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विकराल भूत भी डरते हैं सिसौणे की सब्जी से

सिसौण कहो या कंडाली- ये सब्जी हिम्मत वाली

इस बार के पहाड़ी जायके को पढ़ने से पहले अपने अंदर हिम्मत जुटा लीजिए, क्योंकि यह सब्जी नाम से लेकर काम तक हिम्मत वाली ही है. पहले तो हिंदी में इसका नाम ही रोंगटे खड़े कर देने वाला है- बिच्छू वटी या बिच्छू घास. अब भला कौन ऐसा होगा, जो बिच्छू नाम सुनते ही सिहर न उठे. ऊपर से इसके कई काम भी खौफ पैदा करने वाले ठैरे. वो महान शरारती और घोर जिद्दी बच्चा जो कान खिंचाई, मुर्गा बनाई, थप्पड़, लात, घूंसे, लाठी, सोंटी आदि जैसी तमाम दंडात्मक कार्रवाइयों से भी सुधर न सके उसके लिए सिसौण यानी कंडाली के दो-चार स्पर्श ही काफी हैं. बदन पर सिसौण के चार स्पर्श के बाद ही झनझनाहट का जो ज्वार उत्पन्न होता है, वो त्रिलोक-त्रिकाल के दर्शन करा देता है और शरारती बच्चा मन ही मन बुदबुदाता है-“हे देव, आज ठीक कर दे फिर कभी वो काम नहीं करुंगा.” (Stinging Nettle Uttarakhand Cuisine)

पहाड़ी खून में है पहाड़ी नूण

शरारती बच्चे ही नहीं, उत्तराखंड में इससे पारलौकिक परम हठी भूत-प्रेत समुदाय भी डरता है. पहाड़ों में कदम-कदम पर कल्पित-अकल्पित भूत-मसाण डेरा डाले बैठे रहते हैं. इनके प्रिय ठौर-ठिकाने नदी-नाले, गाड़-गधेरे, श्मशान घाटों के निकट से गुजरने वाले मार्ग, निर्जन वन आदि होते हैं. परकाया प्रवेश कर उससे एग्जिट करने के लिए काला मुर्गा, काला बकरा और फौज की काली रम जैसे तामस खाद्य-पेय पदार्थों की इच्छा रखने वाले इन भूत-मसाणों के आसान टारगेट मासूम बच्चे और लाल वस्त्र विन्यास में मायके से ससुराल को निकली नवविवाहिताएं होती हैं. जैसे ही ये टारगेट इन स्थानों से गुजरे भूत महोदय लपक कर उनके शरीर में प्रविष्ट. उसके बाद इस शरीर में नाना प्रकार की खिलंदड़ी करते रहेंगे और तभी पीछा छोड़ेंगे जब पर्याप्त करबद्ध प्रार्थना, धूप, अगर-तगर, गूगलू की खुशबू और अपने पसंदीदा भोज्य-पेय पदार्थ से तुष्ट हो जाएंगे. लेकिन कुछ ढीठ, दुराग्रही और परम लालची किस्म के भूत-मसाण ऐसे भी होते हैं, जो मुर्गे, बकरे आदि के चढ़ावे तथा दूसरे तमाम उपायों के बावजूद डटे रहते हैं और टलने का नाम ही नहीं लेते हैं. ऐसे भूतों के निदान के लिए अंत में पाशुपत अस्त्र, ब्रहमास्त्र के रूप में प्रयोग में लाई जाती है चमत्कारी सिसौण. कब्जा की गई काया में नाटकीय ढंग से उछलकूद करते और हू-हू-हू-हू की डरावनी आवाज पैदा करते भूत महाशय पर जब इसके दो-चार झन्नाटेदार प्रहार होते हैं तो विकराल से विकराल भूत भी तौबा-तौबा करते हुए सरपट भाग खड़ा होता है और फिर मुड़कर उधर की राह नहीं देखता. (Stinging Nettle Uttarakhand Cuisine)         

यह तो था इस सब्जी का एक पहलू. अब दूसरे पहलू पर आते हैं. जरा अमेजन डॉट इन पर नेटल लीफ सर्च करके देखिए. नेटल लीफ (nettle leaf) मतलब जिस पौधे को हम कुमाऊंनी में सिसौण, नेपाली में सिसनू और गढ़वाली में कंडाली कहते हैं, वही अंग्रेजी में नेटल है. इस सर्च में जो नतीजा सामने आएगा, वो आपको चौंकाने के लिए काफी है. पहाड़ में आपके खेतों के किनारे, गाड़-गधेरों के आसपास उगने वाली सिसौण अमेजन पर अपने अंग्रेजी नाम के साथ नौ हजार रुपये किलो से ज्यादा दाम पर बिक रही है. जरूरतमंद और शौकीन इसे खरीद रहे हैं. मेरी सर्वोत्तम जानकारी में इसके अलावा भारत में इतनी महंगी बिकने वाली कोई और सब्जी या वनस्पति कश्मीर में पैदा होने वाली गुच्छी मशरूम और केसर ही हैं.

अद्वितीय होता है कुमाऊं-गढ़वाल का झोई भात

दुनिया भर में हजारों-लाखों ग्राहक इतनी महंगी नेटल खरीद कर इस पर पैसा यूं ही नहीं लुटा रहे, बल्कि इसकी ठोस वजह भी है. सिसौण या कंडाली मात्र एक वनस्पति ही नहीं, अपितु

कीमती औषधि भी है. इसे किडनी रोग, गठिया रोग,कमर दर्द आदि  के इलाज में बेहद कारगर माना गया है. यह शरीर में लौह तत्वों की पूर्ति का भी अच्छी स्रोत है. यूरोपीय चिकित्सा अनुसंधानों में यह भी निष्कर्ष निकला है कि इसके सेवन से रक्तचाप व रक्तशर्करा नियंत्रण में रहते हैं. यूरोपीय लोग तो इन शोध निष्कर्षों पर अब पहुंचे हैं, उत्तराखंड में तो पुरातन समय से ही इसका प्रयोग दर्द निवारक के रूप में होता रहा है, मोच के दर्द में तो यह रामबाण है. इससे या तो दर्द वाले स्थान पर झाड़ा किया जाता था या फिर इसका लेप बना कर इसे उस स्थान पर लगाया जाता था. इसके अलावा आंतरिक व्याधियों से लड़ने के लिए इसकी पत्तियों से बनाया जाता है एक बेहद स्वादिष्ट व रुचिकर व्यंजन, जिसे कुमाऊनी में सिसौण का कापा कहा जाता है और गढ़वाली में कंडाली की काफली.

सैणी हो या मैंस, सबकी पसंद चैंस

कापा या काफली मैदानी क्षेत्रों में बनाए जाने वाले सरसों, पालक या बथुवा के साग का ही समरूप है. अंतर सिर्फ यह है कि मैदानों में बनने वाले साग में घोंटने की प्रक्रिया अपेक्षाकृत काफी लंबी है, जबकि कापा में कम. दूसरे साग में थिकनेस लाने के लिए मक्की का आटा या बेसन मिलाया जाता है, जबकि कापा बनाने में चावलों का मांड या फिर चावल या गेहूं का आटा इस्तेमाल किया जाता है. वैसे उत्तराखंडी कापा-काफली भी कई चीजों पालक, लाही (राई), अरबी के पत्तों से बनाए जाते हैं, लेकिन सिसौण के कापे का आनंद दूसरों से कुछ बढ़कर ही है. उसका कारण इसकी औषधीय गुणसंपन्नता तो है ही, लेकिन उससे भी बढ़कर है कापा बनाने के लिए पत्तियों को तोड़कर लाने का एडवेंचर. किसी ऐरेगैरे नत्थू खैरे के बस की बात नहीं है इसकी पत्तियों को आसानी से तोड़कर लाना. इसकी कोमल पत्तियों को तोड़कर लाने के लिए चाहिए बिल्कुल सधे हुए हाथ. वरना नजर हटी और दुर्घटना घटी वाली स्थिति है. इसकी एक-एक पत्ती को बड़ी सतर्कता से तोड़ते हुए टोकरी में गिराना होता है. हालांकि इन्हें तोड़ने में दास्तानों और कैंची का इस्तेमाल किया जाए तो दंश लगने की संभावना न्यूनतम हो जाएगी. इसके अलावा इन पत्तियों को टोकरी में धोते वक्त भी पर्याप्त सतर्कता बरतनी होती है. अच्छी तरह धोने के बाद शुरू होती या कापा या काफली बनाने की प्रक्रिया. तो आइए इस बार लें इसका मजा…

आवश्यक सामग्री (चार से पांच लोगों के लिए)

सिसौण/ कंडाली के पत्ते- एक किलो
चावल- 50 ग्राम
सरसों तेल- 50 मिली
लहसुन- पांच-छह कलियां
साबुत लाल मिर्च- 5
जखिया- आधा चम्मच
धनिया पाउडर- एक चम्मच
गरम मसाला- आधा चम्मच
नमक – स्वादानुसार
निर्माण विधि-

पत्तों को किसी बरतन में उबालना प्रारंभ करें. दूसरी तरफ चावलों को किसी कटोरी में भिगाने रख दें. पत्तों के भली-भांति उबल जाने पर पानी को निथार लें. पत्तों को सिल पर पीस लें. यदि सिलबट्टा उपलब्ध नहीं है तो इन्हें बरतन में करछी या मट्ठा मथने वाली मथनी से ही अच्छी तरह घोट लें. इसके बाद भिगाए गए चावलों का भी सिल या मिक्सी में पेस्ट बनाकर रख लें. एक कड़ाही में तेल गर्म कर लें. इसमें लाल मिर्च तल कर बाहर निकाल लें. अब तेल में जखिया और बारीक-बारीक कतरी लहसुन डाल दें. लहसुन के सुनहरा भूनने पर पत्तियों के पेस्ट को इसमें डाल दें. इसमें धनिया पाउडर, गरम मसाला व नमक मिलाएं. चावलों को पीस कर बनाया गया घोल भी इसमें ही डाल दें. अब धीरे-धीरे कर इसमें पानी डालें. ध्यान रहे कि पानी न तो अधिक मात्रा में हो और न ही कम. तेज आंच में एक उबाल लेने के बाद थोड़ी देर बाद धीमी आंच में पकने दें. यदि कापा में हल्का खट्टापन लाना चाहते हैं तो पत्तियों को उबालते समय उसमें अल्मीडा की भी कुछ पत्तियां मिला लें. अगर वे न मिलें तो टमाटर की प्यूरी बनाकर उसे मिलाएं. धीमी आंच में थोड़ी देर पकने के बाद आपका कापा/ काफली तैयार है. इसे थाली में निकालिए. ऊपर से एक-दो चम्मच देसी घी डालिए. एक किनारे पर तल कर रखी गई लाल मिर्च भी रखिए. अब इसे भात के या मंडुवे की रोटी के साथ खाइए.

खाते समय अपने सौभाग्य पर इतराइए कि आप उत्तराखंड की पवित्र भूमि पर बैठकर दुनिया के सबसे प्राकृतिक और शुद्ध भोजन को कर रहे हैं, जो देश-दुनिया के बाकी लोगों को आसानी से प्राप्य नहीं है.     

चलते-चलते

रानीखेत के संजीव बिष्ट और अल्मोड़ा की एनजीओ संचालिका अमृता करिअप्पा जैसे लोग अपने प्रयासों से इस बहुमूल्य वनस्पति को देश के बाजारों तक पहुंचा रहे हैं. उनकी इन कोशिशों से कई लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी सृजित हो रहे हैं.

बड़े-बड़े गुण वाला बड़ी का साग

मेरी तो उत्तराखंड सरकार को सलाह है कि वह भांग की तरह सिसौण की खेती को भी प्रोत्साहित करे, इसके लिए नीति बनाए, विपणन का तंत्र विकसित करे. इससे सरकार का मनोरथ भी सिद्ध होगा और उन लोगों के बहाने भी भोथरे हो जाएंगे, जो नीचे उतरने के लिए कहा करते हैं- “पहाड़ में रहकर करना भी क्या है महाराज ?  रोजगार का कोई साधन ठैरा नहीं. खेतीबाड़ी सब गूंड़ी, बांदर, सुअरों ने चपट कर दी.“ अब महाराज भांग और कंडाली दो ऐसी फसलें हैं, जिन्हें न गूंड़ी, बांदर चपट करते हैं और न ही सुअर इन पर मुंह मारता है. सिंचाई का साधन न हो, खाद का इंतजाम भी न हो तो भी ये कुदरत की बरसाई दो-चार बूंदों से खुद ब खुद उग आती हैं. इसे ही कहते हैं-हर्रा लगे न फिटकरी, रंग चोखा आ जाए.    

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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय  से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी  संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.

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