चमकी .

“सर, मैं तो बस बता ही रहा था कि आप आ गए. इतनी झट्ट कैसे कुछ कहूं, दिदी तो डांठ भी देती है”.

हमारे सामने भी पकोड़ी और कॉफ़ी का दुर्लभ संयोग था.

“अच्छा तो बता ना, अभी अपने क्या कहा भौ! यही कहा ना?”

“हाँ, भौ का मतलब हुआ भाऊ. अब यहां ये सबसे छोटा चेला हुआ न”.

सोबन अब कुर्सी में पीठ सीधी कर बैठ गया.

सोबन ने बताया कि हम तो जोहार के जंगपागी लोग हुए और हमारे ईष्ट देव माने गए ‘नाग’. बुर्फू के चरखमियों, जंगपागियों के साथ और कितने ही जोहारियों का ईष्ट नागदेवता ही हुआ. हमारे गुरू जी डॉ मदन चंद्र भट्ट जी बताते हैं कि इस पूरे इलाके कुमाऊँ गढ़वाल में पूजनीय ‘नन्दा देवी’ को भी नाग वंश का माना गया. तालेश्वर के लेख में वीरणेश्वर को अनंतनाग कहा गया. उधर सिक्किम में लेपचा लोग भी अपना जनम नाग वंश का मानते हैं. हमारे यहां तो कहा जाता है कि जोहार व आसपास के जितने भी देवी -द्याप्त हैं, सभी नाग रूप के हुए .

“सोबन, जिस इलाके में हम जायेंगे वहाँ किस देवता को पूजते हैं खास?”, सोम ने पूछा. वह सोबन की बात रिकॉर्ड करने के लिए अपने पॉकेट साइज रिकॉर्डर का बटन दबा चुका था. ऐसा ही एक रिकॉर्डर वह मुझे भेंट भी कर चुका था. अब कहीं भी कागज -कलम ले नोट करने या बात चीत याद कर लिखने की असज नहीं रहेगी,सोच मैं बहुत खुश था.

“अब जो पिथौरागढ़ से कनालीछिना फिर ओगला, जौलजीबी होते हम धारचूला पहुंचेंगे. उसके ऊपर का इलाका सब पैदल चल कर पहुँचने वाला हुआ वो शौका या “रं ” लोगों की भूमि हुई. वहाँ का देवता हुआ “गबला “. गबला के बारे में कहा जाता है कि वह नाग रूप ले लेता था. मेरे ठुलबा बताते थे गबला के बारे में. चौदास में जो मंदिर ‘तिलथिन’ नाम की जगह के रस्ते यानी बाटे में है , तो वहां जाते एक बटोही के आगे चौदह फन वाला नाग प्रकट हो गया .

“ओ! गॉड, मेरा तो हार्ट फेल हो जाता, साँप से बड़ा डर लगता है मुझे.” सोम बोला.

“तुम्हें तो छिपकली भी डरा दे. अरे ये सरदारनी है साथ. डर को दिल से निकाल.वहां मुझे ही रहने दे सोमी”. रोहिणी फिर रसभरी बनी .
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“हाँ, हाँ तो आगे बता भई “

सोबन उनकी नोक-झोंक में ऐसा रसमय था कि मुझे लगा कि वह भूल गया कि क्या कह रहा था.

“वो, तेरा चौदह फन वाला नाग…”

“अरे!हां. डॉ भट्ट जी ने बताया था कि महाभारत के दिग्विजय पर्ब में भी साफ लिखा है कि अर्जुन यहीं के कठिन रस्ते और डाने-काने पार कर मानसरोवर पहुंचा और उसने नागों के देश में विजय पाई.अब यहीं हुई ‘गुंजी मनिला’ में व्यास ऋषि की तपोभूमि जहाँ छोटे-मोटे सांप निकलते रहते, दिखते रहते हैं. लोगबाग तो उनको दूध भी पिलाते रहते हैं. यहीं हुआ ‘हिमखोला’ जिश्को ‘मोंगोड’ के नाम से पुकारा जाता. वहां का कुलदेबता महानाग ‘तांङबूंद’ हुआ. हमारे यहां काथ हुई कि एक दुधमुहां नानतिन भौते-भौत कमजोर हुआ बल! बिल्कुल ल्यात्तss! तो गुरूजी, एक नागिन से ये देखा न गया और उसने उस भाऊ को अपनी कुंडली में ले लिया. उस बालिस्त भर के बिचार-बिराण को ऐसे मोह से अंगवाल में लिपेट लिया जैसे काखी में रखते हैं भौ को. अब गुरूजी, देखा तो, वहां आई एक शेरनी और भौ को चुसाने लगी अपना दूध. फीर आया गरुड़ जैसा दिखने वाला बड़ा पंछी. उसने अपने डैने फैलाए और अपने पँख फैला उस पर स्योव कर दिया, छाया कर दी ठेरी. अब ऐसी हुई यहां नागों की माया. इसी नाग से बना ‘नागन्याल’ गोत्र”.

अरे सोबण रे. वीरे, तू तो वैसी ही गल सुना गया जैसी मेरी बेबे, सस्सी पुन्नू, राजा और मिरासी…

“अभी तो ये खाल्ली शुरूवात हुई ,आगे ये जो नाग कुल थे इनमें भयानक काट कूट हुई. आपसी झगडे हुए. स्याँला और कुटी में बड़ा खून खराबा हुआ”. सोबन ने बात पूरी की.

ये तो पूरी नाग डायनेस्टी हुई इधर, सोम बोला

“मतलब?” सोबन न समझा

“अरे यार, क्या कहते हैं उसे साम्राज्य”. रोहिणी ने समझाया.

अरे ss. हां . हमारे प्रोफेसर साब ने बताया था कि नागों का जो मूल स्थान है वो दक्षिणी मंगोलिया है. ऐसी खोज बीन भी हुई कि इनका मूल सिक्यांग चीन के आस-पास हुआ. जहाँ कहीं भी मंगोल कबीले पहुंचे वहाँ वहाँ नाग पूजणे की रीत चली”.

अब जाति कहें या देवता, नाग हमेशा चर्चा में रहे. कुछ भी पलट लें, वेद पुराण से ले कर, बौद्ध हो या जैन साहित्य. मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई. वहां नाग उकेरे गए हैं. यहां के राजाओं के, सम्राटों के अभिलेख सभी में नाग जाति के बारे में बहुत कुछ है. यह भी साफ होता है कि किन्नर और नाग इस हिमालय की ऐसी जातियाँ थीं जिनकी सामाजिक संरचना और जीवन शैली आर्यो से अलग रही. उन पर मनु के नियम लागू नहीं होते थे. इसका कारण यही था कि उनके सामाजिक रीतिरिवाज आर्यो से भिन्न थे. नाग सुशिक्षित थे. विद्वान थे, मंत्रकार थे. बहुत महत्वाकांक्षी रहे, युद्ध प्रेमी रहे और सत्ता के प्रति इनकी आसक्ति बनी रही. भवन निर्माण कला के ज्ञाता थे. ये जो नाग हुए वह शैव धर्म के देवता की तरह देखे गए. उनकी अलग सी पहचान से लगता था कि उनकी संस्कृति इस समूची उपत्यका की स्वतंत्र सी संस्कृति रही. महाभारत के अनुशासन पर्व (छटा पर्व, भाग चौदह ) में कहा गया कि :

” ज्योतिष किदशा नागा यक्ष चन्दार्ग मारुता.
 सर्वे पुरुष  कारेण मानुष्या दे दवतां गता”..

नागों को देवत्व प्राप्त करने के लिए बहुत उपक्रम, परिश्रम व पुरुषार्थ करना पड़ा .वहीं यक्ष राजकोष के मालिक हुए. संगीत प्रेमी गन्धर्व रहे तो आम जनों में किन्नर रखे गए जिनकी गीत व संगीत में खूब रूचि रही. सिंधु घाटी की सभ्यता के उत्कर्ष तक हेमवती में, हिमालय में नाग थे जिनकी जातिगत विशेषताएं किन्नर और किरात जैसी ही रहीं. एक तरह से किन्नरों के साथ उनके सहजातीय नाग इसी प्रदेश के आदिवासियों में एक थे. भारतीय समाज की, उसकी बहुरंगी संस्कृति की बुनियाद उन्होंने नींव के पत्थर की भांति रखी आर्यो ने इसी बुनियाद पर रोड़ी चूना जुटाया”.

“सोसाइटी, कल्चर और कम्युनिटी ऐसे कुछ शब्द हैं जिन्हें समझना बहुत जरुरी है. इनकी प्रॉपर अंडरस्टैंडिंग के बिना हम किसी एरिया और उसकी लोकेशनल प्लानिंग को जान नहीं पाएंगे”. सोम बोला उसकी नजर एकटक मेरी ओर थी.

“हाँ. समाज, संस्कृति और समुदाय ऐसे शब्द हैं जिनका आपस में सम्बन्ध तो है ही,साथ ही ये एक दूसरे के पूरक भी हैं. मुझे प्रोफेसर पूरन चंद्र जोशी की किताब, “सोशियल स्ट्रेटिफिकेशन इन कुमाऊँ”याद आई जिसमें उन्होंने लिखा था कि संस्कृति स्वयं में गतिशील होती है जो समय और परिस्थितियों के    हिसाब से बदलती रहती है. कहीं और कभी ये परिवर्तन बड़ी तेजी से होते हैं तो कहीं इनकी गति बहुत मंद व धीरे -धीरे होती है”.

जोहार के बाद अब दारमा, व्यास और चौदास के इस पूरे इलाके के इतिहास और भूगोल को समझना जानना है कि कब और कैसे ये बदलाव जनजातीय समुदाय के बीच आते महसूस किये गए. शासन में नौकरशाह और अपनी विनम्रता के साथ साफगोई से बात रखने वाले नृप सिंह नपच्याल का वह लेख मुझे याद आने लगा जिसमें उन्होंने लिखा था कि सत्रह नवम्बर उन्नीस सौ साठ का दिन ‘रं’ समाज और धारचूला के लिए एकबारगी ही नए परिवर्तन का दिन रहा होगा,जब यहां पहली बार मोटर गाड़ी पहुंची और ‘रंलू’ में टेशन मतलब मोटर स्टेशन बन गया. मोटर पहुंची तो आने -जाने के मौके बढ़ते गए. लोग बागों ने, निवासियों ने तेजी से बाहर की दुनिया देखी. नई चीजें, नई वस्तु,नया माल आया. यहां की चीजें बाहर गईं. काम धंधा बढ़ा. बाहर से लोगों की आवत- जावत बढ़ी.
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अर्थशास्त्र का “लिंकेज इफ़ेक्ट” यानी श्रृंखला प्रभाव. इससे और आगे “डेमोंस्ट्रेशन इफ़ेक्ट” यानी प्रदर्शन प्रभाव.

ये सूचक हैं बदलाव के. बदलाव देखा-देखी उपजता है ऐसे कि समाज के ताने बाने के साथ आर्थिक गतिविधियों में भी परिवर्तन होते जाता है. ऐसा प्रत्यावर्तन  भारत-चीन युद्ध के बाद हुआ और जिसने ‘रं’ जनजाति द्वारा संपन्न किये जा रहे तिब्बत व्यापार के विकल्प खोजने शुरू किये. परंपरागत और पुश्तैनी कारोबार पर अचानक ही रोक लग गई. जीवन यापन के नए अवसर और नए बाजार को खोजने का सिलसिला शुरू हुआ. अल्प काल में ही पहले सी परिपक्व स्थितियों की प्राप्ति संभव भी न थी. ऊँचे पहाड़ों और कठिन दर्रो के बीच माल असबाब के ढुलान में प्रयुक्त होने वाली भेड़ बकरियों व अन्य भारवाही पशुओं की अवसर लागत भी गिरती जा रही थी. परंपरागत व्यवसाय में जो कच्चा माल लगता, जो यँत्र उपकरण काम में लाए जाते वह ह्रासमान प्रतिफल दिखाने लगे थे. रं समाज के सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन में एक दूरगामी परिवर्तन की शुरुवात हो चुकी थी. यह इस समाज की खूबी थी कि वैयक्तिक सम्बन्ध संक्रांति के इस समय में और प्रगाढ़ हुए. नए अवसरों की तलाश हुई. बच्चों की पढ़ाई लिखाई पर अधिक ध्यान दिया गया. नए धंधे और नौकरी के लिए प्रवास-अप्रवास की शुरुवात हुई. इस बदलते परिवेश में ‘रं संस्कृति’ विशिष्ट बनी रही. जिसका सम्बन्ध इस सीमांत इलाके की प्राकृतिक शक्तियों और मानवीय मूल्यों की सुद्रढ़ दशा से प्रभावित था.

‘रं’ समाज के बारे में और जानना था.

श्री डूगर सिंह ढकरियाल ‘हिमरज’ जी से हुई कई मुलाकात और बातचीत स्मरण होने लगीं. वह सूचना विभाग पिथौरागढ़ में कार्य रत थे. सोबन ने बताया की वह बजेटी में रहते हैं और उनके घर का नाम ” दारमा मुकुंद ” है. अपने महाविद्यालय के प्रेक्षागृह में “रं सीमांत युवा कल्याण संस्था” द्वारा किये गए एक भव्य आयोजन जिसमें महाविद्यालय के सज्जन छात्रावास के छात्रों की बहुलता थी, में ‘हिमरज’ जी से सबसे पहले भेंट दीप ने कराई. महाविद्यालय के माइक व लाइट भौतिक विज्ञान विभाग में रहते थे जिनकी जिम्मेदारी दीप और भौतिकी विभाग के प्रयोगशाला सहायक संभालते थे. इस आयोजन में मैं भी दीप के साथ माइक दुरुस्त करने में लगा था. भीतर की सारी व्यवस्था सही हो गई थी पर जब कार्यक्रम शुरू होना था तब भारी बारिश आ गई. भीतर ‘हिमरज’ जी और अपने सीमांत छात्रावास के चेलों को हमने बताया कि अगर लाइट गई तो जनरेटर तो हम चालू कर देंगे. स्टेज व्यवस्था तो सुलझ जाएगी पर बाकी हाल की नहीं. वह सब भी बाहर की घनघोर बारिश से परेशान थे. तभी पता चला कि मुख्य अतिथि जिलाधिकारी श्री मोहन चंद्र जोशी जी सपत्नीक पधार चुके हैं. तुरंत कार्यक्रम शुरू हुआ.’ रं -सीमांत युवा कल्याण संस्था के पदाधिकारियों मदन सिंह गर्बयाल, जय सिंह कुटियाल, किशन सिंह गर्बयाल व अन्य सीमांत छात्रावास के विद्यार्थियों ने बड़ी मेहनत की थी. इसके साथ ही अर्ध सेना बल के श्री जीत सिंह गर्बयाल के साथ लाल सिंह बोनाल व डमर सिंह गर्बयाल से वहीं भेंट हुई थी. कार्यक्रम के बाद डीऍम श्री मोहन चंद्र जोशी जी ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों से बड़े प्रभावित हुए उन्होंने कहा कि लोक थात को बनाए बचाने के लिए ऐसे आयोजन निरन्तर होते रहने जरुरी हैं क्योंकि परिवार के बाद स्कूल कॉलेज ही ऐसी ठौर है जहां अपनी संस्कृति को ऐसे कार्यक्रम कर हम बेहतर आधार दे सकते हैं. मुझे बड़ा अच्छा लगा जब जोशी जी व उनकी श्रीमती जी हमसे कुमाऊंनी में बातचीत कर रहे थे. उसके बाद तो जोशी जी से बहुत बार उनके कार्यालय भटकोट में मिलना हुआ. इलाके की आर्थिक जानकारी व बिखरे आंकड़ों से कुछ नतीजे निकालने वह मुझे देते रहे. कार्यालय के ठीक ऊपर उनका आवास था. हमें पांच-छः बजे के बाद ही बुलाया जाता जब वह अपने कामों से निबट आवास में आ जाते थे. उनकी लाइब्रेरी में हिमालय से सम्बंधित इतिहास, भूगोल, संस्कृति की ढेरों किताबें थी. उनकी श्रीमती जी ने बताया कि जब भी बदली होती है तो जोशी जी को अपनी कोई किताब छूट जाने की फिक्र बनी रहती है. बैठक से सटी ही रसोई थी जिससे पहाड़ी मसालों की खुसबू बिखरती रहती. कभी आलू के गुटके, कभी सै, पुए, सिंगल खाने को मिलते. बातचीत जब लम्बी खिंचती और आठ- नौ बज जाते तो जोर देकर वह बड़े प्रेम से चौके में बिठा खाना खिला देतीं. जोशीजी धोती पहन खाना खाने चौके में बैठते. थाली को वार जल अभिमंत्रण भी होता. जब भी मैं और दीप वहां उनकी देली पर जूते उतारते तो देली पर गेरू बिश्वार के ऐपण दिखते. लोगों के दिल छू लेने वाला व्यक्तित्व था जोशी जी का. ऐसी ही सरलता और काम के प्रति समर्पण मैंने अल्मोड़ा रहते वहाँ के जिलाधिकारी मुकुल सनवाल में दिखा था.

इस सम्मलेन के बाद से डूंगर सिंह ढकरियाल जी से मिलना बहुत बार हुआ. अपनी लिखी पुस्तक “खा मंगला स्यीस्यो फ्यूता यानी कागपुराण” के बारे में बताते उन्होंने समय समय पर “रं”संस्कृति के बारे में बहुत जानकारी दी. अब तो उस इलाके में और ऊपर जाने की हौस बढ़ती ही गई.

ढकरियाल जी के बजेठी वाले घर ‘दारमा मुकुंद’ में बैठ उनके स्नेह व्यवहार के साथ कई स्थानीय व्यंजन भी खाने को मिलते.
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ढकरियाल जी ने बताया कि, उनके पूर्वजों की अनमोल पौराणिक धरोहर, “ग्वन” हुई जिसको आदि पुरुष तिलथिन के मियर मिश्रु ने त्रिकाल दर्शी “कौवा का तिते” से दीक्षा मिलने के बाद किया. आरंभिक अर्थ में तो ग्वन आत्मा की तृप्ति के लिए किया गया संस्कार है जिसे “अमरीमो” या “सयामो” में उल्लिखित विभिन्न अध्याय के द्वारा पूर्ण किया जाता है. इसका वर्णन “अमरीचा” या “सयक्चा” करता है. इसके द्वारा इस लौकिक संसार से विरक्त कर उस पारलौकिक संसार के प्रति अनुरक्ति भरी जाती है जहां आत्मा चिर विश्राम में रह देव तुल्य हो जाती है. “ग्वन संस्कार” में सम्पूर्ण “रं” दर्शन निहित है जिसमें हमारी परम्परा, संस्कृति, रीति रिवाज व जीवन शैली के साथ नैतिक मूल्यों का समावेश है. अमरीमो से पता चलता है कि हमारे पूर्वज खोजी प्रवृत्ति के थे. दुर्गम इस प्रदेश में, उन्होंने पथ निर्मित किये. आना-जाना सुगम बनाया. उनकी दी रुपरेखा से हमें इस इलाके के ग्राम, रास्ते में पड़े मंदिरों का ज्ञान हुआ. पहले परम्परा थी कि रास्ते के मंदिरों पर सबसे पहले पत्थर का लिंग अर्पित किया जाता रहा फिर आजकल की तरह ध्वज या ‘धजा’ फहराने के बाद चावल के अक्षत या ‘स्यर्जे’ से पूजा अर्चना की जाती है. रास्ते में पड़ने वाले दानवों को भी तृप्त करना हुआ तो इसके लिए रास्ते के नीचे लूँण और कांटेदार टहनियां डाल दी जातीं.

ढकरियाल जी ने ‘रं ‘संस्कृति पर अपनी लिखी किताब “खा मंगला स्यीस्यो फ्यूता” काग पुराण का उल्लेख किया. उन्होंने बताया कि रं खेतिहर होने के साथ कुशल व्यापारी थे. अमरीमो में आवागमन व व्यापार के पथों का विस्तृत उल्लेख है. कई पुराने पथ तो अब अवरुद्ध हो गए हैं. बसाव की सुविधा भी धीरे धीरे नए स्थलों में विकसित हुई है जैसे धारचूला में मानव बसाव 1815 के बाद ही शुरू हुआ जो गोरखा राज्य का अवसान काल था. अंग्रेज पूरे कुमाऊँ में अपने साम्राज्य की जड़ें फैलाते चले जा रहे थे. यहां प्रकृति की नायाब धरोहर थी. उससे प्राप्त संसाधन थे. चैन था सुकून था. उच्च हिमालय दुर्गम था, यहां के निवासियों की जीवन चर्या भिन्न व कठोर परिश्रम से उपजी थात थी.भोजन, रहन सहन पहनावा सब इसी से प्रभावित रहा. सीमांत की इन दुर्गम घाटियों में कड़ाके की ठंड पड़ती. शीत काल में मौसम की प्रतिकूलता से बचने के लिए काली नदी के इस जलागम क्षेत्र में उतरने का सिलसिला शुरू हुआ और धीरे-धीरे खेड़े अस्तित्व में आए.

धारचूला में तिब्बतियों के परिवार भी बसे. वह अपने नए साल में लोसर त्यौहार मनाते. पर ‘रं’ समुदाय में इस त्यौहार को मनाने की परिपाटी न उपजी. सांस्कृतिक रूप से वह तिब्बती जीवन शैली से प्रभावित न हुए. हिंदुत्व की ओर उनका झुकाव व अनुकूलन होता रहा तो रीति रिवाजों के मामले में उनकी अपनी खासियत अपनी विशिष्टता अपनी पहचान बनी रही. दारमा, व्यास और चौदास की तीनों घाटियों और इनमें समाहित गाँवों की रीत में थोड़ी बहुत असमानता तो विद्यमान रही, जिसका एक कारण इन घाटियों में उनके बसाव का काल अलग-अलग होना रहा हो.

रं संस्कृति में रीति रिवाज व लोकाचार को ले कर समय समय पर बदलाव होते रहे. जैसे कि आपसी सौहार्द की ‘रंम्बचियम’ परिपाटी समाप्त हो गई. वहीं ‘ग्वन या अंतिम संस्कार में काफी बदलाव आया. पहले तिब्बत से याक की आपूर्ति सुलभ थी और नौ दिन तक ग्वन चलता था. जब से तिब्बत व्यापार ठप हुआ व याक मिलना कठिन हुआ तो इसके स्थान पर बकरी का प्रयोग होने लगा.फिर ग्वन की प्रथा भी शिथिल हुई व कई गाँवो में ‘सै यक्चा’ अर्थात काग पुराण पढ़ने वाले ‘अमरीचा’ भी न रहे. धीरे-धीरे श्राद्ध प्रचलित हुए.

वैचारिक परिवर्तन का दौर शुरू हुआ. रं समाज को नई दिशा देने में मानव विज्ञानी रतन सिंह रायपा की नवप्रवर्तन भरी सोच का अमूल्य योगदान रहा. रं जन जीवन के हर पक्ष पर उन्होंने चिंतन किया जिसका प्रमाण बना ‘शौका सीमावर्ती जनजाति’ जैसा मौलिक ग्रंथ. उनके विवेचन में रं जातिगत समूह की विस्तृत मीमांसा है जिसे पूर्वजों के इतिहास से पुष्ट किया गया. इसके साथ ही सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन व आर्थिक गतिविधियों का उल्लेख इस भावना के साथ किया गया कि दिख रहा जातिगत वैमनस्य मिट सके. वह भी ऐसे कठिन समय पर जब सीमा में दुश्मन ललचाई नजर से देख रहा हो.रायपा जी की सोच अपनी कौम की एकता और एकजुट हो रहने की उस संस्कृति के ताने बाने बुन गई जिसका आधार अखंड भारत और उसका समग्र विकास था. उन्होंने कहा कि ऐसे समर्पण से ही अपनी पहचान अपने कठोर परिश्रम व अपनी गुणवत्ता की मिसाल दी जा सकेगी जिससे सुनपति शौका और जसुली शौक्याणी सी अनगिनत आत्माओं को चिर शांति की प्रतीति होगी.
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रायपा जी रं समाज में महिलाओं के बराबरी भरे योगदान के प्रबल पक्षधर थे जो यहां की आर्थिकी की रीढ़ थी. वह कहते थे कि कन्या का जन्म ही उत्सव है तो उसका पालन पोषण समाज के संतुलित अवलम्ब का प्रतीक. विवाह सम्बन्धी निर्णयों में भी उनकी इच्छा को उच्च प्रतिमान दिया जाता. दहेज की अनुपस्थिति वहीं स्त्री के समान अधिकार को प्रदर्शित करती रही. शौका महिला, भले ही पारिवारिक उत्सव हो या पर्व त्यौहार और या फिर गाँव की पंचायत का आयोजन, सब में बराबरी से अपनी हिस्सेदारी का निर्वाह करती. गृह लक्ष्मी को यहां ‘मुलिन रानी’ कह सम्बोधित किया जाता. इसके साथ ही रं समाज के बहुविध आयामों पर गहन शोध कर इसे आम जन तक पहुंचा रायपा जी ने रं संस्कृति के विस्तृत फलक सामने रख दिए जो आकर्षक व रोचक तो थे ही साथ ही विपरीत परिस्थितियों में पड़ गए रं समुदाय के द्वारा इस विषम चक्र को तोड़ने के लिए किये गए प्रयत्न व प्रयास, व्यापार के कौशल व परिश्रम व पढ़ लिख उच्च पदों तक पहुंचने की सफलता कथाएं भी सुनाते थे.

आखिरकार सीमांत की घाटी और फिर आसमान छूती पर्वत श्रृंखलाओं की ओर निकल चलने का योग बन ही गया.चले सुबह सबेरे पिथौरागढ़ से. अभी ज्यादा छुट्टी न थीं. खींच तान कर हफ्ते दस दिन की गुंजाइश थी. सोम रोहिणी और असलम मियाँ भी साथ थे. इतना अंदाज तो लग गया था कि ये दिन भर में आठ दस किलोमीटर से ज्यादा पैदल नाप नहीं पाएंगे. जाने की दिशा धारचूला और उससे आगे नारायण आश्रम की बनी क्योंकि सोम नारायण स्वामी से बहुत ही प्रभावित था. जब उसे बताया कि ओगला से आगे स्वामी नारायण के नाम पर नारायण नगर बसा है तो उसे भी जरूर देखेंगे की जिद हुई.रोहिणी के दिमाग से नाग अभी सिमटे नहीं थे. सो दीप ने तुरत ही ओगला से नारायण नगर और वहां से आगे डीडीहाट के ऊपर सीराकोट तक जाने का कार्यक्रम तय कर दिया जहाँ चढ़ फिर ओगला वापस हो असकोट, गर्जिया, जौलजीबी, बलुआ कोट और कालिका होते धारचूला पहुँचते और फिर जाते नारायण आश्रम. अबकी बार कुण्डल के पांव तो प्राचार्य के आवास में जकड़ गए. करम दा और दिवानी को भी एक साथ आकस्मिक अवकाश मिलना मुश्किल ही लगा इसलिए सोबन और दीप पुराने साथी साथ चले. अगरवाला भी पिछली यात्रा के बाद टें बोल गया था. दीप उसे चिढ़ाता रहा बार- बार ये आण सुना :

“यो जतकाव बचि ज्याछीँ
खसम थें बाब कौँछी “

अब वह क्या समझता?

बीएसएनएल के अभियंता धर्मसत्तू जी तब टकराये जब जोशी फार्मेसी से सोम और रोहिणी लिस्ट में लिखी जाने क्या-क्या दवा खरीद रहे थे और थ्रेपटिन बिस्कुट का डब्बा भी. पहले वो समझे कि दीप अपनी ईजा बाबू के लिए ये दवा ले जा रहा तो चिंतित हो उनने पूछताछ की. जब पता चला कि ये दवाएं धारचूला से आगे की चढ़ाई के लिए हैं तो ठहठहा के हंसा और बोला, “हो गया गुरू जी,इनन के घुट्टी पिलाओ कि उकाव हुलार में सैजल जाये, गुड़ चाण खाये” मतलब कि इनको समझाओ कि चढ़ाई और ढलान में धीरे जाये, गुड़ और चना खाये”. फिर बोले, “उधर दौरे में तो मैंने भी आना है डीडीहाट भी और फिर जौलजीबी से आगे धारचूला तक. अपने ड्राइवर भवान दा छुट्टी पर थे तो डिले हो गया. अब कल परसों जो कहते हो चलिए मेरे साथ. टाटा सूमो है,आप लोग सात से ज्यादा तो होगे नहीं, सामान सब ऊपर छत में आ जायेगा. पक्का हुआ तो परसों चलें, बलुआ कोट से ऊपर ससुराल हुई. वहाँ भी ले चलूँगा आपको”. अब रोहिणी ने पलट के देखा और मेरे कुछ कहने से पहले ही बोली, “ये हुई वल्ले-वल्ले. पर वीर जी अपनी सूमो जरा आराम से ले जाना मुझे वोमिटिंग होती है. सब जगहों के बारे में बताते हुए ले चलेंगे ना”

“आप फिक्र ना करो, अपने धर्म सत्तू डिअर यारों के यार हैं”. दीप बोला.

सुबह ठीक सात बजे चले. सारे लोग उनके घर के पास की सड़क से बैठाते, सामान छत में एडजस्ट कर धर्मसत्तू जी के ड्राइवर साब ने बताया कि सर्किट वाले दो डब्बे तो पीछे ही रखेंगे जिनसे इस रास्ते पर पड़ी लाइनों की टेस्टिंग होनी है. सो भाटकोट रोड जाते उन्होंने विभाग के ऑफिस के आगे जीप टिका दी.

चलते चलाते नौ बज गए. अभियंता धर्मसत्तू जी ने दोनों बॉक्स खुलवा उनके तार सर्किट सब चैक कराये. फिर बोले “अब ये नया काम है सर दो एक साल में टेलीफोन लाइन इत्ती बढ़िया हो जानी हैं कि लाइन में कोई किर-किर कुर-कुर का फाल्ट नहीं होगा.

टाटा सूमो चल निकली. आगे उन्होंने रोहिणी को बैठाया और पीछे हम छह जन के साथ बैठे. सोम बिल्कुल पीछे कोने में सोबन और असलम के साथ.

पंडा फार्म पार कर कनालीछिना वाला रास्ते पर जैसे-जैसे टाटा सोमू बढ़ी तो सपाट समतल डामर की एकसार गति भी भंग होने लगी. रोहिणी बोली, ‘सोम देखो ये सोमू टाटा भी तुम्हें ही फॉलो करने लगी है. अब तो चर्र चूँ भी हो रही. ये रास्ता आगे तो ठीक है ना भवान दा? “उसने आगे चल रही गाड़ियों की धूल से बचने को शीशा बंद करते ड्राइवर साब से पूछा.
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“कहाँss, अभी तो शुरुवात ठेरी.आगे पंद्रा बीस मील तक ऐसा ही मिलेगा. ये सारी सड़क ग्रिफ के अंडर हुईं, इनको चौड़ा करने का काम हुआ. अब कहीं कट रहीं कहीं खुद रहीं. वो देखो.”

रास्ते में ऊपर से गिरे पत्थर से बचाते भवानदा ने मोड़ काटा तो रोहिणी तो चीख ही पड़ी.

“ओ मेरे वीरे. ये क्या?”

यहां धौली गंगा की जल विद्युत परियोजना के लिए रोड को चौड़ा करने का काम चल रहा. एनएचपीसी के लिए ये रोड दुगनी चौड़ी होनी हैं तब जा कर आएंगी भारी मशीनेँ. वो धारचूला से ऊपर छिरकिला में बनेगी तब टनल”. धर्मसत्तू जी ने समझाया.

“अब हमने भी डाली थी सड़क खोद के केबिल. वो तो लावारिस हो अब कहीं पेड़ में अटकी हैं, कहीं नीचे फरक गईं है”.

इस मोड़ से आगे करीब एक डेढ़ किलोमीटर आगे तक हमसे आगे गईं जीपें, ट्रक, कुछ अदद रोडवेज की बसें, सब ऊपर की ओर मुँह कर खड़ी थीं. ये लम्बे फंसे वाला नजारा था सो अपनी टाटा की सवारी से उतर धूल मिट्टी रोड़ा पत्थर की ऊबड़-खाबड़ सतह पर उतर आए. आगे बढ़े तो अगले मोड़ से ऊपर की ओर सर्पाकार घूमी सड़क पर नजर पड़ी जहां ओगला साइड से आने वाले ट्रक, जीप की लम्बी लाइन थी.

विकास के लिए अंतरसंरचना का निर्माण होना जरुरी है जिसकी शुरुवात में पहले पायदान पर आती है सड़क. इसी सड़क से बड़े ट्रक ले जायेंगे मशीनें जिनके पुर्जे खोल-खोल लादे जायेंगे और जगह पर पहुँच फिर उनकी असेंबलिंग होगी.

तब जा कर धारचूला से आगे छिरकला में बनेगी सुरंग जिससे आएगा पानी और बनेगी बिजली. धौली गंगा -गोरी गंगा विद्युत परियोजना. इसीलिए कटती है सड़क. इन रास्तों के बनाए जाने पर कागजों में बड़े प्रतिबन्ध होते हैं जैसे पेड़ नहीं कटेंगे. सड़क ऐसे खुदेगी कि उसका खुदान हिमालय की इस नाजुक धरती पर आघात न करे. और भी बड़ी आकर्षक कानों को भली सुनाई देने वाली थ्योरी जिनका पारायण जाकिर हुसैन कॉलेज, नई दिल्ली के बॉटनी डिपार्टमेंट के अध्यक्ष डॉ वीरेंद्र कुमार ने तीन लम्बी मीटिंग में समझाया था. एनएसपीसी की गोरी गंगा और धौली गंगा विद्युत परियोजना में एनवायरनमेंट असेसमेंट कमिटी के वह मुखिया थे. इस परियोजना के इलाके के निवासियों पर पड़ रहे प्रभाव, उनके विस्थापन के साथ और कई बड़े उद्देश्योँ के आर्थिक मूल्यांकन के लिए मेरा चुनाव हुआ था तो सामाजिक सांस्कृतिक व भौगोलिक संरचना की जिम्मेदारी वीरेंद्र कुमार जी ने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के प्रो शेखर पाठक और प्रो रघुवीर चंद को सौंपी थी. वीरेंद्र कुमार जी ने विकास और पर्यावरण की अनेक योजनाओं के लिए सरकार को इनके निर्माण में बरती जाने वाली सावधानियों से आगाह किया था. इनमें चट्टानों को काटते समय विस्फोटकों का प्रयोग अत्यंत सीमित रूप से कब और किन परिस्थितियों में हो इसका खासा जिक्र होता था.
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जाकिर हुसैन कॉलेज के जिस परिसर में वह अकेले अपनी किताबों, रिसर्च पेपर व बॉटनी की किताबों के साथ कुछ अदद घरेलू सामान के घेरे में पड़े अपनी बात लगातार समझाते तो एहसास होता कि इस आदमी को पहाड़ और उसकी धरती से बेइंतहा मोहब्बत है. एक बार तवाघाट से आगे छिरकिला बढ़ते ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते अपनी तेज चल रही सांसों को काबू करते वो अटक अटक कर बोले, “वो देखना मृगेश,उधर पांगू की ओर जिधऱ हरियाली के बीच मेरी माशूका है. हर बार जब भी उसकी ओर बढ़ता हूं तो वो और ऊपर आने का न्यूत देती है. मैंने सही कहा न निमंत्रण को पहाड़ी में न्यूत ही कहते हैं न”.

हाँ सर.

उनके तीन कमरे के क्वाटर में जो बॉयज हॉस्टल से लगा था, मैं दिल्ली उनके बुलावे पर आया तो फिर कई बार कई दिन रहा. समीप के कच्चे मकानों में रहने वाली एक अधेड़ महिला उनका चौका बर्तन कर जाती. उनके साथ खूब कचकच भी करती. “रोज्जे कहते हो कि रात रोटी खा लोगे. सब्जी दाल गर्म कर लेंगे पर यह देक्खो सब वैसा ही रक्खा है. न खाने का कोई टेम न जागने सोने का. ना जाने क्या लिक्खे रहते हो. अब पेट पकड़ खाँसने भी लागे हो. कित्ती बार कह दिया कि अपनों को नाते वालों को बुला लिया करो, पिर मेरी क्यों सुनें हो”?

“अरे , बुलाया है ना पहाड़ से वो भी इस दाढ़ी मास्टर को, साथ दूसरा चेला भी. तुम्हें बताऊँ अब पहाड़ रहना है लम्बे इन्हीं के साथ. ठीक आंख के आगे बरफ से ढका हिमालय दिखता है वहां.और बस फिर वहीं बस जाऊंगा”.

“ये तो ठीक बात सोची, साथ कोई रहे तभी सही रहो. नहीं तो बस चाय-चाय. खाना कुछ नहीं. वो डॉक्टर कह रहा था. चीनी बढ़ गई है तुम्हारे खून में. परहेज वाली,सेहत वाली सब चीज, फल फरूट यहां पड़ी हैं.बस पड़ी हैं तो पड़ी हैं. सजाने के लिए लाए हो.खाँसने भी भौत लगे हो.अब उत्ते ऊँचे पहाड़ घोड़े-खच्चर पे चढ़ जाओगे क्या”?

“अरे! सड़क होती हैं पहाड़ में, छोटी संकरी घुमावदार पर साफ सुथरी. कार चलाने का तो असली मजा ही पहाड़ में है. मैं तो देखना बस पहाड़ में बसूँगा. तुमको भी ले चलूँगा.दो कमरे और डाल दूंगा. ऊपर से पाथर-पटाल की छत. दोनों छोटे लड़के और वो दर्जा नौ में पढ़ रही छोरी,सब रह लेंगे”.

“और तुम्हारा वो मुंहलगा चौकीदार? रात की रखवाली रोजेही पौवा-अद्धा लगा किये जो. उसे ले जाओ अपने साथ. जब पहाड़ चढ़ते लोट-पोट करेगा ना तब होस खुलें हरामी के “.

बड़े याद आए अभी डॉ वीरेंद्र कुमार. मैं सोचने लगा कि पहाड़ में इतने बारूद की लड़ियां सजे देखते तो उनको कितनी ठेस पहुँचती. फिर ये भी दिमाग में आया कि हमारी आंख के सामने यह सब होता रहता है और हम सुन्न पड़े अपना मुँह बंद रखते है. इतने नामी पर्यावरण पर काम करने वाले विद्वान हैं वो बड़े नगर महानगर में सेमिनार करा फिर चुप्पे. कोई सशक्त विरोध नहीं. गिरदा का लिखा नाटक “नगाड़े खामोश हैं” याद आया. उसके क्लाइमैक्स में वह भी आह्वान करता है झकझोरता है.

“जागो गणेलो जागो”.

 जीप से उतर कैमरा कंधे में डाले चलते अजीब उधेड़बुन में कदम आगे बढ़ाते कम से कम तीन चौथाई किलोमीटर सड़क पर पड़े मलवे -पत्थर पर निगाह गई . आगे जीपों की कतार थी और उसके आगे लाल झंडे लगे थे. धूसर चितकबरी पोशाक और धातु वाली कैप लगाए बीआरओ के जवान उसके आगे तैनात थे जो कई किसम की गतिविधियों में संलग्न थे. उससे भी दूर धीरे -धीरे मोड़ काटने के बाद जो सड़क खाली दिख रही थी उसके आखिरी सिरे पर ऊपर से नीचे पिथौरागढ़ आने वाले वाहन एक लम्बी कतार में दिख झिलमिला रहे थे. धीमे धीमे कोहरा बढ़ता पहाड़ी को अपनी बांहों में लेता फिर सरक जाता.

“अरे गुरू जी आप. यहां? किधर जा रहे?”

मेरा चेला था रघुवर जोशी. इंटर कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाता था यहीं किसी कस्बे में.

“अरे रग्घू. सड़क कब खुलेगी?”
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” बड़ी देर लगेगी सर. ये खाली सड़क उसमें कई मोड़ों पर ब्लास्टिंग होनी है. सुबह से ही चट्टानों में छेद कर मसाले की छड़ी डाल डोर बिछा दी हैं. वो उस कोने में काम बाकी रह गया है. फिर होगी ब्लास्टिंग. तभी उसके आए मलवे के साथ ये सड़क साफ करेंगी मशीन..वोलवो वाली मशीने भी सिर्फ दो दिख रहीं .दो जेसीबी हैं.

अरे!

सोबन और असलम मेरे साथ ही थे. रग्घू की बात सुन सोबन बोला, “ये तो आधे दिन से भी ज्यादा टेम का काम है. क्या करें?वापस भी लौट सकते हैं.”

“ना जी! क्यों लौटना? अब रोड बनना एक दिन का काम थोड़े ही है. कल फिर यही होगा”.असलम बोला.

हाँ.

पाँव ठीक होने के बाद भूरे मियाँ ने यात्रा पर चलने से पहले अपने साले से कहा भी था ज्यादा धिरकेट न करियो. कुछ हुआ तो माट्साब को भी परेशानी होगी. अभी की बात से मुझे उसके चले चलने के इरादे की खुशबू आई. कैमरे का लेंस खोल मैंने उसकी फोटो खींचने के लिए व्यू फाइंडर पर आँख लगाई. असलम के ठीक पीछे छिटपुट कोहरे के बीच सुबह की रोशनी में नहाई पंचचूली साफ दमक रही थी.

असलम के हाथ एक बड़ा पैड होता उस पर आर्ट पेपर. बस यूं ही कहीं बैठ जाता और कई कई पेंसिलें निकाल स्केच बनाता. उसके इस शौक के बारे में मुझे पता न था.हाथ बड़ा सधा था. मुँह सिला हुआ. जरुरी हो तभी खुले.

पत्थरों से अटी और पहाड़ियों से रिस्ते पानी से रास्ते की मिट्टी को कच्यार बनाती सड़क की ठोस चट्टान में ड्रिल मशीन से छेद करने में जुटा था काला भुजंग सा वह कामगार. काले पत्थर पर लोहा टकराता तो चिंगारी निकलती. मैं उसके संतुलन पर हैरान था. धर्मसत्तू जी भी न जाने क्या कुछ खोजबीन करते अब बिल्कुल पीछे खड़े दिखे.

“हमारी बिछाई पेड़ों पर अटकाई केबल तो कितनी ही जगह हरा गई है पांडेजू. अभी छे महिने पहले डाली थी आगे कनाली छिना तक. अब बड़ी प्रॉब्लम है सर जी. विभागों के बीच तालमेल जैसा तो कुछ है नहीं. हमें भी साल भर में टारगेट पूरा करना होता है. अब देखिये पहले से जानकारी रहती तो इतनी बर्बादी तो न होती. हमारा ये सारा माल भी बस लिमिटेड आता है. कुशल मजदूर भी बहुत ही कम. क्या करें? जो ऊपर से आर्डर आए बस फॉलो करो. उनके दिमाग में बस यही रहता है कि हम काम डिले करते हैं. कंज्यूमर अलग परेशान होता है”.
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पिथौरागढ़ में रहने वाले अपना मकान बना लिए कई प्राइमरी से इंटर तक के अध्यापक प्रवक्ता जो पास के स्कूल कॉलेज में पोस्टिंग पाए हैं, सर्र से फटाफट सवारी भर चलने वाली महेंद्रा और टाटा सूमो से दस बजे प्रार्थना से पहले पहुँच जाने की जुगत में रहते है. कई फटफटिये वाले भी हैं तो स्कूटर वाले भी, बजाज वेस्पा .इनमें नारायण नगर जैसे कस्बे के स्कूल भी हैं जहाँ पहुँचने में एक ओर अमूमन दो घंटे तो लगते ही हैं. अब हर गांव तक तो वाहन पहुँचता नहीं इसलिए जहां सड़क पर वाहन ने छोड़ा उससे आगे पैदली करनी होती है. अपना वाहन हो तो कुछ कच्चे रास्ते भी नाप लो वरना किसी चाय की दुकान में सुरक्षित.अच्छे खासे कैरियर वाले लुंठी बुक डिपो, जुपिटर व पुनेठा न्यूज़ पेपर वालों से प्रतियोगिता दर्पण व कम्पटीशन सकसेस खरीदते तथा इंग्लिश स्पीकिंग के ठेलों में लगातार घुसते दिखाई देते थे,विलम्ब से हुई स्थायी नियुक्तियों के बाद अब पहाड़ी सड़क नाप रहे हैं. कइयों के अभिभावकों ने अपनी जनम भर की पूंजी गला सोर घाटी से ऊपर डाने-कानों तक अपनी हौस के मकान बना डाले हैं. क्या हुआ जो दो फिट के रास्ते से घर पहुंचें. थोड़ी खाली जगह मिले तो मूली लाई के तिनड़े बो लें. कदूवा लौकी की बेल तो ऊपर ही चढ़ेगी.ऐसा भी हो गया कि बेहिसाब पानी की लाइनें पड़ जाने के बाद घाट की लिफ्ट वाली एशिया की महान योजना हर घर तक पानी पहुंचने में हांफ गई. नौले धारे सूखते दिखे. सोचा तो लोगों ने ये भी कि बिर्थी फॉल से मोटे पाइप डाल पानी ला देंगे. अभी बिजली की टिम टिम चलती रहे और टेलीफ़ोन के तार कब कहाँ किसी दूसरे निर्माण से घायल हो जाएं पर पिथौरागढ़ तो बनेगा ही मिनी स्विट्ज़रलैंड. युवा नेता प्रकाश पंत की पक्की योजना है कि मैला से पानी की योजना पर काम होगा यह बिना ग्रेविटी की स्कीम होगी. ट्रांसफर पोस्टिंग हो या शासन में अटके काम सब पर उनकी पकड़ है. उनसे मिल लोगों को भरोसा होता है कि वह काम जरूर कराएँगे. अब जो बुलावे पर नवान का भात खाने भी पहुँच जाये और जिसका मेडिकल स्टोर मरीज की दवा के लिए रात अधरात भी खुल जाये उस पर तो भरोसा होगा ही ना. फिर ओझा परिवार हुआ, शर्मा परिवार हुआ सब दबंग राजनेता हुए. कॉलेज में भी कई पुराने खगाड़ नेताओं के बाद नब्बू मनराल, मनोज ओझा और फिर निर्मल पंडित बड़ी पकड़ बना गए हैं. शराब नहीं रोजगार दो का नारा लगने लगा है. बस नैनीताल की तरह उत्तराखंड आंदोलन वाली शाम की फेरियां अभी शुरू नहीं हो पाईं. हुड़किए तो यहां भी कम नहीं. अभी तो मजमा है जो सड़क कटिंग से भावी विकास का रास्ता दिखाने का जागर लगा रहा है पर देबता औतरियें तो –

विकास के लिए सड़क बनती हैं, और गहरी अंतरसंरचना के लिए चौड़ीकरण होता है. दूर दराज नौकरी वाले इस परिकल्पना से आनंदित हैं कि घंटे भर में कनालीछिना और दो घंटे में डीडीहाट पहुँच जायेंगे. इस हिसाब से चार घंटे में धारचूला की धरती पर सोमू महेंद्रा पहुंचा देंगे. जीप, पिकअप, सवारी गाड़ी और भार लदे ट्रकों से उतर सभी अब      अडँज-पड़ँज सड़क पर चहलकदमी करने में हैं. सबके भीतर गुस्सा है आक्रोश है कि सही समय पर हाजिरी पंजिका में दस्तखत नहीं होंगे.नौकरी में नहीं पहुंचेंगे. दस तो यहीं बज गए. कई स्कूलों के हेड मास्टर भी दिख रहे हैं जिनके साथ उनके मातहत मास्टर भी टहलते दिख रहे वह निश्चिन्त हैं. परेशान तो वह हैं जिनके मुखिया स्कूल वाले गाँव में ही किसी गोठ में डेरा ले लेते हैं. उनकी मजबूरी हुई कि उमर बढ़ी तो कई रोग हो गए ऐसे कि ज्यादा आवत-जावत, दोलन, भागदौड़ नहीं हो पाती. बीमारी का रोना रो हर साल के चार पांच महिने ट्रांसफर की कार्यवाही में निबट जाते हैं. ऐसे दंद-फंद कि बेसिक-माध्यमिक शिक्षा अधिकारी अपनी टेबल पर पहुँची उनकी ट्रांसफर विनती से पिघल जाये और हरी स्याही से स्वीकृति दे दे. कई तो इस लिखत पडत को बकवास मान सीधे सम्बद्ध मंत्री से गुहार लगाने के समीकरण बनाते हैं. मंत्री जी के वेयक्तिक सहायकों की चौल इन ट्रांसफर के महीनों में मास्टरों की विनती प्रार्थना व भेंटपूजा से बढ़ी दिखती है. कई सीधे हर गाड़ गधेरे स्कूल खोल देने की नीति पर ही सवाल उठाते हैं. अब ये क्या बात हुई कि मोटर सड़क से पांच दस बीस मील की दूरी पर पाठशाला खोल दो. बच्चे भी गिने-चुने सिंगणुए हगभरुए. दिन में भोजन के लालच से सीख रहे अ, आ, क ख घ. भोजन माता का अलग इंतज़ाम करो,न मिले तो खुद बना खिलाओ.

दोनों तरफ गाड़ियों की कतार बढ़ती ही जा रही है. उनके चालक गाड़ी की चाबी जेब में डाल बेफिक्र इधर-उधर डोल रहे हैं. उनके लिए ये रोज का रोना है जिसने रोजी में अटक बटक डाल दी है.

अरे, पहले तो डीडीहाट से दो बार लौटाफेरी और थल, नाचनी, धारचूला से गाड़ी फुल कर एक लौटाफेरी हो जाती थी पर ये सत्यानाशी चौड़ीकरण का काम क्या शुरू हुआ जेब में छेद हो गए. धूल मिट्टी फांक ऊबड़-खाबड़ सड़क पर गेयर का वन टू फोर कर चक्का उलट पुलट चैन की नींद लाने को पाव-अद्धा भी नहीं जुटता मास्साब. अब लोन की किश्त की तो पूछो ही मत. ऐसी भेड़चाल कि जिसे देखो नई टाटा महेन्द्रा लिए आ गया है कम्पटीशन में. कित्ते दिन तो नंबर ही नहीं लगता. बिजली मिलेगी कह रहे अरे वो तो सीधे जाएगी यूपी दिल्ली. यहां तो तारे ही दिखेंगे.

पिथौरागढ़ से सुबह ठीक पांच बजे थल मुवानी तक जा लौटा फेरी करने वाली प्रकाश की डाक गाड़ी ऊपर जाने वाली गाड़ियों में सबसे पहले खड़ी दिखी. इसकी आगे की सीटों के नियमित रिज़र्व यात्री होते और इस गाड़ी को देख लोगबाग समय मिलाते. हमेशा की तरह शांत प्रकाश. इसके जैसे इक्के दुक्के ही होंगे जो खाली बखत में अखबार पढ़ते या कुछ लिखने पढ़ने वाले मास्साबों के साथ चर्चा में व्यस्त दिखते. कोई अमल पानी भी नहीं.
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वाहनों के इस रेवड़ से गुजरते खीझ से भरे, असहज, किसी बात का सिरा पकड़ तमाम कायनात में फैल गई अव्यवस्था की जुगाली करते चेहरे नमूदार होते रहे. इनमें मेरी पहचान वाले कई थे खास कर मेरे चेले जो कभी अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रहे. सड़क का चौड़ा होना क्वीड़ पथाई और सौल-कठोल की बेहतर चौपाल बन गया.

पहाड़ में डायनामाइट लगा के पत्थर उडाने से तो नाश हो जायगा सर जी. अब देखिये न जितना मलवा है वो तो वो नीचे बसे खेत मकान तक जा रहा. अरे अभी परसों तो चट्टान छेदने से जो ढूंग उछल के नीचे गया तो भैंस और कटरे का लोथ निकाल दिया. हरिजन हुए बिचारे कौन सुध ले. कितने पेड़ निंगाल थे सब बर्बाद. सुपे डाले बनाते थे ये लोग, धंधा ही चौपट. अरे ये वन विभाग रंकरा, बड़ी टोक लगा दी हो इसने. अपनी ग्राम सभा में बारी लगा दी ठेरी जंगल से लकड़ी बटोरने को.

अब ऐसे भ्योल में चढ़ घा काटनी हुई सैणीयों को. ये साला सड़क का काम क्या चला तमाम बाटे रास्ते ही बुजी गए. दांत सड़ने में जैसे रुट कैनाल कर झंझना देते हैं न जबड़ा, वैसी ही हुई यहां हालत, अब देखना चौमास में. सड़क ही गायब दिखेगी.

अरे पानी की तरह पैसा बहा रही एन एच पी सी. दुगुन सड़क बन जाये तो फट फटिये से घंटे भर में आ जायेगा कनालीछिना ओगला. तब तक घंटा पकड़ बैठे रहो. संवादों के साथ दिलबाग और पान बहार की जुगल बंदी. इन्हीं टाटा महेंद्रा में लदे अखबार जो कई चिंतकों के हाथ में होते.

कुच्छ नहीं यार ये यू के डी तो घुस गई. क्या किया?

और वो तुम्हारी कांग्रेस?

नेता तो प्रकाश पंत हुआ, तुम चाहे कुछ भी कहो. अब महू तो लोहाघाट से लड़ेंगे.

अरे देखना आने दो बीजेपी को.पंतजी तो मुख्य मंत्री बनेंगे एक दिन.

कई सूरमा जिनकी टांगे दुरुस्त थीं वो लमालम तमाम ऊबड़-खाबड़ पार कर आगे बढ़ते ही चले जा रहे. बकॉल राही तू मत घबराना. कभी तो मिलेगी कहीं तो मिलेगी तेरी मंजिल.

ऊपर के पहाड़ से से फूटते जल की धार से कीचड़ होती सड़क में बचते बचाते गुजरते साफ महसूस हुआ कि अपने तनाव को उगलने में किसी ऐसी घटना की प्रतीक्षा में व्याकुल है हर कोई. अखबार उलटते कुछ लोग हैं जरूर चुप्पे. कई महिला अध्यापिकाऐं स्वेटर बुनने के पुनीत काम से समय का सदुपयोग भी कर रहीं.

वैसे भी शीत काल की शुरुवात हो चुकी थी. सड़क पर कई जगह पाला पड़ा हुआ साफ दिख रहा. डाक गाड़ी वाले प्रकाश ने बताया कि सुबह इस सड़क पर बड़ी सावधानी से जाना पड़ता है. सड़क पर पाले से टायर के रपटने का खतरा और जोखिम बहुत है. कनालीछिना की ओर जाते जहां बहुत पाले से सड़क पर बर्फ की खांकर जम जाती है वहाँ दायीं ओर पहाड़ है तो बाईं ओर ख़तरनाक भ्योल. पैराफिट भी ज्यादातर जगहों में नहीं हैं.

हाँssहो, चौमास के बाद तो गुलदार भी दिख जाने वाले हुए.

सब लुकी गए होंगे इन धमाकों से.

आगे चलते चलते सड़क के उस भाग पर पहुंच गया हूं जहां आज ब्लास्टिंग होनी है . धर्मसत्तू जी ने उस चट्टान की ओर इशारा किया जहां नियत दूरियों पर ड्रिलिंग कर उनमें डायनामाइट की डंडी घुसेड़ दी गई थी और उसकी बत्ती की डोर दूर तक जाती दिख रहीं थी.
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यहां की चट्टान बहुत सख्त है सर जी. घन सब्बल के वार यहां बस चिंगारी ही उड़ाते हैं. इसलिए इनमें छेद कर बारूद से तोड़ते हैं जो पत्थर छिटक गिरते हैं उन्हें किनारे कर एकबट्या लेते हैं. रात को इन्हें डम्पर में लाद कर शहर की ओर रवाना कर देते हैं. लगातार मकान बन रहे हैं पिथौरागढ़ में. उनकी जरुरत हैं ये. बड़े ऊँचे दाम चढ़ा है पत्थर. यहां के अभियंता अधिकारी का डबल फायदा हैं इस रोड़ी पत्थर से . वैसे भी पिथौरागढ़ में ईट सब हल्द्वानी टनकपुर से आती है. वहाँ की कीमत से डेढ़ पौने दो गुना कीमत पर बिकती हैं. उस पर ढुलान देना हुआ प्लाट तक. डोटियाल भी ठेका ले रहे. क्या यार गांव में भी सीमेंट का लिंटर पड़ रहा.

समझ में आने लगा था कि विकास की अंतरसंरचना के निर्माण में सड़क कैसे बनती और चौड़ी होती है. पहाड़ का सीना छेद कर कितने धमाकों के बाद सर्र से गाड़ी ले जाते मुँह से निकलता है वाह देखो पंचचूली की पूरी रेंज और वो कोहरे से ढके पहाड़. अहा.

“वो देखिये सर ये लाल झंडा देख रहे ना, यहां से होना है ब्लास्ट. आज तो बहुत धमाके होंगे बड़ी दूर उस मोड़ के पार दिख रहे दूसरे झंडे तक”.

ये सब जो हैं,वो हैं इसके एक्सपर्ट.

धर्मसत्तू जी ने जिन लोगों की ओर इशारा किया वह काम करते धूल गर्द से भरे भुजंग थे. पता चला कि असल काम जानने वाले ये काले साँवले मजबूत जिस्म तगड़ी काठी के साथ, दरमियाने कद वाले ये वर्कर ये लेबर आंध्र तेलंगाना से आते हैं. ऐसे ही कार्य स्थलों के बीच तिरपाल ढकी झोपडी बना साथ रहते हैं खाना पीना भी साथ साथ. काम होने के बाद थक के चूर सोने से पहले ये मस्त अपने लोक के गीतों के स्वर से इन पहाड़ियों में अपने स्वर गुंजाते बिखराते हैं .बीच- बीच में अपने यहां के मजदूर भी दिख रहे, गैंटी, कुदाल, सब्बल फावड़ा पकड़े. उनसे जहाँ खोद दो कहा, खोद दिया. जहाँ फेंक दो कहा फेंक दिया. बस दिहाड़ी से मतलब.
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और वह देखिये जहाँ है इनका मुखिया. इनका सयाना. बीड़ी मास्टर.

बीड़ी मास्टर? मैं इस नाम पर चौंका.

हां, सर. बीड़ी मास्टर.

धर्मसत्तू जी ने जिस व्यक्ति की ओर उंगली उठाई और उसे बीड़ी मास्टर कह बुलाया वह करीब पचास पचपन की वय का था. सांवले रंग की काया, तिकोना चेहरा, दाढ़ी मूँछ सफाचट., सर पर सफेद टोपी,बदन पर खादी के भूरे रंग के कुरते पर मोटे सफेद ऊन का ढीला ढाला बनियान, उसके ऊपर फ़तुई भी.काये रंग की पायजामा . पैरों में चमड़े की चप्पल. उसके छोटे माथे पर पिठ्या लगा था अक्षत भी साफ दिख रहे थे. कंधे पर झोला लटका था. वह ऊपर की ओर से जहां लाल चेतावनी वाला झंडा लगा था की ओर आ गया जहां पीली कैप पहने ग्रिफ के अधिकारी से लगते दो साब कुछ नापजोख कर रहे थे.

सड़क पर जहाँ जेसीबी खड़ी थी उससे सौ फिट करीब की दूरी पर वह रुक गया.ग्रिफ के अधिकारियों से कुछ बातचीत हो रही थी. अपने कैमरे में मैंने 200 एम एम का लेंस लगा लिया था ताकी दूर की हलचल को भी खींच सकूं. अब काफी लोग टकटकी लगाए इस पहाड़ी को देख रहे थे जिसमें छेद हो चुके थे, बारूद भर गई थी और अब इसे फाड़ा जाना था. मसाले भरी डोरियों का जाल चट्टान में कुछ निश्चित दूरियों पर आपस में जुड़ा हुआ साफ दिखाई दे रहा था. सड़क के दोनों किनारों में जहां ब्लास्ट होना था लाल चीथड़े लटके हुए थे और किनारों पर खड़े दो वर्कर रिंगाल के डंडे पर लाल वस्त्र के झंडे लटकाये खड़े हो गए थे. ये झंडे वैसे ही थे जैसे देबता के थान पर लटकाये जाने वाले निसान.

अचानक तेज सीटी की आवाज सुनाई दी जिसकी प्रतिध्वनि पहाड़ से लौट कर भी सुनाई दे गई. सीटी के साथ ही मजदूरों के हाथ पकड़े बेलचे फावड़े थमे और हो रहा शोर गुल चुप्पी में बदला. पीली टोप पहने ग्रिफ के अधिकारी बीड़ी मास्टर के पास खड़े पहाड़ी की ओर इशारा करे कुछ बातचीत करते रहे. फिर वह भी इधर हमारी ही ओर आ खड़े हो गए.
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साफ दिख रहा था कि बीड़ी मास्टर अपनी फतुई की जेब में हाथ डाल रहा है. अब उसके हाथ में बीड़ी का बंडल है. हथेली के बीच बीड़ी का बंडल रख उसने दूसरी हथेली से उसे एक दो बार सहलाया और कागज फाड़ बंडल के नीचे की ओर से दो बीडियां निकाली. बंडल जेब में डाला और माचिस का पैकेट निकाला. देखते ही देखते माचिस की तीली जली. बायें हाथ में पकड़ी दोनों बीड़ियों के मुख पर लौ लग गई. कुछ ही पल बाद दोनों बीड़ियाँ होंठ पर रख उसने कश लिया. बीड़ी का धुँवा बाहर छोड़ने के साथ ही वह कुछ कदम आगे पहाड़ी की ओर चलते रुका. वहां पड़ी डोर पर उसने दोनों बीड़ियाँ छुवा दीं. अब काफी देर मिनट भर तो वह झुके हुए उसी मुद्रा में खड़ा रहा और फिर धीरे-धीरे हमारी ओर आता रहा. फिर हमसे कुछ दूर पर सड़क के किनारे एक पैराफिट पर बैठ गया अपने जबड़े के नीचे हथेली को टिकाये पहाड़ी की ओर एकटक तकते.

क्या जबरदस्त पोज थी जो मैंने तुरंत खींच ली.

बड़ी देर चार पांच मिनट तक अपूर्व शांति बनी रही. कई लोगों ने अपने कानों पर हाथ भी रख लिए थे. तभी एक तगड़ा विस्फोट हुआ. कम्प महसूस हुआ और पैर तले की जमीन डोलती सी लगी. चट्टान फटी. सफेद धुँवा उभरा ऊपर की ओर जाता. बड़ा सा एक शिलाखंड लुड़का नीचे की ओर अपनी लपेट में छोटे-बड़े पत्थरों को रौँदता सड़क पार कर सीधे भ्योल की तरफ जो हरियाली से भरा दिखता था. कई पेड़ धराशाई हुए होंगे. जहां से वह गिरा वहां उसकी रगड़ से सड़क तक धूसर मटियाली पट्टी अब साफ दिखने लगी. पहले धमाके और पहाड़ के फटने पत्थर लुढ़कने का शोर थमा भी न था कि पहले से कुछ दूरी पर दूसरा धमाका हुआ. पहाड़ियों से लौट इसकी प्रति ध्वनि भी साफ सुनाई दी. फिर धूल का गुबार ऊपर आसमान की ओर जाता हुआ दिखा तो नीचे भरभरा कर नीचे लुढ़कते बोल्डर, किरच-किरच पत्थर. अब तो हर पांच-सात मिनट में सामने की पहाड़ी में विस्फोट होते रहे, पैर तले जमीन डोलती महसूस होती और बदन में उसका कम्प साफ महसूस हुआ. आधे पौन घंटे ये धमाके होते रहे और सड़क पर मिट्टी मलवे के ढेर बढ़ते गए.

“सर, ये स्टोन टूट कर जहाँ नीचे जा रहे उसके पास तो खेत दिख रहे. उससे कुछ दूर ही कुछ झोंपड़ी मकान भी दिख रहे. कितनी फैमिली भी होंगी वहाँ. ऐसे कैसे ब्लास्ट कर सकते हैं ये लोग”? रोहिणी बड़े गुस्से में बोली.

“कर रहे हैं. करते चले जा रहे हैं. कब से हो रहा है ये सब. यहां के धमाकों की आवाज इन्हीं पहाड़ियों में सिमट जाती है. यहां जो हो रहा उससे यहां के बासिंदे, ढोर जानवर, खेती पाती पर जो बीत रही उसका ग्वाल गुसें कोई नहीं है मैडम”. धर्मसत्तू जी आवेश में थे.

“पहाड़ों के निर्माण कार्य में डायनामाइट का प्रयोग वर्जित है. सिर्फ कुछ विशेष परिस्थितियों में इसका उपयोग हो सकता है. पर्यावरण मंत्रालय की गाइड लाइन है. खास निर्देश हैं.

कोई आवाज नहीं उठाता इसके विरोध में”? रोहिणी फिर बोली.

“अरे सरकारी योजना है. केंद्र सरकार की. फण्ड उसने दिया. इंजीनियर उसके. ये जो डायनामाइट सप्लाई हुआ वह भी उसका. तो नक्कार खाने में तूती की आवाज सुनाई देती है भला”.

“हां. विरोध की बातें दिल्ली के अखबार में छपाने वाला एक पत्रकार रहा बहुत जुझारू. उसकी जबरदस्त पिटाई करवा दी गई. उसने हिमालय के नाम का एन जी ओ खोल लिया.अब तो फॉरेन फंडिंग भी मिलती है. एक्शनऐड,फोर्ड फाउंडेशन”.

“बाकी अखबार तो छापते होंगे? खास कर लोकल”.

हां, बलात्कार हो जाये, चोरी हो. नेताओं की तू-तू मैं-मैं हो उससे भरा रहेगा अखबार जो बरेली-दिल्ली से छपता है. रात को चल सुबह जीप से पिथौरागढ़ पहुंचा दिया जाता है. उसमें यहां के इलाके के लिए पिथौरागढ़ की खबर तो नैनीताल वालों के लिए वहां का पन्ना डाल देते है जिनमें आधे से ज्यादा विज्ञापन होते हैं.गढ़वाल की खबर आपको यहां के अखबार में नहीं मिलेगी”. डाकगाडी वाले प्रकाश के हाथ से अखबार ले धर्म सत्तू जी ने रोहिणी के हाथ में थमा दिया

“अब तो होशियार पत्रकार वही है जो ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन ठूंसवा सके.” दीप बोला, “मैं नारायण प्रेस परिसर के घर में ही रहता हूं जहाँ से उत्तराखंड ज्योति अखबार निकलता है. उसे कोई सरकारी, निर्माण एजेंसियों का विज्ञापन नहीं मिलता. अखबार चलाये रखने को बिल बुक, शादी के कार्ड छापने पड़ते हैं. अब टेंडर विज्ञापन भी तो मिलते हैं उन्हीं से जो निर्माण कार्य करवाते हैं”.

प्रोफेसर वीरेंद्र कुमार जी फिर याद आए जिन्होंने वन व पर्यावरण मंत्रालय के कई दस्तावेज दिखाए थे जो सभी पहाड़ में हो रहे ऐसी कई परियोजनाओं से संबंधित थे. गोरी गंगा और धौली गंगा पर जल विद्युत निर्माण से जुड़ी परिस्थितियों में इस इलाके के आर्थिक सामाजिक सर्वेक्षण का पहला दौरा भी हो चुका था. धारचूला से ऊपर छिरकला तक जा भी चुका था जहाँ उनका ऑफिस और गेस्ट हाउस तेजी से बन रहा था. एन एच पी सी की हर मीटिंग में पर्यावरण सुरक्षा की बात मुखरता से दोहराई भी जाती.

दीप की बात से मेरा ध्यान फिर टूटा.

“ये जो पर्यावरण के मुद्दे हैं ना इन पर अब बहस करना ही आपको पर्यावरण विद बनाएगा. इन पर सेमिनार के लिए यू जी सी ग्रांट भी दे देगी. ऐसी रिसर्च के लिए पैसे की कोई कमी नहीं है. अब तो ऐसे अंग्रेजी में लिखे आर्टिकल एडिट कर रिफरेन्स बुक पब्लिश करने का रिवाज भी खूब दिख रहा है. असल बात तो ये है रोहिणी कि पेड़ों से लिपट अपनी दराती से जंगल के ठेकेदारों को हड़काने वाली गौरा देवी और चिपको की बात को पूरे इलाके प्रदेश में फैला देने वाला धूम सिंह राणा दुबारा नहीं मिलेगा?

एक के बाद एक नौ धमाके सुने गए. दोनों तरफ के लाल वस्त्र के झंडो के बीच की एकहरी सड़क अब बोल्डर के साथ बड़े छोटे पत्थरों से अटी दिख रही थी. हमारे पीछे जो जे सी बी खड़ी थी वह स्टार्ट हो गई थी. अभी पत्थरों का गिरना जारी था. रह रह कर पहाड़ी चुप रहती फिर अचानक ही किसी हिस्से से कुछ परतें उधरतीं और सड़क पर, सड़क के नीचे के ढाल की तरफ ढुलक जाती.

अभी आध पौन घंटे तक इंतज़ार रहेगा फिर होगी सड़क साफ. बारह तो यही बज गए. अभी इतना मलवा पत्थर साफ होते होते और उस पर से वाहन गुजरते कितना समय लगेगा कुछ पता नहीं.

हमारे वाले सिरे से अचानक ही एक तेज सीटी की आवाज सुनाई दी. पीले टोप वाले अधिकारियों ने हाथ हिला कर कुछ इशारे किये. पहले से स्टार्ट जेसीबी मंथर गति से आगे की ओर सरकी. उसके बड़े से पंजो ने सड़क के मलवे पत्थरों को समेटा और सड़क के किनारे लगाना शुरू किया. एक हिस्से पर सड़क साफ कर मशीन धीरे धीरे आगे बढ़ी और पहाड़ी की सतह पर पड़े बोल्डर को सरका कर कुछ आगे बढ़ा दिया. तुरंत ही घन सब्बल ले कई मजदूर उन बोल्डरों पर प्रहार करते दिखे. जो टुकड़े हुए उन्हें तीन पहिये वाली लोहे की गाड़ी में लाद उनकी ढेरियां सड़क के किनारे जमाना शुरू हुआ.

बड़े शिलाखंड व पत्थर समेट लिए जा रहे हैं. उन्हें सड़क के किनारे एकबट्या दिया जा रहा है.सड़क को असमान कर रहा मलवा मिट्टी पत्थर का चूरा सब अपने डेने की सहायता से भर मशीन अब सड़क से नीचे के ढलान की ओर उलीच दे रही है. नीचे बहुत नीचे जहाँ अच्छी खासी घास है, पेड़ पौधे हैं, झाड़ियाँ हैं. सबको कुचलते-ढकते धूल मिट्टी का गुबार नीचे की ओर धसक रहा है. अब दूसरी ओर से भी जेसीबी आगे को बढ़ती मिट्टी मलवा हटाती दिख रही है.

पहले नीचे से ऊपर जाने वाली गाड़ियां चलेंगी मास्साब. डाकगाडी के चालक प्रकाश ने बताया.

हमारी टाटा सोमू तो बहुत पीछे है.

“अभी बहुत टाइम लगेगा. दो ढाई तो बजेगा ही”.प्रकाश बोला. आप कितनी दूर जा रहे?

“बस आज तो डीडीहाट तक ही जा पाएंगे”.

मुझे तो सर रोज लौटाफेरी करनी होती है. डाक विभाग का अनुबंध हुआ. अब सड़क के चौड़ी करण का ये काम तो इस रफ़्तार से बड़ा लम्बा चलेगा. तब तक बड़ी फ़जीहत है. गाड़ी भी रोज सर्विसिंग मांग रही”.

“और तुम्हारे दोनों बेटों के क्या हाल हैं”.

इधर तो कभी घर ठीक टाइम पर नहीं जा पा रहा. बस मुँह दिखाई हो जा रही उनकी. मुझे मालूम था कि प्रकाश बड़े कायदे से रहता है. कोई नशा अमल पानी से वास्ता नहीं. उसकी गाड़ी में बैठो तो चुने पचास और साठ के दशक के गाने सुनने को मिलेंगे. समय का पक्का पाबंद. अपने बच्चों की लिखाई पढ़ाई और खेल कूद का पूरा ख्याल रखता है.अन्य बातें समान रहने पर उसकी डाक गाड़ी पांच बजे वापस पिथौरागढ़ लौटते दिखाई देगी. डाक के थैले पोस्ट ऑफिस में छोड़ गाड़ी को ढक सीधे चिमसियानौला अपने घर पहुँचता है और अपने दोनों छोटे बच्चों को पढ़ाता है. इतवार को डाक नहीं जाती इसलिए शाम को अक्सर बच्चों के साथ देब सिंह मैदान में दिख जाता है.
(Rang Valley Article Mrigesh Pande)

“वो फोटो खींच ली बिशन गुरू की, मैं देख रहा था आप बड़ी देर बैठे थे उनके पास”

हां, कुछ अच्छे पोज मिले बीड़ी मास्टर के. वो मुझे देख मुस्कुरा भी रहा था.

“हां!अब मुस्कुरा ही सकते हैं बिशन गुरू. कुछ साल पहले एक धमाका बस दस-पंद्रह फिट की दूरी पर हो पड़ा. जान तो बच गई पर आवाज गई. कान भी. बहुत कम सुनते हैं बिशन गुरू. दोनों कानों में मशीन लगाते हैं वो भी अपने काम के समय नहीं. कोई चिर-परिचित मिल जाये तब. वह तो उनके विभाग के अधिकारी अच्छे रहे जो टेम्पररी से विकलांग कोटे की पक्की नौकरी में फिट कर दिया. अब अपने काम के मामले में पक्के हुए बिशन गुरू.

सड़क के लिए बीड़ी मास्टर. आखिरकार लम्बी प्रतीक्षा के बाद वाहनों के चक्के आगे को सरके. रास्ते के अवरोध जेसीबी ने ओने कोने कर दिए थे पर सतह उबड़ खाबड़ थी. पहाड़ की तरफ से रिसता पानी पीली तांबई मिट्टी से मिल सड़क पर जमा पत्थर के चूरे के साथ कच्यार में बदल चुका था. हम सब अपनी टाटा सूमो में विराजमान हो गए थे और इस उम्मीद में थे कि कब अपने वाहन के पहिये आगे को सरकेंगे. आधे किलोमीटर की दूरी पर ऊपर की ओर बढ़ते वाहन दिखाई देने लगे थे जिनमें आगे कुछ ट्रक व उनके पीछे रोडवेज की बस थी. ये दिल्ली से चलने वाली धारचूला वाली बस होगी जो चार बजे वहाँ से छूट जाती है. कहीं भी पास मिलने की गुंजाइश न थी कम से कम इस  पूरी दूरी पर जहां ब्लास्टिंग हुई फिर उससे आगे पिथौरागढ़ आने वाले वाहन बायीं तरफ कतार में थे.

आधा पौन घंटा तो लगा ही होगा जब हमारा वाहन आगे को सरका.पंद्रह किलो मीटर की दूरी तो पूरे बदन का लोथ निकाल गई. जमन दा सधे चालक थे पर कितना भी जतन करो बदन इधर उधर तो टकराना ही था. करीब डेढ़ घंटे की यातना के बाद अचानक गाड़ी की रफ़्तार बढ़ी और साफ हवा के ऐसे झोंके आऐ कि कनालीछिना से आगे आऐ तीखे मोड़ और उतार चढ़ाव भी सुहाने लगने लगे .

अब आया ओगला. ये चौराहा है जिसमें पिथौरागढ़ से आते बाईं तरफ का रास्ता नारायण नगर होते डीडीहाट पहुँचाता है तो दायीं तरफ की सड़क भागीचौरा. इनके बीच से नीचे कुछ ढलान वाली सड़क असकोट पहुँचती है. असकोट के रास्ते से कुछ पहले जौलजीवी, बलुवा कोट होते धारचूला आता है.

इस चौराहे के इर्द-गिर्द सिमटे हैं अनेकों पहाड़ी ढाबे जहाँ जलते लकड़ी के चूल्हों पर सिकतीं हैं फट्ट से फूलने वाली रोटियां जो उसी तेजी के साथ आपकी टेबल में भी परोस दी जातीं हैं. सुबह के समय तिकोने परतदार परांठे, चने, रायता आलू और खट्टी चटनी की ज्यादा मांग रहती है जिसके बाद थाली में रोटी के साथ कई कई पहाड़ी दाल मिला कर बनी दाल, पतला पहाड़ी पल्यो, आलू सोया बड़ी, मौसम में होने वाली सब्जी, घर के दूध से ही बना दही और साथ में गीला गीला भात. यह सिलसिला धूप ढलने तक रहता है और शाम छः बजे तक ये सब दुकाने बंद हो जातीं हैं. ज्यादातर दुकानों के स्वामी और इनमे काम कर रोजी रोटी चलाने वाले आस पास के गाँवों के ही हैं.हर दर के भीतर बैठने के लिए बेंच पड़ी रहतीं हैं और सामने टेबल. कोई कोई प्लास्टिक की कुछ अदद कुर्सियां भी डाले रखता है. टेबल पर पानी से भरा जग और स्टील के बड़े गिलास. बाहर खाने की आवाज लगा नए ग्राहकों को बुलाता दुकान का छोटा प्रिंस आपके बैठते ही एक गीले चीथड़े को मेज पर फेर देगा. आपका आर्डर लेगा. लपक कर प्लेट में परांठा दाल आलू चना खटाई हो या पूरी थाली. ज्यादा भीड़ खींचने वाली दुकानेँ परांठा पहले से सेक कर रखती हैं जैसे ही आर्डर मिला खट्ट से गरम तवे पर रिफाइंड के धुँवे के साथ वह हाजिर हो जायेगा.परांठे के साथ आलू, लौकी, मूली, चने, टमाटर की दड़बड़ सब्जी भरी कटोरी और धनिया पुदीना और चूक की चटनी. पूरी थाली में पहले आता है फुल्का जो लकड़ी के चूल्हे की आंच में सिकता और वहीं चूल्हे की लकड़ी अगल बगल कर इकट्ठा कोयलों में फुला दिया जाता है.जैसे ही रोटी बनाने का गुंथा आटा खतम हो, बड़ी बोरी से मिल वाला खूब सफेद आटा कब परात में डाला और कब जग से पानी दाल उसे ओल दिया यह मिनट भर का काम होता है. थाली में बड़े कटोरे में मिलती है दड़बड़ दाल जिसमें कई पहाड़ी दालों का मिश्रण मिलेगा. उसमें मुंसियारी की चितकबरी राजमा होगी, धारचूला की लाल राजमा होगी, गहत, मोठ, भट्ट के गूदे, लोबिया, काला चना, पीला मटर जो भी उपलब्ध हो मिला बनाया गलाया जाता. फिर साथ में मेथी, झूंगार, साबुत लाल खुस्याणी के छोँक वाला पल्यो जिसमें थोड़ा खट्टा-मट्ठा पड़ा होता. जो भी सब्जी खेत में उन दिनों हो, उसे बना एक डाढू थाली में परोसी जाती. इनके साथ भाँग वाली खटाई जिसमें काला चूक पड़ता. थोड़ी कटी मूली, प्याज़ और भुनी खुस्याणी के कोसे. रोटी के लिए जब ना कहेँगे तो थाली में आएगा गरम भात थोड़ा गीला-गीला.
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ओगला में पानी बहुत कम है हालांकि ऊपर पहाड़ की तरफ से रबर के पाइप दुकानों के करीब आते दिखते जरूर हैं जो ऊपर के सोतों से पानी इकट्ठा कर टप टप कंटर भरते होंगे. बाकी तो बेयरिंग के पहियों वाली जुगाड़ ठेला गाड़ी में कंटर टिका कई किशोर पूरी मस्ती से आस पास के स्त्रोतों की तरफ घुरकते दिखाई देते हैं. जहाँ चढ़ाई हो वहां इसे रस्सी से खींचना भी हुआ. ऐसे जुटता है पानी.

“आज तो बहुत लेट हो गए हैं सर. पांच बजने को हैं और अब तुरंत अंधेरा हो जायेगा. नारायण नगर में ऊपर स्वामी जी की कुटिया तक जा तो सकते हैं पर वहां के संचालक पांडे जी से गपशप नहीं हो पायेगी. वह स्वामी नारायण के बारे में सब कुछ बताते. स्वामी जी ने यहां के रखरखाव की सारी जिम्मेदारी उन्हीं को सौंपी है. बड़े कर्मठ हैं पांडे जी. आश्रम के पास ही बस इंटर कॉलेज है इसी परिसर में तो नीचे डिग्री कॉलेज भी खुल गया है. आसपास के सभी इंटर किये बच्चों के लिए आगे की पढ़ाई जारी रखने का सहारा. “ओगला की सड़क पर भागीचौरा की ओर जाने वाली सडक पर टहलते धर्मसत्तू जी बोले.

“अभी यहां एडमिशन तो हुए हैं पर बताते हैं बच्चे आते नहीँ बल”. सोबन बोला.

“अब यार. डेरा लो, रोटी पाथो, लुकुड़े धोओ उस पर एक प्रिंसपल, एक बाबू और फोर्थ क्लास रख खुला कॉलेज. साइंस खोल दिया और टीचर दिए नहीं. अब जिसने पढ़ना ही होगा वो पिथौरागढ़ जा के लेगा एडमिसन. बस आसपास के गांव से मुख दिखाई वाले कुछ आ जाते हैं, उनमें भी उनमें भी वजीफे स्कोलरशिप वाले ज्यादा हुए. वो भी आने -जाने के लिए के लिए टैक्सी पकड़ते हैं अपने गांव के अगल-बगल की मोटर सड़क से. सो एक दिन छोड़- दो दिन छोड़ आ गए कॉलेज “. दीप ने ठेठ टोन में समझा दिया.

“ऐसा होता है?

रोहिणी ने आश्चर्य व्यक्त किया.

हां! ऐसा ही होता है. ऐसा असकोट में भी हो रहा जहां जियोलोजिस्ट ने बताया कि वहाँ ताँबे की खान है ये खूब लाल ताम्बई मिट्टी दिख रही न. यहां तक कि सोना भी है बल इसमें. तो महाराज,मैकन्नाज गोल्ड के हीरो उमर शरीफ की तर्ज पर यहां असकोट में भी पहुँच गए हैं सूरमा “मैंने फुरेरी छोड़ी.

“तो मिला क्या? “सोम को संदेह हुआ.

“मिलेगा पहाड़ में सब मिलेगा. यहां असकोट में मिलेगा. रजवार हुए यहां के प्रसिद्ध.पाल राजाओं की राजधानी हुई ये”. दीप बोला.
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डी एस बी कॉलेज नैनीताल में एम ए इकोनॉमिक्स करते मेरा क्लास फेलो हुआ महेन्द्र सिंह पाल. वह यहीं का हुआ. कॉलेज यूनियन का प्रेजिडेंट भी रहा. बड़ा मिलनसार तो अपनी सोच पर दृढ़ भी. फिर वकालत की. अभी इनका भतीजा मेरा स्टूडेंट है. प्रोफेसर वल्दिया हैं जाने माने जियोलोजिस्ट यहीं पिथौरागढ़ के, अभी डी एस बी में प्रोफेसर हैं उन्होंने इस इलाके के भूगर्भ में खूब काम किया है. कई धातुओं की खबर बात बताई है. मेरी छोटी बहिन इन्हीं के अंडर रिसर्च कर रही है. कहाँ कहाँ चट्टान खोद पत्थर बटोरती है. नैनीताल घर में उसके बटोरे पत्थरों का ढेर लग गया है. ईजा खूब नाराज भी होती हैं. उन्हें खोद जीप में लाद बोकने मुझे भी ले गई है कई बार. बताती है आगे बॉर्डर की ओर इगनियस रॉक है,काली खूब कठोर.मैं चुप ही हुआ था कि धर्मसत्तू जी बोले ,”यहां सोने की खोज-बीन खुदाई को एक फर्म आ गई है. उधर उल्कादेवी गेस्ट हाउस से ऊपर मेग्ने साईट की फैक्ट्री देख ही ली होगी आपने. देवलथल तक मेग्ने साईट और खड़िया खुदान जोरों पर है. वो बूँगाछीना वाली सड़क का इलाका दिखाएंगे आपको लौटते हुए. सब हरे-भरे खेत खोद गड्डे ही गड्डे कर दिए हैं खड़िया चोरों ने “

ये खड़िया क्या हुई? सोम ने पूछा.

“सोप स्टोन हुआ. पावडर क्रीम वाला. सब है यहां इस धरती पर. इसकी खुदाई कुछ साल से जोरों पर है. खोद खुरच कर कट्टोँ में भर ट्रक में लाद सीधे हल्द्वानी रवाना हो जाता है. अब क्या बतायें जितने इलाके में खुदान हुआ है वहां की खेती पाती, सब्जी चौपट हो गई है. मधुमक्खी उड़ गईं हैं, मौन पालन चौपट. कोई जापानी फर्म रही कुछ दवा बनाने के लिए उसे किल्मोड़ा चाहिए था…”

“किल्मोड़ा, बार्बरिस हुआ हां”. दीप ने बताया.

“हां तो ठेकेदारों ने सारी झाड़ियाँ जड़ तक साफ कर दीं. हमारे इलाके में बहुत जड़ी बूटी होती हैं पर उनको खोदते निकालते जानकार बड़ी एहतियात बरतते हैं. बड़े सीप से इकट्ठा की जाती हैं पर जब से ये ठेकेदारी शुरू हुई बेमौसम भी खोद ले जाते हैं ये चोर डाकू. ऐसी आँख ही नहीं सालों के पास जो देख सके कि अगली बार उगने लायक जड़ छूटी भी है या नहीं. सालम मिश्री, सालम पंजा, उतीस सब खुद गईं.कैंसर के लिए थुनेर की हवा चली तो उस पर टूट पड़े “धर्मसत्तू जी अब गुस्सा गए थे.

“ये असकोट का अभयारण्य तो अब सरकार ने रिज़र्व घोषित कर दिया है.” दीप ने बताया.
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“हाँ! तो अब गाँव वाले दुखी हैं. उनके हिसाब से उनके रास्ते बंद हो गए हैं साथ ही विकास की सारी गतिविधियां बंद हो गईं हैं. एक तो इस इलाके में चुथरोल हैं, स्याही है,और जानवरों के साथ भालू है सुँवर है. जो भी खेतों में बोओ लगाओ, होने से पहले ये उजाड़ पाड़ देते हैं. जीना दूभर कर दिया है ऊपर से बानरों की फौज हुई, थोड़ा बहुत कुछ घर में फैलाया सुखाया तो उसे भी चौपट कर बिखरा देने वाले हुए.. बड़ा कठिन है मैडम इन पहाड़ों में जीना”.

अब पानी मिलता नहीं, बिजली हर जगह पहुंची नहीं, अस्पताल हुए नहीं ऊपर से इतनी ऊंचाई पर ठंडा मौसम. ऐसा कुड़कुड़ाट लगता है ना कि बस हाड़ कांप जाते हैं.

लो बात करते पता ही नहीं लगा कि हम तो पहुँच गए नारायण नगर, शाम भी हो गई, ठीक टाइम पहुँच जायेंगे मिर्थी. देखना अभी कैसा घुप्प अंधेरा हो जायेगा. सामने डीडीहाट शहर में जलती रोशनी टिमतिमाएगी. पूरा शहर साफ दिखता है यहां से. और आज तो आसमान भी साफ है. घुप्प अँधेरे में पंचचूली की पहाड़ियां चमकती दिखेंगीं. वो दूर तक. छिपला केदार तलक.
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(जारी)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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